Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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( १७ ) विभक्ति है। यहाँ इस अनुयोगद्वारका समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन तेरह अधिकारोंके द्वारा प्रतिपादन किया गया है। इन सब अधिकारोंकी जानकारीके लिए तो मूल ग्रन्थके स्वाध्यायकी आवश्यकता है। मात्र यहाँ इतना निर्देश कर देना उचित प्रतीत होता है कि मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन ही पद होते हैं, प्रवक्तव्यपद नहीं होता, क्योंकि जिसने मोहनीय कर्मका नाश कर लिया है उसके पुनः उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भी मोहनीय सामान्यके समान तीन ही पद होते हैं । कारण पूर्वोक्त ही है। सम्यक्त्व. और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर. अवस्थित और प्रवक्तव्य ये तीन पद होते हैं। इनके
रम्भके दो पद होते हैं यह तो स्पष्ट ही है। तथा इनकी एक तो प्रथमबार सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय सत्ता होती है। दूसरे उद्वेलना होकर पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय सत्ता प्राप्त होती है इसलिए इनका अवक्तव्यपद भी बन जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगारपद न होनेका कारण यह है कि सत्तासे इनका उत्कृष्ट अनुभाग ही प्राप्त होता है, इसलिए उसमें वृद्धि सम्भव नहीं है । अनन्तानुबन्धीके चार पद होते हैं । प्रवक्तव्यपद होनेका कारण यह है कि इसकी विसंयोजना होकर पुनः संयोजना हो सकती है।
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पदनिक्षेप पदनिक्षेपमें भुजगारविभक्तिके अवान्तर भेदोंका विशेष रूपसे विचार किया जाता है। यथा-जो भुजगारविभक्ति होती है वह उत्कृष्ट वृद्धिरूप होती है या जघन्य वृद्धिरूप होती है। जो अल्पतरविभक्ति होती है वह उत्कृष्ट हानिरूप होती है या जघन्य हानिरूप होती है । तथा इन उत्कृष्ट वृद्धि प्रादिके बाद जो अवस्थान होता है वह भी उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे दो प्रकारका होता है। यदि उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानिके बाद अवस्थान होता है तो वह उस्कृष्ट अवस्थान कहलाता है और जघन्य वृद्धि और जघन्य हानिके बाद अवस्थान होता है तो वह जघन्य अवस्थान कहलाता है। इसके तीन अनुयोगद्वार हैं-समुस्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनाको अपेक्षा मोहनीय सामान्यकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और अवस्थानपद होते हैं। तथा जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और श्रवस्थान ये तीन पद भी होते है। इसी प्रकार मोहनीयकी अवान्तर प्रकृतियोंमें भी जान लेना चाहिए । मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें भुजगारविभक्ति सम्भव न होनेसे यहाँ इनकी उत्कृष्ट वृद्धि और जघन्य वृद्धिका निर्देश नहीं किया है। अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि, जघन्य हानि और इनके अवस्थान ये पद ही होते हैं । यद्यपि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद भी होता है पर इसका निर्देश भुजगार विभक्तिमें कर आये हैं। यहाँ इस पदकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं पाती है, पदनिक्षेपमें इसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। स्वामित्व और अल्पबहुत्वका विचार मूल ग्रन्थको
ना चाहिए। यहाँ काल आदि अन्य अनयोगदारोंका पाश्रय लेकर विचार नहीं किया गया है। मालूम पड़ता है कि पदनिशेषके कथनकी तीन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर ही प्रवृत्ति रही है, अतः काल आदिका श्राश्रय लेकर प्ररूपणा नहीं की गई है।
वृदि
पदनिक्षेपमें जो उत्कृष्ट वृद्धि प्रादिका और उत्कृष्ट हानि आदिका निर्देश किया है वे कितने प्रकारको होती हैं इत्यादिका श्राश्रय लेकर यह अनुयोगद्वार प्रवृत्त होता है, इसलिए इस अनुयोगद्वारमें छह वृद्धि, बह हानि और अवस्थानका विचार किया जाता है । अनुभाग जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंको लिए हुए होता है, इसलिए इसमें सभी वृद्धियाँ और सभी हानियाँ सम्भव हैं। तथा उनके
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