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* ८ ® कर्मविज्ञान भाग ७ ® मेरी जिंदगी तो चारों ओर बड़े-बड़े अनेक खतरों से घिरी हुई है। मौत की तलवार तो सबके सिर पर लटक रही है, पर भान कहाँ है, उन्हें ? शुद्ध आत्मा की या परमात्मा की सतत स्मृति उसी को रहती है, जो मृत्यु की तलवार अपने सिर पर हर समय लटकती देखे। ऐसी ही स्थिति में शुद्ध आत्मा या परमात्मा से एक क्षण भी विमुखता नहीं रह सकती। हजारों प्रमत्त जनों के बीच में रहता हुआ भी वह अप्रमत्त रहता है। उसके चैतन्य की धारा अविच्छिन्न रूप से उसी (शुद्ध आत्मा.या परमात्मा) की ओर प्रवाहित होती है। जैसे पनिहारिनें मस्तक पर जल से भरे हुए दो-दो घड़े रखकर चलती हैं, रास्ते में अपनी सखी-सहेलियों से बातें भी करती हैं, परन्तु उनका ध्यान सतत पानी से भरे घड़े पर रहता है। इसीलिए भगवान महावीर ने साधकों से कहा था-"प्रमादरत लोगों के बीच रहते हुए भी सर्वथा जाग्रत रहकर अप्रमत्तभाव से जीए। प्रमाद का क्षणभर भी विश्वास न करे।" उन्होंने कहा कि "जितने भी कर्मबन्ध होते हैं, उनके मूल में प्रमाद रहता है।"२ राग-द्वेषादि विकारों से सावधान रहा जाए तो मन, शरीर और इन्द्रियों के साथ रहते हुए भी व्यक्ति उनसे निर्लिप्त, राग-द्वेषादि से मुक्त या अत्यन्त मन्द रह सकता है, बशर्ते कि वह सतत जागृति एवं आत्म-स्मृति रखे, अप्रमत्त रहे। जीव अपने ही प्रमाद से दुःख पाता है __ एक बार श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित किया। सभी श्रमण उत्सुकतापूर्वक भगवान के निकट बैठ गए। सबकी उत्सुकता देखकर भगवान ने एक प्रश्न प्रस्तुत किया-"किं भया पाणा समणाउसो ?" -आयुष्मान् श्रमणो ! जीव किससे भय पाते हैं? प्रश्न नया और गंभीर नहीं था, किन्तु यह प्रश्न किस सन्दर्भ में पूछा गया है? यह सोचकर सभी मौन हो गए। गौतमादि श्रमणों ने भगवान से सविनय निवेदन किया-“देवानुप्रिय ! हम इस अर्थ (बात) को नहीं जानते-देखते हैं, यदि आपश्री को इस अर्थ का स्पष्टीकरण करने में खेद न हो तो हम आपसे ही इस अर्थ को जानना चाहेंगे।" भगवान ने उनकी. प्रबल जिज्ञासा देखकर कहा-“आर्यो ! ध्यान से सुनो। मैंने जिस सत्यतथ्य को समझा है, अनुभव किया है, मैं तुम्हें बता रहा हूँ-“दुक्खभया पाणा समणाउसो !''-आयुष्मान् श्रमणो ! जीव दुःख से भय खाते हैं ? साधुओं ने जिज्ञासावश फिर पूछा-“से णं भंते ! दुक्खे केण कडे ?" भंते ! वह दुःख किसके द्वारा किया गया है? भगवान ने समाधान किया-"जीवेणं कडे पमाएणं।"-जीव
१. भक्तिसूत्र' (आचार्य रजनीश) से भाव ग्रहण, पृ. २३८ २. (क) उत्तराध्ययन, अ. ४, गा.७
(ख) पमायमूलो बंधो भवति।
-निशीथचूर्णि ६६८९
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