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मूलाराधना
आधासः
निधन स्थिति है अर्थात उपर्युक्त धर्म द्रव्यों में अनादिकालसे विद्यमान हैं और इनका कभी भी नाश होता नहीं. अतः इनकी अनाद्यनिधन स्थिति विद्वानोंने मानी है, जीवमें भव्यत्वगुण, अनादिकालसे है परंतु मुक्तीके समयमें उसका नाश होता है अतः वह अनादि और सनिधन है.
कोप, हर्षादिविकार सादि और सनिधन हैं, अर्थात् वे बार बार उत्पन्न होते हैं और नष्ट भी होते हैं. केवलज्ञानादिक गुण सादि हैं परंतु वे कभी नष्ट नहीं होते, अतएव चे सादि और अनिधन हैं.
अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर अद्धायुके चार भेद होते हैं, अद्धायुके आश्रयसे भवधारणरूप आयुका निरूपण होता है. आयुसंज्ञक जो कर्म है थे. पुद्गलद्रव्यस्वरूप ही हैं. अतः आइस्थिति द्रव्यस्थितिसे मिल नहीं है.
अथण जीव जिसका अनुभव ले रहा है ऐसे आपसंबक पुद्गल आत्मासे नष्ट होना वही मरण है. अतः आयु:स्थितीसे द्रव्यस्थिती अत्यत भिम नहीं है. आयुकर्म भी पुद्धल द्रव्य है अतः आयुकी स्थितीको अद्धा काल-द्रव्यस्थिति ऐसा भी कह सकते हैं. आयुकर्म नष्ट होना यह मरण है ऐसा उपर कह चुके हैं. इस मरणके तीर्थकरोंने जिनवचनमें सतरह प्रकार कहे है.
शंका--तीर्थकरोंने मरणके १७ प्रकार कहे हैं इतना कहनेसे भी अभिप्राय ध्यानमें आता है 'जिनवचनमें ' ऐसे अधिक शब्दकी क्या आवश्यकता थी?
उत्तर-आपकी शंका टीक है. जिन शब्दका यहां गणधर ऐसा अर्थ समझना चाहिये. गाथामें च शब्द नहीं है तो भी उसके बिना भी समुच्चयार्थ माना जाता है. यहां ऐसा संबंध करना चाहिये, तीर्थकरीने मरणके सतरह प्रकार कहे हैं. और गणधरोंके वचनम अर्थात् उनके राचित सूत्रोंमें भी मरणके सतरह प्रकार कहे है. अतः दोनोंके वचन प्रमाण अर्थात शंकाके स्थान नहीं है । सतरह मरणों के नाम इस प्रकार हैं--१ आचीचिमरण २ तद्भवमरण ३ अवधिमरण ४ आदि अंतियमरण ५ बालमरण ६ पंडितमरण ७ ओसण्यामरण ८ बालपडित मरण १ मशल्यमरण १० बलाकामरण ११ बोसट्टमरण १२ विप्पाणसमरण १३ गिद्धपुट्ठमरण १४ भक्तप्रत्याख्यान मरण १७ केबलिमरण ।
आगमक अनसार इनका सक्षपस.पहा बर्णन करते ह. . .. .. . ... . ... .
SHAHIslated