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________________ और दूसरा आनन्द। कष्ट का अनुभव करते समय शिशु रोता है और उसकी मांस-पेशियों में तनाव आ जाता है, जबकि आनन्द का अहसास होने पर वह प्रसन्न होता है, मुस्कुराता है और उसकी मांस-पेशियाँ सहज और शिथिल हो जाती हैं। छह महीने की आयु में बच्चे में क्रोध और भय के संवेग उत्पन्न होते दिखाई देते हैं। बारह महीने की आयु तक उसमें कष्टकर और आनन्दप्रद कई संवेग उत्पन्न होने लगते हैं। आनन्द के रूप में खुशी, आशा, प्रेम, उल्लास आदि उत्पन्न होते हैं, जबकि कष्ट के रूप में चिन्ता, ईर्ष्या, भय, क्रोध, बेचैनी, निराशा आदि क्रियाएँ। अन्य बालकों के प्रति प्रेम लगभग अठारह महीने की आयु में होने लगता है। पाँच वर्ष की उम्र होने तक बालक में कई प्रकार के संवेगात्मक विकास हो जाते हैं। परिपक्व अवस्था आने तक उसे अपनी संवेगात्मक प्रक्रियाओं में सार्थकता और निरर्थकता का स्पष्ट भेद ज्ञात हो जाता है। वह सौन्दर्यात्मक अनुभूति करने लगता है और साथ ही करने लगता है अपने संवेगों पर नियंत्रण। _____ संवेगों का विकास और नियंत्रण दोनों ही जरूरी है। उन संवेगों का विकास होना चाहिए, जिनसे हमें शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक तन्दुरुस्ती प्राप्त होती है; जबकि उन संवेगों का नियंत्रण होना चाहिए जो हमारी मानसिकता को उद्विग्न और असन्तुलित करते हैं। जहाँ क्रोध, चिड़चिड़ापन या भय होने पर हमारी पाचन-प्रणाली बिगड़ जाती है, वहीं आनन्द और प्रेम का संवेग उत्पन्न होने पर शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। संवेगात्मक अस्थिरता ही मानसिक रोग का कारण बनती है। संवेगों के निश्चित तौर से आन्तरिक और बाह्य प्रभाव पड़ते हैं और हमारे विचार एवं व्यवहार में अनिवार्यत: परिवर्तन आता है। लक्ष्य यही रखना चाहिए कि वे प्रभाव और परिवर्तन प्रतिकूल दिशा में न हों। 000 २८ - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003900
Book TitleKaise kare Vyaktitva Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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