Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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और पूर्वप्ररूपित बतलाकर स्थानपदका कितने अर्थों में निक्षेप होता है इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए उसका नामस्थान, स्थापनास्थान, द्रव्यस्थान, क्षेत्रस्थान, अद्धास्थान, पलिवीचिस्थान, उच्चस्थान, संयमस्थान प्रयोगस्थान और भावस्थान इन दस प्रकारके स्थानोंमें निक्षेप किया है। इन सब स्थानोंका स्वरूपनिर्देश मूलसे जान लेना चाहिए।
__ आगे इन स्थानोंमें नययोजना करते हुए बतलाया है कि नैगमनय इन सब स्थानोंको स्वीकार करता है । संग्रहनय और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानको स्वीकार नहीं करते। शेष सबको स्वीकार करते हैं । पलिवीचिस्थानके दो अर्थ है-स्थितिबन्धवीचारस्थान और सोपानस्थान। सो इनका क्रमसे अद्धास्थान और क्षेत्रस्थानमें अन्तर्भाव हो जानेसे इसे ये दोनों नय पृथक् स्वीकार नहीं करते। इसी प्रकार उच्चस्थानका भी क्षेत्रस्थानमें अन्तर्भाव हो जाता है । अतः उसे भी ये दोनों नय पृथक स्वीकार नहीं करते। ऋजुसूत्र नय उक्त दो, स्थापनास्थान और अद्धास्थानको स्वीकार नहीं करते । कारण कि इस नयका विषय वर्तमान समयमात्र है, और वर्तमान समयकी विवक्षामें स्थापनास्थान और अद्धास्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि समय, आवलि आदि कालभेदके बिना उनका निर्देश नहीं किया जा सकता । पलिवीचिस्थान और उच्चस्थान को भी इसी कारण यह नय स्वीकार नहीं करता।
शब्दनय नामस्थान, संयमस्थान, क्षेत्रस्थान और भावस्थानको स्वीकार करता है। अन्य बाह्य अर्थकी अपेक्षा किये विना नाम संज्ञामात्र शब्दनयका विषय होनेसे यह नय इसे स्वीकार करता है, संयमस्थान भावस्वरूप होनेसे इसे भी यह नय स्वीकार करता है। क्षेत्रस्थान वर्तमान अवगाहना स्वरूप है और भावस्थान वर्तमान पर्यायकी संज्ञा है अतः यह नय इन्हें भी स्वीकार करता है। शेष स्थानोंको यह नय स्वीकार नहीं करता।
इनमेंसे इस अर्थाधिकारमें नोआगम भावनिक्षेपस्वरूप चतुःस्थानकी अपेक्षा क्रोधादि कषायोंके सोलह उत्तर भेदोंकी प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकार स्थान पदके आलम्बनसे निक्षेप व्यवस्थाका निर्देश करनेके वाद सोलह सूत्रगाथाओंके आशयको चुणिसूत्राद्वारा स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि प्रारम्भकी चार सूत्रगाथाएँ उक्त सोलह स्थानोंके उदाहरणपूर्वक अर्थसाधनमें आई हैं। यथा--चारों ही क्रोधसम्बन्धी स्थानोंका कालकी मुख्यतासे उदाहरण देकर अर्थसाधन किया गया है, क्योंकि कोई क्रोध आशय (संस्कार) रूपसे चिरकाल तक अवस्थित रहता है और कोई क्रोध संस्काररूपसे अचिरकाल तक अवस्थित रहता है। अचिरकाल तक अवस्थित रहनेवाले क्रोधमें भी कोई तारतम्यको लिए हुए कुछ अधिक समय तक अवस्थित रहता है और कोई क्रोध अति स्वल्प समय तक ही अवस्थित रहता है। इस प्रकार कालकी अपेक्षा क्रोधकषायके अवान्तर भेदोंको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ पत्थरकी रेखाके समान क्रोध आदि चार उदाहरण दिये गये हैं। शेष मानादि कषायोंके जो स्थान लताके समान आदिको अपेक्षा बारह प्रकारके बतलाये है वे किस मान, माया और लोभकष कैसा भाव है इस लातको स्पष्ट करनेके लिये दिये गये हैं। जैसे मानकषायका भाव स्तब्धतारूप है । अतः प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे इसी भावको स्पष्ट करनेके लिये पत्थरके स्तम्भके समान आदि चार उद.हरण दिये गये हैं । मायाका भाव वक्रता है। अतः प्रकर्ष और अप्रकर्षरूपसे उसमें तारतम्य दिखलानेके लिये वांसकी गठीली टेढ़ी-मेढ़ी जड़के समान आदि चार उदाहरण देकर मायाके अवान्तर भेदोंको स्पष्ट किया गया है । तथा लोभका भाव असन्तोपजनित संक्लेशपना है। अतः प्रकर्ष और अप्रकर्परूपसे उसमें तारतम्य दिखलाने के लिये कृमिरागके रंगके समान आदि चार उदाहरणोंद्वारा उसे स्पष्ट किया गया है।
आगे उदाहरणों द्वारा क्रोधकपायके जिन चार भेदोंको स्पष्ट किया है उनमेंसे कौन क्रोधभाव संस्काररूपसे कितने काल तक रहता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जो क्रोध अन्तर्मुहुर्तकाल तक रहता है वह जलरेखाके समान क्रोध है। जो क्रोध शल्यरूपसे अर्धमास तक अनुभवमें आता है वह वालुकी रेखाके समान क्रोध है । यहाँ तथा आगे क्रोधभावका जो अन्तर्मुहर्तसे अधिक काल कहा है वह उस जातिके संस्कारको ध्यान