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________________ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी इस अर्थ में है कि उसके व्यक्तित्व के समस्त आयाम समाज-सापेक्ष होते हैं। उसकी आवश्यकताओं की आपूर्ति के साधन और उसका स्वभाव समाज से ही प्रतिबद्ध होता है। जन्म से तो बच्चा पूरी तरह पराश्रित होता है। वह बगैर किसी सहायता के अपनी किसी भी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए समाज उसकी आवश्यकता है। बगैर समाज के बच्चा अपूर्ण है। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति समाज में रहता है और समाज के बीच मिलने वाली इज्जत को वह स्वयं के लिए आत्म-सम्मान समझता है। समाज ही तो वह घटक है जो उसे सामूहिक जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करता है। मनुष्य कुछ जैविकीय आवश्यकताओं को लेकर शिशु के रूप में समाज और विश्व में प्रवेश करता है। जन्म से उसमें कोई सामाजिक चेतना नहीं होती। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में जो लोग सहभागिता निभाते हैं, वास्तव में उन्हीं के कारण बच्चे में सामाजिक चेतना का आविर्भाव होता है। माँ द्वारा दूध पिलाने, पिता द्वारा सहलाने, भाई-बहिनों द्वारा खिलाने आदि से शिशु के मन में सामाजिकता के बीज पनपते हैं। बच्चे के सामाजिक स्वरूप का सही विकास तो उसके विद्यालयीय जीवन से जुड़ने के बाद ही प्रारम्भ होता है। इससे पहले तो उसकी पहचान घर-परिवार वालों तक ही सीमित रहती है। विद्यालय जाने पर वे दायरे और विस्तृत हो जाते हैं। धीरे-धीरे उसमें नैतिकता और धार्मिकता के प्रति भी निष्ठा होने लगती है। विद्यालय में ही बच्चों के जीवन में सहयोग, आज्ञापालन, सत्कार, श्रद्धा, नेतृत्व, स्नेह जैसे सामाजिक गुणों को अर्जित करने का अवसर मिलता है। सबके साथ-साथ उठने-बैठने से प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता जैसी सामाजिक शक्तियों का विकास होने लगता है जो मनुष्य के मौलिक विकास में प्रेरणात्मक शक्ति साबित होती हैं। तेरह से उन्नीस वर्ष की 'टीन एज' में यौन-चेतना का भी क्रमिक विकास होता है। फलस्वरूप लड़के -- - - - - - - - - ३८ कैसे करें व्यक्तित्व-विकास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003900
Book TitleKaise kare Vyaktitva Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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