Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २३ ]
अत्थाहियारभेदसूचयगाहाणिदेसो बद्धा कम्मंसा बंधावलियं वोलाविय णोकसायसरूवेण संकामिजंति तदा सो कम्मबंधो उच्चइ, कम्मसरुवापरिचाएणेव कम्मतरसरूवेण बज्झमाणत्तादो ।
* एत्थ सुत्तगाहा ।
$ २. एत्थ एदेसु' बंध-संकमसण्णिदेसु अणियोगद्दारेसु बंधगे ति बीजपदम्मि णिलीणेसु सुत्तगाहा संगहियासेसपयदत्थसारा गुणहराइरियमुहविणिग्गया अत्थि तमिदाणिं वत्तइस्सामो त्ति वुत्तं होइ । तं जहा(५) कदि पयडीओ बंधदि हिदि-अणुभागे जहण्णमुक्कस्सं ।
संकामेइ कदि वा गुणहीणं वा गुणविसिडें ॥२३॥ ३. एदिस्से गाहाए पुच्छामेचेण सूचिदासेसपयदत्थपरूवणाए अत्थविहासा
बंधे हुए कर्म बन्धावलिके बाद जब नोकषायरूपसे परिणमन करते हैं तब वह कर्मबन्ध कहलाता है, क्योंकि कर्मरूपताका त्याग किये बिना ही ये कर्मान्तररूपसे पुनः बंधते हैं।
विशेषार्थ'पेज्जदोसविहत्ती' इत्यादि प्रथम मूल गाथामें 'बंधगे चेय' यह पद आया है । यहाँ पर इसी पदका व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकारने बन्ध और संक्रम इन दो अधिकारों के द्वारा उसके व्याख्यान करनेका निर्देश किया है। जो कार्मण वर्गणाएँ आत्मासे सम्बद्ध नहीं हैं उनका बन्धके कारणों के मिलने पर आत्मासे बन्धको प्राप्त होना ही बन्ध है और बन्धको प्राप्त हुए कर्मोंका यथायोग्य सामग्रीके मिलने पर अन्य सजातीय प्रकृति रूपसे बदल जाना संक्रम है। इस बन्धक नामक अधिकारमें इन दोनों विषयोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यद्यपि यहाँ यह शंका उठाई गई है कि बन्धक अधिकारमें बन्धका वर्णन करना तो क्रम प्राप्त है पर इसमें संक्रमका वर्णन नहीं किया जा सकता, क्यों कि संक्रम बन्धका भेद नहीं है । इसका जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि बन्धके ही दो भेद हैंअकर्मबन्ध और कर्मबन्ध । इनमेंसे अकर्मबन्धका दूसरा नाम बन्ध है और कर्मबन्धका दूसरा नाम संक्रम है। इस प्रकार विचार करने पर बन्ध और संक्रम इन दोनोंका बन्धक अधिकारमें समावेश हो जाता है, अतः एक बन्धक अधिकारद्वारा बन्ध और संक्रम इन दोनोंका वर्णन करना अनुचित नहीं है।
* इस विषय में सूत्र गाथा । ___२. यहाँ पर अर्थात् 'बन्धक' इस बीज पदमें अन्तर्भूत हुए बन्ध और संक्रम इन दो अनुयोगद्वारोंके विषयमें जिसमें प्रकृत अर्थका सब सार संगृहीत है और गुणधर आचार्यके मुखसे निकली है ऐसी एक गाथा है । यथा
(५) यह जीव कितनी प्रकृतियोंको व कितनी स्थिति, अनुभाग और जघन्य उत्कृष्ट रूप प्रदेशोंको बांधता है। तथा कितनी प्रकृति, स्थिति व अनुभागका और कितने गुणे हीन व कितने गुणे अधिक प्रदेशोंका संक्रमण करता है ॥ २३ ॥
5 ३. इस गाथामें केवल पृच्छा द्वारा जो पूरे प्रकृत अर्थकी प्ररूपणा सूचित की गई है उसका १. ता. प्रतौ पदेसु इति पाठः ।
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