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1. जैन आगम-ग्रंथों के विविध संस्करणों में
अर्धमागधी की स्थिति अर्धमागधी के जैन आगम-ग्रंथों के विविध संस्करणों में भाषाकीय एक-रूपता ( विशेषतः 'ध्वनि-परिवर्तन-सम्बन्धी ) नहीं मिल रही है । समय के प्रवाह के साथ पाठों में भाषाकीय परिवर्तन होते गये हैं और साथ ही साथ प्राचीनतादर्शी पाठ भी किसी न किसी अंश में बचे हुए मिलते हैं । किसी ग्रंथ में या किसी संस्करण में प्राचीन तो किसी में परवर्ती, एक ही संस्करण में कहीं पर प्राचीन तो कहीं पर परवर्ती भाषाकीय प्रयोग मिलते हैं । इन मुद्दों को ही यहाँ पर सोदाहरण स्पष्ट किया गया हैं और यह आशा भी व्यक्त की गयी है कि उपलब्ध प्राचीन (सामग्री) प्रयोगों के आधार से पुन: सम्पादन करके जैन आगमों की प्राचीनता की सुरक्षा में हम कहाँ तक सफल हो सकते हैं ।
(क) अर्धमागधी आगम-ग्रंथों के पाठ बदल जाना
भाषाकीय दृष्टि से अर्धमागधी आगमों के पाठ बदल जाने के बारे में आगमों के गंभीर अध्येता आगम-दिवाकर पू. मुनि श्री पुण्यविजयजीने अपने कल्पसूत्र के संस्करण में जो बातें कही हैं वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । इस विषय में उनका जो अभिप्राय है उसका सार नीचे दिया जा रहा है :
(१) सभी प्रतियों में भाषा की दृष्टि से अधिक वैषम्य है । (२) चूर्णिकार और टीकाकारों ने जो पाठ या आदर्श अपनाये - होंगे वे आदर्श प्रतियाँ हमारे सामने नहीं हैं।
१. कल्पसूत्र, पू. श्री पुण्यविजयजी, साराभाई मणिलाल नवाब, पृ. ३ से ७
(मूल गुजराती), १९५२.
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