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बौद्धिक क्षमता परिपक्व नहीं होती इसलिए उनकी प्रवृत्ति और व्यवहार में विवेक-सन्तुलन नहीं होता। एक बौद्धिक प्राणी अपना प्रवृत्यात्मक व्यवहार अन्धे की तरह नहीं करता। ___ हमारे मानवीय जीवन में मूलत: तीन प्रवृत्तियाँ होती हैं-आत्मरक्षा, जाति-रक्षा और सामूहिक जीवन। कई मनोवैज्ञानिकों ने तो यह माना है कि मनुष्य की उतनी ही मूल-प्रवृत्तियाँ होती हैं, जितने प्रकार का वह व्यवहार करता है जबकि अनेक मनोवैज्ञानिक मनुष्य में केवल एक ही मूल प्रवृत्ति स्वीकार करते हैं और वह प्रवृत्ति ही उसके सारे व्यवहारों को प्रेरित और संचालित करती है। फ्रायड के अनुसार काम-प्रवृत्ति ही मूल प्रवृत्ति है। एडलर ने उस प्रवृत्ति को आत्म-प्रदर्शन की संज्ञा दी है। वर्गसन के मतानुसार वह प्राण-शक्ति है जबकि सोफेन हावर ने उस मूल प्रवृत्ति को जिजीविषा । जीने-की-इच्छा कहा है।
मनुष्य के जीवन से जुड़ी हुई समस्त प्रवृत्तियों का अध्ययन करने पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रेम और उद्वेग मनुष्य की वे मूलभूत प्रवृत्तियाँ हैं, जिनके ईर्द-गिर्द मनुष्य का जीवन और उसकी सारी प्रवृत्तियों का वातायन खुला हुआ है। प्रेम और उद्वेग जहाँ हमारे मूलभूत संवेग हैं, वहीं हमारी मूलभूत प्रवृत्तियाँ भी हैं। हमारे मानवीय जीवन में विभिन्न प्रवृत्तियों का जो विस्तार है, उनमें भोजन का अन्वेषण, पलायन, युयुत्सा, निवृत्ति, शरणागत, ह्रास, जिज्ञासा, आत्म-गौरव, सामूहिकता, संग्रह, रचना, दैन्य-भावना, काम-प्रवृत्ति प्रमुख हैं। भोजन के अन्वेषण से उसकी मूल प्रवृत्ति चालू होती है। चौदह वर्ष की उम्र होन पर उसकी काम-प्रवृत्ति सुषुप्त अवस्था को त्याग कर जाग्रत अवस्था को प्राप्त कर लेती है। पुत्रकामना जैसी प्रवृत्तियाँ युवावस्था में उत्पन्न होती है। धर्माचरण की प्रवृत्ति इन प्रवृत्तियों के संस्कार या सुधार से या आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए उदित हुई देखी जाती है।
प्रवृत्तियाँ जो भी हों, उन्हें सम्यक् दिशा प्राप्त होना नितान्त जरूरी है। वे मनुष्य की जन्मजात शक्तियाँ हैं, इसलिए इनमें मनुष्य की योग्यताओं
मूल प्रवृत्तियों को दीजिए बेहतर शिक्षा
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