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चारित्रिक गुणों में नैतिकता और धार्मिकता भी सहजतया प्रतिष्ठित रहती हैं। चारित्रिकता और नैतिकता का विकास ही उसका व्यक्तित्वविकास है। या इस यों भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति का नैतिक विकास ही उसका चारित्रिक विकास है।
जीवन में चारित्रिक उपलब्धियाँ नैतिक प्रतिमानों से ही अर्जित होती हैं। चरित्र स्वयं में एक मानसिक संरचना है। इसी के चलते व्यक्ति उस सामाजिक परम्परा के अनुकूल आचार-व्यवहार करता है जिसके बीच उसका अस्तित्व है तथा उसके व्यक्तित्व का विकास हुआ है। चरित्र केवल इच्छा-शक्ति का परिणाम, स्थायी भावों का निर्माण या आदतों का समूह ही नहीं है, वरन् तीनों का सम्मिलित प्रयास है। इच्छा-शक्ति, श्रेष्ठ स्थायी भाव व अच्छी आदतें ही व्यक्ति के चरित्र को सर्वतोभद्र पूर्णता प्रदान करती है।
हर मनुष्य के चरित्र के तीन रूप होते हैं। एक तो वह जैसा कि वह, अपने आपको समझता है, दूसरा वह, जैसा कि लोग उसे समझते हैं और तीसरा वह, जो कि वह वास्तव में है। आत्म-प्रदर्शन की भावना के चलते व्यक्ति अपने चरित्र को बढ़ा-चढ़ा कर भी प्रस्तुत कर सकता है, पर लोगों की पारखी नजर अन्तत: उसके वास्तविक चरित्र को पहचान लेती है। चरित्र वही मूल्यवान् होता है, जो कि वास्तविक हो। जहाँ भीतर-बाहर, कथनी-करनी में पवित्र एकरूपता हो, वही प्रामाणिक चरित्र बनता है। झूठन बोलना, चोरी न करना, गलत दृष्टि न डालना, जीवन में निष्ठा, ईमान और प्रामाणिकता रखना चरित्र के प्रथम सोपान हैं।
व्यक्ति की चारित्रशीलता का सबसे बड़ा प्रभाव यह होता है कि समाज के लिए वह विश्वस्त बना रहता है। सच्चरित्र व्यक्ति के लिए मौके-बेमौके हर कोई यह दावा करते हुए देखा जाता है कि हम उसके प्रति निश्चिन्त रहें क्योंकि उससे हमें कोई खतरा नहीं है। एक सच्चरित्र व्यक्ति अपने इरादों एवं लक्ष्यों के प्रति न केवल नेक होता है अपितु अपनी जिम्मेदारियों के प्रति एकनिष्ठ और सावचेत भी होता है।
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कैसे करें व्यक्तित्व-विकास
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