Book Title: Kasaypahudam Part 05 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya Digambar SanghPage 20
________________ तक उस द्वारा नये नये कर्मोका ग्रहण होता है। हमारे सामने यह प्रश्न बहुत दिनसे था कि योग क्रिया द्वारा कर्मका ग्रहण हो यह तो ठीक है पर उसका ज्ञानावरणादि रूपसे विभाजन होकर क्यों ग्रहण होता है, क्योंकि यह कर्म ज्ञानका प्रावरण करे और यह दर्शनका आवरण करे यह विभाग योग क्रियासे सम्भव नहीं हो सकता है। यदि इसे भी कषायका कार्य माना जाय तो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग है इस अागम वचनमें बाधा आती है। किन्तु हमारे इस प्रश्नका समाधान धवला वर्गणाखण्डसे हो जाता है। वहां वर्गणाओंका विशेषरूपसे ऊहापोह किया गया है । इस सम्बन्धमें वहां लिखा है कि प्रत्येक कर्मकी वर्गणाऐं ही अलग अलग हैं। प्रारम्भमें जो भी इस बातको सुनेगा उसे आश्चर्य अवश्य होगा पर समीचीन बात यही प्रतीत होती है । कारण कि जिसप्रकार हम अलग अलग पुद्गल स्कन्धोंमें अलग अलग प्रकारके कार्य करनेकी क्षमता देखते हैं। कोई पुद्गल स्कन्ध मारक होता है, कोई पुद्गल स्कन्ध मादकता उत्पन्न करता है और कोई पुद्गलस्कन्ध संजीवनीका कार्य करता है। यह उस पुद्गलस्कन्धके अमुक प्रकारके स्पर्श रस प्रादि युक्त हो कर बन्धनविशेषका ही कार्य होता है। इसी प्रकार कर्मवर्गणाऐं भी अपने अपने बन्धन विशेषके कारण ऐसी बनती हैं जिनमें से कोई बन्ध होने पर प्रावरणका कार्य करने में सहायक होती हैं, कोई मोहनका कार्य करनेमें सहायक होती हैं और कोई सुख-दुखका वेदन कराने में सहायक होती हैं । जीवके कषाय आदि परिणामोंका यह कार्य नहीं कि कौन वर्गणाएँ उससे सम्बद्ध हो कर किस प्रकारका कार्य करें। वर्गणाएँ नियत हैं और वे सम्बद्ध हो कर नियत कार्य ही करती हैं। यहां नियत कार्यसे तात्पर्य कार्य सामान्यसे है। यही कारण है कि बद्ध कर्ममें ज्ञानावरणका दर्शनावरण आदि रूपसे और दर्शनावरणका ज्ञानावरण अादिरूपसे संक्रमण नहीं हो सकता । आत्माके रागादि परिणामोंका कार्य इससे आगेका है। आत्माके रागादि परिणाम क्या कार्य करते हैं इसके लिए यह दृष्टान्त उपयुक्त होगा। मान लीजिए किसीको प्रातिसवाजीके निर्माण करनेका ज्ञान है, अतः वह उसकी सामग्रीको प्रास कर किसीसे फुलझड़ी बनाता है और किसीसे अन्य खेलकी सामग्री तैयार करता है। विस्फोट करनेके स्वभाव वाली एक प्रकारकी इस सामग्रीसे वह अपने परिणामोंके अनुसार उसका तदनुरूप विविध प्रकारके कार्य रूपसे निर्माण करता है उसी प्रकार जब जीव योगक्रिया द्वारा कोको ग्रहण करता है तब उनका परिणाम विशेषके कारण स्पर्शके तारतम्य और विशिष्ट प्रकारके आकार को लिए हुए उसी प्रकारका बन्धन होता है जिससे उस बन्धनके अलग होते समय अपनी विस्फोट क्रिया (उदय) द्वारा वह प्रात्मामें उन संस्कारोंको उबुद्ध करता है जिन कार्योंके करनेसे उसके कर्ममें वैसे संस्कार पड़े थे। उदाहरणार्थ एक श्रादमीने किसी दूसरे आदमी की हत्या की, इसलिए हत्या करनेवालेके उस समय मोहनीय कर्मके उपयुक्त वर्गणाओंका ऐसा बन्धनविशेष होगा जो यदि तदनुरूप बना रहा । अर्थात् अपनी जातिके भीतर अन्य कार्यरूपसे नहीं बदला तो अपने वियोगके समय उन संस्कारोंको उबुद्ध करता है जिससे वह भी दूसरेके द्वारा हननक्रियाका पात्र होता है। प्रश्न यह है कि उसने हननक्रिया विवक्षित समयमें की थी किन्तु उस क्रियासे सम्पन्न संस्कारवाले कर्मों का विस्कोट (उदय) किसी एक समयमें तो होता नहीं किन्तु दीर्घ कालतक होता रहता है, इसलिए उसके वे हननक्रियाके योग्य संस्कार कब उबुद्ध होंगे । समाधान यह है कि जब तदनुरूप निमित्त मिलेगा तब उन संस्कारोंके योग्य कर्मका विशेष रूपसे (उदय) विस्फोट होगा । उदीरणाका रहस्य भी यही है। विवक्षित विषयको स्पष्ट करनेके लिए हमने एक दृष्टान्तमात्र दिया है। कर्मप्रक्रियाको देखकर इसको संगति विठला लेनी चाहिए। इस प्रकार इतने विवेचनसे हमें कर्मों की अलग अलग फलदान शक्तिका और एक ही कर्मकी न्यूनाधिक फलदान शक्तिका ज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि योगसे उस उस प्रकृतिवाले कर्मों का ही ग्रहण होता है। ज्ञानको जो वर्गणाएँ प्रावृत्त करती हैं वे अजग हैं और दर्शनको आवरण करनेवाली वर्गणाएं अलग हैं। योगद्वारा वे श्रात्माके साथ बन्धनके लिए सन्मुख कर दी जाती हैं। इसी प्रकार अन्य कर्मों के विषयमें भी समझ लेना चाहिए। योगद्वारा मूलमें ऐसे स्वभाववाली वर्गणाओंका ग्रहण होता है पर उनका ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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