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ड्योढ़ी पर इतनी तीव्रगति से होता है कि सात-आठवर्षका बालक तुलना और समानता को समझने लगता है। वह कई बातों का कारण बता देता है। बारह वर्ष का होने पर तो उसकी बौद्धिक क्षमता और चिन्तनशक्ति इतनी समर्थ हो जाती है कि वह मौके-बे-मौके सही सलाह तक दे सकता है।
चिन्तन-मण्डल एवं मानसिक-व्यवहार की सशक्तता का प्रायोगिक साक्षात्कार तो जीवन की किशोरावस्था में होता है। वह चिन्तन, विचार, निर्णय, तर्क, विश्वास- हर दृष्टि से सक्षम होता है। जहाँ एक किशोर के मन में प्रतिष्ठित हुआ आत्म-विश्वास उसके जीवन के चहुंमुखी विकास का निमित्त बनता है, वहीं हीन-भावना से संत्रस्त बच्चा अपने आत्मविश्वास के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर बैठता है। किशोरावस्था वास्तव में जीवन का शैशवकाल है। यही वह काल है जब किशोरों के जीवनविकास, संस्कार और उनके आत्म-सम्मान पर पूरा ध्यान दिया जाए, क्योंकि एक किशोर के लिए आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वाससे बढ़कर अन्य कोई महत्त्वपूर्ण पहलू नहीं है।
मनुष्य अपने मानसिक-विकास का मार्ग किशोरावस्था तक बहुत कुछ पार कर लेता है। चिन्तन का विकास तो युवा होने के बाद ही होता है, परन्तु बुद्धि का विकास तभी तक होता है जब तक शरीर का विकास चालू रहता है। परिपक्वता आ जाने पर बुद्धि का विकास रुक जाता है। उसके बाद तो चिन्तन और ज्ञान का विकास प्रारम्भ होता है। तालीम की आखिरी सरहदों तक पहुँचने के लिए जहाँ मानसिक योग्यता चाहिए, वहीं उसकी कसौटी और प्रखरता के लिए सोच और चिन्तन आवश्यक है। चिन्तन की रचनात्मक सफलता ही जीवन की सफलता है।
मनुष्य के मानसिक और बौद्धिक विकास की शुरुआत तो शैशव जीवन में प्रारम्भ हो जाती है और इसकी गति प्राथमिक विद्यालयीय जीवन तक ही तीव्र रहती है, परन्तु बाल्यावस्था में विकास की गति में एकरसता हो आती है यानि तब विकास की दर एक-सी रहती है। पर हाँ, शैशव की
- - बच्चों का मानसिक विकास
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