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जीना तो वही है जो इज्जत से जिया जाए । बेइज्जती जीते-जी आत्महत्या है। ऐसा चरित्र या व्यवहार किस काम का जिसके कारण आदमी को सौ लोगों के बीच नीचा देखना पड़े। व्यक्ति का चरित्र तो इतना निर्मल हो कि लोग उसे अपनी आँखों में बसाना चाहें। सम्मान और प्रतिष्ठा वास्तव में चारित्र - वृक्ष की छाया है।
चरित्र के प्रति निष्ठा रखने वाले लोग सदा सक्रिय होते हैं, निष्क्रिय नहीं। सच्चरित्र - पुरुष अपनी मेहनत की कमाई खाना पसंद करते हैं, किसी की मेहरबानी की नहीं। उनकी निगरानी के लिए चाहे कोई 'सुपरवाइजर' रखा जाए या नहीं, वह अपने कर्त्तव्य के प्रति कभी लापरवाह नहीं होगा । उससे जब भी मिलो, व्यवहार में प्रसन्नता झलकती दिखाई देगी। चाहे नुकसान भी क्यों न हो जाए, वह निराश नहीं होगा, वरन् उसके उपरान्त भी अपने कर्तव्य के मार्ग पर डटा रहेगा।
निश्चित तौर पर चरित्र का मुख्य सम्बन्ध हमारे सामाजिक व्यवहारों से है, परन्तु इसके साथ ही आत्म-सम्मान के स्थायी भाव से भी है। समाज चाहे उसके व्यवहार को देखे या अनदेखा रखे, पर वह अपनी सच्चाई और ईमानदारी को कभी गिरवी नहीं रखेगा । चरित्र का यह स्तर नैतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है ।
मनुष्य का नवजात शिशु - रूप न सामाजिक होता है, न असामाजिक । वह तो होता है समाज - निरपेक्ष। समाज के बीच पलने - बढ़ने के कारण उसमें सामाजिक सापेक्षता साकार होने लगती है। धीरे-धीरे वह मातापिता और भाई-बहिन की जरूरत और व्यावहारिकता समझने लगता है । वह समझने लगता है कि उसके द्वारा किस प्रकार की क्रिया करने से लोग उससे अप्रसन्न या प्रसन्न होंगे। वह अपनी क्रियाओं में बदलाव या सुधार करने लगता है और नये व्यवहारों को सीखने लगता है । उम्र के बढ़ने के साथ उसकी समझ में भी बढ़ोतरी होने लगती है। तीन वर्ष के बाद उसकी समझ-शक्ति दुरुस्त होने लगती है। वह उन कामों को करना अधिक पसन्द करता है जिनके करने से उसे शाबासी मिलती है। वह उस प्रवृत्ति की चरित्र-निर्माण : श्रेष्ठ व्यक्तित्व की पूंजी
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