Book Title: Prachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 60
________________ अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व (ख) संयुक्त व्यजनों के समीकरण के बदले में स्वरभक्ति स्वरभक्ति द्वारा अमुक अमुक संयुक्त व्यंजनों को अलग (सामान्य) करने की जो प्रवृत्ति है वह समीकरण से पूर्ववर्ती मानी जाती है। पिशल के अनुसार (132,133) अर्धमागधी भाषा में समीकरण के स्थान पर स्वरभक्ति अधिक मात्रा में पायी जाती है । कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं.–आचारांग' में प्रयुक्त शब्द : अग्नि = अगणि (सूत्र,34,37,39,211,212) उष्ण = उसिण (सूत्र,101) तूष्णीक = तुसिणिअ (सूत्र, 288) पण्यशाला = पणियसाला (सूत्र, 278) वैयावृत्य = वेयावडिय (सूत्र,199,207,219,227) । पिशल द्वारा दिये गये अन्य उदाहदण :- कसिण (कृत्स्न), पसिण (प्रश्न), निगिण (नग्न), दीहर (दीर्घ ), इत्यादि । इनमें नित्य = णितिय, आर्य = अरिय, पर्याय = परियाय आदि और भी जोड़े जा सकते हैं । इसिभा. से कारियौं (कार्यम् ) 11.3, अगणिकाए 10, पृ. 23.3 इत्यादि । (ग) आत्मन् के लिए अत्ता के प्रयोग 'आत्मन्' शब्द के लिए 'अत्ता', 'आता', 'आया' और 'अप्पा' ये चार रूप मिलते हैं । इनमें से पालि और अशोक के शिलालेखों में सिर्फ 'अत्ता' शब्द मिलता है । अतः यह रूप सबसे प्राचीन है । अशोक के पच्छिमी शिलालेखों में 'अत्ता' के लिए 'अत्पा' शब्द मिलता है जो परवर्तीकाल में अप्पा में बदल गया और यही अधिक प्रचलन में रहा । 'अत्ता' से ही 'आता' और उससे 'आया' 3. म. ज. वि. स स्करण 4. अत- (आत्म-), अतन, अतना (आत्मना), अतने (आत्मनः), अतान (आत्मानम् ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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