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बच्चे की रुदन - क्रिया में जो ध्वनि होती है, वह 'स्वर' होती है । फिर बच्चा बबलाने लगता है और उसी बबलाने में कुछ ऐसी व्यंजनात्मक आवाज होती है, जिसे हम भाषात्मक अभिव्यक्ति कह सकते हैं । जैसे -मा... मा..., बा...बा...बा..., ना...ना... ना..., दा...दा... दा... आदि । यह बबलाना भाषा और ज्ञान की शुरुआत है। इस बबलाने का यों तो कोई अर्थ नहीं होता, पर यदि माता-पिता इस बबलाने के समय बच्चे को विशेष प्रकार की ध्वनि निकालने के लिए प्रोत्साहित करें तो वह सार्थक ध्वनियाँ भी निकालने लग जाता है। जैसे- माँ, पा-पा, दीदी, बा-बा, जी-जी, ना - ना, दादा आदि । इस प्रकार यदि माता-पिता बच्चे को सार्थक अभिव्यक्ति के लिए उत्साहित करते रहें तो बालक भाषा और उसके शब्दों को अपेक्षाकृत जल्दी पकड़ सकता है, समझ सकता है, बोल सकता है।
माता-पिता बच्चे के शैशव और बाल्यकाल के 'पहले गुरु' हैं । उनका कर्तव्य है कि वे अपने बच्चे को अधिक-से-अधिक शब्दबोध कराएँ, उनका ठीक-ठीक उच्चारण कराएँ और उसके साथ सदैव इस प्रकार का व्यवहार करें जिससे वह सदैव प्रसन्न रहे। ऐसा न करने पर उसके सामाजिक समायोजन में कमी आ जाएगी।
बचपन में ही ऐसा भाषा-संस्कार दे देना चाहिए कि वह उसके प्रति आदर - भाव प्रदर्शित करे और आदर - सूचक शब्दों का प्रयोग करे । 'आप', 'जी', 'आइये', 'बैठिये' 'श्री' जैसे आदर-सूचक शब्दों से उसे भलीभाँति परिचित करा देना चाहिए। माता-पिता तथा अध्यापकों को चाहिए कि वे बच्चों में ऐसी आदत डालें कि वे चिल्लाकर या ऊँची आवाज में न बोलें। बच्चे का ज्यादा जोर से बोलना उसके ध्वनि - अंगों पर बुरा प्रभाव
ता है और आगे जाकर उनकी आवाज ज्यादा मोटी या ज्यादा पतली हो जाती है । ध्वनि और भाषा का सन्तुलित होना अपेक्षित है । जहाँ बच्चा अनुकरण से भाषा सीखता है, वहीं प्रयास से भी वह भाषात्मक योग्यता प्राप्त करता है ।
बच्चों को सिखाएँ बेतहर भाषा
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