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भाषा के चलते ही मनुष्य के सामाजिक विकास की संभावना को सबलता मिलती है। भला एक गूंगे या बहरे बच्चे का क्या सामाजिक रूप होगा! यदि होगाभी तो बड़ा ही कुण्ठित, संकीर्ण और संकुचित। सामाजिक सम्बन्धों का सम्पादन तो भाषा के समुचित विकास एवं उसके सम्यक व्यवहार से ही सम्भव है। वे लोग दूसरों का दिल जीत लेते हैं जो शान्ति, सौम्य, सन्तुलित और मधुर भाषा का उपयोग करते हैं। वाणी में मधुरता
और चेहरे की प्रसन्नता ही दूसरों को प्रभावित करने का राजमार्ग है। ___ विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने वाले सारे प्रतीक और अर्थबोधक रूपभाषा के अंग हैं जिनका उपयोगसामाजिक सौजन्य और सम्पर्क प्राप्त करने के लिए किया जाता है। हमारे चेहरे के भाव, इंगित, संकेत, अभिनय या लिखना-बोलना आदि सब भाषा के ही अंग हैं जो दूसरों की सहधर्मिता निभाते हैं। ____ भाषा के मुख्यतया दो कार्य हैं। प्रथम तो है चिन्तन और दूसरा है अभिव्यक्ति। चिन्तन आत्मक्रिया-केन्द्रित होता है, जबकि अभिव्यक्ति का सम्बन्ध सदैव दूसरों के साथ होता है। भाषा के कारण हम एक दूसरों को समझते हैं, अपने विचार व्यक्त करते हैं। जो लोग दूसरों से अपना सम्पर्क और सम्बन्ध कम-से-कम बनाए रखना चाहते हैं, वे लोग मौन स्वीकार करते हैं।
भाषापरक दृष्टि से हमारी हर प्रतिक्रिया सामाजिक होती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चे में विद्यालय जाने से पूर्व जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं, उनका अनुपात ९६ प्रतिशत सामाजिक होता है। भाषा का मुख्य उद्देश्य सूचना पाना, अपने भावों को व्यक्त करना और औरों को प्रेरणा देना है। सामाजीकरण की प्रक्रिया में सहकारिता निभाना भी भाषा का मुख्य ध्येय है। एक बालक का जीवन तो मानो पूरी तरह से पराश्रित ही होता है। वह अपनी आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति बोलकर ही कर पाता है। भाषा बोलकर या सुनकर बच्चे में जहाँ सामाजिक संस्कार संचारित होते हैं, वहीं बच्चों को सिखाएँ बेतहर भाषा
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भाषा
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