________________
प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/ के. आर चन्द्र
के संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजन अधिकतर यथावत् स्थिति में पाये जाते हैं । शुब्रिंग महोदय ने शब्द के अन्दर के तकार और विभक्ति, प्रत्यय, कृदन्त इत्यादि के ता, ति, तु, तुं, तो इत्यादि का सर्वथा लोप कर दिया है जबकि उन्हीं के द्वारा उपयोग में ली गयी प्रतों में से प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रत में (ए संज्ञक ) वर्तमानकाल के प्रत्यय -ति की उपलब्धि 50 प्रतिशत है, सर्वत्र - ति के स्थान पर -इ नहीं मिलता है' । पू. जंबूविजयजी के संस्करण में मध्यवर्ती त का लोप अल्पमात्रा में मिलता है । शुजिंग महोदय के संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप 50 प्रतिशत से अधिक मात्रा में मिलता है जबकि जंबूविजयजी के संस्करण में 25% ही मिलता है 12
शुक्रिंग महोदय के संस्करण में प्रारंभिक नकार, अव्यय न, मध्यवर्ती और प्रारंभिक न्य, मध्यवर्ती न्न, प्रारंभिक और मध्यवर्ती ज्ञ के स्थान पर न और न ही मिलता है जबकि पू. जंबूविजयजी के संस्करण में ण और पण मिलता है । प्राकृत भाषा के क्रमशः विकास की दृष्टि से पू. जंबूविजयजी ने परवर्ती काल की लाक्षणिकता के प्रयोग अपनाये हैं जबकि शुबिंग महोदय ने यहाँ पर प्राचीन पद्धति अपनायी है । 3
१. उन्हीं के द्वारा सम्पादित 'इसिभासियाई' में मध्यवर्ती त की यथावत्
स्थिति (अलग अलग अध्ययनों में ५० से १०० प्रतिशत मिलती है ।
२.
शुविंग महोदय द्वारा संपादित 'इसिभासियाई' में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप कभी १०, कभी २५, कभी ३५ और औसतन लगभग २५ प्रतिशत ही मिलता है ।
३. देखिए मेरा लेख :
प्राचीन प्राकृत भाषा में आय नकार या णकार; प्राकत विद्या, उदयपुर, जुलाई-सितम्बर, १९८९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org