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के लिए खुद-ब-खुद वे क्रियाएँ करने लगता है। स्तन चूसना, मल-मूत्र त्यागना, क्रन्दन करना, पलकें झपकाना, सोना आदि क्रियाएँ बच्चे को कोई सिखाता नहीं है, यह उसकी मूल शारीरिक प्रवृत्ति है। नये वातावरण के साथ समायोजन करने की प्रवृत्ति भी बालक की स्वाभाविक क्रिया है।
बच्चा जन्म से ही कई प्रकार की क्रियाएँ सीखकर आता है जिसकी पृष्ठभूमि में वास्तव में उसकी जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही होती हैं। खेलने के लिए बच्चे की उत्सुकता इतनी स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह होश आते ही खेलना शुरू कर देता है। खिलौने ही उसके साथी बन जाते हैं। वह अपने खेल में इतना तन्मय हो जाता है कि माता-पिता के रोकने पर भी नहीं रुकता, भूख-प्यास तक की भी परवाह नहीं करता। बच्चा अबोध है, पर खेलना उसकी मूल प्रवृत्ति है।.
भूख लगने पर बच्चा माँ से दूध या भोजन के लिए बार-बार कहना शुरू कर देता है। अगर उसकी कोई वस्तु छीन ली जाए तो वह लड़नेझगड़ने और दहाड़े मारने लग जाएगा। यानी अपनी चीज पर किसी का अधिकार या हस्तक्षेप करने पर विरोध प्रदर्शित करना बच्चे का नैसर्गिक गुण है। बच्चे की इस प्रवृत्ति को अगर सही दिशा मिले तो उसकी यही प्रवृत्ति उसके लिए आत्म-रक्षा, अचौर्य और ईमानदारी की ओर उसे अभिमुख कर सकती है।
भागना या पलायन करना भी बच्चे की मूल प्रवृत्ति है। जैसे ही किसी वस्तु, स्थान या वातावरण से बच्चे को खतरा महसूस होता है, वह वहाँ से तत्काल भाग जाता है। वहीं अगर उसे निर्भयता की प्रेरणा मिले तो बच्चे की दूसरी प्रवृत्ति उसे पलायन करने की बजाय जिज्ञासा की ओर सम्प्रेरित करेगी। किसी नई वस्तु को देखकर वह जिज्ञासा करने लग जाता है ताकि उसे उस वस्तु का ज्ञान हो।
सामाजिकता के प्रति बच्चे की नैसर्गिक प्रवृत्ति देखकर बड़ा सुखद आश्चर्य होता है। खिलौने या वस्तुओं का संचय करना, मिट्टी के खिलौने -- ------- -----
- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास
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