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एक वयस्क की अपेक्षा एक बालक काक्रोध अधिक स्पष्ट होता है। बड़ा तो अपने क्रोध पर काबू भी पा लेगा, पर छोटा तो उसका हाथो-हाथ भुगतान कर देता है। बच्चा कितना भी क्रोध क्यों न करे, पर उसमें स्थायित्व नहीं होता। चिनगारी की तरह क्षणभंगुर होता है, उसके क्रोध का अस्तित्व।
क्रोध अपेक्षाओं की उपेक्षा है। बच्चे की अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ कोई ज्यादा तादाद में नहीं होतीं, पर जितनी होती हैं, वह उसकी आपूर्ति में किंचित्भी विलम्बया कटौती पसन्द नहीं करता। उसका चाहना या कहना, मानो किसी सम्राट्का आदेश हो। चाहेराज-कोप हो या बालकोप, परिणाम में फर्क हो सकता है, पर उसकी उत्पत्ति और प्रकृति एक जैसी होती है।
एक बड़ा व्यक्ति क्रोध इसलिए करता है क्योंकि वह जैसा चाहता है वैसा स्वीकार नहीं किया गया। गलती का अहसास कराने के लिए या उस एहसास के नाम पर सुधारने के लिए वह डाँटता-डपटता है, जबकि बच्चा अपनी इच्छा को मनवाने के लिए क्रोध करता है। बच्चा क्रोध को अपनी इच्छाओं को मनवाने का साधन समझ बैठता है। वह या तो अपनी बात मनवाने के लिए या किसी तरह की बाधा महसूस किए जाने पर क्रोधित होता है।
ऐसा नहीं है कि केवल बड़े लोग ही अन्याय या अनधिकार चेष्टाओं के खिलाफ होते हैं, बल्कि बच्चे तो स्वभाव से ही अन्याय को सहन करना नहीं चाहते। सच तो यह है कि शिशु में सहन करने की क्षमता ही नहीं होती। उसे जैसे ही यह महसूस होता है कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा है, वह तत्काल क्रोधित हो जाता है, मानो वह किसी विद्रोह पर उतारू हो गया हो। उसमें स्वार्थ-भाव भी इतन प्रगाढ़ होता है कि वह अपनी कोई भी चीज, बिना अपनी इच्छा से किसी दूसरे बच्चे को देना बर्दाश्त नहीं करता है। यह स्वार्थ वास्तव में उसके स्वामित्व-भाव की पुष्टि करता है। एक बात तय है कि अस्तित्व का कोई भी अंग अपने स्वामित्व-भाव में दखलंदाजी नहीं चाहता। वह उसे अपना अपमान समझता है। नतीजन उसके चेहरे पर क्रोध-संवेग उभर आता है।
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कैसे करें व्यक्तित्व-विकास
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