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* अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार ॐ ९ *
(स्वयं) ने अपने प्रमाद से दुःख का अर्जन किया है। भगवान महावीर के कथन का आशय यह है कि जीवों को जो दुःख उत्पन्न होते हैं, वे किन्हीं देवी-देवों, भगवान, अवतार या ईश्वर द्वारा नहीं दिये जाते हैं, जीव स्वयं मिथ्यात्व, अज्ञान एवं कषाय के वश होकर प्रमादग्रस्त बनकर पापकर्म का बन्ध करता है और उसके फलस्वरूप दुःख पाता है। यहाँ पापकर्मबन्ध ही दुःख का पर्याय बन गया है। साधुओं ने अपनी जिज्ञासा आगे बढ़ाई-“से णं भते ! दुक्खं कहं वेइज्जति ?"-भंते ! उस दुःख का वेदन-क्षय कैसे होता है ? प्रश्न का आशय यह है कि उक्त पापकर्मबन्धजनित दुःख से छुटकारा पाने के लिए क्या करना चाहिए? भगवान महावीर ने कहा“अप्पमाएणं।' अर्थात् अप्रमाद से-आत्म-जागृति से दुःख का क्षय सम्भव है। यदि तुम दुःख का क्षय करना चाहते हो तो अप्रमत्त यानी जाग्रत रहो। अप्रमत्त रहने से दो लाभ हैं-संचित दुःख का क्षय और भविष्य में अर्जित हो सकने वाले दुःख से छुटकारा। आशय यह है-वर्तमान का अप्रमाद (जागरूकता) ही भूतकालीन और भविष्यकालीन दोनों प्रकार के दुःखों से छुटकारा दिलाने में सक्षम है।' सबकी जिज्ञासा शान्त हो गई। महावीर ने कहा-“चतुर वही है जो कभी प्रमाद नहीं करता।"२
.. प्रमाद कर्म है और अप्रमाद धर्म : क्यों और कैसे ? एक बार भगवान महावीर ने कहा था-"प्रमाद कर्म और अप्रमाद अकर्मयानी कर्मबन्धरहित धर्म।''३ भगवान महावीर ने प्रमाद और अप्रमाद में रत दो व्यक्तियों द्वारा इस तथ्य को स्पष्ट किया है-“जो रात्रि बीत चुकी है, वह वापस लौटकर नहीं आती, अतः जो व्यक्ति अधर्म करता है, उसकी रात्रियाँ निष्फल जाती हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति धर्म करता है, उसकी रात्रियाँ सफल हो जाती हैं।" इसका आशय यही है कि जो काल बीत गया, वह कभी नहीं लौटता, किन्तु जो व्यक्ति उन क्षणों में धर्माचरण न करके अधर्माचरण करता है, उसका उतना समय व्यर्थ चला गया, उसने उत्तम क्षणों को खो दिया। परन्तु जिसने उन क्षणों में धर्माचरण किया, उसने उन क्षणों को सार्थक कर लिया। कई लोग धर्माचरण करने में सक्षम हैं, शरीर स्वस्थ है, आयु भी जवानी या प्रौढ़ है, फिर भी
१. देखें स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. २ में भगवान महावीर और श्रमणों का यह संवाद २. जे छेये से विप्पमायं न कुज्जा।
__ -सूत्रकृतांग १/१४/१ ३. पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहाऽवरं।
-वही, श्रु. १, अ. ७, उ. १ ४. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ।
अहमं कुणमाणस्स अफला जति राईओ॥२४॥ जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ। धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति राईओ॥२५॥ -उत्तराध्ययन, अ. १४, गा. २४-२५
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