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विकास करना होता है। मनुष्य जब इस विराट् संसार में जन्म लेता है तो मूल प्रवृत्तियों के रूप में वह अपने अविकसित व्यक्तित्व को साथ लेकर पैदा होता है। व्यक्ति अपने जीवन के विकास-काल में जहाँ अपनी जन्मजात विलक्षणताओं के आधार पर वातावरण से समायोजन स्थापित करता है, वहीं अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति प्रतिक्रियाएँ भी व्यक्त करता है। व्यक्तित्व केवल जन्मजात गुण नहीं है, वरन् सामाजिक सन्दर्भो में व्यक्ति अपने गुणों का परिमार्जन एवं अभिवर्धन भी करता है। व्यक्ति का एक व्यक्तित्व वह होता है जिसे जन्मजात व्यक्तित्व कहना चाहिए और दूसरा व्यक्तित्व का वह रूप है जो समाज एवं वातावरण से समायोजित होने के बाद अर्जित होता है।
जन्मजात व्यक्तित्व और अर्जित व्यक्तित्व में परस्पर प्रगाढ़सम्बन्ध होता है। एक प्रकार से व्यक्ति समाज से उन्हीं गुणों को उपार्जित करने के लिए रुचिशील होता है जिनका जन्मजात व्यक्तित्व के साथ तालमेल हो। वास्तव में व्यक्तित्व एक गत्यात्मक संगठन है। गत्यात्मक होने के कारण ही व्यक्तित्व में परिवर्तन आ जाया करते हैं। एक डाकू का व्यक्तित्व रामायण-रचनाकार का बन जाता है, वहीं एक ब्रह्मज्ञानी का व्यक्तित्व सीता-हरण करने वाला बन जाता है।
व्यक्तित्व की अगर सही परिभाषा करनी हो तो यही कहना उपयुक्त होगा कि जन्मजात और अर्जित विलक्षणताओं एवं आन्तरिक और बाह्य पहलुओं का गत्यात्मक समन्वय ही व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व जीवन का वह विशिष्ट संगठन है जिसे हम दूसरे शब्दों में अर्जित संस्कारों व प्रवृत्तियों का योग कह सकते हैं। यही तोवह मन:शारीरिकतंत्र है जो व्यक्ति के वातावरण से अभियोजन को निर्धारित करता है। जन्मजात संस्थानों, आवेगों, प्रवृत्तियों, रुचियों, मूलप्रवृत्तियों, अनुभवों, संस्कारों एवं योग्यताओं की संयुक्त कार्यवाही ही वास्तव में व्यक्तित्व की आधार-भूमिका बनती है। ___व्यक्तित्व के निर्माण में मुख्यत: शारीरिक, मानसिक और सामाजिक गुणों का समावेश किया जाता है। शारीरिक गुणों के अन्तर्गत व्यक्ति के
- कैसे करें व्यक्तित्व-विकास
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