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लाराधना
आधासः
परंतु दो आयु कर्म एक साथ रह सकते हैं.
तिर्यंचायु और मनुष्यायुके साथ सर्व आयुष्यकी सत्ता रहती है. अर्थात तिथंच जीवको देवायु, नरकायु, मनुष्यायु, नियंचायु ऐसे आयुमेंसे कोई भी आयुका बंध हो सकता है इस लिये सर्व आयुकी सत्ता रहती है ऐसा आचार्य कहते हैं. इसी तरह मनुष्यायुके साथ भी सव आयुकी सत्ता रहती है. देव आयु और नारकायुके साथ तिथंचायु और मनुष्यायु की ही सत्ता रह सकती है. अतएव देव नारकी नहीं होता और नारकी मरकर देव नहीं होता. देव मरकर तिर्यच अथवा मनुष्य ही होगा. नारकी भी मरकर तिर्यच अथवा मनुष्यगतीमें ही उत्पन्न होगा.
शंका-दो आयुष्यों की एक समयमें रूसा रहती है १६ हम मानत है परंतु एकदम दो आयुओंका | उदय होता है क्या?
उत्तर---जिस आयुकी प्रकृति और स्थिति अनुभवमें आ रही है उसके उपर इतर आयुके निषेक | रहते है, अर्थात पूर्वायूकी प्रकृति और. स्थिती पूर्ण अनुभवमें आकर समाप्त होनेपर नंतर दुसरे आयुका उदय होता है. अतः एकदम दो आयुष्योंका उदय होता नहीं. आपके प्रश्नका उत्तर अन्य प्रकारसे भी दे सकते हैं
एक जीवको युगपत् दो भव अथवा दो गतिओंका संभव नहीं है. भव और गति की अपेक्षासे आएका उदय होता रहता है. इनकी अपेक्षाका उल्लंघन कर आयुका कभी उदय होता नहीं ऐसा नियम है. एक आत्मामें एक ही आयु कर्म की प्रकृती का उदय एक भवमें आता है. इसलिये एक एक आयु की प्रकृति गलित होनेसे आरमा मरणावस्थाको प्राप्त होता है. इसको प्रकृतिमरण कहते हैं.
भवको धारण करने में कारण ऐसे पुद्गलोंमें स्निग्धता रहती है अतः ये पुदल आत्माके प्रदेशोंमें संबद्ध होकर रहते हैं. उसको स्थिति कहते हैं. आत्मामें कपाय परिणाम है. वह पुनलॉमें स्निग्धता लानेमें सहकारि कारण है. स्निग्धताका उपादान कारण तो वे पुद्गल ही है परंतु कपाय न हो तो पुद्गलकी स्निग्धता व्यक्त होती नहीं अतः उसकी व्यक्तीमें कपाय महकारी कारण माने गये हैं. यह पुद्गल द्रव्यकी स्थिति एक समयसे लेकर बढती है. देशोन तेतीस सागरोंके जितने समय होते हैं उतने भेदवाली जो स्थिति हैं उसको उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं, अंतमहत परिमाणवाली स्थिति जघन्य स्थिति है, इन स्थितिओंकी तरंगोंके समान अमरचना है, इनका