Book Title: Kaise kare Vyaktitva Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 18
________________ अवरुद्ध और कमजोर होगी। नतीजतन शिशु में कई तरह की असमानताएँ / असामान्यताएँ विकसित हो उठेंगी। शिशु के समुचित विकास के लिए माता का प्रसन्नचित्त रहना अनिवार्य पहलू है । माता का जीवन और उसके सारे अंग- उपांग बड़े सन्तुलित होने चाहिए। मानसिक सन्तुलन पर तो विशेष तौर पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि गर्भस्थ शिशु के समस्त अंगों में सबसे पहले सिर का निर्माण होता है और उसके बाद आँख, कान, नाक तथा मुँह आदि का । हृदय की रचना भी सिर की रचना के बाद ही होती है। इसलिए माता के मन और मस्तिष्क का शिशु के सिर पर अनिवार्यत: प्रभाव पड़ेगा । प्रत्येक माता को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे वैसा ही आचारविचार करना चाहिए जिससे गर्भस्थ शिशु के शारीरिक विकास और ज्ञानेन्द्रिय-विकास पर अच्छा प्रभाव पड़े । यद्यपि बच्चे को किसी प्रकार पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, गन्ध की भी अनुभूति नहीं होती, पर उसमें संवेदना तो होती ही है। संवेदनशीलता सबसे पहले सिर से प्रारम्भ होती है और फिर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाती है। जीवन क्षमता तो तब आती है जब शिशु सात चन्द्रमास का हो जाए। पर वह मूल जीवाणु तो शुरू से ही रहता है जो शरीर - निर्माण की विभाजन - प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अनेक भागों और उपविभागों में विभाजित होता है। यह एक पूर्व मान्यता रही है कि गर्भस्थ शिशु में जीवन - क्षमता आते ही उसे अपने पूर्वजन्म की बातें याद हो आती हैं। पर इस बात में अधिक वैज्ञानिकता नहीं है। भला गर्भस्थ शिशु को वे सब बातें याद भी कैसे आएँगी जबकि उसकी स्मृति की चेतना अभी तक अविकसित है। विकास तो धीरे-धीरे होता है। जन्म के बाद बालक का जैसे - जैसे विकास होता है, उसके मस्तिष्क और स्मृति की क्षमता भी मजबूत होती चली जाती है। हाँ, गर्भस्थ शिशु को पूर्व जन्म - विशेष की किसी तरह की धुँधली-सी झलक याद रह सकती है। उसकी स्मृति निष्क्रिय किंचित् भी नहीं होती, पर पूर्णतया सक्रिय होने में समय तो लगता ही है। बालक : जन्म, विकास और समायोजन Jain Education International - For Personal & Private Use Only ११ www.jainelibrary.org

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