Book Title: Paumchariyam Part 03
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan

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Page 40
________________ [ ५३. हणुवलङ्कानिगगमणपव्वं ॥ एत्तो मगहाहिवई !, हणुओ लङ्कापुरिं समणुपत्तो । पविसइ बिभीसणहरं, दारत्थं चेव एगागी ॥१॥ दिट्ठो बिभीसणेणं, हणुओ संभासिओ निविट्ठो य । काऊण समुल्लावं, भणइ तओ कारणं निययं ॥२॥ मह वयणेण बिभीसण, लङ्कापरमेसरं भणसु एवं । जह परमहिलासङ्गो, पविरुद्धो उभयलोगम्मि ॥३॥ मज्जायाण नरिन्दो, मूलं सरियाण पव्वओ हवइ । तम्मि अणायारत्थे, अहियं तु पवत्तए लोगो ॥४॥ ससि-सङ्घ-कुन्दधवलो, तुज्झ जसो भमइ तिहुयणे सयले ।मा होउ कज्जलनिभो', एत्तो परनारिसङ्गेणं ॥५॥ सुय-दार-सयणसहिओ, भुञ्जसु रज्जं सुरिन्दसमविभवो । एव भणिऊण दहमुह !, सीया रामस्स अप्पेहि ॥६॥ सुणिऊण वयणमेयं, बिभीसणो भणइ सो मए पढमं । वुत्तो नेच्छइ तत्तो, पभूइ न य देइ उल्लावं ॥७॥ तह वि य वयणेण तुमं, लङ्कापरमेसरं भणसि गन्तुं । सो माणगव्वियमई, मारुइ ! गाहं न छड्डेइ ॥८॥ सुणिऊण वयणमेयं, पउमुज्जाणं गओ पवणपुत्तो । नाणाविहतरुछन्नं, अइरम्मं नन्दणं चेव ॥९॥ तत्थ पविट्ठो पेच्छइ, सीयं निद्भूमजलणसंकासं । वामकरदरियवयणं, विमुक्ककेसी पगलियंसू ॥१०॥ गन्तूण निहुयचलणो, हणुओ तं अङ्गलीययं सिग्धं । सीयाए मुयइ अङ्के, संभमहियओ कयपणामो ॥११॥ ।। ५३. हनुमल्लकानिर्गमनपर्वम् ।। इतो मगधाधिपते ! हनुमान् लकापुरि समनुप्राप्तः । प्रविशति बिभीषणगृहं द्वारस्थमेवेकाकी ॥१॥ दृष्टो बिभीषणेन हनुमान्सम्भाषितो निर्विष्टश्च । कृत्वा समुल्लापं भणति ततः कारणं निजम् ॥२॥ मम वचनेन बिभीषण ! लड्कापरमेश्वरं भणैवम् । यथा परमहिलासङ्गः प्रविरुद्ध उभयलोके ॥३॥ मर्यादानां नरेन्द्रो मूलं सरितां पर्वतो भवति । तस्मिन्ननाचारार्थेऽधिकं तु प्रवर्तते लोकः ॥४॥ शशि-शख-कुन्दधवलस्तव यशो भ्रमति त्रिभुवने सकले । मा भवत् कज्जलनिभ इतः परनारीसङगेन ॥५॥ सुत-दार-स्वजन सहितो भुङ्ग्घि राज्यं सुरेन्द्रसमविभवः । एवं भणित्वा दशमुख ! सीतां रामायार्पय ॥६॥ श्रुत्वा वचनमेतद्बिभीषणो भणति स मया प्रथमम् । उक्तो नेच्छति ततः प्रभूति न च ददात्युल्लापम् ॥७॥ तथापि च वचनेन त्वं लड्कापरमेश्वरं भण गत्वा । स मानगर्वितमतिर्मारुते ! ग्राहं न त्मुञ्चति ॥८॥ श्रुत्वा वचनमेतत्पद्मोद्यानं गतः पवनपुत्रः । नानाविधतरुच्छन्नमतिरम्यं नन्दनमिव ॥९॥ तत्र प्रविष्टः पश्यति सीतां निघूमज्वलनसंकाशाम् । वामकरधृतवदनां विमुक्तकेशी प्रगलिताश्रुम् ॥१०॥ गत्वा निधूतचरणो हनुमांस्तदङ्गुलियकं शीघ्रम् । सीताया मुञ्चत्यके संभ्रमहृदयः कृतप्रणामः ॥११॥ १. निभो, दहमुहो ! रामस्स-प्रत्य० । २. सीयं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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