Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ॐ बंधगे त्ति एदस्स वे अणियोगद्दाराणि । तं जहा-बंधो च संकमो च।
$ १. एदस्स सुत्तस्स अत्थविवरणं कस्सामो। तं जहा—बंधगे त्ति एदस्स पदस्स पढममूलगाहापडिबद्धस्स अत्थपरूवणे कीरमाणे तत्थ इमाणि वे अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि । काणि ताणि त्ति सिस्साहिप्पायमासंकिय बंधो च संकमो चेति तेसिं णामणिद्देसो कओ। तत्थ जम्मि अणियोगद्दारे कम्मइयवग्गणाए पोग्गलक्खंधाणं कम्मपरिणामपाओग्गभावेणावहिदाणं जीवपदेसेहिं सह मिच्छत्तादिपच्चयवसेण संबंधो पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसभेयभिण्णो परूविजइ तमणुयोगद्दारं बंधो त्ति भण्णदे। तहा बंधेण लद्धप्पसरूवस्स कम्मस्स मिच्छत्तादिभेयभिण्णस्स समयाविरोहेण सहावंतरसंकंतिलक्षणो संकमो पयडिसंकमादिभेयभिण्णो जत्थ सवित्थरमणुमग्गिजदे तमणियोगदारं संकमो त्ति भण्णदे। एवमेदाणि दोण्णि अणियोगद्दाराणि बंधगमहाहियारे होति त्ति सुत्तत्थसंगहो। कथमेत्थ संकमस्स बंधगववएसो त्ति णासंकणिज्जं, तस्स वि बंधंतब्भावित्तादो। तं जहा-दुविहो बंधो अकम्मबंधो कम्मबंधो चेदि । तत्थाकम्मबंधो णाम कम्मइयवग्गणादो अकम्मसरूवेणावद्विदपदेसाणं गहणं। कम्मबंधो णाम कम्मसरूवेणावट्ठिदपोग्गलाणमण्णपयडिसरूवेण परिणमणं। तं जहा—सादत्ताए बद्धकम्ममंतरंगपञ्चयविसेसवसेणासादत्ताए जदा परिणामिजइ, जदा वा कसायसरूवेण
* 'बन्धक' इस अर्थाधिकारके दो अनुयोगद्वार हैं । यथा-बन्ध और संक्रम ।
६१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा-प्रथम मूल गाथामें 'बन्धक' यह पद आया है। उसके अर्थका व्याख्यान करने पर वहाँ ये दो अनुयोगद्वार जानने चाहिये। वे कौन हैं यह शिष्यका प्रश्न है । इसपर सूत्र में बन्ध और संक्रम इस प्रकार उनका नाम निर्देश किया है। उनमेंसे जिस अनुयोगद्वारमें कार्मणवर्गणाके कर्मरूप परिणमन करनेकी योग्यताको प्राप्त हुए पुद्गल स्कन्धोंका जीव प्रदेशोंके साथ मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका सम्बन्ध कहा जाता है उस अनुयोगद्वारको 'बन्ध' कहते हैं। तथा बन्धसे जिन्होंने कर्मभावको प्राप्त किया है और जो मिथ्यात्व आदि अनेक भेदरूप हैं ऐसे कर्मोंका यथाविधि स्वभावान्तर संक्रमणरूप संक्रमका प्रकृति संक्रम आदि भेदोंको लिए हुए जिसमें विस्तार के साथ विचार किया जाता है उस अनुयोगद्वारको संक्रम कहते हैं। इस प्रकार बन्धक नामके महाधिकारमें ये दो ही अनुयोगद्वार होते हैं यह इस सूत्रका समुदायार्थ है ।
शंका-यहाँ पर संक्रमको बन्धक संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि संक्रमका भी बन्धमें अन्तर्भाव हो जाता है। यथा-अकर्मबन्ध और कर्मबन्ध ऐसे बन्धके दो भेद हैं। उनमें से जो कार्मण वर्गणाओं में से अकर्म रूपसे स्थित परमाणुओंका ग्रहण होता है वह अकर्मबन्ध है और कर्मरूपसे स्थित पुद्गलोंका अन्य प्रकृति रूपसे परिणमना कर्मबन्ध है। उदाहरणार्थ-सातारूपसे बन्धको प्राप्त हुए जो कर्म अन्तरंग कारणके मिलने पर जब असातारूपसे परिणमन करते हैं, या कषायरूपसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org