Book Title: Kaise kare Vyaktitva Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे करें व्यक्तित्व विकास बाल-मनोविज्ञान पर श्रेष्ठ पुस्तक श्री चन्द्रप्रभ Forersonale ale Use Only www.jane bral your Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे बीज होंगे, वैसे ही फल फलेंगे । जैसे विचार होंगे, वैसी वाणी बनेगी । वाणी के अनुरूप व्यवहार होगा। व्यवहार आदत का निर्माण करता है और आदत चरित्र का । चरित्र व्यक्तित्व का आधार है । मात्र विचारों को सार्थक और सकारात्मक दिशा देकर व्यक्तित्व के सभी पहलुओं को बेहतर बनाया जा सकता है। For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर के पृष्ठों में ... १. व्यवहार और स्वभाव : व्यक्तित्व-विकास का पहलाआधार २. बालक : जन्म, विकास और समायोजन ३. सफल जीवन के लिए जरूरी : सक्रिय बचपन ४. बच्चों को सिखाएँ बेहतर भाषा नियंत्रण करेंप्रतिकूल संवेगों पर ६. संयम रखें, क्रोध के संवेग पर प्रेम की पवित्र भावना ८. बच्चों का सामाजिक विकास बौद्धिक विकास के मापदण्ड १०. बच्चों का मानसिक विकास ११. मूल प्रवृत्तियों को दीजिए बेहतर दिशा १२. चिन्तन-शक्ति का तार्किक विकास १३. सुझावदीजिए प्रेमपूर्वक १४. बच्चों को दीजिए बेहतरीन भाषा १५. चरित्र-निर्माण : श्रेष्ठ व्यक्तित्वकी पूंजी १६. धार्मिक मूल्यों का व्यक्तित्व-निर्माण से सम्बन्ध १७. व्यक्तित्व-विकास की मौलिक संभावनाएँ :: :: :: :: :: :: :: :: For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास [बाल मनोविज्ञान पर एक बेहतरीन पुस्तक ] श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन वर्ष : अप्रैल, 2003/द्वितीयावृत्ति प्रकाशक : जितयशा फाउंडेशन, 9 सीएस्प्लानेडरोईस्ट, कोलकाता-700069 प्रेरणा : गणिवर श्रीमहिमाप्रभसागर जी म. कम्पोजिंग : जांगिड़ कम्प्युटर्स/मुद्रक : अनमोल प्रिण्ट्स, जोधपुर मूल्य: 15/ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय हमारे प्रकाशन-संस्थान के लिए यह गौरववर्धक है कि स्थितप्रज्ञसंत श्री चन्द्रप्रभ जी की बेहतरीन पुस्तक 'कैसे करें व्यक्तित्व-विकास' के पुनर्प्रकाशन कासुखद संयोग प्राप्त हुआ है। उनके प्रवचन और आलेखों में व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिकजीवनदर्शन कावहअमृत घुलारहता है जिसका रसपान कर हम मानसिकशांति, व्यक्तित्व-विकास एवं आध्यात्मिक चेतना का सुकून प्राप्त करते हैं। प्रस्तुत पुस्तक ऐसे जिएँ, 'बेहतर जीवन केबेहतर समाधान', 'बातें : जीवन की, जीने की', 'लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थजगाएँ जैसी बेहद चर्चित पुस्तकों की कड़ी में ही एक और मील का पत्थर स्थापित कर रही है। लक्ष्य-निर्माण, सकारात्मक सोच और आत्मविश्वासजैसे उदात्त विषयों पर श्री चन्द्रप्रभजी का चिंतन आज नई पीढ़ी में नया उत्साह और ऊर्जा प्रदान कर रहा है। कैसे करें व्यक्तित्व-विकास' भले ही एक बाल मनोवैज्ञानिक पुस्तक हो, पर जीवन के बहुआयामी विकास में दीपशिखा का काम करेगी। पुस्तक भिन्न-भिन्न शीर्षकों से कई अध्यायों में विभक्त है जिसकी विषय-सामग्री व्यक्तित्व-विकास के अंतर्वर्ती बिन्दुओंसेजुड़ी हुईहै।श्रीचन्द्रप्रभने सर्वप्रथम व्यवहार और स्वभाव को व्यक्तित्व-विकासका पहलाआधार मान कर बालक के जन्म और For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास के जिन तत्त्वों का पारस्परिक समायोजन किया है, वह मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रतिष्ठित है । वे सफल जीवन के लिए 'सक्रिय बचपन' और माता-पिता एवं अभिभावकों की सामाजिक भूमिका पर विशेष ध्यान देते हुए सुसंस्कारों को ही व्यक्तित्व - विकास की नींव मानते हैं जिस पर चारित्रिक गुणों का भव्य भवन निर्मित किया जा सकता है। बच्चों को बेहतर भाषा सिखाने और जीवन में संयम बरतने के अनेक उदाहरण देकर उन्होंने बच्चों के सामाजिक, बौद्धिक और मानसिक विकास के जो 'मानदण्ड' निर्धारित किये हैं, वे 'मूल प्रवृत्तियों को दिशाएँ' दिखा सकते हैं। उन्होंने चिंतन-शक्ति के तार्किक विकास को भी व्यक्तित्व विकास की एक खास कड़ी माना है। बालकों के व्यक्तित्व को उन्नत और व्यापक बनाने के लिए उन्होंने प्रेम की पवित्र भावना को 'बेहतरीन प्रेरणा' मान कर यही सिद्ध करने की चेष्टा की है कि बालकों के चरित्र-निर्माण और व्यक्तित्वविकास की दिशा में उसका योगदान सर्वोपरि समझा जाना चाहिए। वे मानवीय धरातल पर धार्मिक मूल्यों का विश्लेषण करते हुए उन्हें व्यक्तित्व विकास का एक ऐसा सुसंस्कारित साधन स्वीकार करते हैं जिस पर जीवन का उदात्त स्वरूप प्रतिष्ठापित किया जा सकता है। पुस्तक का प्रतिपाद्य बाल- शिक्षण और बाल विकास की मनोवैज्ञानिक विवेचना पर आधारित है जिसे प्राचीन चिंतकों की विचारधाराओं और आधुनिक मनोविश्लेषकों की प्रयोगशालाओं के परिणामों को एक साथ जोड़ कर प्रबुद्ध चिंतक ने जो निष्कर्ष निकाले हैं वे अत्यन्त विचारोत्तेजक एवं प्रासंगिक हैं। श्री चन्द्रप्रभ जी जैसे ध्यानयोगी आध्यात्मिक मनीषी बालविज्ञान और आधुनिक मनोविश्लेषण की नवीन उपलब्धियों शिक्षा जगत् के साथ जोड़ने और उन्हें व्यक्तित्व - विकास की श्रृंखला में गूंथने के कार्य में कितने सिद्धहस्त हैं, इसकी गुणवत्ता तो पुस्तक के मनोयोगपूर्वक समग्र अध्ययन और अनुशीलनद्वारा ही प्रमाणित की जा सकती है। निश्चय ही यह पुस्तक गागर में सागर भरने की लोकोक्ति का प्रत्यक्षीकरण है जिसमें व्यक्तित्व-विकास के सभी बिन्दु एक ही स्थान पर समायोजित किये गये हैं । विश्वास है यह पुस्तक हमें व्यक्तित्व विकास से सम्बन्धित एक ऐसा आत्मबोध प्रदान करेगा जिसके आलोक में हम बुनियादी सिद्धांतों के संबल जुटा कर अपने जीवन के श्रेष्ठ- सार्थक लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकेंगे। - For Personal & Private Use Only - डॉ. वेंकट शर्मा - प्रकाश दफ्तरी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •pi व्यवहार और स्वभाव : व्यक्तित्व-विकास का पहला आधार आज का युग नई पीढ़ी का युग है। बाल्यावस्था जीवन का वह चरण है जिसमें सम्पूर्ण जीवन की आधार-भूमिका तैयार होती है। आज का बालक कल के विश्व का भविष्य है। वह समाज का भावी कर्णधार और राष्ट्र का भावी नागरिक होगा। राष्ट्र के संस्कार और विकास की बहुविध संभावनाएँ बाल-जगत् से जुड़ी हुई हैं। परिवार की सारी आशाएँ और अपेक्षाएँ उस परिवार में जन्म लेने वाले बालक पर ही केन्द्रित होती हैं। वंश-परम्परा का नाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाने के लिए भी हर परिवार की यह अभिलाषा रहती है कि उसके घर में कम-से-कम एक पुत्र तो अवश्य हो। बाल्यकाल जीवन की प्रारम्भिक अवस्था है जिसमें उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का जन्म और विकास होता है। मनुष्य को अपने व्यवहार और स्वभाव : व्यक्तित्व-विकास का पहला आधार For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में जो कुछ होना होता है, उसका बीजारोपण उसकी आठ साल की उम्र तक हो जाता है जिसे हम शैशव या बाल्यकाल कहते हैं। सच तो यह है कि जीवन का पूरा रूप उस अवस्था में तैयार हो जाता है। फ्रायड तो यह मानते थे कि मनुष्य चार-पाँच साल की उम्र में जो बनने को होता है, बन जाता है। बाल्यकाल वास्तव में जीवन का 'शिक्षण-काल' है। मातृ-भाषा का सहज आविष्कार इसी वय में ही होता है। मनुष्य अपने बाल्यकाल में भाषा और कौशल का जैसा अभ्यास करता है और जैसा सामाजिक ज्ञान सीखता है, वही आगे चलकर विश्व-ज्ञान में परिणत होता है। यदि बाल्यकाल में जीवन की सही पगडण्डी हाथ लग जाए तो व्यक्तित्व के विकास में कहीं कोई खतरा नहीं है। बालक कैसा है, यह एक अलग बात है। उसे कैसा होना चाहिए, यह जीवन का मूल मुद्दा है। बालविकास का मूल सम्बन्ध उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के विकास से है। बालक के व्यक्तित्व का हर दृष्टि से समुचित विकास होना चाहिए।शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक और चारित्रिक पहलुओं को हमें बाल-विकास के साथ मुख्यतया जोड़ना चाहिए। विकास के ये द्वार तब तक खुले रहने चाहिए जब तक वह 'बालक' है। बाल्यावस्था से अभिप्राय जन्म से बारह वर्ष तक ही नहीं है, वरन तब तक है, जब तक उसके शारीरिक और मानसिक उद्वेगों में परिवर्तन और विकास संभावित है। बालक का विकास तो गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाता है और ठेठ किशोरावस्था तक चालू रहता है। इसलिए गर्भकाल से लेकर इक्कीस वर्ष की उम्र तक जीवन की मूल बुनियाद स्थापित होती है, पर पन्द्रह वर्ष से इक्कीस वर्ष की उम्र तक किशोरावस्था एक ऐसी महत्त्वपूर्ण अवस्था है जो हमारे सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। इस उम्र में हमारे यौन-केन्द्रों का जिस ढंग से विकास होता है, उसके चलते हमारी क्रिया-प्रतिक्रियाओं में, मनोवृत्तियों में, जीवन-पद्धति में - - - - - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास - - - - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आकस्मिक परिवर्तन हो उठता है । इस अवस्था में बल और उत्साह भी काफी अधिक होता है तो तनाव और संघर्ष / विरोध की भी कमी नहीं होती। किशोरावस्था वास्तव में जीवन का उठता हुआ तूफान है। - बाल-मनोविज्ञान मनुष्य के उस बाल्यकाल पर ध्यान देता है जिससे जीवन की मूल भित्तियाँ जुड़ी हैं। बाल मनोविज्ञान का संबंध इस बात से बालक क्या है या कैसा है ? निश्चित तौर पर बाल मनोविज्ञान की वैज्ञानिक और व्यावहारिक आवश्यकता है। जीवन - विज्ञान इससे दो कदम और आगे रखता है। इसके उपयोग का उद्देश्य यह है कि बालक को कैसा होना चाहिए? बाल मनोविज्ञान से जीवन - विज्ञान का मार्ग वास्तव में विधायक विज्ञान से नियामक विज्ञान की ओर गतिशील होता है। हमें विधायक और नियामक दोनों विज्ञानों का बालक के व्यक्तित्व-विकास में उपयोग करना चाहिए। यदि हम बाल मनोविज्ञान को मनोविज्ञान के विराट् अर्थ के साथ समायोजित करें तो वही जीवन-विज्ञान बन जाएगा। जिस मनोविज्ञान में चेतना, मन और व्यवहार की समीक्षा की जाती है, वही जीवन - विज्ञान है । जीवन - विज्ञान वास्तव में आत्मा का विज्ञान है। मनोविज्ञान को साइकोलॉजी कहा जाता है । 'साइकि' का अर्थ आत्मा है और 'लोगस' का अर्थ विज्ञान है । इस प्रकार साइकि+लोगस अर्थात् आत्मा का विज्ञान ही साइकोलॉजी/ मनोविज्ञान है । - बाल मनोविज्ञान का मूल उद्देश्य बालक के अभियोजनात्मक व्यवहार की जाँच-पड़ताल करना है। उसे समझने के लिए हम उसे 'अनुभूति' और 'व्यवहार' कहेंगे। हमारी मानसिक क्रिया अनुभूति है और शारीरिक क्रिया व्यवहार है। संवेदना, साक्षात्कार, सीखना, चिन्तन करना ये सब अनुभूतिजन्य मानसिक क्रियाएँ हैं, जबकि चलना-फिरना, लिखनाबोलना आदि व्यवहारजन्य क्रियाएँ हैं । व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक व्यापारों का विज्ञान ही मनोविज्ञान है। व्यवहार और स्वभाव : व्यक्तित्व विकास का पहला आधार - For Personal & Private Use Only ३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल-मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं को मुख्यतया अभिभावकों को ध्यान में रखना चाहिए। बालक की हर गतिविधि और व्यवहार को उन्हें समझना चाहिए।आखिर व्यवहार ही तो वह माध्यम है जिसके द्वारा हम उसके स्वभाव को समझ सकते हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण मुख्यतया उसके स्वभाव पर ही आधारित है। किसका स्वभाव कैसा है, अगर यह जानना है तो पहले हम यह जानें कि उसका व्यवहार-बर्ताव कैसा है? हम इस बात पर ध्यान दें कि बालक अपनी बात न माने जाने पर चीखता-चिल्लाता है, या समझाने पर मान जाता है; हाथ में आये हुए पैसे की बचत करता है या फिजूल-खर्ची में उसका उपयोग कर बैठता है। किताबों से प्रेम करता है या उन्हें फाड़ने की कोशिश करता है। कुछ बच्चे इशारे मात्र से समझ जाते हैं, तो कुछ पीटे जाने पर भी नहीं सुधरते। बच्चे का इस हर तरह का उपक्रम हमें उसके स्वभाव का अहसास कराता है। ____ वातावरण, शिक्षा और अनुभव-ये तीन तत्त्व ही बालक के व्यक्तित्व के आधार बनते हैं। बालक का सबसे ज्यादा सम्बन्ध वातावरण और पर्यावरण से होता है। वह वातावरण से प्रभावित होकर ही संवेदना की प्रतीति करता है। संवेदना उसकी उत्सुकता को जगाती है। उसी से प्रत्यक्षीकरण की क्रिया होती है जिससे उसे वातावरण का ज्ञान होता है। इस ज्ञान से उसे सुख या दुःख की अनुभूति होती है। वह उस ज्ञान की स्मृति एवं पुनरावृत्ति करता है जिसे उसने प्राप्त किया है। वह नयी वस्तु की कल्पना करता है और प्राप्त ज्ञान के बारे में खुद-ब-खुद चिन्तन करता है। वह चिन्तन उसके भीतर तक शक्ति का संचार करता है। इस सारी प्रक्रिया से गुजरने के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुँचता है, वही निर्णय कहलाता है। यही उसकी अनुभूतिजन्य मानसिक क्रिया है। बालक का सही मानसिक विकास हो, अभिभावक और परिवारजनों को इसका पूरा ख्याल रखना चाहिए। प्रत्येक बालक अपने विकास की आखिरी ऊँचाई को छू सकता है। बालक के लिए उसका परिवार, वातावरण -- ------------- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पर्यावरण ही उसका सबसे निकटतम अंग है। आखिर जैसा परिवार होगा, बालक वैसा ही तो व्यवहार, भाषा और नियम-कायदों को धारण करेगा। चूंकि बालक की ग्रहण-शक्ति तीव्र होती है, इसलिए वह जिस घर-परिवार में रहता है, उसका सर्वाधिक सीधा असर उस पर पड़ता है। बालक के श्रेष्ठ निर्माण के लिए परिवार का श्रेष्ठ होना जरूरी है। एक बालक से पूछा गया कि तुम इतनी गाली-गलौच क्यों करते हो? आखिर तुमने ये गालियाँ कहाँ सीखीं? बालक का जवाब था-गाली तो मेरे माँ-बाप भी देते हैं। यानी बच्चे पर उसके अभिभावकों का पूरा असर पड़ता है। ऐसा ही एक प्रश्न बच्ची से पूछा गया-'बेटी, तुम सबके साथ इतनी विनम्रता, मधुरता और सम्मान के साथ पेश आती हो, आखिर इसका कारण क्या है?' बच्ची ने कहा, 'इसमें कोई नई बात नहीं है। मेरे घर के सारे सदस्य सबके साथ ऐसे ही पेश आते हैं।' बालक की विनम्रता, मधुरता और शिष्टता के पीछे घर-परिवार के वातावरण का पूरा-पूरा असर पड़ता है। परिवार की हर गतिविधि उसके संवेगों और मानसिक क्रियाओं को अनिवार्यत: प्रभावित करती है। परिवार का गलत संस्कार उसे मानसिक रोग और उन्माद से घेर सकता है। यदि कोई बालक बहुत ज्यादा भुलक्कड़ है तो इसका अर्थ यह हुआ कि या तो उसके शरीर का आन्तरिक विकास परिपूर्ण नहीं हुआ या फिर उसके स्वाभाविक संवेग, चिन्तन और अभिव्यक्ति को दमित किया गया है। फ्रायड, एडलर, बैच और जुंग के अनुसार तो बहुत-सी बीमारियों का कारण मानसिक ही होता है। आम शारीरिक रोग का प्रभाव दो-चार दिन का रहता है, पर मानसिक रोग बालक को या तो चिड़चिड़ा या झक्की बना देता है या फिर उसे अपराध-भावना से ग्रस्त कर देता है। अच्छा तो यह है कि बालक को डाँटने-फटकारने और पीटने की बजाए उसे प्रेम से समझाएँ और उसे अच्छा वातावरण दें। बालक की हर क्रिया वास्तव में हमारे व्यवहार की ही प्रतिक्रिया है। खेलकूद और मनोरंजन उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है। परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वे उसकी इस स्वाभाविक ----------------- व्यवहार और स्वभाव : व्यक्तित्व-विकास का पहला आधार For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्ति का दमन न करें। वे उसकी पढ़ाई पर जितना ध्यान देते हैं, उसके समान ही उसके खेल-कूद और मनोरंजन पर भी ध्यान दें। बाल-मनोविज्ञान का आपघरेलू जीवन में भी उपयोग कर सकते हैं। आप यह जानने का प्रयास करें कि हमारे बच्चों में किन-किन वस्तुओं के प्रति अभिरुचि है ? वे किनसे मिलना-जुलना पसन्द करते हैं और किस प्रकार का खेल खेलते हैं ? वे उदास है या मिलनसार हैं, या वे किन वस्तुओं से भय खाते हैं? बालक के स्वभाव ने जिन मार्गों को चुना है, यदि वे व्यावहारिक या नैतिक हैं तो उन्हें उन मार्गों पर बढ़ने के लिए और अधिक प्रोत्साहन देना चाहिए। उनकी आदतें, व्यवहार या शौक गलत महसूस हों तो उन्हें सुधारने के लिए इतना सौहार्द और सौजन्यपूर्ण परामर्श देना चाहिए कि उन्हें आपका सुधार-अभियान आत्म-दमन न लगे। हर बालक का विकास होना चाहिए, पर उसी दिशा में, जो प्रगतिशील हो। ___ बालकों को अपने विकास के लिए सही मार्ग मिले, इसके लिए हमें उनका मार्गदर्शन करना चाहिए और उनकी बुरी आदत न पड़ जाए इसलिए उन पर नियंत्रण भी रखना चाहिए। उसके अमुक व्यवहार या स्वभाव को देखकर ही यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि इस बालक की आगे चलकर चिन्तक, चिकित्सक, वैज्ञानिक, व्यापारी या अमुक व्यक्ति बनने की संभावना है। __कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनका विकास अनायास हो जाता है। कुछ के लिए परिश्रम करना पड़ता है, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिन पर मेहनत भी रंग नहीं लाती। यह सब बालक-विशेष पर ही निर्भर करता है। यदि श्रम करने के बावजूद बच्चे में सुधार या विकास न आ सके तो अभिभावकों को चाहिए कि वे चिकित्सकों या बालमनोवैज्ञानिकों से सम्पर्क कर उनसे परामर्श लें। टर्मन ने अपने अनुसन्धान का जो निष्कर्ष निकाला, वह काफी महत्त्वपूर्ण है। टर्मन के अनुसार जो बच्चे तेरह महीने में चलना-फिरना कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीख लेते हैं, वे कुशाग्र बुद्धि वाले होते हैं। सामान्य बुद्धि के बच्चे चौदह महीने में चलना-फिरना सीखते हैं। मूर्ख बच्चों को चलना-फिरना सीखने बाईस महीने से तीस महीने लग जाते हैं । चलना-फिरना और बोलनासीखने में कुछ फर्क है। कुशाग्र बुद्धि के बालक ११ महीने में और सामान्य बुद्धि के १६ महीने में एवं मूर्ख बालक जन्म के बाद ३४ महीनों से लेकर ५१ महीनों में बोलना सीखते हैं। यहाँ एक बात का विशेष उल्लेख करना चाहूँगा कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का शारीरिक और मानसिक विकास शीघ्र होता है। मानसिक विकास की दृष्टि से लड़कियों की ग्रहण-शक्ति पहले विकसित हो जाती है। शारीरिक दृष्टि से यौन-सम्बन्धी परिपक्वता लड़कियों में लड़कों से एक वर्ष पूर्व आ जाती है। T प्रत्येक बालक अपनी शैशव - अवस्था में अपने-आप से प्यार करता है जबकि बाल्यावस्था में वह अपने माता-पिता के प्रति प्रेम दर्शाता है । बालक को अपनी मम्मी से ज्यादा प्यार होता है जबकि बालिका को अपने पिता से । किशोरावस्था में सहवर्गी प्रेम होता है। लड़के लड़कों से मैत्री रखते हैं और लड़कियाँ लड़कियों से । पर किशोरावस्था ढलते-ढलते, बालक अपनी चतुर्थ अवस्था में परवर्गी (अपोजिट - सैक्स) के प्रति आकर्षित होने लगता है, यानी लड़का लड़की के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति करता है और लड़की लड़के के प्रति । बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों में अवरोध उत्पन्न करना तो उसे मानसिक रोग से ग्रस्त करना है। विकास का प्रवाह तो निरन्तर बहता रहना चाहिए। पर हाँ, जहाँ गाड़ी पटरी से नीचे उतरने की संभावना हो, अभिभावकों को प्रेम और निष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्य निभाने चाहिए । बालक पर गर्भावस्था से लेकर तब तक ध्यान रखना चाहिए, जब तक परिपक्वता न आ जाए। हमें सदैव यह प्रयास करना चाहिए जिससे हमारे बच्चे का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक, सौन्दर्यात्मक और धार्मिक विकास हो । उसकी रुचि, स्मृति, चिन्तन, तर्क और निर्णय के विकास के लिए भी उसे सशक्त और सक्रिय बनाना व्यवहार और स्वभाव : व्यक्तित्व विकास का पहला आधार For Personal & Private Use Only ७ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। खेल, अंताक्षरी, मनोरंजन और व्यायाम के प्रति उसे सचेष्ट करना चाहिए। वास्तव में उन सभी पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए जिनसे बालक के व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता हो। इसके लिए जरूरी है कि हम उसके साथ सही व्यवहार करें, उसे सही वातावरण दें और उसका शिक्षण-प्रशिक्षण भी सही हो । उसे शुद्ध वायु और प्रकाश मिले, और साथ ही मिले एक स्वच्छंद पारिवारिक पर्यावरण । 1 ८ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pap 101010100 401010101010 बालक : जन्म, विकास और समायोजन जीवन के निर्माण की बहुत बड़ी संभावना गर्भस्थ शिशुया जन्मकाल में ही साकार हो जाती है। मनुष्य तो मात्र जीवन का एक विस्तार है। उसका मूल उर्वीकरण तो माता के गर्भ में ही होता है। इसलिए माँ के संवेगात्मक व्यवहारों का असर बच्चे पर पड़े, यह स्वाभाविक है। ____ मनुष्य के मूल शरीर और शरीर से जुड़े समस्त अंगों का निर्माण तो माँ के गर्भ में ही होता है। जन्मसे पूर्व माँ के गर्भ में किसी के जुड़वे हाथ या पाँव हो सकते हैं। आँख दो की बजाए तीन-चार हो सकती हैं। मस्तक की भी कोई अन्य संभावना स्वीकार की जा सकती है। पर गर्भ से बाहर निकलने के बाद किसी अंग-विशेष का निर्माण नहीं किया जा सकता। शल्यचिकित्साशरीर के किसी अंगका व्यवच्छेद कर सकती है, उसका निर्माण नहीं। यदि बच्चे में किसी प्रकार की जन्मजात शारीरिक विरूपता आती है तो सबसे पहले यह अध्ययन किया जाता है कि कहीं माता-पिता की बालक : जन्म, विकास और समायोजन For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त:-ग्रन्थियों में कोई विकृति तो नहीं है, कोई विरूप जीवाणु तो नहीं है । गर्भस्थ शिशु के विकास पर माँ के रोग और स्वास्थ्य का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। सुजाक से पीड़ित महिलाओं के या तो गर्भपात हो जाता है या फिर शिशु में बुद्धिहीनता, अन्धापन या बहरापन आ जाता है। तपेदिक या मधुमेह हो तो गर्भस्थ शिशु का विकास ठीक ढंग से नहीं हो पाता। एक स्वस्थ बच्चे के जन्म के लिए माँ का स्वस्थ होना अपरिहार्य है। माता को चाहिए कि वह भोजन भी इतना सन्तुलित और संयमित करे कि गर्भस्थ शिशु को किसी प्रकार के कुपोषण का शिकार न होना पड़े । सन्तुलित आहार की कमी के कारण ही गर्भस्थ शिशु का वजन और कद दोनों ही कम हो जाते हैं। इतना ही नहीं, उसकी हड्डियाँ भी कमजोर हो जाती है। गर्भस्थ शिशु पर माता की मादकता तथा व्यसनशीलता का सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है। जो महिलाएँ धूम्रपान करती हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिगरेट में 'निकोटीन' होता है। यह एक ऐसा विषैला पदार्थ है जिसके उपयोग से रक्तचाप / ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। तम्बाखू का सेवन करने से हृदयगति में बाधा आती है। एक स्वस्थ बच्चे के जन्म के लिए माता-पिता का स्वस्थ एवं व्यसनमुक्त होना अनिवार्य शर्त है । गाँवों में छोटी उम्र में ही शादी-विवाह हो जाते हैं। मैंने इस सन्दर्भ में जब जाँच-पड़ताल की तो यह बात स्पष्ट हो गई कि परिपक्व उम्र के मातापिता के बच्चे कच्ची उम्र के माता-पिता के बच्चों की अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान होते हैं। माता के संवेगों और व्यवहारों का भी गर्भस्थ शिशु पर बहुत अधिक असर पड़ता है। माता का क्रोधित, चिन्तित य तनाव ग्रस्त होना बच्चे के मस्तिष्क की संरचना को कमजोर करता है । क्रोध और चिन्ता के कारण गर्भस्थ शिशु को संकुचित आहार मिलता है। माता का रक्त ही उसका भोजन होता है और निश्चित तौर पर एक क्रोधित माँ का रक्त उत्तेजनापूर्ण ही होगा। एक चिन्तित माँ का रक्त सुप्त और शिथिल होगा । उसकी गति कैसे करें व्यक्तित्व - विकास १० For Personal & Private Use Only - - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवरुद्ध और कमजोर होगी। नतीजतन शिशु में कई तरह की असमानताएँ / असामान्यताएँ विकसित हो उठेंगी। शिशु के समुचित विकास के लिए माता का प्रसन्नचित्त रहना अनिवार्य पहलू है । माता का जीवन और उसके सारे अंग- उपांग बड़े सन्तुलित होने चाहिए। मानसिक सन्तुलन पर तो विशेष तौर पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि गर्भस्थ शिशु के समस्त अंगों में सबसे पहले सिर का निर्माण होता है और उसके बाद आँख, कान, नाक तथा मुँह आदि का । हृदय की रचना भी सिर की रचना के बाद ही होती है। इसलिए माता के मन और मस्तिष्क का शिशु के सिर पर अनिवार्यत: प्रभाव पड़ेगा । प्रत्येक माता को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे वैसा ही आचारविचार करना चाहिए जिससे गर्भस्थ शिशु के शारीरिक विकास और ज्ञानेन्द्रिय-विकास पर अच्छा प्रभाव पड़े । यद्यपि बच्चे को किसी प्रकार पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, गन्ध की भी अनुभूति नहीं होती, पर उसमें संवेदना तो होती ही है। संवेदनशीलता सबसे पहले सिर से प्रारम्भ होती है और फिर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाती है। जीवन क्षमता तो तब आती है जब शिशु सात चन्द्रमास का हो जाए। पर वह मूल जीवाणु तो शुरू से ही रहता है जो शरीर - निर्माण की विभाजन - प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अनेक भागों और उपविभागों में विभाजित होता है। यह एक पूर्व मान्यता रही है कि गर्भस्थ शिशु में जीवन - क्षमता आते ही उसे अपने पूर्वजन्म की बातें याद हो आती हैं। पर इस बात में अधिक वैज्ञानिकता नहीं है। भला गर्भस्थ शिशु को वे सब बातें याद भी कैसे आएँगी जबकि उसकी स्मृति की चेतना अभी तक अविकसित है। विकास तो धीरे-धीरे होता है। जन्म के बाद बालक का जैसे - जैसे विकास होता है, उसके मस्तिष्क और स्मृति की क्षमता भी मजबूत होती चली जाती है। हाँ, गर्भस्थ शिशु को पूर्व जन्म - विशेष की किसी तरह की धुँधली-सी झलक याद रह सकती है। उसकी स्मृति निष्क्रिय किंचित् भी नहीं होती, पर पूर्णतया सक्रिय होने में समय तो लगता ही है। बालक : जन्म, विकास और समायोजन - For Personal & Private Use Only ११ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो अपने गर्भस्थ काल में भी काफी सक्रिय होते हैं। उनकी सक्रियता का एहसास उनके हलन-चलन से स्वयं माँ को भी होता है। कहा जाता है कि महावीर जब गर्भस्थ शिशु थे, उनकी गत्यात्मकता और कर्मठता का एहसास तभी से माँ को होने लग गया था। वे माँ के पेट में ही काफी हिला-डुला करते थे। कहते हैं कि उन्होंने एक दिन यह सोचकर अपनी हलन-चलन बन्द कर दी कि उनके हिलने-डुलने से शायद माँ को तकलीफ होती हो। पर महावीर के इस कार्य से उनकी माता पर बुरी प्रतिक्रिया हुई। परिणामस्वरूप महावीर पुनः सक्रिय हो गए। यह सब माता और गर्भस्थ शिशु का संवेगात्मक व्यवहार है। हम जिसे संवेग-व्यवहार कहते हैं, महावीर ने उसे 'संज्ञा' कहा है। महावीर के अनुसार हर बच्चे में चार संज्ञाएँ होती हैं-आहार, भय, संग्रह और मैथुन। वैसे निद्रा भी एक संज्ञा है। शिशु जब गर्भ में रहता है तब भी आहार करता है और बाहर निकलने पर भी आहार करता है। आहार-पानी के लिए ही वह चीखता-चिल्लाता है, हाथ-पाँव मारकर संघर्ष भी करता है। यह चीखना केवल आहार के लिए ही नहीं होता है। सच तो यह है कि उसके चीखने और साँस लेने से ही उसकी श्रवणशक्ति का पर्दा खुलता है। ___ जन्म के दस दिन बाद तक शिशु में केवल आहार एवं निद्रा-संज्ञा ही रहती है। भय, संग्रह और मैथुन-संज्ञा धीरे-धीरे विकसित होती है। किसी पेन-पेंसिल को पकड़ने के लिए मचलना संग्रह-संज्ञा है। आँख दिखाने या किसी चीज के गिरने से हुई ऊँची आवाज के कारण डर जाना भय-संज्ञा है। काम-प्रवृत्ति से जुड़ी मैथुन संज्ञां का स्वाभाविक विकास तो किशोरावस्था में होता है, किन्तु बच्चे के द्वारा अपने अंगूठे को चूसकर आनन्द-प्राप्ति की अनुभूति करना भी मैथुन-संज्ञा है। इन संज्ञाओं और संवेगों के अतिरिक्त नवजात शिशु में क्रोध और प्रेम के संवेग भी होते हैं। जब शिशु की स्वाभाविक क्रिया या शारीरिक हलनचलन में किसी तरह का अवरोध होता है तो उसमें क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध की अभिव्यक्ति वह चीख-चिल्लाकर, हाथ-पैर चलाकर या शरीर से ---- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास - - - - - - - - - - - - - - - १२ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपड़े उतारकर करता है। प्रेम-संवेग की उत्पत्ति तब होती है जब उसे कोई थपथपाता है, सहलाता है या गुदगुदाता है। प्रेम-संवेग की अभिव्यक्ति के रूप में या तो नवजात शिशु मुस्करा उठता है या गलगला उठता है। बच्चे की इन सारी प्रवृत्तियों को एक प्रकार से संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ न कहकर उत्तेजना-की-प्रतिक्रिया कहेंगे। ____ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि नवजात शिशुओं के व्यक्तित्व में कुछ व्यक्तिगत अन्तर होता है। बहुत-से शिशु जन्म से ही शान्त प्रकृति के होते हैं तो कुछ तूफानी होते हैं। शिशु की इसी प्रकृति के आधार पर उसके भावी व्यक्तित्व की संभावना की जा सकती है। नवजात शिशु के व्यक्तित्व में उसकी जो सबसे बड़ी विशेषता होती है वह है समायोजनशीलता। गर्भ से बाहर आने के बाद बच्चा नये वातावरण के साथ बहुत जल्दी अपने आपको समायोजित/एडजस्ट कर लेता है। बच्चों में जैसे संस्कार डाले जाते हैं, वे उन्हीं को आत्मसात् करने में लग जाते हैं। प्रत्येक बच्चे में आत्म-निर्भरता का गुण जन्म लेते ही दिखाई देने लगता है। गाय का बछड़ा पैदा होने के कुछ समय बाद ही छलांग भरने लगता है। मृगशावक तो जन्म लेते ही उछलने-कूदने लगते हैं। मुर्गी का बच्चा उत्पन्न होने के बाद चोंच मारने लग जाता है। यह वास्तव में समायोजनशीलता के प्रति उसके उत्साह की अभिव्यक्ति है। सचमुच बच्चे द्वारा स्वयं को हर वातावरण में समायोजित कर लेना विश्व के लिए एक उल्लेखनीय प्रेरणा है। बच्चे की समायोजन-क्षमता एक वयस्क से अधिक होती है। उसे जिस ढंग के संस्कार और वातावरण से समायोजित करना चाहेंगे, वह अपने आपको वैसे ही ढाल लेगा। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे अपने नवजात शिशु को ऐसा माहौल दें जिससे उसका सही विकास हो और आगे चलकर वह एक सभ्य और संस्कारित व्यक्ति सिद्ध हो सके। 000 -- - - - - - - - - - बालक : जन्म, विकास और समायोजन - ----- - - - - - -- For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफल जीवन के लिए जरूरी : सक्रिय बचपन वट-वृक्ष का भविष्य आखिर बीज में ही समाया होता है। बीज का अंकुरण और उसके विकास पर ध्यान दिया जाए तो उसके सुखद और सफल परिणाम की आविष्कृति सहज संभव है। केवल फूलों और पत्तों को सींचने से कुछ नहीं होने वाला है। बाहर का सारा फैलाव जड़ों पर केन्द्रित है। जड़ों को मजबूत और सिंचित करने वाला ही जीवन के श्रेय और लक्ष्य को उपलब्ध कर पाता है। ___ कहते हैं कि पूत के पाँव तो पालने में ही दिख जाया करते हैं। जीवन का विज्ञान जीवन के आविर्भाव से जुड़ा हुआ है। जो व्यक्ति जन्मजात झगड़ालू प्रकृति का है, चिड़चिड़े स्वभाव का है, उसके भावी जीवन में शान्ति के लहलहाते देवदार की कल्पना नहीं की जा सकती। एक हँसतामुस्कराता बच्चा प्रसन्नता भरे जीवन का संकेत है। कुछ बच्चे केवल प्रकृति से शान्त और प्रसन्न नहीं होते, भाग्यवंत भी होते हैं। वे अपनी खुशियाँ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने साथ लेकर आते हैं और सारे घर-परिवार को अपनी खुशियों में शरीक कर लेते हैं । बालक का विकास उसकी सक्रियता से जुड़ा हुआ है। बालक को बालक के योग्य सक्रिय किया जाए तो बालक में अन्तर्निहित योग्यताओं और क्षमताओं का आविष्कार हो जाता है। बालक का क्रियात्मक विकास निश्चय ही जितना अधिक प्रबल होता है, उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति उतनी ही सुदृढ़ होती है। अपनी क्रियात्मकता और कर्मठता में शिथिल होना आत्मविश्वास की ही कमी है। जो लोग अपने बच्चों के क्रियात्मक विकास के लिए सचेत रहते हैं, वे उन्हें आत्म-निर्भर, सक्रिय और सशक्त बनाने की पहल करते हैं। बच्चे को गमला संस्कृति की बजाय क्यारीसंस्कृति से जोड़ना चाहिए। गमले में केवल एक अकेला पौधा रहता है। पानी डालो तो वह फलता है वरना कुम्हला जाता है। क्यारी में लगा पौधा सबसे जुड़ा रहता है। उसे उसके नैसर्गिक विकास का मौका मिलता है। क्यारी में लगे पौधे की सक्रियता अधिक होती है। जो व्यक्ति अपने बाल्यकाल में सक्रिय हो उठता है, वह जीवन में अवश्यमेव अनूठी सफलताएँ अर्जित करता है । बच्चों में क्रियात्मक योग्यताओं का विकास सामान्य से विशेष की ओर होता है। उनके विकास की यात्रा सिर से पाँव की ओर होती है। जन्म के समय बालक का मस्तिष्क समस्त क्रियाएँ नहीं कर पाता है । मस्तिष्क हर क्रिया-प्रक्रिया में सक्षम हो, इसके लिए उसे २० वर्ष तो लग ही जाते हैं। जन्म के समय बालक के मस्तिष्क का भार लगभग ३५० ग्राम होता है । बाद में वही बढ़ते-बढ़ते १२०० से १४०० ग्राम हो जाता है। यह बात सही है कि बालकों के मस्तिष्क का विकास बाल्यावस्था में तीव्रगति से होता है, पर बाद में वही गति मन्द पड़ जाती है। छोटी उम्र में बालक के व्यवहार मस्तिष्क के निचले केन्द्रों और सुषुम्ना नाड़ी द्वारा संचालित होते हैं, मगर बड़े होने के बाद वे वृहत् मस्तिष्क जैसे उच्च केन्द्रों के द्वारा सफल जीवन के लिए जरूरी : सक्रिय बचपन For Personal & Private Use Only १५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचालित होने लगते हैं। चाहे मस्तिष्क का निम्न-केन्द्र हो या उच्च, क्रियात्मकता की पहल का निर्देशक तो मस्तिष्क ही है। बालक का जितना जल्दी क्रियामूलक विकास होगा, वह वातावरण के साथ अपने-आपको उतनी ही तीव्रता के साथ समायोजित कर लेगा। क्रियात्मक विकास और वातावरण के साथ समायोजन ही उसके कर्मकौशल को सहायता प्रदान करेगा। वह अपने पाँवों के बल पर खड़ा होना सीखेगा। हर प्रकार की शारीरिक गतिविधियों का वह स्वयं संचालक होगा। पहले तो वह केवल हाथ-पाँव फेंकेगा, पर बाद में वह अन्य क्रियात्मक कुशलताओं को भी सहजतया प्राप्त कर लेगा, जैसे स्वयं भोजन करना, खुद वस्त्र पहनना, गेंद फेंकना/पकड़ना, दौड़ना, कूदना, सीढ़ियों पर चढ़ना, ट्राइसिकल चलाना और लिखना आदि। जब तक क्रियात्मक योग्यताओं में प्रगति न हो, बालक बिल्कुल असहाय एवं पराश्रित होता है, फिर चाहे वह एक महीने का हो या दस वर्ष का। क्रियात्मक योग्यताओं का विकास ही उसे आत्म-निर्भर बनाता है। आत्म-निर्भरता अपने ही हाथ से काम-काज करने से उपलब्ध होती है, इसलिए घर के सदस्यों को चाहिए कि वह छोटे बच्चे को धीरे-धीरे यह प्रोत्साहन दें कि वे अपना काम स्वयं करने लग जाएँ। स्वावलम्बी बालक अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ और सजग होते हैं। क्रियात्मक विकास का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बच्चे को अपनी ही क्रियाओं के द्वारा आनन्द प्राप्त होने लगता है। खेलना बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यदि बच्चा खेल के प्रति रुचिशील न हो तो उसे खेल के प्रति प्रोत्साहन देना चाहिए। खेलने से आनन्द भी मिलता है और शारीरिक सामर्थ्य भी बढ़ता है। क्रियात्मक योग्यताओं से मात्र खेलने की शक्ति ही उत्पन्न नहीं होती, वरन् क्रियात्मक योग्यताएँ भी उसके सहयोग से विकसित हो जाती हैं। __ खेल-खेल में ही तो बच्चे का दूसरों के साथ हँसते-खेलते सम्पर्क हो जाता है। एक बच्चे से दूसरा बच्चा मिलता है। दो से चार मिलते हैं, - - - - - - - - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास - - - - - - - - - - - - - - १६ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों की टोली हो जाती है और इस प्रकार धीरे-धीरे उनका सामाजिक विकास होने लगता है। ___ बच्चे का विद्यालय में जाना, लिखना, पढ़ना, चित्र बनाने के लिए लकीरें खींचना, दौड़ना, कूदना, खेलना, ये सब क्रियात्मक योग्यताओं के विकास के ही परिणाम हैं। धीरे-धीरे बच्चा अपनी आत्म-उपलब्धियों से प्रसन्न होने लगता है। वह स्वयं ही अस्मिता को समझने और स्वीकार करने लगता है और इस प्रकार अपने हमउम्र साथियों की तुलना में कुछ अधिक कर दिखाना चाहता है। वह अपनी योग्यताओं को दूसरों की योग्यताओं से अधिक परिपक्व करना चाहता है। वह उन्हें प्रदर्शितभी करना चाहता है। दूसरे सहपाठी को कक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ देखकर उसकी सुषुप्त क्रियात्मक योग्यता जगजाती है। नतीजन वह भी अपने-आपको आगे बढ़ाने के लिए सक्रिय हो जाता है। उसे देखकर औरों को प्रेरणा मिलती है। वह औरों का आदर्श बनता है। क्रियात्मक योग्यताओं के विकास में यदि विलम्ब होता है तो उसका मुख्य कारण शारीरिकहीनता, बुद्धिहीनता, भयप्रद-वातावरण और प्रोत्साहन का अभाव है। बालक को कोई रोग हो, वह जन्म से अन्धा या बधिर हो, उसकी ग्रन्थि-प्रणाली में दोष हो या वह अपेक्षाकृत अधिक मोटा या पतला हो तो उसकी क्रियात्मक योग्यताओं का सन्तुलित रूप से विकास नहीं हो पाता। यदि बच्चे को घर में या विद्यालय में छोटी-छोटी सी बात में भी डराया-धमकाया जाता है तो उसकी क्रियात्मक योग्यताओं के विकास में बाधाएँ आती हैं। उसकी योग्यताएँ कुण्ठित और अवरुद्ध हो जाती हैं। इसलिए बात-बेबात में बच्चों के साथ रोका-टोकी न करें। उन्हें अपनी गलती सुधारने का अवसर दें। क्रियात्मक योग्यता और उसके कौशल के विकास में अभ्यास, प्रशिक्षण और प्रोत्साहन इन तीन चीजों की सर्वाधिक भूमिका रहती है। बालक को अपेक्षित क्रिया का समुचित अभ्यास करना चाहिए, उसका --------- सफल जीवन के लिए जरूरी : सक्रिय बचपन १७ - For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशिक्षण देना चाहिए और उसे सफलतापूर्वक करने का प्रोत्साहन भी देना चाहिए। अभ्यास, प्रशिक्षण और प्रोत्साहन, बाल्यावस्था के वे सबसे कारगर उपाय हैं जिनके चलते उसे थकान भी कम महसूस होती है , बारबार गलतियाँ नहीं होती और निरर्थक गतिविधियों से छुटकारा मिलता है और काम करने की गति और क्षमता भी बढ़ती है। त्रुटियों की पुनरावृत्ति न होने के कारण क्रियात्मकता में विशुद्धता भी आती है। ___बालकों को अपने विकास के लिए अगर प्रोत्साहन मिलता रहे तो वे अपेक्षाकृत जल्दी कुशाग्र और सफल हो सकते हैं। यदि बालक को किसी कार्य में सफल होने के बाद उसे लोगों के बीच पुरस्कृत भी किया जाए तो इससे उसका उत्साह बढ़ेगा। इसका परिणाम यह होगा कि वह अपने अध्ययन और लक्ष्य के लिए और अधिक जागरूक बनेगा। वह अपनी सफलताओं को विस्तार देगा और आगे जाकर अपनी कार्यशैली में और अधिक प्रखर होगा। तेजोमयता होगी उसके क्रियाकलाप में, बोल-बर्ताव में। एक सक्रिय और सफल जीवन के लिए जरूरी है एक सक्रिय और सफल बचपन। 000 १८ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों को सिखाएँ बेहतर भाषा भाषा हमारे सामाजिक सम्बन्धों को परस्पर जोड़ने वाला सेतु है। मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है, पर बगैर भाषा के उसकी बुद्धिमत्ता की कोई अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। भाषा तो भाषा ही है, फिर चाहे वह व्यक्त हो या अव्यक्त। अव्यक्त भाषा चिन्तन कहलाती है और व्यक्त भाषा अभिव्यक्ति। भाषा का प्रथम संस्कार मनुष्य के शैशवकाल में ही निष्पन्न हो जाता है। वह भाषा बचपन की भाषा कहलाती है। उस समय उसका स्वरूप स्पष्ट नहीं, वरन् बबलाता, तुतलाता होता है। कोई व्यक्ति किसी विश्वविद्यालय का कुलपति भी क्यों न बन जाए, पर बचपन में तो वह भी तुतलाता ही था। आयु का विकास, भाषा को विस्तार देना है। बच्चा ज्योंज्यों बड़ा होता है, उसका शब्द-भण्डार बढ़ता चला जाता है और उसकी भाषा परिपक्व होती चली जाती है। डेढ़ वर्ष की आयु में बालक मात्र दसबारह शब्दों को बोल पाता है पर दो-ढाई वर्ष का होते-होते उसे कम-से बच्चों को सिखाएँ बेतहर भाषा For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम दो सौ से तीन सौ शब्दों का ज्ञान हो जाता है। ३ वर्ष की आयु में तो उसकी पहुँच हजार शब्दों तक हो जाती है। भाषा की परिपक्वता और शब्दों का बाहुल्य वास्तव में बच्चे के विद्यालय जाने के बाद ही प्रारम्भ होता है। पाठ्य-पुस्तकों को पढ़ने से, कहानियों अथवा समाचार-पत्रों को वाँचने या रेडियो और टेलीविजन के जरिए उसे अनेकानेक नये-नये शब्दों का ज्ञान होता है। वह बोल-बर्ताव में उनका संगीन प्रयोग करने लगता है। मेकर्थी और स्मिथ ने जो मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन किया, वह तो बड़ा चौंकाने वाला है। उनके अनुसार प्रथम कक्षा में बीस-पच्चीस हजार, छठी कक्षा में पचास हजार और हाई स्कूल में बालक को अस्सी हजार शब्दों का ज्ञान हो जाता है। वह उन्हें समझने लग जाता है अथवा बातचीत में उनका उपयोग भी करने लग जाता है। पूर्ण विकसित मनुष्य को एक समय में पाँच लाख शब्द याद रहते हैं। जीवन में भाषा-विकास के लिए केवल शब्द-भण्डार ही पर्याप्त नहीं है अपितु व्यवहार में उनका समुचित प्रयोग भी आवश्यक है। एक मृदु भाषी व्यक्ति जितना सामाजिक हो सकता है, उतना अनर्गल संवादी नहीं। संस्कृति और सभ्यता का विकास वास्तव में भाषा के सम्यक् व्यवहार की भित्ति पर ही आधारित है। इसलिए भाषा के विकास का इतिहास वास्तव में संस्कृति और सभ्यता के विकास का ही इतिहास है। इसे हम दूसरे शब्दों में बुद्धि-विकास का इतिहास कह सकते हैं। परीक्षण से तो यह पता चलता है कि भाषा औ सभ्यता दोनों का विकास साथ-साथ होता है। भाषा का जैसे-जैसे सम्यक् विकास होता है, जीवन में मानवीय सभ्यता उसी त्वरा से अभिवर्धित होती है। आखिर हमारी सभ्यता हमारी भाषा में ही तो व्यक्त होती है। हमारी भाषा ही हमारी सभ्यता का परिचय देती है। यदि किसी व्यक्ति की बौद्धिक योग्यता को परखना है तो भाषा और भाषा-शैली ही उसका कारगर मापदण्ड है। ---------------- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास - २० For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा के चलते ही मनुष्य के सामाजिक विकास की संभावना को सबलता मिलती है। भला एक गूंगे या बहरे बच्चे का क्या सामाजिक रूप होगा! यदि होगाभी तो बड़ा ही कुण्ठित, संकीर्ण और संकुचित। सामाजिक सम्बन्धों का सम्पादन तो भाषा के समुचित विकास एवं उसके सम्यक व्यवहार से ही सम्भव है। वे लोग दूसरों का दिल जीत लेते हैं जो शान्ति, सौम्य, सन्तुलित और मधुर भाषा का उपयोग करते हैं। वाणी में मधुरता और चेहरे की प्रसन्नता ही दूसरों को प्रभावित करने का राजमार्ग है। ___ विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने वाले सारे प्रतीक और अर्थबोधक रूपभाषा के अंग हैं जिनका उपयोगसामाजिक सौजन्य और सम्पर्क प्राप्त करने के लिए किया जाता है। हमारे चेहरे के भाव, इंगित, संकेत, अभिनय या लिखना-बोलना आदि सब भाषा के ही अंग हैं जो दूसरों की सहधर्मिता निभाते हैं। ____ भाषा के मुख्यतया दो कार्य हैं। प्रथम तो है चिन्तन और दूसरा है अभिव्यक्ति। चिन्तन आत्मक्रिया-केन्द्रित होता है, जबकि अभिव्यक्ति का सम्बन्ध सदैव दूसरों के साथ होता है। भाषा के कारण हम एक दूसरों को समझते हैं, अपने विचार व्यक्त करते हैं। जो लोग दूसरों से अपना सम्पर्क और सम्बन्ध कम-से-कम बनाए रखना चाहते हैं, वे लोग मौन स्वीकार करते हैं। भाषापरक दृष्टि से हमारी हर प्रतिक्रिया सामाजिक होती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चे में विद्यालय जाने से पूर्व जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं, उनका अनुपात ९६ प्रतिशत सामाजिक होता है। भाषा का मुख्य उद्देश्य सूचना पाना, अपने भावों को व्यक्त करना और औरों को प्रेरणा देना है। सामाजीकरण की प्रक्रिया में सहकारिता निभाना भी भाषा का मुख्य ध्येय है। एक बालक का जीवन तो मानो पूरी तरह से पराश्रित ही होता है। वह अपनी आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति बोलकर ही कर पाता है। भाषा बोलकर या सुनकर बच्चे में जहाँ सामाजिक संस्कार संचारित होते हैं, वहीं बच्चों को सिखाएँ बेतहर भाषा - - - - - - - भाषा २१ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई प्रकार के सामाजिक मूल्यों, विचारों और आदर्शों को भी वह आत्मसात् करता है। जब बालक १३-१४ महीने का होता है, तो वह बोलने की तैयारी करने लगता है। इससे पहले वह अपनी किसी भी जरूरत को रो-चीखकर या हाथ-पैर पटककर ही व्यक्त करता है। छोटा बच्चा भूख, वेदना, आवेग या खुशी जाहिर करना चाहता है तो वह रोता है या बबलाता है या अंगविक्षेप करता है। जन्म के समय बच्चे का चिल्लाना भाषा के आविर्भाव और उसके विकास का पहला कदम है। यदि जन्म के समय शिशु ने रोते समय रोने की ध्वनि / आवाज न की तो इसका मतलब है वह बालक भाषा की विकलांग होगा । - - भाषा-का- बचपन और बचपन की भाषा एक-दूसरे के काफी करीब हैं। भाषा का विकास मानव-जाति के इतिहास से जुड़ा है, पर भाषा का वैशिष्ट्य और व्यवहार व्यक्ति का निजी व्यक्तित्व है । मानव-जाति के विकास तहत ही भाषा का विकास है। अगर किसी दिन संसार में प्रलय हो गया तो भाषा को मानो आत्महत्या करनी पड़ेगी। संसार का विनाश भाषा का विनाश है; संसार का विकास भाषा का विकास है । भाषा की शुरुआत जन्म से है और जन्म की सार्थकता भाषा से है । बच्चा जन्म लेते ही साँस लेता है । साँस के साथ ऑक्सीजन भीतर जाती है, जिससे फेफड़ों में गति होने लगती है, परिणामस्वरूप ध्वनि उत्पन्न होती है। भाषा के आविष्कार की यही मूल भित्ति है। तालु, कण्ठ आदि के कुछ विकसित होने पर शिशु उन्हीं ध्वनियों को शब्दों के रूप में उच्चारित करने लगता है । जैसे-जैसे वह भाषा को अर्जित करता है, हाथ-पाँव पटकने की क्रिया कम हो जाती है । भाषा की अनुपस्थिति में ही अंगविक्षेप की क्रिया हुआ करती है। बच्चों में भाषा का विकास धीरे-धीरे होता है। शुरुआत में बच्चे के मुँह से जो ध्वनि ईजाद होती है, वह व्यंजन की बजाए स्वर ही होती है। पहले स्वर फिर व्यंजन और उसके बाद स्वर और व्यंजन का संयुक्त प्रयोग । २२ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चे की रुदन - क्रिया में जो ध्वनि होती है, वह 'स्वर' होती है । फिर बच्चा बबलाने लगता है और उसी बबलाने में कुछ ऐसी व्यंजनात्मक आवाज होती है, जिसे हम भाषात्मक अभिव्यक्ति कह सकते हैं । जैसे -मा... मा..., बा...बा...बा..., ना...ना... ना..., दा...दा... दा... आदि । यह बबलाना भाषा और ज्ञान की शुरुआत है। इस बबलाने का यों तो कोई अर्थ नहीं होता, पर यदि माता-पिता इस बबलाने के समय बच्चे को विशेष प्रकार की ध्वनि निकालने के लिए प्रोत्साहित करें तो वह सार्थक ध्वनियाँ भी निकालने लग जाता है। जैसे- माँ, पा-पा, दीदी, बा-बा, जी-जी, ना - ना, दादा आदि । इस प्रकार यदि माता-पिता बच्चे को सार्थक अभिव्यक्ति के लिए उत्साहित करते रहें तो बालक भाषा और उसके शब्दों को अपेक्षाकृत जल्दी पकड़ सकता है, समझ सकता है, बोल सकता है। माता-पिता बच्चे के शैशव और बाल्यकाल के 'पहले गुरु' हैं । उनका कर्तव्य है कि वे अपने बच्चे को अधिक-से-अधिक शब्दबोध कराएँ, उनका ठीक-ठीक उच्चारण कराएँ और उसके साथ सदैव इस प्रकार का व्यवहार करें जिससे वह सदैव प्रसन्न रहे। ऐसा न करने पर उसके सामाजिक समायोजन में कमी आ जाएगी। बचपन में ही ऐसा भाषा-संस्कार दे देना चाहिए कि वह उसके प्रति आदर - भाव प्रदर्शित करे और आदर - सूचक शब्दों का प्रयोग करे । 'आप', 'जी', 'आइये', 'बैठिये' 'श्री' जैसे आदर-सूचक शब्दों से उसे भलीभाँति परिचित करा देना चाहिए। माता-पिता तथा अध्यापकों को चाहिए कि वे बच्चों में ऐसी आदत डालें कि वे चिल्लाकर या ऊँची आवाज में न बोलें। बच्चे का ज्यादा जोर से बोलना उसके ध्वनि - अंगों पर बुरा प्रभाव ता है और आगे जाकर उनकी आवाज ज्यादा मोटी या ज्यादा पतली हो जाती है । ध्वनि और भाषा का सन्तुलित होना अपेक्षित है । जहाँ बच्चा अनुकरण से भाषा सीखता है, वहीं प्रयास से भी वह भाषात्मक योग्यता प्राप्त करता है । बच्चों को सिखाएँ बेतहर भाषा For Personal & Private Use Only २३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चे का मधुर बोलना और प्रसन्न रहना पारिवारिक जीवन में हँसीखुशी भरा माहौल उत्पन्न करना है। एक हँसता-खिलता परिवार धरती का स्वर्ग है। घर में बच्चे का जन्म लेना ही पर्याप्त नहीं है, उसके जीवन के विकास के लिए हरसम्भव प्रयास करना भी जरूरी है। हमारी सन्तान अगर हमसे श्रेष्ठ साबित होती है तो यह हमारे प्रयासों का अभिवादन है। हमारी सन्तान सभ्य और संस्कारित हो, यह हमारी महान् उपलब्धि है और महान सौभाग्य भी। सन्तान को जन्म देना ही पर्याप्त नहीं है, या उनके लिए धनसम्पत्ति की व्यवस्था बैठाना ही काफी नहीं है, उन्हें अच्छे संस्कार और भाषा का आदर-अदब देना भी जरूरी है। हम अपने बच्चों को ऐसास्वरूप प्रदान करें कि वे हमारी सुख-शान्ति के तो आधार हों ही, हम उन पर गर्व भी कर सकें, ऐसे प्रयास उनके जन्म के साथ ही शुरू कर देने चाहिए। 000 २४ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंत्रण करें प्रतिकूल संवेगों पर मनुष्य के भावनात्मक संवेग ही किसी भी कार्य को मूर्तरूप देने के लिए सबसे ज्यादा प्रेरणा देते हैं। माना कि जीवन एक कर्तव्य है और अपने कर्तव्यों के लिए मर-मिटना व्यक्ति की जीवन्त जागरूकता है, किन्तु मनुष्य अपने कर्तव्यपालन के लिए तब तक उत्सुक नहीं होगा जब तक उसकी भावनात्मक तैयारी न हो। संवेग वह भावनात्मक तीव्रता है जो व्यक्ति को अपना कार्य और कर्तव्य पूरा करने के लिए कृतसंकल्प बनाती है। मनुष्य के जीवन में जो प्रवृत्तियाँ होती हैं, उनमें कुछ का सम्बन्ध तो ज्ञान से होता है तो कुछ का संवेग से। कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी भी होती हैं जो क्रियात्मक होती हैं। ज्ञान, संवेग और क्रियाकी अभिव्यंजनाएँ भले ही हों, पर जो बात संवेग से बनती है, उसके चलते तो ज्ञान का प्रशिक्षण और क्रिया की प्रेरणा तथा परिपक्वता सम्भव होती है। मनुष्य अपने भावों का सहचर है। जब तक वह भावनात्मक रूप से नियंत्रण करें प्रतिकूल संवेगों पर २५ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत नहीं होता, किसी भी कार्य को करने के लिए वह अपने आपको उत्सुक और सक्रिय नहीं कर पाता। जीवन बस एक भावना है। भावों में और भावों के अनुरूप जीना ही जीना लगता है। भावात्मक ह्रास जहाँ व्यक्ति की अन्तश्चेतना को कुण्ठित करता है, वहीं उसका विकास जीवन को सदाबहार तरोताजगी से सराबोर कर देता है। संवेग अगर चैतन्य-अनुभूति या भावनात्मक प्रस्तुति है तब तो ठीक है। यदि संवेग उत्तेजन बनकर मुखर हुए हैं तो वे व्यक्ति के लिए तनाव, कुण्ठा, ईर्ष्या और क्रोध का कारण बनते हैं। नतीजन वे संवेग व्यक्ति के लिए कष्टकारी हो जाते हैं, जबकि उन्हें होना चाहिए खुश-मिजाज। आनन्ददायक। संवेग व्यक्ति की मानसिकता का तो प्रतिनिधित्व करते ही हैं, शारीरिक परिवर्तन तथा प्रतिक्रियाओं का नेतृत्व भी करते हैं। वह शारीरिक क्रियाओं की चेतन-अनुभूति है। वुडवर्थ का वचन है कि संवेग प्राणी की उत्तेजित या तीव्र अवस्था है। 'इमोशन इज ए मूव्ड ऑरस्टीरर्ड अप स्टेट ऑफ आर्गेनिज्म'। वास्तव में संवेग व्यक्ति की उत्प्रेरणा है जो उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। संवेग वास्तव में क्रियाशीलता का प्रेरक है। ____ यद्यपि संवेग का सम्बन्ध भावात्मक है, पर संवेग व्यक्ति को उत्तेजित करते हैं और भाव उसे उत्साहित। एक बालक में संवेगात्मक व्यवहार की संभावना ज्यादा है। बालकों और वयस्कों के संवेगात्मक व्यवहारों में काफी कुछ फर्क होता है। बालक संवेग के जन्म लेते ही उसे हर हालत में प्रकट कर देता है जबकि वयस्क उन पर नियंत्रण भी कर सकता है। वयस्क व्यक्ति के संवेग स्थायी भी रह सकते हैं, परन्तु बच्चे के संवेग तो चिनगारी की तरह उठते हैं और उसी तीव्रता के साथ मन्द भी पड़ जाते हैं। जहाँ जीवन के प्रारम्भ में संवेगात्मक विकास जरूरी होते हैं, वहीं वयस्क या पक्की उम्र के होने पर उन पर नियंत्रण करना भी आवश्यक है। __चूँकि बालक अपने संवेगों का नियंत्रण नहीं कर पाता, इसलिए उनमें उग्रता का अनुपात अपेक्षाकृत ज्यादा होता है। बच्चा जिस चीज को चाहता ------------- २६ For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है यदि उसकी प्राप्ति में थोड़ी-सी भी देर होती है तो वह तत्क्षण विद्रोह कर बैठता है। वह क्रोधसे तमतमा उठता है और आक्रामक तेवर अपना बैठता है। वह तिलमिलाकर हाथ-पैर पटकने लगता है, चीखने-चिंघाड़ने लगता है। बालक के इस संवेगात्मक व्यवहार में कई तीव्र प्रतिक्रियाएँ हो उठती हैं। जैसे-जैसे बालक की आयु में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे उसके संवेगों की उग्रता नरम होने लगती है। ___ बालकों के संवेगों में परिवर्तन भी इतना जल्दी हो उठता है मानो यह कोई छू-मन्तर का खेल हो। चूँकि बालक में छद्म, स्वार्थ आदि नहीं होते जो कि उसके संवेगों को स्थायित्व दिलाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इसीलिए परिस्थिति के अनुसार वे संवेग एक रूप से दूसरे रूप में बदलते रहते हैं। चूँकि बालकका अपने पर कोईआत्म-नियंत्रण नहीं होता, इसलिए उसके संवेगों की शारीरिक प्रतिक्रिया हो उठती है। आँखें तक लाल हो जाती हैं। आनन्द पैदा हुआ है, तो मुस्करा उठता है, हाथ पैर डुलाने लगता है, खुशी से उछलने-कूदने लगता है। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होने लगते हैं, परिस्थितियों को समझने लगते हैं। वातावरण के साथ उनका समायोजन-सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फलस्वरूपवे उत्तेजित और उद्विग्न कम होने लगते हैं। यदिघर का वातावरण सन्तुलित, समायोजित और मधुर है तो बालक के संवेगात्मक व्यवहार, उत्तेजित होने के बजाए, विनम्र और सौहार्दपूर्ण होंगे। एक कुण्ठाग्रस्त या क्लेशमय वातावरण में जीने वाले परिवार, बालक के संवेगात्मक विकासको विपरीत दिशा में ले जाते हैं जिससे वह जिद्दी और बेचैन रहने लगता है। बालक में कुछ सामान्य संवेग जन्मजात होते हैं। आगे चलकर उन सामान्य संवेगों में भी विभागीकरण हो जाता है और एक संवेग से दूसरा और दूसरे से तीसरा संवेग उत्पन्न होता रहता है। बच्चे में सबसे पहले जिन संवेगों का उदय होता है, वे प्रेम, क्रोध और भय हैं। जन्म के तीन महीने तक केवल दो प्रकार की ही संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ होती हैं- पहला कष्ट नियंत्रण करें प्रतिकूल संवेगों पर - - - - - - - - - - - - - २७ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दूसरा आनन्द। कष्ट का अनुभव करते समय शिशु रोता है और उसकी मांस-पेशियों में तनाव आ जाता है, जबकि आनन्द का अहसास होने पर वह प्रसन्न होता है, मुस्कुराता है और उसकी मांस-पेशियाँ सहज और शिथिल हो जाती हैं। छह महीने की आयु में बच्चे में क्रोध और भय के संवेग उत्पन्न होते दिखाई देते हैं। बारह महीने की आयु तक उसमें कष्टकर और आनन्दप्रद कई संवेग उत्पन्न होने लगते हैं। आनन्द के रूप में खुशी, आशा, प्रेम, उल्लास आदि उत्पन्न होते हैं, जबकि कष्ट के रूप में चिन्ता, ईर्ष्या, भय, क्रोध, बेचैनी, निराशा आदि क्रियाएँ। अन्य बालकों के प्रति प्रेम लगभग अठारह महीने की आयु में होने लगता है। पाँच वर्ष की उम्र होने तक बालक में कई प्रकार के संवेगात्मक विकास हो जाते हैं। परिपक्व अवस्था आने तक उसे अपनी संवेगात्मक प्रक्रियाओं में सार्थकता और निरर्थकता का स्पष्ट भेद ज्ञात हो जाता है। वह सौन्दर्यात्मक अनुभूति करने लगता है और साथ ही करने लगता है अपने संवेगों पर नियंत्रण। _____ संवेगों का विकास और नियंत्रण दोनों ही जरूरी है। उन संवेगों का विकास होना चाहिए, जिनसे हमें शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक तन्दुरुस्ती प्राप्त होती है; जबकि उन संवेगों का नियंत्रण होना चाहिए जो हमारी मानसिकता को उद्विग्न और असन्तुलित करते हैं। जहाँ क्रोध, चिड़चिड़ापन या भय होने पर हमारी पाचन-प्रणाली बिगड़ जाती है, वहीं आनन्द और प्रेम का संवेग उत्पन्न होने पर शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। संवेगात्मक अस्थिरता ही मानसिक रोग का कारण बनती है। संवेगों के निश्चित तौर से आन्तरिक और बाह्य प्रभाव पड़ते हैं और हमारे विचार एवं व्यवहार में अनिवार्यत: परिवर्तन आता है। लक्ष्य यही रखना चाहिए कि वे प्रभाव और परिवर्तन प्रतिकूल दिशा में न हों। 000 २८ - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAAS संयम रखें, क्रोध के संवेग पर मानवीय संवेगों के कई रूप होते हैं - कर्कश भी और मधुरिम भी। क्रोध, भय, ईर्ष्या, चिन्ता, प्रेम, करुणा ये सब संवेगों के ही खट्टे-मीठे अनुभव हैं। जीवन में संवेगों की अपनी आवश्यकता है, किन्तु अनियंत्रित संवेग व्यक्ति के लिए वैसे ही अहितकर होते हैं, जैसे किसी सारथी के लिए बेलगाम घोड़ा। ___ यद्यपि संवेग अपनी कई मुखाकृतियाँ लिए हुए हैं, पर संवेग की चर्चा चलते ही उसका क्रोध से ही सपाट सम्बन्ध जुड़ जाता है। क्रोध और कामातुरता में ही संवेग की वास्तविक तीव्रता का एहसास होता है। कामसंवेगों का विकास तो जीवन में एक खास उम्र आने पर होता है, पर क्रोध तो मानो तभी से पिछलग्गू हो जाता है जब धरती पर वह अपनी पहली अंगड़ाई भरता है। मनुष्य के जन्मते ही क्रोध भी जन्म जाता है, या इसे हम यों कहें कि जीवन-क्षमता के साथ ही क्रोध के संवेग भी विकसित और उद्दीप्त होने लग जाते हैं। - - - - - - - - संयम रखें, क्रोध के संवेग पर - - - - - - - - -- For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वयस्क की अपेक्षा एक बालक काक्रोध अधिक स्पष्ट होता है। बड़ा तो अपने क्रोध पर काबू भी पा लेगा, पर छोटा तो उसका हाथो-हाथ भुगतान कर देता है। बच्चा कितना भी क्रोध क्यों न करे, पर उसमें स्थायित्व नहीं होता। चिनगारी की तरह क्षणभंगुर होता है, उसके क्रोध का अस्तित्व। क्रोध अपेक्षाओं की उपेक्षा है। बच्चे की अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ कोई ज्यादा तादाद में नहीं होतीं, पर जितनी होती हैं, वह उसकी आपूर्ति में किंचित्भी विलम्बया कटौती पसन्द नहीं करता। उसका चाहना या कहना, मानो किसी सम्राट्का आदेश हो। चाहेराज-कोप हो या बालकोप, परिणाम में फर्क हो सकता है, पर उसकी उत्पत्ति और प्रकृति एक जैसी होती है। एक बड़ा व्यक्ति क्रोध इसलिए करता है क्योंकि वह जैसा चाहता है वैसा स्वीकार नहीं किया गया। गलती का अहसास कराने के लिए या उस एहसास के नाम पर सुधारने के लिए वह डाँटता-डपटता है, जबकि बच्चा अपनी इच्छा को मनवाने के लिए क्रोध करता है। बच्चा क्रोध को अपनी इच्छाओं को मनवाने का साधन समझ बैठता है। वह या तो अपनी बात मनवाने के लिए या किसी तरह की बाधा महसूस किए जाने पर क्रोधित होता है। ऐसा नहीं है कि केवल बड़े लोग ही अन्याय या अनधिकार चेष्टाओं के खिलाफ होते हैं, बल्कि बच्चे तो स्वभाव से ही अन्याय को सहन करना नहीं चाहते। सच तो यह है कि शिशु में सहन करने की क्षमता ही नहीं होती। उसे जैसे ही यह महसूस होता है कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा है, वह तत्काल क्रोधित हो जाता है, मानो वह किसी विद्रोह पर उतारू हो गया हो। उसमें स्वार्थ-भाव भी इतन प्रगाढ़ होता है कि वह अपनी कोई भी चीज, बिना अपनी इच्छा से किसी दूसरे बच्चे को देना बर्दाश्त नहीं करता है। यह स्वार्थ वास्तव में उसके स्वामित्व-भाव की पुष्टि करता है। एक बात तय है कि अस्तित्व का कोई भी अंग अपने स्वामित्व-भाव में दखलंदाजी नहीं चाहता। वह उसे अपना अपमान समझता है। नतीजन उसके चेहरे पर क्रोध-संवेग उभर आता है। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ३० कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक जो कुछ करता है, वह उसी को करना चाहता है । वह खेल रहा है तो वह वास्तव में खेलना ही चाहता है। उसके किसी क्रिया-कलाप किसी भी प्रकार का अवरोध उपस्थित होना, बच्चे के लिए क्रोध-काकारण है। हाँ अगर बच्चा थक गया है, कमजोरी महसूस करता है या किसी रोग से आक्रान्त है तब भी वह छोटी - छोटी-सी बात पर भी क्रोधित हो जाता है। पर इसे स्पष्ट रूप में क्रोध न कहकर, चिड़चिड़ापन कहना ज्यादा ठीक है । प्राय: यह भी देखा जाता है कि बच्चा उस समय भी चिड़चिड़ा उठता है जब उसे चिढ़ाते हैं । जैसे बाल उतार दिए जाने के बाद 'मोडा' या 'गंजे लाल' कहना, काले रंग का होने पर 'कालिया' कहना, दूध-मुँहें दाँत गिर जाने पर यह कहा जाना कि इसके दाँत तो चुहिया खा गई है। चिढ़ाने का यह काम या तो उसके भाई-बहिन करते हैं या उसके संगी-साथी । चिढ़ाने से चिड़चिड़ाना वास्तव में क्रोध की ही अभिव्यक्ति है । बालक यह भी नहीं चाहते कि उन्हें कोई ऐसा काम करने का निर्देश मिले जो या तो उनकी क्षमता से परे हो या उनकी रुचि के अनुकूल न हो । माता-पिता, अभिभावक या अध्यापक आदि उन्हें कभी-कभी ऐसा काम करने का निर्देश दे देते हैं । स्वाभाविक है कि बच्चा इससे क्रोधित होगा, फिर चाहे वह अपने क्रोध की अभिव्यक्ति मुँह पर करे या फिर उस क्रोध का घूँट पीकर रह जाए। वास्तव में बच्चों में अपनी खुद की कमजोरियों एवं कठिनाइयों के कारण प्राय: कड़वाहट एवं चिड़चिड़ाहट आ जाती है। प्रारम्भ में तो बच्चे क्रोध की स्थिति में रोते हैं, हाथ-पैर पटकते हैं, दाँत पीसने लगते हैं, पछाड़ खाकर जमीन पर लोटने लगते हैं, घूँसें और लातें मारने लगते हैं मगर जैसे-जैसे बालक की उम्र में वृद्धि होती जाती है, क्रोध की अभिव्यक्ति के स्वरूप में अन्तर आने लगता है । बाद में वह तभी क्रोध करता है, जब क्रोध करने का अवसर उपस्थित होता है । > माता-पिता या बड़े बुजुर्गों को चाहिए कि वे अपने बच्चों की स्वाभाविक क्रियाओं में बाधा न डालें। वे उनकी आवश्यकताओं और संयम रखें, क्रोध के संवेग पर For Personal & Private Use Only ३१ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाओं का ध्यान रखें। उनसे उनकी क्षमता से ज्यादा काम भी नहीं लेना चाहिए और न ही बेवजह जरूरत से ज्यादा दण्डित करना चाहिए। घर के प्रेमपूर्ण वातावरण से बच्चे की अन्तश्चेतना में अक्रोध का भाव बनता है । बच्चे को क्रोध - मुक्त रखने के लिए परिस्थितियों को प्रतिकूल न होने देना बेहतर है। घर-परिवार की प्रसन्नता बच्चे को खुश मिजाज रखती है और बच्चे की खुश मिजाजी घर-परिवार को हँसता - खिलता चमन बनाती है। क्रोध की उत्पत्ति का कारण जो भी हो, उसका हमारे मन, मस्तिष्क, शरीर और व्यवहार पर हमेशा बुरा असर ही पड़ेगा। छोटी-छोटी-सी बातों पर चिड़चिड़ा उठना, आग बबूला हो जाना या हो-हल्ला करने लगना जहाँ हमारे व्यक्तित्व की ख़ामी है, वहीं ये हमारी व्यावहारिक लोकप्रियता को भी आघात पहुँचाते हैं। यह बात सही है कि कभी-कभी विशेष परिस्थितियों के साथ समायोजन स्थापित करने में क्रोध से कुछ मदद मिलती है । अन्याय के विरोध में भी क्रोध अपनी कुछ भूमिका निभा सकता है। कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में कभी-कभी क्रोध भी साहस और शक्तिवर्धक हो जाता है, किन्तु आमतौर पर तो क्रोध और उसकी किसी भी अभिव्यक्ति की प्रबुद्ध मानवता द्वारा भर्त्सना ही की जाती है। मानसिक क्रोध कभी-कभी अच्छा फल भी दे देता है, पर उसे अच्छा कैसे कहा जाए जिससे व्यक्ति अपना आपा खो बैठे। जीवन के लिए आत्मविस्मृति से बड़ा जघन्य अपराध क्या होगा, और सच तो यह है कि अपना आपा खोना वास्तव में आत्म विस्मृति से ही साक्षात्कार है। यदि आप चाहते हैं कि आपका और आपके बच्चे का हृदय और मस्तिष्क स्वस्थ तथा सुरक्षित रहे, तो क्रोध से बचिए। क्रोध के समय माँ अगर बच्चे को दूध पिलाती है तो वह दूधपान भी विष के समान होता है। क्रोध से बचना, स्वभाव को शान्त और मृदु रखना अपनी आत्म - ऊर्जा को बचाने का सहज-सरल उपाय है । I m ३२ - 000 कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम की पवित्र भावना प्रेम जीवन का वह पवित्र संवेग है जिससे मित्रता और भाईचारा जैसे विश्व-कल्याणकारी मार्ग नि:सृत होते हैं। शस्त्र, हिंसा और आतंक के भयावह वातावरण से घिरे हुए विश्व की समस्याओं को सुलझाने के लिए मनुष्य की प्रेम-भावना सर्वाधिक कारगर साबित हो सकती है। विश्वबन्धुत्व और विश्व-शान्ति की आवश्यकता की आपूर्ति प्रेम से ही सम्भावित है, बशर्ते वह प्रेम, 'विश्व-प्रेम' की रसधार से अभिसिंचित हो। संकुचित प्रेम व्यक्ति को संकुचित करता है और विश्वप्रेम हर संकुचितता के पार है। वही प्रेम विश्व-बन्धुत्व का प्रवेश-द्वार बन पाता है जो व्यक्ति, समाज या प्रदेश-विशेष से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानवता से अपने हाथ मिलाना चाहता है। प्रेम मनुष्य का सबसे बेहतरीन संवेग है। यदि मानसिक संवेगों में से प्रेम को सेवा-निवृत्त कर दिया जाए तो जीवन में क्रोध, चिन्ता और ईर्ष्या के सिवा बचेगा क्या? सिवा प्रेम के जीवन की कोई परिभाषा नहीं हो प्रेम की पवित्र भावना For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती। वह दम घोटू जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है जिसमें जिन्दगी के नाम - पर तनाव और कुण्ठाएँ पोषित - पल्लवित होती हैं। प्रेम ही तो जीवन का चमन है, जहाँ फूल खिलते हैं, गुलशन गुलशना मौसम होता है सदाबहार | रिश्ते होते हैं खुश - मिजाज । हमारे देश की सोच प्रेम के प्रति ऐसी संकीर्ण रही है, जहाँ प्रेम की चर्चा भी अमर्यादित लगने लगती है जबकि प्रेम पवित्रता है जीवन की । प्रेम-भावना को बढ़ावा देना विश्व को एक-दूसरे के करीब लाना है। जहाँ प्रेम में लैला-मजनूं की व्यथा कथा, हीर का प्यार, रांझा का शृंगार, शीरीं के अन्दाज और फरहाद के ख्वाब हैं, वहीं यशोदा का वात्सल्य, राधा की लीला, कृष्ण-सुदामा की मित्रता, राम-लक्ष्मण का भ्रातृत्व, हुमायूं - कर्मावती का राखी - रिश्ता, राजुल की विरह वेदना और मीरा के समर्पण की सद्भावना है। प्रेम कोई दिखावा नहीं है, किन्तु दिल का बयान है । उस प्रेम के सदा मधुर परिणाम होंगे जो व्यक्ति विशेष से आबद्ध न होकर सृष्टि समग्रता से जुड़ने को तैयार है । प्रेम का मूल्य है। जीवन मूल्यों की आधार शिला प्रेम ही है। प्रेम की विराटता से ही नैतिकता और मानवता के पाठ रचे गए हैं। बगैर प्रेम का जीवन जंगल में खड़ा मिट्टी का मकान है। प्रेम का विस्तार हो । जन्म से मृत्यु तक प्रेम का स्वीकार हो । किसी को कुछ दो तो प्रेम से, लो तो प्रेम से। कहीं जाओ तो प्रेम से, किसी को बुलाओ तो प्रेम से । प्रेम से थोड़ासभी करोगे तो वह उसे भर देगा। किसी को बहुत दिया तो क्या दिया अगर बे-मन से दिया । < · ३४ प्रेम से दिया गया विष भी अमृत हो जाता है और बे-मन से दिया या अमृत भी जहर हो जाता है । लक्ष्य तो अमृत का ही होना चाहिए। अमृत न पिला सकें, कम-से-कम किसी के लिए विष-पान की नौबत तो न लाएँ । प्रेम जीवन का पहला संवेग, पहला संगीत है। इसके तार न ज्यादा कसें, न ज्यादा ढीले छोड़ें, साधे हुए रखें, बुद्ध के परमज्ञान में निमित्त बनने कैसे करें व्यक्तित्व - विकास - For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली वीणा के तारों की तरह। हमारे यहाँ प्रेम का अर्थ देने वाले उसके कई जुड़वेशब्द हैं-स्नेह, आत्मीयता, ममता, वात्सल्य आदि। हम इन शब्दों के अर्थ और उनके स्तर में भी फर्क समझते हैं। भला हो अंग्रेजी को जिसने प्रेम की आत्मा को एक बनाये रखा और सबको 'लव' की 'केटेगरी' में उपस्थित कर दिया है। खैर, चाहे हम प्रेम कहें या स्नेह अथवा ममता, जन्म की पहली किलकारी के साथ ही इस संवेग की पौ फूट पड़ती है और सामाजिक वातावरण के द्वारा इसका अधिकाधिक उपार्जन होता है। बच्चा जब पाँच-छह महीने का होता है तब तक उसका प्रेम परिवार के उन सदस्यों के साथ होता है जो उसका विशेष ध्यान रखते हैं। बच्चा सबसे ज्यादा प्रेम तो माँ से करता है, क्योंकि माँ ही उसकी सबसे ज्यादा देखभाल करती है। इसलिए माँ बच्चे का जीवन है, उसकी मुस्कराहट है। बगैर माँ का बच्चा अनाथ है। ___ बच्चा पिता को भी चाहता है, परन्तु माँ जितना नहीं। प्रेम का क्षेत्र तो बच्चे के बड़े होने पर बड़ा होता है और छोटे रहने पर छोटा। असली विस्तार तो विद्यालय के दाखिले के बाद ही होता है। कक्षा बच्चे के लिए एक 'कम्यून' है, जहाँ उसकी एक मित्र-मण्डली बन जाती है। पहले उसका जो प्रेम माँ और परिवार के प्रति रहता था, वही मित्रों के प्रति रहने लग जाता है। बच्चा अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में तो अपने प्रेम की अभिव्यक्ति गले लगाकर करता है, परन्तु विद्यालयीय जीवन में वह अपने मित्रों से हाथ मिलाता है। उनके पास बैठकर गप्पे-सप्पे हाँकता है और अन्य क्रियाकलापों में सहभागी होता है। बाल्यावस्था तक प्रेम की अभिव्यक्ति में कोई लिंगगत भेद नहीं होता, परन्तु किशोर-अवस्था में 'विपरीत लिंग'। 'अपोजिट सेक्स' के प्रति प्रेम का रुझान हो जाता है। __ यह उम्र ऐसी है जब युवक-युवतियों में मित्रता के बीच स्वस्थ सोच अपेक्षित है। उन्हें अपनी मित्रता इतनी व्यावहारिक, किन्तु इतनी सन्तुलित बनाए रखनी चाहिए कि उन्हें किसीअशोभनीय टिप्पणी का शिकार न होना पड़े। लुक-छिपकर मिलना सन्देहास्पद स्थिति को जन्म देता है। यदि - - - - - - प्रेम की पवित्र भावना - - - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिकता स्वस्थ है तो छिपकर मिलना क्यों ? यदि युवक-युवतियाँ अपने माता-पिता और भाई-बहिनों की उपस्थिति में मिलें तो हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति और उसकी स्वस्थता में कोई भी प्रश्न-चिह्न नहीं लगाएगा । आज वास्तव में इस बात की जरूरत है कि माता-पिता या घर के अभिभावक अपने बच्चों की मानसिकता को परिपक्क करने में सहयोगी बनें। उन्हें अपना मित्र मानकर उचित स्नेह, सहयोग, प्रोत्साहन और मार्ग - दर्शन दें। युवा वर्ग को भी चाहिए कि वह सिनेमा के रंगीन और चमकते घेरे से बाहर निकलें तथा अपनी स्वस्थ मानसिकता से प्रेम और मित्रता के पवित्र बन्धन को निभाएँ । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्रेम समाज का सेतु है, जीवन की भावनात्मक शक्ति है, परन्तु इसके क्षेत्र का सीमित रहना प्रेम का दमन है । नतीजा यह निकलता है कि बच्चा अपने माता-पिता या भाई-बहिन से प्रेम करने लगता है, परन्तु अन्य आयामों के प्रति उपेक्षित और उदास रहता है। उसमें विश्व बन्धुत्व के कोमल भाव अंकुरित और प्रफुल्लित नहीं हो पाते जिसकी प्रत्येक से आशा की जाती है । हमारा प्रेम ऐसे व्यक्ति, वस्तु या विचार के प्रति भी गिरवी नहीं होना चाहिए जो समाज -विरोधी हो । हमारा संवेग या भाव चाहे प्रेम के रूप में हो या किसी अन्य रूप में, इसकी सार्थकता, संदिग्धता के घेरे मे न आए। प्रेम की विराटता को साकार करने के लिए ही बच्चों को यह प्रतिज्ञा और भावना प्रदान की जाती है कि भारत मेरा देश है और सभी भारतीय मेरे भाई-बहिन है। माता-पिता, अभिभावक व शिक्षकों का परम कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने बच्चे को ऐसे प्रेम, मित्रता और भाईचारे के लिए प्रोत्साहन दें ताकि वह एक सुयोग्य नागरिक बनकर सम्पूर्ण मानवता का हिमायती हो, विश्व बन्धुत्व एवं विश्व - प्रेम का अनुमोदक हो । वह सम्पूर्ण विश्व को एक वृहत् परिवार समझे, साथ ही सक्रिय योगदान दे सके मानवसमाज के कल्याण में, विश्व - शान्ति के अभियान में । ३६ - - For Personal & Private Use Only 000 कैसे करें व्यक्तित्व - विकास Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDI बच्चों का सामाजिक विकास मनुष्य का जन्म समाज में होता है और उसका विकास भी समाज में। मनुष्य से ही समाज का निर्माण होता है और समाज के कारण ही वह अपने बहुमुखी स्वभाव को गौरवान्वित करने का अवसर उपलब्ध कर पाता है। समाज सामूहिक जीवन है। व्यक्ति समूह की इकाई है। व्यक्तियों की परस्पर प्रतिबद्धता के कारण ही समाज का अस्तित्व है। ___सामाजिक सभ्यता और संस्कृति मनुष्य को मानो एक विरासत के रूप में प्राप्त होती है। सभ्यता से साक्षात्कार ही सामाजिक धरोहर की सुरक्षा है। कोई भी मनुष्य समाज-निरपेक्ष होकर जीना चाहे तो उसका जीवन व्यक्ति-सापेक्ष ही कहलाएगा। मनुष्य सामाजिक इकाई है। उसका जन्म समाज में होता है, किन्तु वह जन्मजात सामाजिक नहीं होता। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि वह कोई असामाजिक होता हो। जन्मना तो मनुष्य समाज-निरपेक्ष ही होता है। सामाजिक सापेक्षता और उसकी प्रतिबद्धता तो आत्म-विकास के साथ-साथ फलीभूत होती है। - - - - - - - - बच्चों का सामाजिक विाकस - - - - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी इस अर्थ में है कि उसके व्यक्तित्व के समस्त आयाम समाज-सापेक्ष होते हैं। उसकी आवश्यकताओं की आपूर्ति के साधन और उसका स्वभाव समाज से ही प्रतिबद्ध होता है। जन्म से तो बच्चा पूरी तरह पराश्रित होता है। वह बगैर किसी सहायता के अपनी किसी भी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए समाज उसकी आवश्यकता है। बगैर समाज के बच्चा अपूर्ण है। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति समाज में रहता है और समाज के बीच मिलने वाली इज्जत को वह स्वयं के लिए आत्म-सम्मान समझता है। समाज ही तो वह घटक है जो उसे सामूहिक जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करता है। मनुष्य कुछ जैविकीय आवश्यकताओं को लेकर शिशु के रूप में समाज और विश्व में प्रवेश करता है। जन्म से उसमें कोई सामाजिक चेतना नहीं होती। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में जो लोग सहभागिता निभाते हैं, वास्तव में उन्हीं के कारण बच्चे में सामाजिक चेतना का आविर्भाव होता है। माँ द्वारा दूध पिलाने, पिता द्वारा सहलाने, भाई-बहिनों द्वारा खिलाने आदि से शिशु के मन में सामाजिकता के बीज पनपते हैं। बच्चे के सामाजिक स्वरूप का सही विकास तो उसके विद्यालयीय जीवन से जुड़ने के बाद ही प्रारम्भ होता है। इससे पहले तो उसकी पहचान घर-परिवार वालों तक ही सीमित रहती है। विद्यालय जाने पर वे दायरे और विस्तृत हो जाते हैं। धीरे-धीरे उसमें नैतिकता और धार्मिकता के प्रति भी निष्ठा होने लगती है। विद्यालय में ही बच्चों के जीवन में सहयोग, आज्ञापालन, सत्कार, श्रद्धा, नेतृत्व, स्नेह जैसे सामाजिक गुणों को अर्जित करने का अवसर मिलता है। सबके साथ-साथ उठने-बैठने से प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता जैसी सामाजिक शक्तियों का विकास होने लगता है जो मनुष्य के मौलिक विकास में प्रेरणात्मक शक्ति साबित होती हैं। तेरह से उन्नीस वर्ष की 'टीन एज' में यौन-चेतना का भी क्रमिक विकास होता है। फलस्वरूप लड़के -- - - - - - - - - ३८ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और लड़कियों की सामाजिक चेतना का अलग-अलग विकास होने लगता है । यद्यपि सामाजिक मर्यादाओं के कारण अपने वर्ग में ही उन्हें सीमित रहना पड़ता है, तथापि उनका पारस्परिक आकर्षण बढ़ता जाता है और वे एक-दूसरे से मिलकर मानसिक आनन्द की अनुभूति करते हैं । उम्र के बढ़ने के साथ लड़के-लड़कियाँ स्थायी रूप से जीवन-साथी की आवश्यकता महसूस करने लगते हैं। उनकी वही आवश्यकता विवाह के रूप में परिणत हो जाती है। व्यावसायिक संलग्नता एवं पारिवारिक प्रतिबद्धता व्यक्ति की सामाजिक स्थितियों को और मजबूत बनाती हैं। विभिन्न लोगों से मैत्री या दुश्मनी हो जाने के कारण उसकी सामाजिक चेतना में कई उतार-चढ़ाव भी आते हैं। यों शिक्षण, मेल-मिलाप, प्रोत्साहन और मानसिक संवेगों के कारण जीवन में सामाजिक भावनाओं एवं दायित्वों की प्राण-प्रतिष्ठा होती है। निश्चित तौर पर ग्यारह से इक्कीस वर्ष तक की आयु जीवन की वह अवस्था है जिसमें बालक के शारीरिक, संवेगात्मक, गत्यात्मक तथा मानसिक पहलुओं में बड़े ही क्रान्तिकारी और आश्चर्यजनक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के चलते ही व्यक्ति के सामाजिक वातावरण का क्षेत्र व्यापक हो जाता है। पुस्तकों के अध्ययन से सामाजिक ज्ञान भी खूब फल-फूल जाता है। कई लोग तो ऐसे होते हैं जिनके सामाजिक विकास का क्षेत्र इतना विशद हो जाता है कि वे परिवार, जाति, धर्म, वर्ग आदि की शृंखलाओं को तोड़कर विश्व बन्धुत्व और विश्व - प्रेम की सर्वोच्च मानवीय भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं। यद्यपि कई लोग अकेलेपन के भी शिकार हो जाते हैं, पर एक उम्र - विशेष में वे भी विश्वभावना का सम्मान करने लग जाते हैं । आत्म-सम्मान और आत्म- गौरव ही वे पहलू हैं जो व्यक्ति को दूसरों के लिए सक्रिय होने को सम्प्रेरित करते हैं। बड़ों को ही क्यों, अगर हम बच्चों की भी क्रियाओं का अवलोकन करें तो यह साफ जाहिर हो जाएगा कि वे अपनी बुद्धि, शक्ति और योग्यता का दूसरों के सामने प्रदर्शन करना बच्चों का सामाजिक विकस For Personal & Private Use Only ३९ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहते हैं। बुरा-भला कहने पर वे रुष्ट हो जाते हैं और उनमें दूसरों के साथ सम्बन्धों के प्रति जुगुप्सा पैदा हो जाती है। कोई उनकी प्रशंसा करे तो वे बड़े प्रसन्न हो उठते हैं। प्रशंसा आत्म-सम्मान का अहसास कराती है। यह आत्म-सम्मान की भावना ही तो अन्य लोगों एवं कार्यों के साथ सम्पर्क जोड़ने के लिए प्रोत्साहन देती है। बालकों के कार्य की थोड़ी-सी भी सराहना या प्रशंसा की जाए तो वे अपने सामर्थ्य के अनुसार न केवल अपने सभी कार्य करने के लिए उत्साहित होते हैं, वरन् दूसरों के लिए भी सहभागिता निभाते हैं। __ अभिभावकों तथा शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों में सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए उन बातों से बचें जो उनमें असहयोग की भावना पैदा कर सकती हों। बच्चा अपने किसी भी कार्य में थोड़ी-सी भी सफलता पा ले तो उसकी सराहना की जाए। यह सराहना वास्तव में उसे और अधिक सफलता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन देना है। प्रोत्साहन से ही बच्चों में अधिक सक्रियता आती है। सक्रियता की व्यापकता ही वास्तव में उसका सामाजिक विकास है। सामाजिक वातावरण से प्रभावित होकर सामाजिक गुणों को उपार्जित करना हमारे व्यक्तित्व का कर्मयोग है। 000 ४० कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -:. ::512 बौद्धिक विकास के मापदण्ड जीवन की सफलता जीवन की प्रगति पर निर्भर है। प्रगति का सही मापदण्ड तो यह है कि हमारी बौद्धिक क्षमताओं का कितना अधिक विकास हुआ है। बुद्धि हो तो मनुष्य बुद्धिमान प्राणी कहलाता है, बुद्धि अगर बौनी हो तो वही बुद्ध कहलाता है। बुद्धि के विकास के साथ जीवन का विकास होता है और उसकी परिपूर्णता में बुद्धत्व के सुरभित फूल खिलते हैं। मनुष्य के पास बौद्धिक क्षमता ही तो वह मीडिया' है जो व्यक्ति को पशुबनने से बचाता है। मनुष्य, मनुष्य है। वह अपनी प्रकृति की बदनियती में पशु जैसा तो हो सकता है, पर पशु नहीं हो सकता। बुद्धि मनुष्य की सम्पूर्ण गतिविधियों को पशुत्व से ऊपर उठा लेती है। वह व्यक्ति अपने जीवन और समाज के प्रति सचेष्ट कहा जाएगा, जो अपने एवं अन्य लोगों के बौद्धिक विकास पर पूर्ण ध्यान देता है। उसकी सम्भावनाओं पर पहाड़ टूट जाता है जो बौद्धिक दृष्टि से अपंग है। चाहे विज्ञान हो या व्यवसाय, व्यक्ति की बौद्धिक सम्पदा ही उसके - - - - - - - बौद्धिक विकास के मापदण्ड ४१ - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए सफलता का आधार-सूत्र बन पाती है। यदि मनुष्य यह चाहता है कि उसकी संतति सभ्य, संभ्रान्त और संस्कारित हो तो उसे सबसे पहले उसकी बौद्धिक क्षमताओं को उजागर एवं परिपुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। अनेक मौकों पर वृद्धजनों से यह सुनने को मिलता है कि हमारे जमाने में ज्ञान और शिक्षा पर इतना अधिक बल नहीं दिया जाता था इसीलिए हमें आज अड़चनें महसूस होती हैं और उस जमाने की कमी खटकती है। एक सफल जीवन के लिए बौद्धिक विकास पहली अनिवार्यता है, यह बात सबको अपने व्यावहारिक जीवन में महसूस होने लग गई है। यही कारण है कि एक अनपढ़ और गँवार पिता भी अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए सक्रिय है। वह चाहता है कि उसका बेटा जैसे-तैसे पढ़-लिख ले और समाज में जीने और कुछ कर दिखाने लायक बन जाए; भले ही इसके लिए उसे कोई कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े। . आम तौर पर यह देखा जाता है कि अपनी बुद्धिमान सन्तान पर हर व्यक्ति को गर्व होता है। व्यक्ति को अपने लड़के के नजन्मने या मर जाने पर इतना गम नहीं होता, जितना उसके बुद्धिहीन रह जाने पर होता है। जब कोई लड़का स्कूल जाता है तो माँ प्रसन्न होती है और जब वह अपनी परीक्षाओं में 'फर्स्ट डिविजन' से पास होने का प्रमाण-पत्र लेकर घर लौटता है तो घरवालों को इतनी खुशी होती है कि उसकी तुलना अन्य किसी खुशी से नहीं की जा सकती। __बुद्धिमान व्यक्ति कभी असफल नहीं हो सकता। जहाँ तक रोजगार या बेरोजगार का सवाल है, यह समस्या उन्हीं के सामने उपस्थित होती है, जो हकीकत में बुद्धिमान तो नहीं होते, मगर स्वयं की बुद्धिमत्ता का प्रमाणपत्र दिखाते फिरते हैं। बुद्धिमान आदमी कौड़ी के व्यवसाय से करोड़ों कमा लेगा। बाकी के प्रमाण-पत्र वाले तो करोड़ों के ख्वाब ही देखेंगे। ऐसे लोगों को तो घर बैठे-बैठाए पकी-पकायी रोटी चाहिए। खुद के बलबूते पर मेहनत करना कोई चाहते ही नहीं हैं। सबको तो केवल सरकारी नौकरियाँ चाहिए। सरकारी नौकरी में आदमी को फायदे नजर आते हैं। साल में चार - - - - - - - - - - - ४२ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीने तो ऐसे-वैसे ही छुट्टियाँ हो जाती है, बचे दिनों में दो-चार घण्टे काम कर लो और सेलेरी' पक्की। यह सोचव्यक्ति की कमजोर मानसिकता है। नतीजा यह होता है कि सरकारी नौकरी से होने वाली आय से उतना कुछ सध नहीं पाता जितने कि वह मंसूबे बाँधता है। फिर वह या तो रिश्वतखोरी या गफलेबाजी करेगा, या कोई अन्य गलत साधनों का सहारा लेगा। बुद्धिमान व्यक्ति कर्मठता में विश्वास करता है। अकर्मण्यता उसके लिए ना-इंसाफी है। उसके प्रयास ईमानदार होंगे और वह अपने प्रयासों के परिणाम भी ईमान भरे चाहेगा। यह सब तो बात हुई बुद्धि और रोजगार के सन्दर्भ में। सत्य तो यह है कि जीवन का हर क्षेत्र बौद्धिकता की अपेक्षा रखता है। कुछ छात्र अपनी योग्यता के बल पर उत्तीर्ण होना चाहते हैं, जबकि कुछ छात्र नकल करके आगे बढ़ना चाहते हैं। आखिर नकल, नकल है और अकल, अकल। मौलिक विकास नकल से नहीं, अकल से सम्भावित है। गणित और विज्ञान के सारे आयाम और अनुसंधान-परीक्षण भी हमारे बौद्धिक व्यक्तित्व की ही अपेक्षा रखते हैं। बुद्धि मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। बुद्धिमान प्राणी होने के नाते ही वह अन्य प्राणियों से अपनी श्रेष्ठता की अलग पहचान रखता है। बुद्धि वह प्रत्यय है जिससे समस्त अर्थवत्ताएँ प्रभावित हैं। आखिर यह बुद्धि है क्या? बुद्धि वास्तव में हमारे मन और मस्तिष्क से जुड़ी हुई एक अमूर्त शक्ति है। इस शक्ति-विशेष का ह्रास ही बौद्धिक अयोग्यता है और इसका विकास ही उसकी योग्यता का मापदण्ड है। बुद्धि विद्युत् के समान है। अदृश्य होते हुए भी उसका सशक्त अस्तित्व है। बुद्धि ही तो वह तत्त्व है जो नयी परिस्थितियों से समायोजन करता है। बुद्धि अतीत अनुभवों का प्रयोग करती है और विभिन्न कार्यों को विशाल दृष्टिकोण से देखती है। बुद्धि एक योग्यता है वातावरण के प्रति अभियोजन की, सीखने की, अमूर्त चिन्तन की। हर प्रकार की जटिलता, अमूर्तता, सोद्देश्यता, सामाजिक महत्ता तथा मौलिकता बुद्धि के द्वारा ही सम्पादित बौद्धिक विकास के मापदण्ड ४३ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती हैं। व्यक्तित्व का केन्द्रीकरण एवं संवेगात्मक प्रभावों का सन्तुलन बौद्धिक विकास एवं उसकी परिपक्वता से भी सम्भावित है। बुद्धि एक जन्मजात एवं स्वाभाविक शक्ति है। प्राचीन काल में विद्या या ज्ञान के आधार पर बुद्धि की परीक्षा ली जाती थी। जिसके पास जितना ज्ञान, वह उतना ही बुद्धिमान। मध्यकाल में शारीरिक संरचनाओं के आधार पर भी बुद्धिमत्ता की परीक्षा होती रही है। जैसे-'क्वचित् दंतर्भवेद् मूर्खः।' जबकि सच तो यह है कि बुद्धि का सम्बन्ध ऐसी किसी बनावट से नहीं है। यह शक्ति मनुष्य को स्वभावत: जन्म से ही प्राप्त होती है और धीरे-धीरे इसका विकास होता है। ____ व्यक्ति की मानसिक योग्यता उसकी आयु के आधार पर नहीं, वरन उसके विकास के आधार पर आँकी जाती है। कई बार ऐसा होता है कि बच्चे की उम्र तो दस साल होती है किन्तु मानसिक उम्र उससे पाँच साल कम होती है या पाँच साल अधिक होती है। यदि पाँच वर्ष का बालक बुद्धि-परीक्षण के लिए निर्धारित प्रश्नों का उत्तर अपनी उम्र के मुताबिक देता है तो उसकी मानसिक उम्र भी पाँच साल कही जाएगी। नहीं तो कम या ज्यादा। पाँच वर्षका बालक यदि अपने से अधिक उम्र वालों के लिए निर्धारित प्रश्नों का जवाब भी देता है, तो वह लड़का कुशाग्र है, तीव्रबुद्धि सम्पन्न है। बच्चे की मानसिक उम्र जितनी अधिक होगी, उसकी बौद्धिक क्षमता उतनी ही समर्थ और सशक्त कहलाएगी। __बुद्धि-परीक्षण के लिए शाब्दिक एवं क्रियात्मक दोनों ही पद्धतियाँ हैं। शाब्दिक प्रणाली के अन्तर्गत बच्चों से प्रश्न पूछे जाते हैं। जैसे दो वर्ष की अवस्था के बालकों के लिए तुम्हारी आँख कहाँ है? तुम्हारा नाम क्या है? तुम लड़की हो या लड़का? बालक को पेन-पेंसिल या पैसा दिखाकर पूछे कि यह क्या है? तीन वर्ष की अवस्था के बालकों के लिए एक जैसी दो सन्दूकों में कुछ सामान भर कर यह पूछे कि बताओ दोनों में किस सन्दूक का वजन ज्यादा है। लाल, पीला, हरा आदिरंगों की --- --- -------- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास ४४ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहचान पूछे। कुर्सी और घोड़ेमें या आग और पानी में क्या फर्क है? आज्ञाओं का पालन करना-इसे मेज पर रख दो। दरवाजा बन्द कर दो। यह डिब्बी मेरे पास ले आओ। पाँच वर्ष की अवस्था के बालकों के लिए हाथ में अंगुलियाँ कितनी हैं? दूसरे हाथ में कितनी हैं? और दोनों को मिलाकर कुल कितनी हैं? चित्र में क्या है या किसके बारे में है? मक्खी और तितली में क्या अन्तर है? आदि-आदि। बुद्धि-परीक्षण का जो दूसरा रूप है, वह क्रियात्मक बुद्धि-परीक्षण है। यह परीक्षण वास्तव में गूंगे, बहरे, अन्धे या अनपढ़ के लिए है। इस परीक्षण में भाषा या शब्द के स्थान पर मूर्त वस्तुओं, चित्रों याज्यॉमितीय आकृतियों आदि का प्रयोग किया जाता है। जो बच्चा इन प्रश्नों में से जिस अवस्था के उत्तर देने में सक्षम होता है , उसकी मानसिक या बौद्धिक उम्र या योग्यता उतनी ही तीव्र होती है। बौद्धिक क्षमता से ही जीवन में ज्ञान की विशदता अर्जित होती है। स्वभाव, सुझाव, हार्दिकता एवं संवेगात्मकता पर भी बौद्धिक विकास का प्रभाव पड़ता है। मनुष्य का मस्तिष्क तो जन्म से कोरा कागज है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसका कैसा उपयोग करें और उस पर क्या लिखें? रचनात्मक कार्यों में अपनी अभिरुचि एवं सक्रियता जोड़ना हमारे बौद्धिक व्यक्तित्व का सृजन-धर्मी उपयोग है। बुद्धि, अनुभव, शिक्षा और प्रयत्न से ही अस्तित्व की सभी उपलब्धियाँ हैं। बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए जिस खास सावधानी की जरूरत होती है, वह यह है कि उन्हें तनाव और चिन्ता से दूर रखा जाए। तनाव मनुष्य के मस्तिष्क की ऊर्जा को जलाता है, स्नायुओं को कमजोर करता है। चिन्ता दिमागी व्यवस्था को चौपट कर देती है। तनाव और चिन्ता से बचाने के लिए बच्चों को हमेशा अतिपीड़ा वाले वातावरण से मुक्त रखा जाए। उनके दिल में किसी तरह का सदमा नलगे, यह निहायत जरूरी है। - - - - - - - - - - - - बौद्धिक विकास के मापदण्ड - - ४५ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों को खेल-कूद और मनोरंजन के साधन भी उपलब्ध करवाए जाएँ। पढ़ाई का जरूरत से ज्यादा उस पर बोझ न पड़े। यदि सम्भव हो तो उसके लिए कम्प्यूटर की भी व्यवस्था की जाए। इससे उसकी बुद्धि दस गुना ज्यादा त्वरित होगी । बच्चों को योग और प्रार्थना के लिए भी प्रेरित करें। इससे उनमें एकाग्रता, इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास का उदय होगा। जीवन के विपरीत मार्गों पर कदम चले जाने के बावजूद उनकी आत्मा में नैतिक बल बना रहेगा। साथ ही वर्ष में एक-दो बार उन्हें यात्रा भी करवाएँ। इससे वातावरणपरिवर्तन होगा। घूमने-फिरने से मन के तनाव कम होंगे और देह - बल बढ़ेगा। नई-नई चीजों को देखने से नई-नई जिज्ञासाओं का जन्म होगा, जो कि ज्ञान-प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण पहलू है। बौद्धिक विकास के लिए जितना हमें सजग रहना चाहिए, उतना ही स्वयं बच्चे को भी । ४६ 000 कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबंधन बच्चों का मानसिक विकास हमारे उद्भव और विकास के साथ ही हमारे चिन्तन तथा चिन्तनमण्डल का उद्भव और विकास होना शुरू हो जाता है । हमारे चिन्तनमण्डल में स्वाभाविक रूप से विकास एवं परिवर्तन होता है। जन्म के बाद बालक का वातावरण के साथ समायोजन और प्रकृति के नियमों के साथ साक्षात्कार करना आवश्यक है । समायोजन और साक्षात्कार की गति और उसकी तीव्रता पर ही हमारे मानसिक संवेग तथा चिन्तन-मण्डल का विकास निर्भर करता है । उम्र की बढ़ोतरी के साथ ही चिन्तन-मण्डल भी फैलता चला जाता है। अन्तरिक्ष की तरह विराट् होता है मनुष्य का चिन्तन-मण्डल । हमारे जीवन में चित्त, बुद्धि, मन और चिन्तन जैसी अमूर्त शक्तियाँ इतनी विशदता और विराटता को समेटे हैं कि उन्हीं के चलते मानव-समाज की समस्त सभ्यताएँ एवं संस्कृतियाँ निर्मित और परिवर्तित होती हैं । मानव-समाज को वे युग भी देखने पड़ते हैं जिनके स्मरण - मात्र से ही नफरत के मारे रोंगटे बच्चों का मानसिक विकास For Personal & Private Use Only ४७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड़े हो जाते हैं। इतिहास उन उदाहरणों से भी अभिसिंचित होता रहा है, न केवल जिनकी याद सुखद है, वरन् चर्चाओं में उनका जिक्र कर हम उनके आदर्श स्वरूप को खुशी से इजहार भी करते हैं। __ मनुष्य की अध:पतित हुई सोच उसका कुण्ठित संवेग है। वहीं उस सोच का निखार और परिसंस्कार ही चिन्तन है। जब हम मानसिक-विकास की बात करते हैं तो उसका अभिप्राय चिन्तन-विकास ही है। तेइयार-दे-शार्दैन' और 'बेर्नाद्स्की ' ने चिन्तन-मण्डल के बारे में अपना जो विज्ञान प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार मनुष्य के अन्तरिक्ष में प्रवेश करने और ग्रह के अन्दर गहराई तक पहुँचने के बदौलत चिन्तनमण्डल में अविराम रूप से फैलते रहने की प्रवृत्ति होती है। जन्मत: तो मनुष्य का मस्तिष्क 'कोरी-स्लेट' की तरह होता है। जोन लॉक ने इसे 'टेबुला रसा' की संज्ञा दी है। मनुष्य अपने जीवन के शैशव में जो क्रियाएँ करता है, वे वास्तव में मस्तिष्क की गतिविधियाँ न होकर स्वाभाविक और प्रत्यावर्तित प्रतिक्रियाएँ हैं। इन्हीं क्रियाओं के द्वारा मानसिक-विकास की शुरुआत होती है। तेज आवाज किये जाने पर बच्चे का चौंक जाना, हाथ में दी हुई वस्तु का दबा लेना, शरीर को हिलानाडुलाना, हिचकी लेना, भोजन या मल विसर्जन करना ये सब वे क्रियाएँ हैं, जो स्वाभाविक और प्रत्यावर्तित प्रतिक्रिया होकर भी बच्चे को नये वातावरण के प्रति सचेत करती हैं और समायोजन के लिए प्रेरित भी। धीरे-धीरे यह सचेतता, प्रेरणा और सक्रियता ही बच्चे के मानसिक और बौद्धिक विकास की आधारभूमिकाएँ बनती हैं। बालक के मानसिकव्यवहार का विकास समय की अपेक्षा रखता है। जन्म के प्रथम सप्ताह में जो शिशु चमक और जोर से किसी भी शब्द या आहट को पसन्द नहीं करता है, वही एक वर्ष का होने पर खुद शब्दों का उच्चारण करना प्रारम्भ कर देता है। वह मम्मी-पापा की क्रियाओं का अनुकरण करने लगता है। वह समझने लगता है कि चॉकलेट पर चिपका हुआ कागज कैसे अलग किया जाता है। चिन्तन का विकास बचपन की ----------------- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास ४८ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड्योढ़ी पर इतनी तीव्रगति से होता है कि सात-आठवर्षका बालक तुलना और समानता को समझने लगता है। वह कई बातों का कारण बता देता है। बारह वर्ष का होने पर तो उसकी बौद्धिक क्षमता और चिन्तनशक्ति इतनी समर्थ हो जाती है कि वह मौके-बे-मौके सही सलाह तक दे सकता है। चिन्तन-मण्डल एवं मानसिक-व्यवहार की सशक्तता का प्रायोगिक साक्षात्कार तो जीवन की किशोरावस्था में होता है। वह चिन्तन, विचार, निर्णय, तर्क, विश्वास- हर दृष्टि से सक्षम होता है। जहाँ एक किशोर के मन में प्रतिष्ठित हुआ आत्म-विश्वास उसके जीवन के चहुंमुखी विकास का निमित्त बनता है, वहीं हीन-भावना से संत्रस्त बच्चा अपने आत्मविश्वास के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर बैठता है। किशोरावस्था वास्तव में जीवन का शैशवकाल है। यही वह काल है जब किशोरों के जीवनविकास, संस्कार और उनके आत्म-सम्मान पर पूरा ध्यान दिया जाए, क्योंकि एक किशोर के लिए आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वाससे बढ़कर अन्य कोई महत्त्वपूर्ण पहलू नहीं है। मनुष्य अपने मानसिक-विकास का मार्ग किशोरावस्था तक बहुत कुछ पार कर लेता है। चिन्तन का विकास तो युवा होने के बाद ही होता है, परन्तु बुद्धि का विकास तभी तक होता है जब तक शरीर का विकास चालू रहता है। परिपक्वता आ जाने पर बुद्धि का विकास रुक जाता है। उसके बाद तो चिन्तन और ज्ञान का विकास प्रारम्भ होता है। तालीम की आखिरी सरहदों तक पहुँचने के लिए जहाँ मानसिक योग्यता चाहिए, वहीं उसकी कसौटी और प्रखरता के लिए सोच और चिन्तन आवश्यक है। चिन्तन की रचनात्मक सफलता ही जीवन की सफलता है। मनुष्य के मानसिक और बौद्धिक विकास की शुरुआत तो शैशव जीवन में प्रारम्भ हो जाती है और इसकी गति प्राथमिक विद्यालयीय जीवन तक ही तीव्र रहती है, परन्तु बाल्यावस्था में विकास की गति में एकरसता हो आती है यानि तब विकास की दर एक-सी रहती है। पर हाँ, शैशव की - - बच्चों का मानसिक विकास ४९ - - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा तो उसकी गति मन्द ही होती है। हमारे मस्तिष्क और उससे जुड़ी विभिन्न शक्तियों का असली विकास तो किशोरावस्था में ही होता है। उस समय विकास की दर बड़ी पुख्ता और आश्चर्यकारी होती है। किशोरावस्था ही जीवन की वह उर्वरा भूमि है जिसमें रोपे गये संस्कारों का प्रभावकारी परिणाम निष्पादित होता है। ____मनुष्य का मानसिक और बौद्धिक विकास अधिकाधिक हो, हमारे चिन्तन मजबूत और सुलझे हुए हों, इसके लिए जरूरी है कि बच्चों को हीन-भावना से ग्रसित न होने दिया जाए। उनके आत्म-विश्वास, उत्साह और विचारों की हत्या न होने दी जाए। उनकी जिज्ञासाओं, इच्छाओं एवं बातों पर ध्यान देने का प्रयास किया जाना चाहिए। उन्हें आहार-शुद्धि, विचार-शुद्धि और आचार-शुद्धि के प्रति सजग रहने की प्रेरणा दी जाए। विनय और अनुशासन के प्रति उनकी अभिरुचि बनाई जाए। ___ बौद्धिक-विकास के लिए जरूरी है कि बच्चा स्वस्थ एवं निरोग रहे और उसे हँसते-खिलते वातावरण में जीने का अवसर मिले। व्यायाम या योगासन करने से उसकी तन्दुरुस्ती में सुधार होगा। मानसिक एकाग्रता के लिएध्यान का उपयोग किया जाना चाहिए। चिन्तन-द्वार पर की गईमानसिक एकाग्रता मनुष्य की सोई हुई चिन्तन-शक्ति को सक्रिय बनाती है। चिन्तनशक्ति का उदय ही वास्तव में जीवन के आंगन में ज्ञान का सूर्योदय है। चिन्तन, ज्ञान और प्रयोग की सामूहिकता ही जीवन के द्वार पर सफलता की दस्तक है। 000 कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मूल प्रवृत्तियों को दीजिए बेहतर दिशा हमारा मानवीय जीवन पुरुषार्थ का उपक्रम है। जीवन में जहाँ कामयाबी बटोरने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, वहीं कुछ मूल प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिनकी उपलब्धि अनायास होती है। जहाँ प्रतिभा जन्मजात होती है, वहीं प्रवृत्तियों का सम्बन्ध भी जन्म से ही होता है। जीवन में नई प्रवृत्तियाँ भी उपार्जित होती हैं, परन्तु जीवन का सारा फैलाव जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों पर ही केन्द्रित होता है। प्राय: यह पाया जाता है कि मनुष्य में जो जन्मजात प्रवृत्तियाँ होती हैं, मनुष्य के सारे संवेग और परिवर्तन उन्हीं से सम्बन्धित रहते हैं। मूल प्रवृत्तियों का जन्म बालक के जन्म के साथ ही हो जाता है परन्तु उनका विकास शरीर और उम्र के विकास के अनुसार होता है। __हमारे बाल्यजीवन में कुछ क्रियाएँ इतनी नैसर्गिक होती हैं कि उन्हें सीखने के लिए किसी भी प्रकार के प्रशिक्षण की जरूरत ही नहीं होती। बच्चा अपनी जैविकीय एवं प्राणी-शास्त्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने मूल प्रवृत्तियों को दीजिए बेहतर शिक्षा ----- ५१ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए खुद-ब-खुद वे क्रियाएँ करने लगता है। स्तन चूसना, मल-मूत्र त्यागना, क्रन्दन करना, पलकें झपकाना, सोना आदि क्रियाएँ बच्चे को कोई सिखाता नहीं है, यह उसकी मूल शारीरिक प्रवृत्ति है। नये वातावरण के साथ समायोजन करने की प्रवृत्ति भी बालक की स्वाभाविक क्रिया है। बच्चा जन्म से ही कई प्रकार की क्रियाएँ सीखकर आता है जिसकी पृष्ठभूमि में वास्तव में उसकी जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही होती हैं। खेलने के लिए बच्चे की उत्सुकता इतनी स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह होश आते ही खेलना शुरू कर देता है। खिलौने ही उसके साथी बन जाते हैं। वह अपने खेल में इतना तन्मय हो जाता है कि माता-पिता के रोकने पर भी नहीं रुकता, भूख-प्यास तक की भी परवाह नहीं करता। बच्चा अबोध है, पर खेलना उसकी मूल प्रवृत्ति है।. भूख लगने पर बच्चा माँ से दूध या भोजन के लिए बार-बार कहना शुरू कर देता है। अगर उसकी कोई वस्तु छीन ली जाए तो वह लड़नेझगड़ने और दहाड़े मारने लग जाएगा। यानी अपनी चीज पर किसी का अधिकार या हस्तक्षेप करने पर विरोध प्रदर्शित करना बच्चे का नैसर्गिक गुण है। बच्चे की इस प्रवृत्ति को अगर सही दिशा मिले तो उसकी यही प्रवृत्ति उसके लिए आत्म-रक्षा, अचौर्य और ईमानदारी की ओर उसे अभिमुख कर सकती है। भागना या पलायन करना भी बच्चे की मूल प्रवृत्ति है। जैसे ही किसी वस्तु, स्थान या वातावरण से बच्चे को खतरा महसूस होता है, वह वहाँ से तत्काल भाग जाता है। वहीं अगर उसे निर्भयता की प्रेरणा मिले तो बच्चे की दूसरी प्रवृत्ति उसे पलायन करने की बजाय जिज्ञासा की ओर सम्प्रेरित करेगी। किसी नई वस्तु को देखकर वह जिज्ञासा करने लग जाता है ताकि उसे उस वस्तु का ज्ञान हो। सामाजिकता के प्रति बच्चे की नैसर्गिक प्रवृत्ति देखकर बड़ा सुखद आश्चर्य होता है। खिलौने या वस्तुओं का संचय करना, मिट्टी के खिलौने -- ------- ----- - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास ५२ For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या रेत के घरौंदे बनाना, मित्र- मण्डली बनाना आदि प्रवृत्तियाँ बालक के नैसर्गिक व्यक्तित्व की अभिव्यंजनाएँ हैं । किशोर हो जाने पर बच्चा हर तरह की प्रवृत्ति करने लग जाता है। वात्सल्य की प्रवृत्तियाँ तो चालू रहती ही हैं, स्वतंत्रता की आकांक्षा और काम-संलिप्त मानसिकता जैसी प्रवृत्तियाँ भी उसमें अनायास विकसित जाती हैं। मनुष्य की ये सारी प्रवृत्तियाँ उसका जन्मजात और प्राकृतिक व्यवहार है। जन्म के समय में ही ये सारी प्रवृत्तियाँ बच्चे में उपस्थित रहती हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, उसकी वे प्रवृत्तियाँ उम्र के मुताबिक अपने आप प्रकट होने लगती हैं। मनुष्य की जन्मजात शक्तियाँ ही उसकी मूल प्रवृत्तियाँ हैं । वह बालक के रूप में जैसे ही इस विराट् विश्व में अवतीर्ण होता है, कुछ-न-कुछ व्यवहार करना प्रारम्भ कर देता है। बड़े होने के साथ ही उसके व्यवहार के दायरे भी बढ़ते चले जाते हैं। उसके समस्त व्यवहारों को संचालित करने का काम उसकी जन्मजात शक्तियों और मूल प्रवृत्तियों के जरिए होता है। बच्चे की प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के तीन पहलू होते हैं जिनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति ज्ञानात्मक, संवेगात्मक और क्रियात्मक रूप में होती है। ज्ञानात्मक पहलू के मुताबिक व्यक्ति सबसे पहले वस्तु- विशेष, ज्ञेयपदार्थ या उत्तेजक से प्रभावित होता है। ज्ञानात्मक पहलू के बाद किसी संवेग का अनुभव करना उसका संवेगात्मक पहलू है । क्रिया अथवा प्रतिक्रिया तो ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पहलू का ही परिणाम है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ ही उसके समस्त व्यवहारों को संचालित करती हैं। हर व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ उसकी मौलिकता है । संसार में मानवीय स्वभाव में रही हुई विभिन्नताएँ वास्तव में इन जन्मजात प्रवृत्तियों की विविधता के कारण ही हैं। प्रवृत्ति उसकी शक्ति है जो प्रकृति प्रदत्त और जन्मजात होती है। मनुष्य की जो मूल प्रवृत्तियाँ हैं, वे समस्त प्राणियों में किसी में कम, किसी में ज्यादा आमतौर पर पायी ही जाती हैं। पर हाँ, ये प्रवृत्तियाँ अपरिवर्तनशील हों, ऐसा भी नहीं है। प्रवृत्तियाँ विकसित तो मूल प्रवृत्तियों को दीजिए बेहतर शिक्षा For Personal & Private Use Only ५३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होंगी ही। पहाड़ से फूटा झरना तो बहेगा ही। यह अलग बात है कि उसे और बढ़ने के लिए कैसी राह मिलेगी। राह सीधी भी मिल सकती है, टेढ़ी-मेढ़ी भी । वह उसे विकृत भी कर सकती है और संस्कारित भी । यदि उसे रोकने और दबाने का प्रयास किया गया तो वह दमित भी हो सकती है । पर एक बात तय है कि किसी प्रवृत्ति का दमन उसके प्रकटन से ज्यादा खौफनाक है। यद्यपि मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्तियाँ मन: शारीरिक होती हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्धि और चेतना का उनमें पूर्णतया अभाव रहता है। मूल प्रवृत्ति का विकास और उसकी अभिव्यक्ति हमारे शारीरिक विकास पर आधारित है। मूल प्रवृत्यात्मक कार्य वास्तव में आयु और वातावरण पर आधारित होते हैं । प्राय: यह देखा जाता है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति जब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेती है, तब तक समाप्त नहीं होती है। चाहे उसका निरोध किया जाए या विरोध, वह आज नहीं तो कल अपने उद्देश्य को प्राप्त करना ही चाहेगी। पर हाँ, अगर उन प्रवृत्तियों का शोधन कर दिया जाए तो न केवल वे परिवर्तित हो जाती हैं, बल्कि उस प्रवृत्ति की शक्ति से कोई उच्च कोटि का कार्य भी सम्पन्न हो सकता है। प्रवृत्तियाँ तो मनुष्य और पशु सब में एक-सी ही रहती हैं, पर मनुष्यों की मूल प्रवृत्तियों में परिवर्तन सम्भावित है। पशु की प्रवृत्तियों का दमन तो किया जा सकता है, पर परिवर्तन नहीं। मानवीय प्रवृत्तियाँ पशुओं की अपेक्षा अधिक परिवर्तनशील होती हैं। मनुष्यों और पशुओं की मूल प्रवृत्तियों की चर्चा के दौरान यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि मनुष्य की प्रवृत्तियों की अपेक्षा पशुओं की प्रवृत्तियों का विकास जल्दी होता है । मानवीय शिशु जहाँ एक साल का होने पर चलने में सक्षम होता है, वहीं गाय का बछड़ा एक सप्ताह में ही । इस विकास-भेद का प्रमुख कारण मनुष्य और पशु का आयुष्य-भेद है। यदि किसी पशु का सम्पूर्ण आयुष्य ही दस साल का है तो उसकी प्रवृत्तियाँ भी उसी गति के साथ विकसित होंगी। चूँकि पशुओं में ५४ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धिक क्षमता परिपक्व नहीं होती इसलिए उनकी प्रवृत्ति और व्यवहार में विवेक-सन्तुलन नहीं होता। एक बौद्धिक प्राणी अपना प्रवृत्यात्मक व्यवहार अन्धे की तरह नहीं करता। ___ हमारे मानवीय जीवन में मूलत: तीन प्रवृत्तियाँ होती हैं-आत्मरक्षा, जाति-रक्षा और सामूहिक जीवन। कई मनोवैज्ञानिकों ने तो यह माना है कि मनुष्य की उतनी ही मूल-प्रवृत्तियाँ होती हैं, जितने प्रकार का वह व्यवहार करता है जबकि अनेक मनोवैज्ञानिक मनुष्य में केवल एक ही मूल प्रवृत्ति स्वीकार करते हैं और वह प्रवृत्ति ही उसके सारे व्यवहारों को प्रेरित और संचालित करती है। फ्रायड के अनुसार काम-प्रवृत्ति ही मूल प्रवृत्ति है। एडलर ने उस प्रवृत्ति को आत्म-प्रदर्शन की संज्ञा दी है। वर्गसन के मतानुसार वह प्राण-शक्ति है जबकि सोफेन हावर ने उस मूल प्रवृत्ति को जिजीविषा । जीने-की-इच्छा कहा है। मनुष्य के जीवन से जुड़ी हुई समस्त प्रवृत्तियों का अध्ययन करने पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रेम और उद्वेग मनुष्य की वे मूलभूत प्रवृत्तियाँ हैं, जिनके ईर्द-गिर्द मनुष्य का जीवन और उसकी सारी प्रवृत्तियों का वातायन खुला हुआ है। प्रेम और उद्वेग जहाँ हमारे मूलभूत संवेग हैं, वहीं हमारी मूलभूत प्रवृत्तियाँ भी हैं। हमारे मानवीय जीवन में विभिन्न प्रवृत्तियों का जो विस्तार है, उनमें भोजन का अन्वेषण, पलायन, युयुत्सा, निवृत्ति, शरणागत, ह्रास, जिज्ञासा, आत्म-गौरव, सामूहिकता, संग्रह, रचना, दैन्य-भावना, काम-प्रवृत्ति प्रमुख हैं। भोजन के अन्वेषण से उसकी मूल प्रवृत्ति चालू होती है। चौदह वर्ष की उम्र होन पर उसकी काम-प्रवृत्ति सुषुप्त अवस्था को त्याग कर जाग्रत अवस्था को प्राप्त कर लेती है। पुत्रकामना जैसी प्रवृत्तियाँ युवावस्था में उत्पन्न होती है। धर्माचरण की प्रवृत्ति इन प्रवृत्तियों के संस्कार या सुधार से या आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए उदित हुई देखी जाती है। प्रवृत्तियाँ जो भी हों, उन्हें सम्यक् दिशा प्राप्त होना नितान्त जरूरी है। वे मनुष्य की जन्मजात शक्तियाँ हैं, इसलिए इनमें मनुष्य की योग्यताओं मूल प्रवृत्तियों को दीजिए बेहतर शिक्षा For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाया हुआ है। प्रवृत्तियाँ चूँकि नैसर्गिक हैं, इसलिए उनका आविर्भाव और विकास भी नैसर्गिक रूप से अनिवार्यत: होता है । इन प्रवृत्तियों में बेहद तूफानी ताकत होती है। यदि जीवन के निर्माण और विकास में इन प्रवृत्तियों का समुचित उपयोग किया जाए तो न तो वे कभी पाशविक रूप धारण करेंगी और न ही उनका निरोध या विरोध करना पड़ेगा। उन्हें वांछित दिशा में रूपान्तरित करना ही मूल प्रवृत्तियों की सही उपयोगिता है। - जो मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि बच्चों की मूल प्रवृत्तियों का अनुदमन कर देना चाहिए, लगता है कि वे उन प्रवृत्तियों के मूल स्वरूप से पूरे परिचित नहीं हैं। सच तो यह है कि अगर किसी बालक की मूल प्रवृत्ति को दबाया जाएगा तो वे बच्चे के अचेतन मन में रहकर उसे अनैसर्गिक तथा अस्वाभाविक व्यवहार करने के लिए विवश कर देंगी । जैसे प्रवृत्तियों का दमन उचित नहीं है, वैसे ही उनका निरोध और विरोध भी उपयुक्त मार्ग नहीं है। वास्तव में न तो मूल प्रवृत्तियों का दमन करना चाहिए और न ही उन्हें स्वतंत्र छोड़ना चाहिए, बल्कि मूल प्रवृत्यात्मक शक्ति के प्रवाह को सम्यक् दिशा की ओर मोड़ देना चाहिए। यह वास्तव में प्रवृत्तियों का स्वस्थ मार्गान्तरीकरण और रूपान्तरण है। यद्यपि बच्चों को मूल प्रवृत्तियों के प्रकाशन का अवसर मिलना चाहिए, परन्तु उनको ही, जिन्हें सही मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ हो, अन्यथा यह स्वतंत्रता सामाजिक जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। ५६ कैसे करें व्यक्तित्व विकास For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चिन्तन-शक्ति का तार्किक विकास मानसिक क्षमताओं का विकास हमारे अस्तित्व और व्यक्तित्व का विकास है। व्यक्ति की कुण्ठित मानसिकता जहाँ व्यक्ति को संकीर्ण और तनाव ग्रस्त बनाती है, वहीं विकसित मानसिकता हमें वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने में अपनी सशक्त सक्रियता दर्शाती है। व्यक्ति समस्याओं को बड़ी बारीकी से समझ लेता है। उसका हर चिन्तन समाधान की ओर विकासशील तथा क्रियाशील होता है । 988. मानसिक योग्यताओं के बल पर ही मनुष्य, मनुष्य कहलाता है। प्राण-शक्ति तो अस्तित्व के हर अंश में है । कोई दोपाया है तो कोई चौपाया । सुखपूर्वक जीने की इच्छा सबमें है । मानसिक प्रक्रियाओं के आविर्भाव और विकास के चलते ही मनुष्य सारे जीव जगत् का गौरव - मुकुट है। - मानसिक प्रक्रियाओं के विकास के दौरान मुख्यत: हमारी संवेदना, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, तर्क, निर्णय आदि का विकास होता है । विभिन्न मानसिक पहलुओं में चिन्तन और तर्क का विकास अन्य सभी मानसिक चिंतन शक्ति का तार्किक विकास For Personal & Private Use Only ५७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्रियाओं का नेतृत्व कर लेता है। चिन्तन और तर्क के बलबूते पर ही व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और समस्याओं को भली-भाँति समझता है, उनकी थाह लेता है । जीवन या अस्तित्व से जुड़ी किसी भी प्रकार की समस्या क्यों न हो, समाधान के लिए चिन्तन और तर्क का ही इस्तेमाल किया जाता है । खेत-खलिहान की पैदाइश हल पर टिकी है और समस्याओं के हल के लिए चिन्तन और तर्क हैं। बगैर हल के जीवन की प्रगतियाँ कुण्ठित और नामर्द हैं। समस्याओं के अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता । व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या विश्व किसी-न-किसी समस्या के दबाव से घिरा - दबा है। शायद ही धरती पर कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसे पूर्णतया समस्या - मुक्त घोषित किया जा सके। कहीं पानी की समस्या है, तो कहीं बाढ़ की । कल अभाव की समस्या थी, आज स्वभाव की समस्या है। निरक्षरता समस्या है तो साक्षरों की बेरोजगारी भी समस्या है। कल तक जो यह कहकर ईमान को बेचने से कतराते थे कि उनके बाल-बच्चों का अनर्थ हो जाएगा, वे ही लोग यह कहते हुए पाए जाते हैं कि ईमानदारी रखकर क्या बालबच्चों को भूखों मारना है? ईमानदारी और बेईमानी दोनों ही समस्या बन गए हैं। दंगा-फसाद कराने वालों के लिए धर्म तो समस्या है ही, अब तो धर्म-निरपेक्षता भी एक समस्या है। लगता है व्यक्ति-व्यक्ति, समाजसमाज, देश-देश तो क्या सारा जहान ही समस्याओं के कांटेदार रास्तों पर चल रहा है। आज माना कि समस्याएँ ढेर सारी हैं, पर समाधान भी कम नहीं हैं। इंसानियत लम्बे इतिहास में मनुष्य के कदम समाधान की ओर निरन्तर प्रयत्नशील हैं । समाधान की जितनी सम्भावना थी, निश्चित तौर पर वे उतने नहीं ढूँढे सके, पर पूरी तरह असफलता भी नहीं मिली। जब तक इस धरती पर इंसान रहेगा, समस्याएँ पैदा होती रहेंगी, समाधान ढूँढे जाते रहेंगे। अंधकार को प्रकाश की चुनौतियाँ मिलती रहेंगी। कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिनकी पैदाइश हम करते हैं, पर वे ५८ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्याएँ भी बेशुमार हैं जिनकी बरसात कुदरती होती है। समस्याएँ चाहे स्वत: निःसृत हों या अर्जित-आरोपित, आखिर उनका समाधान तो हमको ही ढूँढना होगा। हमें ही चिन्तन करना होगाउन समस्याओं के पीछे छिपे हुए कारणों का। कमजोर चिन्तन के बल पर समस्याएँ मिटती नहीं हैं, आसमान छूती हैं। चिन्तन हो तार्किक, अनुभवगम्य, अभ्यासजन्य, अभियोजनकरने-में-समर्थ। सच तो यह है कि चिन्तन का जन्म ही समस्याओं के कारण होता है। समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यक्ति चिन्तन करता है और समाधान मिलते ही चिन्तन का प्रवाह रुक जाता है। वास्तव में किसी समस्या का समाधान करने वाली मानसिक प्रक्रिया ही चिन्तन है। चिन्तन वातावरण के प्रति चेतनागत समायोजन है। इसकी सम्पूर्ण भूमिका विचारपरक होती है। व्यक्ति अपने पूर्व प्रत्यक्षीकरण एवं अनुभवों के द्वारा संख्या, मुद्रा, दिशा, समय, दूरी, आकार, भार, जीवन, मृत्यु, सौन्दर्य आदि के सम्बन्ध में प्रत्यय बना लेता है और उन्हीं प्रत्ययों से वह सम्बन्धित सूत्रों पर टिप्पणी करता है। प्रत्यय वास्तव में व्यक्ति के पूर्व अनुभवों का योग है जो नई परिस्थितियों को समझने में सहायक होता है। चिन्तन का जन्म, जन्म से नहीं होता, आठ-नौ वर्ष की आयु के बाद ही चिन्तन की धारा फूटती है। आयुकी बढ़ोतरी के साथ चिन्तन की क्षमता में भी बढ़ोतरी होती है। बच्चों के जीवन में पाया जाने वाला चिन्तन प्राय: 'स्वगत भाषण' होता है। वे अन्य व्यक्तियों या पदार्थों पर चिन्तन न कर अपने ही विषय में करते हैं मानो वे अपने आपस ही बात कर रहे हों। चूँकि बच्चा कार्य-कारण सम्बन्ध से अपरिचित होता है, इसलिए उसके चिन्तन में तार्किक संगति नहीं होती। उसके चिन्तन और तर्क में कई बार गुड़-गोबर जैसा ऊटपटांग मेल हो जाता है। पर केवल बच्चा ही क्यों, वयस्क भी कई बार असंगत चिन्तन कर बैठता है। निश्चित तौर पर सही निर्णय के लिए चिन्तन और तर्क में संगति बैठनी आवश्यक है। चिंतन शक्ति का तार्किक विकास ५९ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुभूतिजन्य चिन्तन ही हमारी तर्क शक्ति को पौष्टिकता देता है। तर्क अतीत के अनुभवों को इस प्रकार मिलाता है कि समस्या का समाधान हो जाए । तर्क चिन्तन को परिणाम के और नजदीक ले जाता है। तर्क के लिए सोच जरूरी है। स्मृति और निरीक्षण के द्वारा तर्क समस्या का समाधान निकालने में कारगर होता है। चिन्तन तो मात्र विचार करना है, जबकि तथ्यों में पारस्परिक मेल बैठाना तर्क का काम है। जिसकी बुद्धि जितनी कुशाग्र होगी, उसका चिन्तन और तर्क उतना ही प्रखर होगा । चूँकि बच्चे का बौद्धिक विकास परिपूर्ण नहीं हो पाता है इसलिए यह स्वाभाविक है कि वयस्क की अपेक्षा उसकी तार्किक और वैचारिक शक्ति सीमित होगी। बच्चे का चिन्तन आत्म- केन्द्रित होता है जबकि वयस्कों का चिन्तन भी वस्तुगत होता है और उसका सम्बन्ध भी सारे वातावरण से होता है । चिन्तन के स्तर में भी दोनों में फर्क होता है। समस्या को हल करने की प्रवृत्ति भी बच्चे की अपेक्षा वयस्क की ज्यादा तीव्र होती है। बच्चे की चिन्तन- क्षमता की जो सबसे बड़ी कमी होती है, वह यह है कि उसकी सोच का सम्बन्ध केवल वर्तमान से होता है, जबकि बड़े होने पर वह भूत और भविष्य का भी चिन्तन और कल्पना कर सकता है। वयस्क होने पर उसका चिन्तन सूचना, अनुभव तथा ज्ञान पर आधारित होता है। शिक्षा, वातावरण और अनुभव - चिन्तन-शक्ति के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए बच्चे की श्रेष्ठ शिक्षा के लिए हमें भरपूर प्रयास करना चाहिए। आज का शिक्षित बालक कल के परिवार और समाज का शिक्षित आधार होगा । बेहतर होगा कि घर-परिवार का वातावरण हम इतना प्रेम और सम्मान से भरा रखें कि बच्चे के चिन्तन पर कभी दूषित प्रभाव न पड़े। हम भाई-बहिन, पति-पत्नी यदि आपस में झगड़ेंगे, गाली-गलौच करेंगे या गलत आदतों के शिकार होंगे तो यह मान कर चलिये कि बच्चे पर भी उसका असर पड़े बिना न रहेगा। एक प्रसंग में अध्यापक ने छात्र को डाँटते कैसे करें व्यक्तित्व - विकास ६० For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए कहा, 'बदतमीज ! चोरी करता है? बच्चे ने कहा, 'मेरे पापा चोरी करते हैं तो मैं तो करूँगा ही ।' दूसरे प्रसंग में अध्यापक ने बच्ची से पूछा, 'तुम सबके साथ इतनी आत्मीयता, सम्मान और विनम्रता से पेश आती हो, आखिर इसका कारण क्या है ?" बच्ची ने कहा, 'यह कोई नई बात नहीं है । मेरे परिवार में सभी लोग एक-दूसरे के साथ ऐसे ही पेश आते हैं।' जैसा वातावरण, व्यक्ति की मानसिकता एवं चिन्तन पर वैसा ही प्रभाव । आखिर उसे तदनुरूप ही अनुभव भी होंगे जो कि उसकी चिन्तन- धार को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त आधार बन जाते हैं । व्यक्ति या बच्चे में चिन्तन और तर्क का भली-भाँति विकास एवं समन्वय हो, इसके लिए प्रयत्न और सावधानी अपेक्षित है। बच्चे के किसी समस्या पर खुद सोचने के लिए अवसर दिया जाए। उसके मस्तिष्क में वैज्ञानिक, गणितीय और व्यावहारिक विकास हो, ऐसा प्रयत्न किया जाए। उससे प्रश्न - प्रतिप्रश्न किए जाएँ, समय-समय पर उससे सलाह मांगी जाए, ताकि वह खुद सोचने में सक्षम हो सके, चिन्तन में निरन्तरता आ सके। समस्याओं के समाधन के लिए वह स्वयं मौके-बे-मौके अपना निर्णय ले सके। बच्चे द्वारा की जाने वाली जिज्ञासा की उपेक्षा न करें। बच्चे की जिज्ञासा चिन्तन का उदय है। हम उसकी जिज्ञासा का सन्तोषजनक समाधान करें । चिन्तन-शक्ति का विकास सफल व्यक्तित्व श्रेष्ठ आधार है। चिंतन शक्ति का तार्किक विकास For Personal & Private Use Only 000 ६१ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुझाव दीजिए प्रेमपूर्वक जीवन-मूल्यों की प्राप्ति एवं निष्ठा हमारे चिन्तन, ज्ञान और हमारी सामाजिक मानसिकता का परिणाम है। मानवीय जीवन-मूल्यों के लिए व्यक्ति को आजीवन प्रयास करने होते हैं। यदि किसी व्यक्ति को अपने बचपन से ही जीवन-मूल्यों के लिए बेहतरीन प्रेरणा और सही सुझाव प्राप्त होते रहें तो उसके जीवन-मूल्यों से हटने की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। ___ एक व्यक्ति अनैतिक मार्ग की ओर बढ़ चलता है। उसका मुख्य कारण यही है कि उसे या तो सही मार्गदर्शक नहीं मिला या ऐसी सोहबत मिली जिसने उसकी मानसिकता और वृत्तियों को उच्छृखल बना दिया। बच्चे को प्रेरणा चाहिए, सुझाव चाहिए, क्योंकि वह संसार और प्रकृति के स्वभाव से परिचित नहीं है, गलत और सही की उसे समझ नहीं है। क्या करना चाहिए और किससे परहेज रखना चाहिए, उसकी आँखों में ऐसी कोई कसौटी नहीं है। जीवन में मानवीय मूल्यों की उपलब्धि के - - - - - - - - - - - -- - - - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए अभिभावकों या गुरुजनों के सुझाव ही सबसे ज्यादा कारगर साबित होते हैं। मानवीय मूल्य आज भी जीवित हैं क्योंकि इन मूल्यों की प्रेरणा हर कौम, हर तबके में प्रतिष्ठित है । व्यक्ति की मित्र - मण्डली ही उसका परामर्शमण्डल है। उसे जैसे परामर्श और सुझाव प्राप्त होते हैं, वह उनसे प्रभावित होकर उन्हें स्वीकार भी करता है। गलत सुझाव व्यक्ति को गलत मार्ग की ओर ले जाते हैं और अच्छे सुझाव अच्छे मार्ग की ओर । दुनिया में बुरे लोगों की कमी नहीं है तो अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। एक ओर जहाँ मानवीय जीवन में क्रूरता, नृशसता और बर्बरता का बेखौफ नृत्य हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर करुणा, सहृदयता व नि:स्वार्थ सेवा के उदाहरण भी भरपूर मौजूद हैं। आखिर मानवीय मूल्यों की इस ऊठापटक का कारण क्या है? जवाब है - उसकी प्रेरकवृत्ति का गलत होना या उसे वातावरण से गलत सुझाव प्राप्त होना। हर परिवार चाहता है कि उसका हर सदस्य नैतिक, अनुशासित और यशस्वी हो । निश्चित तौर पर उसकी यह अपेक्षा आवश्यक और सार्थक है परन्तु व्यक्ति को सार्थकता तब तक उपलब्ध नहीं होती, जब तक वह उसके लिए सार्थक प्रयास नहीं करता। शायद ही कोई माता-पिता ऐसे हों जो अपने बच्चे का भविष्य खतरे में डालना चाहते हों। इसलिए बच्चों को भी चाहिए कि वे अपने माता-पिता के सुझावों को स्वीकार करें, उनका आचरण करें। सुझावों को मानने से न केवल बच्चा नये वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने में सहयोग प्राप्त करता है, बल्कि उसे मानसिक, सामाजिक और चारित्रिक विकास में भी मदद मिलती है। सुझाव को स्वीकार करना वास्तव में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक प्रक्रिया है । यही कारण है कि एक व्यक्ति दूसरे के विचारों को अतार्किक होते हुए भी विश्वास के साथ स्वीकार कर लेता है। यह प्रक्रिया वास्तव में एक सन्देशात्मक प्रतिक्रिया है । सुझाव दीजिए प्रेमपूर्वक For Personal & Private Use Only ६३ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ सुझाव तो ऐसे होते हैं जो हमारे मस्तिष्क में अपने आप पैदा होते हैं। ऐसे सुझावों को हम आत्म-प्रेरित सुझाव कहेंगे । मस्तिष्क के ज्ञान-तन्तुओं में ऐसे आत्म-प्रेरित सुझाव उत्पन्न हुआ करते हैं जो हमारे अचेतन मन में निवास कर उन्हें प्रभावित करते हैं । दूसरे प्रकार के सुझाव व्यक्ति को माता-पिता, गुरुजन या अन्य किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से प्राप्त होते हैं। इन सुझावों का पालन हर व्यक्ति प्राय: कर ही लेता है। प्रधानाचार्य द्वारा दिया गया सुझाव बच्चा अनिवार्यत: पालता है । कभी-कभी व्यक्ति को समूह या समाज - विशेष द्वारा भी सुझाव प्राप्त होते हैं। जब कोई व्यक्ति सुझाव के विपरीत कार्य करता है तो उसे सुझावों का प्रतिषेध करने के कारण दण्डित भी किया जाता है । प्रभावपूर्ण सुझाव देने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों को समझना जरूरी है । सुझाव देते समय हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि सुझाव हमेशा अपने से कम उम्र वाले को देना चाहिए। बड़ों को दिया गया सुझाव, हो सकता है, उन्हें बुरा लगे । वे उसे हमारा सुझाव न समझकर कहीं उपदेश न मान बैठें। उल्टा वे हमें ही कहेंगे, 'छोटा मुँह, बड़ी बात ।' अगर बड़ों को सुझाव देने की नौबत आए तो उन्हें निवेदन की भाषा में सुझाव देना चाहिए । सुझाव हमेशा विश्वासपूर्ण स्वर में दिया जाना चाहिए ताकि उसका उस पर किसी प्रकार का तर्क या अविश्वास उत्पन्न न हो । सुझाव उसी को देना चाहिए जो ज्ञान की दृष्टि से खुद से कमजोर हो । बड़ी प्रसिद्ध लोकोक्ति है- 'सीख उसी को दीजिए, जिसको सीख सुहाय ।' सीख या सुझाव हमेशा दूसरों को सुधारने के लिए दिया जाता है। ऐसे-वैसे को यदि सुझाव देने लग गए तो हमारा सुझाव हमारे लिए ही महँगा पड़ जाएगा। हमें लेने के देने पड़ जाएँगे। बन्दर - प्रकृति के लोगों को दिया गया सुझाव बया के लिए आत्मघातक ही सिद्ध होता है । हमें अपनी शान्ति के घोंसले से हाथ धोना पड़ता है। इसलिए सुझाव देते समय यह जरूरी है कि उस पर हमारा अधिकार या मैत्री - सम्बन्ध हो । ६४ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुझाव परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। ऐसा सुझाव कभी भी हितकारी नहीं हो सकता जो व्यक्तिको उद्विग्न या विकृत करे।थकावट या भय की अवस्था में सुझाव हमेशा समझपूर्वक होना चाहिए। भावावेश में दिया गया या स्वीकार किया गया सुझाव कई बार घातक सिद्ध हो जाता है। चाहे कोई बड़ा हो या बच्चा, हर किसी में सुझाव प्राप्त करने की प्रवृत्ति या क्षमता होती है। वे अपने मार्ग-दर्शक शिक्षकों की बातों को ध्यान से सुनते हैं, इसलिए ऐसी कोई बात नहीं की जानी चाहिए जो उसके लिए अनर्गल साबित हो। बच्चों को चाहिए कि वे सुझावों का सम्मान करें क्योंकि सुझावों के कारण ही वे नये विचारों एवं समाधानों से परिचित होते हैं। शिक्षकों एवं अभिभावकों को चाहिए कि वे ऐसा आदर्श वातावरण बनाए रखें जिससे उनके सुझावों को स्वीकार करने के लिए बच्चे सदा उत्सुक और प्रेरित रहें। नकारात्मक सुझावों के बजाय विधेयात्मक सुझाव ही ज्यादा मनोवैज्ञानिक होते हैं। प्रेम और सहानुभूति के साथ दिया गया सुझाव हर व्यक्ति के लिए स्वीकार्य होता है। जैसे–मान लीजिए बच्चा जरूरत से ज्यादा चॉकलेट खाता है। आप उसे डाँटिये मत। उसे बताइये कि चॉकलेट में अमुक दोष है। ज्यादा खाने से दाँत खराब होंगे और पेट में कीड़े पड़ जाएँगे। आप प्रेमपूर्वक सुझाव दीजिए, बच्चाआदरपूर्वक स्वीकार करेगा। ___ सम्भव है, बच्चा जिद्दी हो, गुस्सा करता हो, या उसकी अन्य कोई गलत आदत पड़ चुकी हो। सीधा निर्देश देने की बजाय उसे प्यार से, सहानुभूति से समझाएँ कि क्या भला है, क्या बुरा है। जमाना बच्चों का है, कम्प्यूटर का जमाना है, सही बात को, सही प्रेरणा को वह सीधे ग्रहण कर लेता है। तार्किकता आज के युग की विशेषता है। आप अपने सुझाव इस तरह दें कि उसमें तर्क हो, दमन या दबाव न हो, आपकी बात सहज दिल को छूने वाली हो, आप पाएंगे आपके सुझाव किसी आदर्श प्रेरणा का काम कर रहे हैं। 000 ----- .---- - सुझाव दीजिए प्रेमपूर्वक For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों को दीजिए बेहतरीन प्रेरणा मनुष्य की समस्त वृत्तियों एवं क्रियाओं का कोई-न-कोई प्रेरकतत्त्व अवश्य है।। जहाँ मनुष्य को किसी प्रबुद्ध या प्रतिष्ठित व्यक्ति के द्वारा प्रेरणा प्राप्त होती है, वहीं उसके जीवन में समाया हुआ स्वयं का प्रेरकतत्त्व उसे विभिन्न क्रियाओं एवं समायोजनों के लिए प्रोत्साहन देता है। ऐसी प्रेरणा को हम आत्म-प्रेरणा कहते हैं। ___ हमारी विभिन्न वृत्तियों में एक वृत्ति ऐसी भी है जो हमें विविध प्रकार के कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। प्रेरणा इसी वृत्ति का नाम है। यह अन्त:वृत्ति है। क्रियान्वयन वसमाचरण की स्थिति वास्तव में इस प्रेरणावृत्ति के कारण ही उत्पन्न होती है। मनुष्य की अन्त:प्रेरणा वृत्ति जब उसे किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है तो व्यक्ति अपनी क्रिया को तब तक जारी रखता है, जब तक उसके उद्देश्य की पूर्ति न हो जाए। प्रेरणा-वृत्ति के मुख्यत: तीन ही कार्य हैं-क्रिया को उत्पन्न करना, उस क्रिया को जारी रखना और उद्देश्य-पूर्ति न होने तक उसे समाप्त न होने ------------- ६६ - For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देना। वुडवर्थ ने ठीक ही लिखा है- 'प्रेरक-वृत्ति व्यक्ति की वह अवस्था अथवा तत्परता है जो उसे किसी व्यवहार को करने के लिए एवं किन्हीं उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निर्देशित करती है।' प्रेरक वृत्तियाँ वास्तव में दो प्रकार की होती हैं, जिनमें एकतोजन्मजात होती है और दूसरी समाज द्वारा अर्जित की जाती है। जन्मजात प्रेरकवृत्तियों से अभिप्राय उन वृत्तियों से है जो व्यक्ति में जन्म से पायी जाती हैं। ऐसी वृत्तियों की तृप्ति व्यक्ति अनिवार्यत: चाहता है क्योंकि ये शारीरिक वृत्तियाँ होती हैं। जैसे भूख, प्यास, नींद, काम, मल-मूत्र विसर्जन आदि। वृत्तियाँ वास्तव में जीवन की अति-आवश्यक शरीरजनित प्रेरक वृत्तियाँ हैं जिनकी पूर्ति के अभाव में जैविकीय प्रश्न-चिह्न लग जाता है। भूख वह वृत्ति है जिसका जन्म न केवल मनुष्य में, वरन् प्राणिमात्र में होता है। भोजन मनुष्य की आवश्यकता है, प्राणिमात्र की आवश्यकता है। शरीर के विभिन्न अंगों द्वारा लगातार कार्य करते रहने पर शरीर की जो शक्ति नष्ट हो जाती है, उसे दुबारा प्राप्त करने के लिए आहार की जरूरत हो जाती है, उसे दुबारा प्राप्त करने के लिए आहार की जरूरत पड़ती है। ___भूख की प्रवृत्ति एक बड़े व्यक्ति की अपेक्षा एक बच्चे में ज्यादा होती है। एक व्यक्ति अपनी भूख को कई घण्टों तक बर्दाश्त कर सकता है, कई दिनों तक उपवास कर सकता है, पर बच्चे के लिए यह सब संभव नहीं है। बच्चे में भूख की प्रवृत्ति बड़ी उग्र होती है। उसे थोड़ी-थोड़ी देर में ही भूख लग जाया करती है। कई माता-पिता बच्चे की इस प्रवृत्ति से तंग हो उठते हैं जबकि बच्चे को उसकी भूख के मुताबिक प्रेमपूर्वक खाना-पीना देना चाहिए। अगर बच्चे के लिए यह नियम बना दिया जाए कि उसे चार-पाँच बार भोजन देना है तो और भी अच्छा रहेगा। इसके द्वारा उसके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ नियम और अनुशासन की प्रवृत्ति भी जागृत हो सकती है। ___प्यास हमारी दूसरी प्रेरक-वृत्ति है। इस वृत्ति के कारण ही व्यक्ति जल चाहता है। हम जो जल पीते हैं वह पसीना, पेशाब और श्वास के द्वारा बच्चों को दीजिए बेहतरीन प्रेरणा ६७ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कासित हो जाता है। पानी के अभाव में व्यक्ति बेचैनी और व्यग्रता महसूस करने लगता है। उचित तो यह रहता है कि हम वैसा आहार करें जिसमें पानी की मात्रा या आर्द्रता पर्याप्त हो। पानी के अतिरिक्त दूध और विभिन्न सब्जियों एवं फलों में भी पानी की पर्याप्त मात्रा होती है। भूख और प्यास की तरह नींद भी हमारी एक जन्मजात शारीरिक वृत्ति है। नींद प्राणी-मात्र के लिए उतनी ही जरूरी है जितना जीने के लिए भोजन। यह हर प्राणी की प्राकृतिक आवश्यकता है। शारीरिक और मानसिक थकान दूर करने के लिए नींद ली जाती है। वयस्कों की अपेक्षा बच्चे ज्यादा नींद लिया करते हैं। नवजात शिशु बीस से बाईस घण्टे तक सोते हैं। वे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, वैसे-वैसे उनके नींद लेने का समय कम होता जाता है। एक वर्ष की आयु वाला बालक प्रतिदिन चौदह से पन्द्रह घण्टे सोता है। सात वर्ष का बालक ग्यारह घण्टे, दस वर्ष का नौ-दस घण्टे जबकि अठारह वर्ष के बालक को सात-आठ घण्टे सोने की आवश्यकता होती है। जो बच्चा अपनी उचित मात्रा में नींद ले लेता है, उसे शारीरिक या मानसिक थकान महसूस नहीं होती और उसके जीवन में स्वास्थ्यकर प्रगति होती है। मनुष्य की जन्मजात प्रेरक वृत्तियों में काम-प्रवृत्ति बड़ी प्रबल होती है। फ्रायड ने तो एकमात्र इसी प्रवृत्ति के आधार पर जीवन के सम्पूर्ण मनोविज्ञान का विश्लेषण किया है। उनके अनुसार बच्चे द्वारा माँ का स्तन या अपना अंगूठा चूसना भी उसकी काम-प्रवृत्ति का ही परिचायक है। उम्र की बढ़ोतरी के साथ काम-प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति में भी फर्क आ जाता है। बचपन में माँ से प्रेम करने वाला बालक किशोर होने पर विपरीत लिंग को अपने प्रेम का पात्र बना लेता है। कभी-कभी किशोर मान्य प्रथाओं तथा परम्पराओं का अतिक्रमण कर गुप-चुप एक-दूसरे से मिलकर अपनी बेचैनी दूर कर लेते हैं। प्रेम-पत्रों, प्रेम-सन्देशों या प्रेमोपहारों द्वारा भी व्यक्ति अपनी काम-प्रवृत्ति की तृप्ति कर लेता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार काम-प्रवृत्ति का दमन हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ------------- ६८ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित नहीं है। अच्छा तो यह है कि मनुष्य को अपनी यह प्रवृत्ति साहित्य, संगीत, कला और समाज-सेवा की ओर मोड़ देनी चाहिए। इन जन्मजात प्रेरक-वृत्तियों के अतिरिक्त कुछ अर्जित प्रेरक वृत्तियाँ भी होती हैं जिनके कारण व्यक्ति में इच्छा, अभिरुचि एवं लक्ष्य का विकास होता है। अर्जित प्रवृत्तियों में कुछ व्यक्तिगत होती हैं तो कुछ समाजजन्य । व्यक्तिगत प्रेरक वृत्तियाँ हर व्यक्ति की अलग-अलग होती हैं । यद्धपि वृत्ति का मूल तो लगभग सबमें एक जैसा होता है, परन्तु उसके स्तर में फर्क आ जाता है। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं से अभिभूत होता है किन्तु कुछ लोग बड़े महत्त्वाकांक्षी हुआ करते हैं। आकांक्षा के स्तर में फर्क होने के कारण ही एक व्यक्ति तो दो-चार हजार रुपये की नौकरी में संतुष्ट हो जाता है, वहीं अन्य व्यक्ति अपनी आकांक्षा की तृप्ति के लिए लाखों-करोड़ों का व्यवसाय करना चाहता है । कोई लड़का बी. ए. पास करना चाहता है तो कोई शिक्षा की आखिरी ऊँचाई को छुए बगैर परितृप्त नहीं होता । यह भेद वास्तव में आकांक्षा के स्तर में होने वाले भेद के कारण है । प्रत्येक व्यक्ति का जीवन-लक्ष्य भी भिन्न होता है। मनुष्य की आत्मा उसे जैसा बनने की प्रेरणा देगी, उसका लक्ष्य वैसा ही घटित होता चला जाएगा। कोई तो वकील बनना चाहता है तो कोई डॉक्टर। किसी का लक्ष्य ऑफिसर बनने का होता है तो किसी का व्यापारी बनने का । जीवन-लक्ष्य के इन विविध रूपों के अलावा कुछ और भेद भी नजर आते हैं। डॉक्टर बनना एक लक्षण हुआ, किन्तु कुछ लोग इसलिए डॉक्टर बनना चाहते हैं कि वे इसे जनसेवा का उपक्रम मानते हैं। कुछ का उद्देश्य यह होता है कि डॉक्टर बनकर वे खूब पैसा कमाएँगे। कुछ लोग इसलिए भी डॉक्टर बनते हैं ताकि वे अपना और अपने परिवार का स्वास्थ्य दुरुस्त रख सकें। यह भी संभव है कि कोई बालक इन सभी तथ्यों से प्रेरित होकर डॉक्टर बनने के बच्चों को दीजिए बेहतरीन प्रेरणा For Personal & Private Use Only ६९ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए प्रयत्नशील होता है। वास्तव में जीवन-लक्ष्य हमारी अन्त:वृत्ति की ही प्रेरणा है। प्रेरक वृत्तियों के चलते ही व्यक्ति में कई तरह की आदतें भी पड़ जाती हैं। प्रेरक वृत्ति का काम व्यक्ति को किसी कार्य-विशेष को करने के लिए उत्साहित करना है। किसी कार्य को बार-बार करते रहने से उसकी आदत पड़ जाती है। थोड़ा समय गुजरने पर तो वह आदत जीवन की जड़ों में इस कदर पैठ जाती है कि वह एक प्रबल प्रेरक वृत्ति का रूपधारण कर लेती है। यदि कोई लड़की रोजाना सुबह उठते ही आईने में अपना चेहरा देखती है तो आदतवश किसी दिन आईना न मिलने पर वह तब तक बेचैन रहती है जब तक वह अपने चेहरे को आईने में न देख ले। यदि किसी बच्चे की आदत सिगरेट या शराब पीने की घर कर जाए, तो व्यक्ति के लिए यह प्रेरक वृत्ति बड़ीभयानक साबित होती है। कोई भी लड़का या व्यक्ति शुरू में तो इसलिए मद्यपान या मद्यव्यसन करता है ताकि वह अपने दमन का दर्द या असफलताओं की निराशा से छुटकारा पा सके। पर धीरे-धीरे उसका यह प्रयास उसकी आदत बन जाती है और वह आदत फिर उसकी मजबूरी! __ हमारे जीवन की जो सबसे महत्त्वपूर्ण वृत्ति है, वह है अभिरुचि। जिसकी जिस क्षेत्र या वस्तु के प्रति रुचि होती है, वह उसी के प्रति ज्यादा सक्रिय रहता है। रुचि की प्रगाढ़ता वास्तव में मन की एकाग्रता है। संभव है, किसी बच्चे के लिए गणित का विषय बड़ा भारभूत हो, परन्तु वहीं कोई दूसरा बच्चा गणित में ज्यादा रुचि होने के कारण उसमें बड़ा रस लेता है। वास्तव में अभिरुचि वह प्रेरक वृत्ति है जिसमें सुख का भाव रहता है। उसमें वांछित वस्तुको प्राप्त करने या उसके बारे में कुछ करने की ज्ञानजनित प्रवृत्ति छिपी रहती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हर बच्चे में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की मनोवृत्तियाँ होती हैं। घरेलू वातावरण के साथ समायोजन हो जाने के कारण व्यक्ति, जाति, समाज, देश और धर्म के प्रति बच्चे के मन में कुछ-न-कुछ मनोवृत्ति तो रहती ही हैं। जिनके प्रति बच्चे की अनुकूल - - - - - ७० ---- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोवृत्ति हो जाती है, उनको वे सबसे श्रेष्ठ मानने लग जाते हैं और जिनके प्रति उनकी प्रतिकूल मनोवृत्ति होती है, उनको वेगलत और निकृष्ट साबित करने की कोशिश करते हैं। एक मुस्लिम बच्चे द्वारा कुरआन को श्रेष्ठ या रामायण को साधारण कहने अथवा किसी हिन्दू बच्चे द्वारा रामायण को श्रेष्ठ या कुरआन को साधारण बताना वास्तव में इस अनुकूल-प्रतिकूल मनोवृत्ति का ही परिणाम है। पर ये सब व्यक्तिगत प्रेरक वृत्तियाँ हैं। कुछ वृत्तियाँ ऐसी होती हैं जो सार्वभौम होने के कारण सामाजिक कही जाती हैं। अस्तित्व के हर अंश में सामुदायिकता या सामाजिकता का स्पष्ट व्यवहार नजर आता है। बच्चे के मन में इस प्रेरक वृत्ति का जन्म आश्रितता के फलस्वरूप होता है। सामुदायिकता के विकास का सूत्रपात माँ से होता है और धीरे-धीरे समुदाय या समाज उसके जीवन की वह अनिवार्य कड़ी बन जाता है जिसके साथ मिल-जुलकर काम करना उसे सुहाता है। सामाजिक परिवेश में जीने के कारण मनुष्य के मन में यह प्रेरणा उत्पन्न होती है कि वह औरों के बीच अपनी स्थापना कैसे करे? मनुष्य की वह वृत्ति ही वास्तव में आत्म-गौरव कहलाती है। इस वृत्ति से आन्दोलित होकर ही व्यक्ति दूसरों पर अपना अधिकार जमाना चाहता है, समाज का नेतृत्व करना चाहता है और औरों के बीच अपनी प्रतिष्ठा कायम करना चाहता है। हमारे मन में जगने वाली प्रेरक वृत्तियों के अनेकानेक व्यावहारिक लाभ भी हैं। प्रेरक वृत्ति के प्रभाव-स्वरूप ही समस्त शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। अपने उद्देश्य की आपूर्ति के लिए मनुष्य की प्रेरक वृत्तियाँ जहाँ उसमें शक्ति का संचार करती हैं, वहीं सफल होने पर वे उसे गौरवान्वित भी महसूस करवाती हैं। व्यक्ति या बच्चा जो भी क्रियाएँ करता है, वह निश्चित तौर पर किसी-न-किसी आवश्यकता से अनुप्रेरित होकर ही करता है। आवश्यकता की पूर्ति ही वास्तव में उद्देश्य की पूर्ति है। आखिर आवश्यकता के कारण ही तो उसके व्यवहारों एवं कार्यों का उद्देश्य बच्चों को दीजिए बेहतरीन प्रेरणा ७१ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तय होता है। कभी-कभी तो प्रेरक वृत्तियाँ मनुष्य को इतना अधिक उत्तेजित और आन्दोलित कर देती हैं कि वह साहसपूर्वक बड़ी-से-बड़ी जोखिम उठाने को तैयार हो जाता है। प्रेरक वृत्तियाँ हमें अपने काम के प्रति बड़ी तत्परता प्रदान करती हैं। भले ही कोई बच्चा साल भर मौज-मस्ती मनाता हो, पर परीक्षा का समय नजदीक आते ही प्रेरक वृत्तियाँ उसे इतनी अधिक प्रेरित करती हैं कि वह परीक्षा की तैयारी में रात-दिन एक कर देता है। प्रेरक वृत्तियों के कारण ही जहाँ व्यक्ति की सक्रियता सर्वतोभावेन समग्र होने लगती हैं, वहीं उसकी आपूर्ति न होने तक बेचैनी भी बरकरार रहती है। यद्यपि बेचैनी या उतावलेपन पर बच्चे को नियंत्रण करना चाहिए, मगर यह भी सच है कि बेचैनी व्यक्ति को उसकी सक्रियता से मुँह नहीं मोड़ने देती है। जिन्हें सही निर्देशन और अच्छी शिक्षा प्राप्त होती है, उनमें प्रेरक वृत्तियों का विकास भी उतना ही सशक्त और परिपूर्ण होता है। मार्गदर्शन या उचित शिक्षा के अभाव में प्रेरक वृत्तियाँ तो स्वभावत: जगेंगी ही, परन्तु तब वे अनैतिक, असामाजिक या अव्यावहारिक भी हो सकती हैं। एक बात तय है कि असामाजिक प्रेरक वृत्तियाँ जहाँ स्वयं के लिए नुकसानदेह हैं, वहीं परिवार, पड़ोस और समाज के लिए भी अवांछित कदम हैं। 000 ७२ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र-निर्माण : श्रेष्ठ व्यक्तित्व की पूंजी चाहे कोई बालक हो या वयस्क अथवा बुजुर्ग, उसका चरित्र ही उसके व्यक्तित्व का आधार और सामाजिक सम्मान का कारण बनता है। सफलता-असफलता का द्योतक चरित्रही है। यदि वह सफल है तो जीवन सफल है। यदि वह विफल है तो जीवन असफल है। बिना चरित्र का इंसान बिना छत का मकान है। जहाँ व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति की चरित्रशीलता सबसे महत्त्वपूर्ण है, वहीं इसकी इच्छा-शक्ति और स्थायी भावों के सम्पादन में भी उसकी अहम् भूमिका है। एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के लिए जीवन में मानवोचित गुणों का साक्षात्कार अनिवार्य है। मानवीय गुणों की चर्चा होते ही सहजतया उसका सम्बन्ध चारित्रिक विकास के साथ जुड़ जाता है। व्यक्तित्व के कारण व्यक्ति की पूजा होती है और व्यक्तित्व का निर्माण मानवीय तथा चारित्रिक गुणों के कारण होता है। व्यक्तित्व चाहे पारिवारिक हो या सामाजिक, बगैर चरित्रशीलता के उसकी न तो विश्वसनीयता रहती है और न ही प्रतिष्ठा। ----------- चरित्र-निर्माण : श्रेष्ठ व्यक्तित्व की पूंजी ७३ For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रिक गुणों में नैतिकता और धार्मिकता भी सहजतया प्रतिष्ठित रहती हैं। चारित्रिकता और नैतिकता का विकास ही उसका व्यक्तित्वविकास है। या इस यों भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति का नैतिक विकास ही उसका चारित्रिक विकास है। जीवन में चारित्रिक उपलब्धियाँ नैतिक प्रतिमानों से ही अर्जित होती हैं। चरित्र स्वयं में एक मानसिक संरचना है। इसी के चलते व्यक्ति उस सामाजिक परम्परा के अनुकूल आचार-व्यवहार करता है जिसके बीच उसका अस्तित्व है तथा उसके व्यक्तित्व का विकास हुआ है। चरित्र केवल इच्छा-शक्ति का परिणाम, स्थायी भावों का निर्माण या आदतों का समूह ही नहीं है, वरन् तीनों का सम्मिलित प्रयास है। इच्छा-शक्ति, श्रेष्ठ स्थायी भाव व अच्छी आदतें ही व्यक्ति के चरित्र को सर्वतोभद्र पूर्णता प्रदान करती है। हर मनुष्य के चरित्र के तीन रूप होते हैं। एक तो वह जैसा कि वह, अपने आपको समझता है, दूसरा वह, जैसा कि लोग उसे समझते हैं और तीसरा वह, जो कि वह वास्तव में है। आत्म-प्रदर्शन की भावना के चलते व्यक्ति अपने चरित्र को बढ़ा-चढ़ा कर भी प्रस्तुत कर सकता है, पर लोगों की पारखी नजर अन्तत: उसके वास्तविक चरित्र को पहचान लेती है। चरित्र वही मूल्यवान् होता है, जो कि वास्तविक हो। जहाँ भीतर-बाहर, कथनी-करनी में पवित्र एकरूपता हो, वही प्रामाणिक चरित्र बनता है। झूठन बोलना, चोरी न करना, गलत दृष्टि न डालना, जीवन में निष्ठा, ईमान और प्रामाणिकता रखना चरित्र के प्रथम सोपान हैं। व्यक्ति की चारित्रशीलता का सबसे बड़ा प्रभाव यह होता है कि समाज के लिए वह विश्वस्त बना रहता है। सच्चरित्र व्यक्ति के लिए मौके-बेमौके हर कोई यह दावा करते हुए देखा जाता है कि हम उसके प्रति निश्चिन्त रहें क्योंकि उससे हमें कोई खतरा नहीं है। एक सच्चरित्र व्यक्ति अपने इरादों एवं लक्ष्यों के प्रति न केवल नेक होता है अपितु अपनी जिम्मेदारियों के प्रति एकनिष्ठ और सावचेत भी होता है। - - - - - - - - ७४ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीना तो वही है जो इज्जत से जिया जाए । बेइज्जती जीते-जी आत्महत्या है। ऐसा चरित्र या व्यवहार किस काम का जिसके कारण आदमी को सौ लोगों के बीच नीचा देखना पड़े। व्यक्ति का चरित्र तो इतना निर्मल हो कि लोग उसे अपनी आँखों में बसाना चाहें। सम्मान और प्रतिष्ठा वास्तव में चारित्र - वृक्ष की छाया है। चरित्र के प्रति निष्ठा रखने वाले लोग सदा सक्रिय होते हैं, निष्क्रिय नहीं। सच्चरित्र - पुरुष अपनी मेहनत की कमाई खाना पसंद करते हैं, किसी की मेहरबानी की नहीं। उनकी निगरानी के लिए चाहे कोई 'सुपरवाइजर' रखा जाए या नहीं, वह अपने कर्त्तव्य के प्रति कभी लापरवाह नहीं होगा । उससे जब भी मिलो, व्यवहार में प्रसन्नता झलकती दिखाई देगी। चाहे नुकसान भी क्यों न हो जाए, वह निराश नहीं होगा, वरन् उसके उपरान्त भी अपने कर्तव्य के मार्ग पर डटा रहेगा। निश्चित तौर पर चरित्र का मुख्य सम्बन्ध हमारे सामाजिक व्यवहारों से है, परन्तु इसके साथ ही आत्म-सम्मान के स्थायी भाव से भी है। समाज चाहे उसके व्यवहार को देखे या अनदेखा रखे, पर वह अपनी सच्चाई और ईमानदारी को कभी गिरवी नहीं रखेगा । चरित्र का यह स्तर नैतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । मनुष्य का नवजात शिशु - रूप न सामाजिक होता है, न असामाजिक । वह तो होता है समाज - निरपेक्ष। समाज के बीच पलने - बढ़ने के कारण उसमें सामाजिक सापेक्षता साकार होने लगती है। धीरे-धीरे वह मातापिता और भाई-बहिन की जरूरत और व्यावहारिकता समझने लगता है । वह समझने लगता है कि उसके द्वारा किस प्रकार की क्रिया करने से लोग उससे अप्रसन्न या प्रसन्न होंगे। वह अपनी क्रियाओं में बदलाव या सुधार करने लगता है और नये व्यवहारों को सीखने लगता है । उम्र के बढ़ने के साथ उसकी समझ में भी बढ़ोतरी होने लगती है। तीन वर्ष के बाद उसकी समझ-शक्ति दुरुस्त होने लगती है। वह उन कामों को करना अधिक पसन्द करता है जिनके करने से उसे शाबासी मिलती है। वह उस प्रवृत्ति की चरित्र-निर्माण : श्रेष्ठ व्यक्तित्व की पूंजी For Personal & Private Use Only ७५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता जिसके कारण उसे पहले गन्दा या शरारती बच्चा कहा गया हो । यद्यपि अपनी शरारत पर बच्चा दुःख तो प्रकट कर देता है, पर उसके लिए पश्चात्ताप नहीं होता। उसका झूठ बोलने का कोई इरादा नहीं होता । वह ईमानदारी और बेईमानी के फर्क को भी नहीं समझता । यह इस उम्र की अनोखी देन है। बाल्यावस्था के उत्तरार्द्ध में बच्चे का चारित्रिक विकास अपनी गति पकड़ लेता है । आठ-नौ वर्ष के बच्चे को यह भली-भाँति समझ आ जाती है कि उसे क्या करना चाहिए और किससे परहेज रखना चाहिए? गलती या शरारत हो जाने पर वह चाहता है कि उसे उस शरारत के लिए माफ कर दिया जाए। दण्ड उसे कतई अच्छा नहीं लगता। उसके मन में यह इच्छा तो प्रबल रहती है कि उसके कार्यों की सराहना की जाए हालांकि वह समझने लगता है कि किसी को पीड़ा देना, झूठ बोलना, चोरी करना, धोखा देना या तोड़-फोड़ करना ठीक नहीं है, फिर भी नादानीवश वह यह सब कर बैठता है। दस वर्ष के बच्चे में क्षोभ और पश्चात्ताप दोनों का विकास हो जाता है । अच्छे-बुरे का ज्ञान होने के बावजूद बाल्यावस्था में सदाचार-संहिता का पूरा विकास नहीं हो पाता है। किशोरावस्था जीवन की वह कड़ी है जो चारित्रिक गुणों को एक प्रबल आधार देती है। यही तो वह उम्र है जिसमें आत्म-सम्मान का स्थायी भाव विकसित हो जाता है। इसी से प्रेरित होकर वह ऐसे कामों से परहेज रखता है जो उसके निर्धारित लक्ष्य के विपरीत हों। वह नैतिक आदर्शों को तर्क की कसौटी पर कसने में सक्षम होता है । इस अवस्था में बच्चे में राष्ट्र-प्रेम, परोपकार, सहानुभूति और अनुशासन जैसे चारित्रिक गुणों के संस्कार दिये जाएँ तो व्यक्तित्व विकास और सामाजिक व्यवहारों में बड़े महत्त्वपूर्ण परिवर्तन घटित हो सकते हैं। ऐसे संस्कारों के दूरगामी सुखद परिणाम होते हैं । व्यक्ति या बच्चे में सामाजिक आदर्शों, नियमों एवं मान्यताओं के विरुद्ध ऐसा कुछ भी विकसित नहीं होना चाहिए जो उसे मानवीय मूल्यों से ७६ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंचित करे। बड़ों को चाहिए कि वे अपने बच्चों के प्रति वात्सल्यभरा व्यवहार करें और चरित्र - निर्माण के लिए उचित मार्ग-दर्शन भी प्रदान करें । बच्चों के समुचित चारित्रिक विकास के लिए पारिवारिक वातावरण और पारिवारिक सम्बन्धों का सौहार्द और सौजन्यपूर्ण होना भी आवश्यक है। यदि माता-पिता आपस में कलह करते हैं या अपने बच्चों को दोहरी दृष्टि से देखते हैं तो बच्चों के चरित्र पर इसका प्रतिकूल असर ही होगा। पारिवारिक वातावरण की प्रतिकूलताओं के कारण ही बच्चे में क्रोध, झूठ, चोरी, भय, पलायन, अपराध जैसे दुर्गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है। बच्चे के स्वस्थ चरित्र के लिए परिवार के सदस्यों में परस्पर सहयोग, प्रेम और अपनापन होना चाहिए । जहाँ परिवार का स्वस्थ- सौम्य वातावरण आवश्यक है, वहीं पड़ौसी का सभ्य होना भी प्रभावकारी है। परिवार का वातावरण कितना भी स्वस्थ क्यों न हो, दूषित पड़ौस उसकी चारित्रिकता को प्रभावित और कुण्ठित किए बिना नहीं रहता । शिक्षालय और मित्र - मण्डली का भी चारित्रिक विकास पर अच्छा और बुरा असर पड़ता है। बुद्धि एकान्त में विकसित होती है और चरित्र संग-साथ से। अच्छे शिक्षार्थी के लिए शिक्षकों का अच्छा होना भी अपरिहार्य है । शिक्षालय शिक्षा और ज्ञान-अर्जन करने का केन्द्र है और शिक्षक उन शिक्षाओं के प्रतिपादक । अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को ऐसे स्कूल में प्रवेश दिलाएँ जिससे उनके बच्चों को चारित्रिक और नैतिक विकास का सही अवसर प्राप्त हो सके। अभिभावकों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उनके बच्चे ऐसे मित्रों के साथ खाना - खेलना न करें जिनकी प्रवृत्तियाँ दूषित हों। अच्छे चारित्रिक विकास के लिए अच्छे मित्रों का संसर्ग वांछनीय है । इसके साथ ही बच्चों को ऐसी पुस्तकें पढ़ने के लिए दी जानी चाहिए जो रोचक होने के साथ मानवीय भावनाओं को भी सिखाएँ । दूरदर्शन या चरित्र-निर्माण : श्रेष्ठ व्यक्तित्व की पूंजी For Personal & Private Use Only ७७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले वे कार्यक्रम भी दिखाएँ जो बच्चों के चारित्रिक विकास में सहयोग दें। ध्यान रखें, व्यक्ति की आदतें ही उसका चरित्र बनाती हैं इसलिए बेहतर मानसिकता और आदतों के लिए सजग रहना चाहिए। अच्छे चरित्र के लिए कृपया अच्छा व्यवहार कीजिए, अच्छे व्यवहार के लिए अच्छी आदतें डालिए। अच्छी आदतों के लिए अच्छी सोच रखिए। अच्छी सोच के लिए अच्छी पुस्तकें, अच्छा वातावरण, अच्छी सोहबत को महत्त्व दीजिए। आखिर जीवन की बगिया में चरित्र के वही फूल खिलेंगे जैसा हम उसमें बीज बोएँगे। अच्छे फलों को पाने के लिए अच्छे बीज बोइये। 000 ७८ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S थार्मिक मूल्यों का व्यक्तित्व-निर्माण से सम्बन्ध __ मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जीवन में नैतिकता का विकास है। चाहे नैतिकता हो या धार्मिकता, यह जन्मजात गुण न होकर समाज और वातावरण से उपार्जित श्रेष्ठ मूल्य है। विश्वसनीयता, चरित्रशीलता, कर्मठता, कार्यदृढ़ता, प्रसन्नता और आशावादिता नैतिकता के प्रगतिशील चरण हैं। यद्यपि ये नैतिक तथ्य धर्म की व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ हैं, किन्तु जीवन में धार्मिक विकास का सम्बन्ध उस विकास से है जिसमें व्यक्तिका आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, देवी-देवता, पूजापाठ आदि के प्रति विश्वास होता है। इनके अलावा धैर्य, क्षमा, इच्छादमन, इन्द्रिय-विजय, सत्य, अचौर्य आदि सद्गुणों का विकास भी धार्मिक विकास कहलाता है। नैतिकता चरित्रशीलता के प्रति आस्था है। चरित्र-विकास की शुरूआत तो जीवन के शैशवकालसेही हो जाती है, परन्तुधार्मिक विकास के लिए बालक का कम-से-कम दो वर्ष का होना जरूरी है। यद्यपि धार्मिक मूल्यों का व्यक्तित्व-निर्माण से सम्बन्ध ---- ----७९ - - For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिकता को व्यक्ति का जन्मजात गुण माना जाता है, तथापिधार्मिकता काभाव जन्मजात न होकर या तो पारिवारिक वातावरण से अर्जित होता है या फिर अनुभव से। धार्मिक विकास के सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बालक का परिवार जिस धर्म को मानने वाला होता है, बालक के मन में उन्हीं धार्मिक प्रतिमानों का विकास होता है। ___ जीवन में धार्मिक विकास धीरे-धीरे क्रमश: होता है। जन्म से दो वर्ष तक की अवस्था में धार्मिक तत्त्वों को समझना बालक के लिए बहुत कठिन है। इस उम्र में बच्चा ज्यादा-से-ज्यादा ईश्वर की प्रार्थना से सम्बन्धित कुछ गिने-चुने शब्द ही दोहरा सकता है। स्वर्ग-नरक या पापपुण्य उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखते। भगवान की प्रार्थना का प्रेम और सुख तो उसे तब महसूस होने लगता है जब वह पाँच वर्ष का हो जाता है। सुनी-सुनायी या रटी-रटायी प्रार्थना को नित्य-प्रति बोलने से उसे बड़ा आनन्द मिलता है। चूंकि इस अवस्था में नैतिकता का एक सीमा तक ही विकास हो पाता है, इसलिए वह भगवान से एक अच्छा 'बालक' बनने की प्रार्थना करता है। प्रार्थना के समय पाँच-छह वर्ष का बालक यह मानता है कि भगवान आकाश में रहते हैं। वे वहीं से ही हमारे अच्छे और बुरे कार्यों का निरीक्षण करते हैं। वह यह माना करता है कि अच्छा कार्य करने पर भगवान उसे अच्छा फल देंगे और बुरे कार्य के लिए दण्ड देंगे। कठिनाई महसूस होने पर या दण्ड मिलने पर बच्चा यह महसूस किया करता है कि भगवान उससे रुष्ट हैं, तभी तो उसे यह दण्ड भोगना पड़ रहा है। नतीजन वह गलतियों के लिए मन-ही-मन भगवान से माफी मांगता है। ____बच्चा माता-पिता के साथ पूजा-पाठ के लिए मन्दिर में जाता है, सत्संग के लिए उनके साथ गुरुजनों के पास जाता है। माता-पिता मन्दिर में जैसा करते हैं, बच्चा उन्हें या तो चुपचाप देखता रहता है या उनका अनुकरण करता है। बच्चे के मन में ऐसे क्षणों में मठ-मन्दिर, देवी-देवता, पूजा-पाठ या स्वर्ग-नरक के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। वह माता-------------- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास ८० For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता से अनेक प्रश्न पूछता है और इस प्रकार बच्चे में धार्मिक तत्त्वों एवं क्रियाओं के प्रति एक विशेष धारणा का निर्माण होता है। दस-बारह वर्ष की अवस्था में बच्चे का धार्मिक विकास बड़ी तीव्रगति से होता है। चूंकि तब तक उसकी बुद्धि, ज्ञान और अनुभव का विकास हो जाता है, इसलिए वह अनुकरण की बजाय खुद अपने आप ही प्रार्थना या अन्य धार्मिक व्यवहार करता है। इस उम्र में अगर बालक को रोचक धार्मिक पुस्तकें दी जाएँ तो वह धार्मिक भावनाओं को और ज्यादा द्रुतगति से पकड़ सकता है। धार्मिक विकास के कारण बच्चा गलत कार्यों से परहेज रखता है, अच्छे कार्यों में दिलचस्पी लेता है क्योंकि वह जान लेता है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे का बुरा। धार्मिक विकास का सबसे बड़ा फायदा यही है कि बच्चा धार्मिक और नैतिक आदर्शों के प्रति आस्था रखता है, साथ में आदर्श जीवन को व्यतीत करने का प्रयत्न करता है। धार्मिक विचार और क्रियाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन तो किशोरावस्था में होते हैं। इस अवस्था में बालक जहाँ अपनी ही बाल्यावस्था में अर्जितधार्मिक अनुभवकी सच्चाई पर शंकाएँ करने लगता है, वहीं उसके दिमाग में नये-नये प्रकार के प्रश्न भी पैदा होते हैं। जन्ममृत्यु, स्वर्ग-मोक्ष, आत्मा-परमात्मा याऔचित्य-अनौचित्य के बारे में वह प्रश्नवाचक दृष्टि से खुद भी सोचता है और समाधान मिले बगैर वह सन्तुष्ट नहीं होता। वह धार्मिक तत्त्वों और व्यवहारों को तर्क की कसौटी पर भी कसना चाहता है। अत: जरूरी है कि किशोरावस्था में बालक को धार्मिक व्यवहारों की वास्तविकता व उपयोगिताको वैज्ञानिक और बौद्धिक दृष्टि से समझाया जाए। अगर सन्तोषजनक जवाब न मिला तो वह धार्मिक विचारों को कपोल-कल्पित और मनगंढ़त समझ बैठेगा। वह उनकी अनुपालना के प्रति उत्साहित नहीं होगा। बहुधा ऐसा भी होता है कि अपने बेटे को धार्मिक व्यवहारों के प्रति प्रश्न या संदेह करने पर माता-पिता उसे 'नास्तिक' कहने की भूल कर धार्मिक मूल्यों का व्यक्तित्व-निर्माण से सम्बन्ध १ - - - - - - - - - - - - - - - - - For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठते हैं। परिणाम यह होता है कि उसकी जिज्ञासा का दमन हो जाता है और वह धर्म - विमुख होकर धार्मिक व्यवहारों को कोरा पाखण्ड मानने लगता है। वास्तव में बच्चों को डाँट नहीं, वरन् अपने प्रश्नों का समाधान चाहिए। उचित तो यह है कि धार्मिक ज्ञान के अभाव में माता-पिता यदि उन्हें संतोषजनक उत्तर न दे सकें तो उन्हें प्रबुद्ध लोगों से प्रश्न पूछने की सलाह दें। बच्चों को उनके प्रश्नों के धार्मिक समाधान के लिए कुछ सम्बन्धित पुस्तकें दी जाएँ ताकि वे खुद छानबीन कर स्वयं सन्तुष्ट हो सकें । धार्मिक दृष्टि से बालकों की पन्द्रह से सत्रह वर्ष की अवस्था और बालिकाओं की चौदह-पन्द्रह वर्ष की अवस्था वास्तव में अन्तर्द्वन्द्व की अवस्था है। वे भटकाव की स्थिति से गुजरें, उससे पहले धार्मिक विकास एक निश्चित और आदर्श रूपरेखा तैयार हो जानी चाहिए ताकि जीवन का मार्ग निष्कंटक और प्रशस्त होने में सुविधा रहे। वैज्ञानिक और बुद्धिगम्य धर्म ही आचरित हो पाता है। इसलिए धर्म के किसी भी विचार, सिद्धान्त या दृष्टि को स्थापित करने से पहले उसकी वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता अवश्य तोल लेनी चाहिए। अंधश्रद्धा प्रबुद्ध मानवता के द्वारा सम्भव नहीं है। इंसान होकर इंसान के काम आना, दीनदुःखियों की सेवा करना धर्म का व्यावहारिक स्वरूप है तो मन के दोषों व विकारों को दूर करना धर्म का मूल स्वरूप है। जीवन में श्रेष्ठता, शुद्धता अर्जित करने के लिए हमें धर्म के इन दोनों मापदण्डों को जीना चाहिए। 000 ८२ कैसे करें व्यक्तित्व - विकास For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व - विकास की मौलिक संभावनाएँ जीवन - विकास का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास से है । जीवन का उदात्त स्वरूप ही उसका व्यक्तित्व है । जिस व्यक्ति का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता, निश्चित रूप से उसके जीवन की कोई पहचान नहीं बन पाती है। व्यक्तित्व जीवन की प्रभावी अभिव्यक्ति है। व्यक्तित्व के निर्माण और विकास के लिए जीवन के आन्तरिक और बाह्य पहलू के बीच गत्यात्मक समन्वय स्थापित करना होता है । यद्यपि व्यक्तित्व का स्तर बाह्य गुणों के द्वारा आंका जाता है, किन्तु व्यक्तित्व जीवन की मात्र बाह्य अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु उसका अन्तर्जगत् भी उसका प्रमुख हिस्सा है। मनुष्य केवल शरीर या मन नहीं है। वह मन और शरीर का संगठन है। आन्तरिक और बाह्य संगठन के कारण ही व्यक्ति को 'मन: शारीरिक प्राणी कहा जाता है । व्यक्तित्व विकास के लिए शारीरिक, गत्यात्मक, संवेगात्मक, मानसिक, सामाजिक, चारित्रिक, नैतिक आदि विभिन्न पहलुओं का समग्र व्यक्तित्व विकास की मौलिक संभावनाएँ ८३ - For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास करना होता है। मनुष्य जब इस विराट् संसार में जन्म लेता है तो मूल प्रवृत्तियों के रूप में वह अपने अविकसित व्यक्तित्व को साथ लेकर पैदा होता है। व्यक्ति अपने जीवन के विकास-काल में जहाँ अपनी जन्मजात विलक्षणताओं के आधार पर वातावरण से समायोजन स्थापित करता है, वहीं अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति प्रतिक्रियाएँ भी व्यक्त करता है। व्यक्तित्व केवल जन्मजात गुण नहीं है, वरन् सामाजिक सन्दर्भो में व्यक्ति अपने गुणों का परिमार्जन एवं अभिवर्धन भी करता है। व्यक्ति का एक व्यक्तित्व वह होता है जिसे जन्मजात व्यक्तित्व कहना चाहिए और दूसरा व्यक्तित्व का वह रूप है जो समाज एवं वातावरण से समायोजित होने के बाद अर्जित होता है। जन्मजात व्यक्तित्व और अर्जित व्यक्तित्व में परस्पर प्रगाढ़सम्बन्ध होता है। एक प्रकार से व्यक्ति समाज से उन्हीं गुणों को उपार्जित करने के लिए रुचिशील होता है जिनका जन्मजात व्यक्तित्व के साथ तालमेल हो। वास्तव में व्यक्तित्व एक गत्यात्मक संगठन है। गत्यात्मक होने के कारण ही व्यक्तित्व में परिवर्तन आ जाया करते हैं। एक डाकू का व्यक्तित्व रामायण-रचनाकार का बन जाता है, वहीं एक ब्रह्मज्ञानी का व्यक्तित्व सीता-हरण करने वाला बन जाता है। व्यक्तित्व की अगर सही परिभाषा करनी हो तो यही कहना उपयुक्त होगा कि जन्मजात और अर्जित विलक्षणताओं एवं आन्तरिक और बाह्य पहलुओं का गत्यात्मक समन्वय ही व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व जीवन का वह विशिष्ट संगठन है जिसे हम दूसरे शब्दों में अर्जित संस्कारों व प्रवृत्तियों का योग कह सकते हैं। यही तोवह मन:शारीरिकतंत्र है जो व्यक्ति के वातावरण से अभियोजन को निर्धारित करता है। जन्मजात संस्थानों, आवेगों, प्रवृत्तियों, रुचियों, मूलप्रवृत्तियों, अनुभवों, संस्कारों एवं योग्यताओं की संयुक्त कार्यवाही ही वास्तव में व्यक्तित्व की आधार-भूमिका बनती है। ___व्यक्तित्व के निर्माण में मुख्यत: शारीरिक, मानसिक और सामाजिक गुणों का समावेश किया जाता है। शारीरिक गुणों के अन्तर्गत व्यक्ति के - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास ८४ For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर की लम्बाई-चौड़ाई, गठन, आवाज, चेहरे की अभिव्यक्ति, रंग, पोशाक आदि चीजें शामिल होती हैं। जिन व्यक्तियों में स्वास्थ्यकर और उच्चकोटि के शारीरिक गुण पाए जाते हैं, वे दूसरों को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करने में जल्दी सफल हो जाते हैं। मानसिक गुणों के विकास के लिए ज्ञान, इच्छा एवं क्रिया के द्वारा बुद्धि, स्वभाव व चरित्र का निर्माण किया जाता है। व्यक्तित्व के सही विकास के लिए बुद्धि का सही विकास होना जरूरी है। मंद बुद्धि के व्यक्ति का व्यक्तित्व भी मंद ही होता है। बुद्धू क्या खाक प्रभावित करेगा! उत्कृष्ट व्यक्तित्व के लिए उत्कृष्ट बुद्धि ही पहला चरण है। इच्छा मन का दूसरा भाग है। इच्छा से उद्वेग का निर्माण होता है और उद्वेग से स्वभाव का। स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति के चार रूप दिखाई देते हैं आशावादी, निराशावादी, चिड़चिड़े और स्थिर। इच्छा की तरह क्रिया भी मन की ही एक प्रक्रिया है। क्रिया का स्वरूप चरित्र है। चारित्रिक-विकास व्यक्तित्व-विकास का अत्यन्त अनिवार्य चरण है। चरित्रहीन व्यक्ति के कार्य में न तो दृढ़ता होती है और न ही विश्वसनीयता। गांधीजी जैसे लोग अपने सच्चरित्र-व्यक्तित्व के बल पर ही विश्व द्वारा समादृत होते हैं। ___व्यक्तित्व के निर्माण में सामाजिक गुणों की उपलब्धि वास्तव में हमारे व्यक्तित्वको सर्वाधिक व्यावहारिक और प्रभावक बनाती है। चूंकि व्यक्ति का जन्म और व्यक्तित्व का विकास सामाजिक वातावरण के बीच होता है, इसलिए सामाजिक गुणों को आत्मसात् करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। बहुत सारे लोग तो समाज से कटे-कटे ही रहते हैं तो कई मिलनसार भी होते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आक्रामक स्वभाव के होते हैं। वास्तव में हर व्यक्ति में सामाजिकता की अलग-अलग मात्रा होती है। शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक गुणों को अर्जित कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। उनमें दृढ़ता होनी भी जरूरी है। लक्ष्य के प्रति दृढ़ता के व्यक्तित्व विकास की मौलिक संभावनाएँ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण ही मौहम्मद गौरी, महाराणा प्रताप, शिवाजी, नेपोलियन, स्वामी विवेकानन्द, सुभाषचन्द बोस आदि अपने-अपने क्षेत्र में विजयी और यशस्वी हुए। वास्तव में दृढ़ता हमारे व्यक्तित्व का ही एक अभिन्न गुण है। हमारी मानसिक दृढ़ता ही हममें निर्णय-शक्ति का विकास करती है। जीवन की सफलता में जिस इच्छा-शक्ति, आत्मविश्वास और साहस की जरूरत होती है, वह वास्तव में हमारी मानसिक दृढ़ता का ही परिणाम है। ____ यदि हम वर्गीकरण की दृष्टि से व्यक्तित्व का निरीक्षण करें तो मूल्यों की दृष्टि से ज्ञानात्मक, सौन्दर्यात्मक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तित्व होते हैं। यदि हम शारीरिक रचना की दृष्टि से विचार करें तो कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते हैं जो आरामप्रिय, सामाजिक और उन्माद-विषादयुक्त होते हैं। कुछ व्यक्तित्व सुडौल, तन्दुरुस्त, व्यवहारकुशल और सामाजिक क्रियाशील होते हैं। कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते हैं जो दुबले-पतले, स्वप्नदर्शी, भावुक, उत्साहहीन और एकान्तप्रिय होते हैं। ऐसे व्यक्तित्व भी होते हैं जिनमें सब प्रकार के गुणों का मिश्रण होता है। स्वभाव की दृष्टि से भी व्यक्तित्व-भेद पाया जाता है। स्वभाव के अनुसार मुख्यत: तीन प्रकार के व्यक्तित्व होते हैं - (१) आरामदायक, भोजनप्रिय, प्रेमाभिलाषी (२) स्पष्टभाषी, कर्मठ, प्रतियोगी, शक्तिशाली, अधिकारप्रिय, साहसी, उच्चभाषी (३) संवेदनशील, संकोचशील, एकान्तप्रिय, मन्दभाषी। मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व पर विभिन्न दृष्टियों से अनुशीलन किया है। यदि हम विस्तार से बचना चाहें तो व्यक्तित्व के सार रूप में दो भेद किये जा सकते हैं। उनमें एक तो अन्तर्मुखी व्यक्तित्व है और दूसरा बहिर्मुखी व्यक्तित्व। व्यक्तित्व का यह वर्गीकरण वयस्कों पर तो पूरी तरह लागू होता ही है, बाल्य-जीवन में भी इसे लागू किया जा सकता है। दो-तीन वर्ष के बच्चे में भी अन्तर्मुखी व बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लक्षण पाए जाते हैं। --- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास ८६ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का सम्बन्ध बाहर से भीतर की ओर मुड़ना है जबकि बहिर्मुखी व्यक्तित्व भीतर से बाहर की ओर। अन्तर्मुखी व्यक्ति अपनी जीवन-शक्ति को अन्दर की ओर प्रेरित करते हैं, वहीं बहिर्मुखी उसे बाहर की ओर। ___ अन्तर्मुखी लोग प्राय: कमबोलते हैं। उनकी प्रकृति भी कुछ शर्मिली होती है और भाव व विचारों में खोये रहना मानो उनका स्वभाव होता है। खेल की अपेक्षा इनकी रुचि पढ़ने-लिखने में ज्यादा होती है। दूसरे लोग उनसे प्रसन्न रहें, इस विषय में उनका कोई विशेष प्रयास नहीं रहता। इसीलिए वेभीड़-भाड़ में रहना पसन्द नहीं करते। व्यावहारिक जीवन की अपेक्षा वे सैद्धान्तिक जीवन की ओर ज्यादा उन्मुख होते हैं। अन्तर्मुखी व्यक्तित्व में जो सबसे बड़ी विशेषता पायी जाती है वह यह है कि इस गुण के धनी हर कार्य को बड़े सोच-समझकर करते हैं। एक अच्छे लेखक, दार्शनिक, कलाकार या वैज्ञानिक बनने के लिए व्यक्ति का अन्तर्मुखी व्यक्तित्व एक असाधारण भूमिका अदा कर सकता है। बहिर्मुखी व्यक्ति जीवन-शक्ति को बाहर की ओर प्रेरित करते हैं। बहिर्मुखी लोगों में जहाँ क्रियाशीलता होती है, वहीं व्यावहारिकता भी पायी जाती है। आत्म-प्रदर्शन की भावना होने के कारण ऐसे व्यक्ति या बच्चे फैन्सी कपड़े पहनते हैं और बढ़ा-चढ़ा कर बातें भी करते हैं। वे आत्मप्रशंसा तो करते ही हैं, दूसरों से भी प्रशंसा कराना चाहते हैं। खेलना या मनोरंजन के अन्य कार्य-कलाप बहिर्मुखी व्यक्तित्व की पहचान है। नैतिक एवं चारित्रिक आदर्शों के प्रति इनमें कोई दृढ़ या सैद्धान्तिक आस्था नहीं होती। सामाजिक कार्यों को करने में उनकी दिलचस्पी जरूर होती है, पर इनका परम ध्येय तो यही होता है कि जीवन को आराम और आनंद से ऐश्वर्यपूर्वक बिताया जाए। बहिर्मुखी व्यक्तित्व ही प्राय: कर अच्छे वक्ता, राजनीतिक या समाज-सुधारक बनते हैं। ___ जीवन एवं व्यक्तित्व के आन्तरिक एवं बाह्य पहलुओं के बीच एक . सन्तुलन और समायोजन अपेक्षित है। व्यक्तित्व का केवल अन्तर्मुखी व्यक्तित्व विकास की मौलिक संभावनाएँ --- For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना या केवल बहिर्मुखी होना व्यक्ति का सार्वभौम विकास नहीं है। व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिए जहाँ क्रियाशीलता, व्यावहारिकता, सामाजिकता एवं लोकप्रियता आवश्यक है, वहीं कर्तव्यों का पालन करते हुए सैद्धान्तिक जीवन की ओर उन्मुख रहना भी अपरिहार्य है। __ व्यक्ति को जहाँ अनावश्यक हिंसा, झूठ और संग्रह से बचना चाहिए, वहीं परोपकार, करुणा और सेवा के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। एक अच्छा वक्ता होना एक अच्छी बात है, परन्तु अपने वक्तव्य के विरुद्ध आचरण करना व्यक्ति की गलत मनोदशा है। एक स्पष्टवादी व्यक्ति के लिए यह गौरतलब है कि वह ऐसा कोई संभाषण न करे, जो अप्रिय या अहितकर हो। एक स्पष्टभाषी होने के बजाय विवेकभाषी होना बेहतर है। अधिकारप्रिय होना गलत नहीं है किन्तु दूसरों के अधिकारों का हनन करना गलत है। संकोच करने की बजाय संयम बरतना अच्छा है। चूंकि व्यक्तित्व का निर्माण कई तत्त्वों के मिलने से होता है इसलिए यह जरूरी है कि उन सभी पहलुओं पर ध्यान दिया जाए जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति को अपने जीवन में शारीरिकता, क्रियात्मकता, मानसिकता, संवेगात्मकता, सामाजिकता, नैतिकता और धार्मिकता का समुचित विकास करना चाहिए।शरीर-सौष्ठव, कर्मठता, अनुद्विग्नता, मन की निर्मलता, पारस्परिक आत्मीयता, सच्चरित्रता, व्यवहार-कुशलता आदि के प्रति व्यक्ति को निरन्तर सचेष्ट एवं सक्रिय रहना चाहिए। बाल्य जीवन में एक बात विशेष ध्यान रखनी चाहिए कि बालक भग्नाशा या हीनता की भावना से ग्रसित न होने पाए। हीनता की भावना से ही बच्चों में लज्जा, चिन्ता, भय, बेचैनी, आक्रामकता आदि प्रवृत्तियाँ घर कर लेती हैं। ___माता-पिता के बीच आदर्श सन्तुलन होना भी आवश्यक है। बच्चों के व्यक्तित्व पर माता-पिता के व्यवहार का विशेष प्रभाव पड़ता है। बच्चे केयोग्य व्यक्तित्व के लिए माता-पिता के जीवन के आदर्शवलक्ष्य प्रतिकूल नहीं होना चाहिए। बच्चों को उस पड़ौस, मित्र या वातावरण से दूर रखना --- -------- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास - - ८८ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए जो उसमें अपराध प्रवृत्तियों को बढ़ावा दें। सबसे अच्छा तो यह रहता है कि माता-पिता, अभिभावक या शिक्षक किशोर तथा किशोरियों की समस्याओं को सामने रखते हुए उनके प्रति सोच-समझकर व्यवहार करें और उन्हें भावी जीवन में सफलता पाने के लिए यथोचित मार्गदर्शन भी प्रदान करें । - स्वास्थ्य, बौद्धिकता एवं आत्मविश्वास व्यक्तित्व के सबसे बेहतर आयाम हैं। जीवन में इनका पूर्णतया विकास हो, व्यक्ति को इसके लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। शिक्षा, संस्कार और अभ्यास द्वारा जन्मजात प्रवृत्तियों को भी वांछित दिशा की ओर परिवर्तित किया जा सकता है । इस प्रकार व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में नैतिकता एवं सामाजिकता को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्तियों को प्रमुखता दी जानी चाहिए। हम अपने व्यक्तित्व से दूसरों को प्रभावित करने का प्रयास करें, इसकी बजाय हमारा व्यक्तित्व ही ऐसा हो कि दूसरे सहजतया हमसे प्रभावित हों। हमारा व्यक्तित्व इतना सशक्त और सफल हो कि दूसरे लोग भी हमारे जैसा अपना व्यक्तित्व बनाने के लिए प्रेरित हों । पद्मश्री या पद्म विभूषण ही नहीं, हर व्यक्ति राष्ट्र-रत्न हो । हमारा सफल व्यक्तित्व ही वास्तव में हमारी समस्त सफलताओं का सूत्रधार है । - 000 व्यक्तित्व विकास की मौलिक संभावनाएँ For Personal & Private Use Only ८९ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और जीवन-सापेक्ष चिंतन-प्रधान विशिष्ट साहित्य (अल्पमोली साहित्य,लागत से भी कम मूल्य पर) ऐसे जिएँ : श्री चन्द्रप्रभ जीने की शैली और कला को उजागर करती विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक । स्वस्थ, प्रसन्न और मधुर-जीवन की राह दिखाने वाली प्रकाश-किरण। पष्ठ 110, मूल्य 15/ध्यानयोग : विधि और वचन : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर ध्यान-शिविर में दिये गए प्रवचन एवं अनुभवों का अमृत आकलन; साथ ही ध्यान-योग की विस्तृत विधि । एक चर्चित पुस्तक । पृष्ठ 148, मूल्य 30/इक साधे सब सधे : श्री चन्द्रप्रभ जीवन को नई चेतना और दिशा प्रदान करने वाला जीवन-सापेक्ष आध्यात्मिक चिन्तन । ध्यान-साधकों के लिए विशेष उपयोगी । पृष्ठ 148, मूल्य 30/जागो मेरे पार्थ : श्री चन्द्रप्रभ गीता पर दिये गए विशिष्ट आध्यात्मिक अठारह प्रवचनों का अनूठा संकलन । गीता की समय-सापेक्ष जीवन्त विवेचना । भारतीय जीवन-दृष्टि को उजागर करता प्रसिद्ध ग्रंथ । एक बार अवश्य पढ़े। पृष्ठ 250, मूल्य 40/महाजीवन की खोज : श्री चन्द्रप्रभ धर्म और अध्यात्म का समन्वय स्थापित करता एकसम्प्रदायातीत ग्रन्थ । आचार्य कुंदकुंद, योगीराज आनंदघन एवं श्रीमद् राजचन्द्र के सूत्रों एवं पदों पर दिये गये अत्यन्त गहनगंभीर प्रवचन । पृष्ठ 140, मूल्य 25/समय की चेतना : श्री चन्द्रप्रभ समय और काल का हर दृष्टि से मूल्यांकन करते हुए समयबद्ध जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली पठनीय पुस्तक । पृष्ठ 128, मूल्य 15/प्रेम की झील में, ध्यान के फूल : श्री चन्द्रप्रभ प्रेम की रसमयता और ध्यान की गंभीरता- दोनों को एक ही पात्र में उड़ेलती एक प्यारी पुस्तक । ___ पृष्ठ 90, मूल्य 15/पंछी लौटे नीड़ में : श्री चन्द्रप्रभ अन्तर-साधना एवं व्यक्तित्व-विकास के सूत्रों को मनोवैज्ञानिक तरीके से उजागर करता एक पठनीय ग्रन्थ । पृष्ठ 160, मूल्य 30/ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि: श्री चन्द्रप्रभ हमारा हर कदम होश और बोधपूर्वक सम्पादित हो, संबोधि-साधना की यह पहली और अंतिम प्रेरणा है । संबोधि-साधना के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर उद्बोधन । सर्वजन हिताय; सर्वजन सुकाय । पृष्ठ 100, मूल्य 15/प्राकृत सूक्ति कोश : श्री चन्दप्रभ प्राकृत-भाषा एवं आगम-साहित्य की सूक्तियों का विश्वकोष; सन्दर्भ एवं हिन्दी अनुवाद सहित । श्री नाकोड़ातीर्थ का प्रकाशन । ___पृष्ठ 330, मूल्य 40/जिएँ तो ऐसे जिएँ : श्री चन्द्रप्रभ हमारी सोच और शैली मे ही छिपा है जीवन की हर सफलता का राज । स्वस्थ, प्रसन्न और मधुर जीवन की राह दिखाने वालीअनूठी पुस्तक। पुस्तक महल, दिल्ली का अभिनव प्रकाशन । पृष्ठ 128, मूल्य 30/व्यक्तित्व-विकास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन और व्यक्तित्व के बहुआयामी पहलुओं पर एक बेहतरीन बाल-मनोवैज्ञानिक प्रकाशन । पृष्ठ 112, मूल्य 15/मारग साँचा मिल गया : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अध्यात्म-पुरुष श्रीमद् राजचन्द्र के प्रमुख पदों पर मानक प्रवचन । आत्मभावी पाठकों के लिए स्वाध्याय की श्रेष्ठ सामग्री । पृष्ठ 100, मूल्य 15/पर्युषण-प्रवचन : श्री चन्द्रप्रभ पर्युषण-पर्व के प्रवचनों को घर-घर तक पहुँचाने के लिए एक प्यारा प्रकाशन; भाषा सरल, प्रस्तुति वैज्ञानिक । पढ़ें, कल्पसूत्र को अपनी भाषा में । पृष्ठ 112, मूल्य 20/जिन-सूत्र : श्री चन्द्रप्रभ भगवान महावीर की अमृत वाणी के नित्य पठन एवं प्रेरणा के लिए तैयार किया गया विशिष्ट संकलन; समणसुत्तं का संक्षिप्त/संशोधित रूप । अधिक प्रतियां मंगवाएँ और अपनी ओर से वितरित करें। पृष्ठ 80, मूल्य 3/आत्मदर्शन की साधना : श्री चन्द्रप्रभ आत्म-साधना के मार्ग को प्रशस्त करते विशिष्ट उद्बोधन । अष्टपाहुड़ के विशिष्ट सूत्रों पर नवीनतम विश्लेष्ण ।। पृष्ठ 112, मूल्य 12/सत्यम् शिवम् सुंदरम् : श्री चन्द्रप्रभ श्री चन्द्रप्रभ के विशिष्ट जीवन-सूत्रों का संकलन । बातें छोटी, भाव गहरे । जीवन के हर कदम पर काम आने वाली पुस्तक । पृष्ठ 160, मूल्य 30/ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महागुहा की चेतना : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर संबोधि का प्रकाश आत्मसात् करने के लिए मुमुक्षुओं को दिया गया अमृत मार्गदर्शन । अध्यात्म की अमर रचना संबोधि-सूत्र' पर मानक प्रवचन । पृष्ठ 112, मूल्य 15/ध्यान का विज्ञान : श्री चन्द्रप्रभ ध्यान की सम्पूर्ण गहराइयों को प्रस्तुत करता एक समग्र ग्रन्थ । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुचर्चित । पृष्ठ 124, मूल्य 25/न जन्म, न मृत्यु : श्री चन्द्रप्रभ मक्ति और अमरता की खोज में तत्पर अन्तर्दृष्टि । अष्टावक्र-गीता पर दिए गए अद्भुत, अनुभव-सिद्ध आध्यात्मिक प्रवचन । पूज्यश्री की श्रेष्ठ कृति। पृष्ठ 160, मूल्य 30/अब भारत को जगना होगा : श्री चन्द्रप्रभ उस मानव चेतना के जागरण का आह्वान जो आज कायर और नपुंसक बन बैठी है, भारतीय दृष्टि एवं मूल्यों को नये सिरे से समझने का नया उपक्रम । प्रबुद्ध पाठकों के लिए विशेष उपयोगी। पृष्ठ 150, मूल्य 30/झरै दसहूँ दिस मोती : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर धर्म, अध्यात्म और जीवन-सिद्धान्तों के बीच स्थापित किया जाने वाला एक अनूठा सामंजस्य । भाषा सरल, भाव गंभीर । जो उतरे, सो पावे । पृष्ठ 224, मूल्य 30/स्वयं से साक्षात्कार : श्री चन्द्रप्रभ मन-मस्तिष्क की ग्रन्थियों को खोलने के लिए ध्यान-शिविर में दिये गये अमृत प्रवचन । जीवन और जगत् से सीधा संवाद । पृष्ठ 140, मूल्य 20/धर्म, आखिर क्या है ? : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर महावीर के सनातन संदेशों पर दिए गए अमृत-प्रवचन, जो हमें वर्तमान सन्दर्भो में जीवन जीने की कला प्रदान करते हैं। पृष्ठ 160, मूल्य 30/ज्योति कलश छलके : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जीवन-मूल्यों को ऊपर उठाने वाली एक प्यारी पुस्तक । भगवान् महावीर के सूत्रों पर प्रवचन । पृष्ठ 160, मूल्य 30/सिवा प्रेम के : श्री चन्द्रप्रभ जिंदगी और जहान के रंग हजारों, पर सिवा प्रेम के कहीं क्या है ? प्रेम-पथ को प्रशस्त करती एक सुन्दर पुस्तक । पृष्ठ 102, मूल्य 10/सो परम महारस चाखै: श्री चन्द्रप्रभ आनन्दघन के अध्यात्म-रसिक पद आज भी गाए-गुनगुनाये जाते हैं, पर उन पर इतने बेहतरीन मौलिक प्रवचन आकंठ पीने जैसे हैं । पढ़िये, अंधेरे से प्रकाश में ले जाती इस पुस्तक को। पृष्ठ 134, मूल्य 25/ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 102, मूल श्री चन्द्रप्रभ की कहानियाँ : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर महान् चिंतक श्री चन्द्रप्रभ के कहानीकार स्वरूप को दर्शाती एक भावभीनी पुस्तक जिसमें अतीत की घटनाओं को नव्य और भव्य शैली में प्रस्तुत किया गया है । एक ऐसी पुस्तक जो सम्पूर्ण देश में पढ़ी जा रही है । पृष्ठ 102, मूल्य 20/सत्य की ओर : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर व्यक्ति अपने जीवन में किस सत्य की खोज करे और किस सत्य का अनुपालन, प्रस्तुत पुस्तक में इसी पहलु पर प्रकाश डाला गया है। पृष्ठ 100, मूल्य 15/प्रेरणा : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर संसार में समाधि के फूल कैसे खिल सकते हैं, आध्यात्मिक संतों के जीवन से जुड़े सच्चे घटनाक्रमों के द्वारा उसी का सहज विन्यास । पृष्ठ 100, मूल्य 15/जीवन, जगत और अध्यात्म : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जीवन-जगत की समस्याओं के समाधानों को ढूढ़ने का प्रयास । सटीक प्रवचन, श्रेष्ठ पुस्तक । पृष्ठ 180, मूल्य 30/ऐसी हो जीने की शैली : श्री चन्द्रप्रभ जीवन और धर्म-पथ को पुनर्परिभाषित करते हुए जीने की साफ-स्वच्छ राह दिखाती पुस्तक । घर-घर में पठनीय । __ पृष्ठ 160, मूल्य 30/भोमिया भावांजली : प्रकाशकुमार दफ्तरी अधिष्ठायक देव श्री भोमियाजी के लोकप्रिय भजनों का अनूठा संकलन । भक्तिप्रिय महानुभावों के लिए उपयोगी। पृष्ठ 64, मूल्य 7/संबोधि-ध्यान-मार्गदर्शिका : सुश्री विजयलक्ष्मी जैन संबोधि-ध्यान-शिविर की प्रायोगिक मार्गदर्शिका; ध्यानयोग-विधि की तकनीकी बारीकि को लिये हुए एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक । पृष्ठ 56, मूल्य 7/अन्तर के पट खोल : श्री चन्द्रप्रभ ध्यान-साधकों को सत्य, शांति और आनंद की राह दिखाने वाली अभिनव पुस्तक। महर्षि पतंजलि के महत्त्वपूर्ण योगसूत्रों का भी उपयोग। पृष्ठ 96, मूल्य 15/ आँगन में आकाश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर तीस प्रवचनों का अनूठा आध्यात्मिक संकलन, जो आम आदमी को प्रबुद्ध करता है और जोड़ता है उसे अस्तित्व की सत्यता से । पृष्ठ 200, मूल्य 40/श्री अगरचन्द नाहटा : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : डॉ. शारदा गोस्वामी प्राचीन साहित्य एवं इतिहास के मूर्धन्य विद्वान श्री अगरचन्द नाहटा के जीवन-वृत्त एवं कृतित्व पर लिखा गया शोध-प्रबंध । साथ ही श्री नाहटा के लिखे-छपे पाँच हजार से अधिक लेखों का सूची-पत्र । पृष्ठ 300, मूल्य 40/ For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षी की आँख : श्री चन्द्रप्रभ जीवन-ज्योति से साक्षात्कार करवाती पुस्तक । जीवन के रहस्यों एवं सत्यों से परिचित करवाते आध्यात्मिक प्रवचनों का संकलन । आयार-सुत्तं : श्री चन्द्रप्रभ भगवान महावीर की दिव्यवाणी का प्रथम धर्म-शास्त्र । मूल, हिन्दी अनुवाद एवं प्रत्येक अध्याय पर समय-सापेक्ष विशिष्ट चिन्तन । पृष्ठ 240, मूल्य 30/प्रार्थना : श्री चन्द्रप्रभ भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों की प्रार्थना, भजन के साथ भक्तामर, पारस इकतीसा और गौतम इकतीसा का संकलन । पृष्ठ 70, मूल्य 7/महासति पट्ठान-सुत्त : श्री चन्द्रप्रभ भगवान बुद्ध द्वारा विपश्यना-साधना की मौलिक प्रस्तुति । मूल वाणी एवं हिन्दी-अनुवाद । आत्म-साधना में सहयोगी मार्गदर्शन । पृष्ठ 48, मूल्य 7/वर्ल्ड रिनाउन्ड जैन पिलग्रिमेजेज : रिवरेंस एण्ड आर्ट : ललितप्रभ सागर कला और श्रद्धा के क्षेत्र में विश्व-प्रसिद्ध जैन तीर्थों की रंगीन चित्रों के साथ नयनाभिराम प्रस्तुति । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुचर्चित ग्रंथ । अपने विदेशी मित्रों को उपहार-स्वरूप प्रदान करने के लिए अनुपम ग्रंथ । पृष्ठ 160, 300/ विशेष :- अपना पुस्तकालय अपने घर में बनाने के लिए फाउंडेशन ने एक अभिनव योजना बनाई है । इसके अन्तर्गत आपको सिर्फ एक बार ही फाउंडेशन को पन्द्रह सौ रुपये देना होगा, जिसके बदले में फाउंडेशन अपने यहाँ से प्रकाशित होने वाले प्रत्येक साहित्य को आपके पास आपके घर तक पहुँचाएगा और वह भी आजीवन । इस योजना के तहत एक और विशेष सुविधा आपको दी जा रही है कि इस योजना के सदस्य बनते ही आपको रजिस्टर्ड डाक से फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित सम्पूर्ण उपलब्ध साहित्य' नि:शुल्क प्राप्त होगा । साहित्य वही भेजा जा सकेगा जो उस समय स्टॉक में होगा। रजिस्ट्री चार्ज एक पुस्तक पर 20/- रुपये, न्यूनतम दो सौ रुपये का साहित्य मँगाने पर डाक व्यय संस्था द्वारा देय । धनराशि श्री जितयशाश्री फाउंडेशन कोलकाता के नाम पर बैंक-ड्राफ्ट या मनिआर्डर द्वारा भेजें । वी.पी.पी. से साहित्य भेजना शक्य नहीं होगा। आज ही लिखें और अपना ऑर्डर निम्न पते पर भेजें - जितयशा फाउंडेशन 9 सी-एस्प्लानेड रो ईस्ट बी-7, अनुकम्पा, द्वितीय रूम नं. 28, धर्मतल्ला मार्केट __ एम.आई. रोड कोलकाता-700069 जयपुर-302 001 (राज.) 3220-8725 2364737 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि-धाम [धर्म और जीवन-दर्शन का व्यावहारिक स्वरूप] योग और साधना के क्षेत्र में संबोधि-धाम किसी पवित्र तीर्थ के समान है । धरती पर वे स्थान किसी श्रेष्ठ मन्दिर की तरह ही होते हैं, जहाँ मन की शान्ति और आध्यात्मिक सत्य की साधना होती है । संबोधि-धाम जोधपुर की कायलाना झील और अखयराज सरोवर के समीप पर्वतमालाओं की गोद में स्थित एक ऐसा साधना - केन्द्र है, जहाँ अब तक बीस हजार से अधिक लोगों ने सत्य, शान्ति और मुक्ति की साधना की है। हर व्यक्ति शान्त मन का स्वामी बने, बोधपूर्वक जीवन जिए और मुक्ति को आत्मसात् करे, संबोधिसाधना की सबके लिए यही पावन प्रेरणा है । संबोधि-धाम में प्रति सप्ताह रविवार को नियमित ध्यानयोग सत्र आयोजित होते हैं और वर्ष में चार बार संबोधि-साधना के विशिष्ट शिविर आयोजित किए जाते हैं । संबोधि-साधना के द्वार प्राणीमात्र के लिए खुले हैं। यहाँ न जाति का भेद है और न पंथ का आग्रह। सर्व धर्मों का सम्मान और 'मानव स्वयं एक मन्दिर' की सद्भावना को लिए संबोधि-धाम जन-जन की सेवा के लिए समर्पित है । संबोधि-धाम का हरा-भरा वातावरण, यहाँ की शान्ति और नैसर्गिकता साधक को साधना की अनुकूलता प्रदान करती है । संबोधि-धाम के उन्नत शिखरों पर निर्मित ध्यान-मन्दिर और अष्टापद- मन्दिर हमें हिमालय और माउंट आबू का अहसास देते हैं। मन-मस्तिष्क के रोगोपचार के लिए यहाँ मनस् चिकित्सालय भी है, जिसमें जर्मनी और इंग्लैण्ड से आयातित 'पुष्प- अर्क' के द्वारा सफल उपचार होता है । साधकों के नियमित उपयोग के लिए यहाँ साहित्य केन्द्र, पुस्तकालय, आवास-कक्ष, भोजनशाला, पर्ण कुटीर, एकान्त-कक्ष आदि उपलब्ध हैं। मन की शांति, स्वास्थ्य लाभ एवं आध्यात्मिक साधना हेतु आप यहाँ सादर आमंत्रित हैं । श्री चन्द्रप्रभ ध्यान निलयम् संबोधि-धाम, कायलाना रोड, जोधपुर - 4 (राज.) फोन : 2629812 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनयशा फाउंडेशन का लोकप्रिय प्रकाशन Jain Education inational For Personal & Private Use Only