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और लड़कियों की सामाजिक चेतना का अलग-अलग विकास होने लगता है । यद्यपि सामाजिक मर्यादाओं के कारण अपने वर्ग में ही उन्हें सीमित रहना पड़ता है, तथापि उनका पारस्परिक आकर्षण बढ़ता जाता है और वे एक-दूसरे से मिलकर मानसिक आनन्द की अनुभूति करते हैं ।
उम्र के बढ़ने के साथ लड़के-लड़कियाँ स्थायी रूप से जीवन-साथी की आवश्यकता महसूस करने लगते हैं। उनकी वही आवश्यकता विवाह के रूप में परिणत हो जाती है। व्यावसायिक संलग्नता एवं पारिवारिक प्रतिबद्धता व्यक्ति की सामाजिक स्थितियों को और मजबूत बनाती हैं। विभिन्न लोगों से मैत्री या दुश्मनी हो जाने के कारण उसकी सामाजिक चेतना में कई उतार-चढ़ाव भी आते हैं। यों शिक्षण, मेल-मिलाप, प्रोत्साहन और मानसिक संवेगों के कारण जीवन में सामाजिक भावनाओं एवं दायित्वों की प्राण-प्रतिष्ठा होती है।
निश्चित तौर पर ग्यारह से इक्कीस वर्ष तक की आयु जीवन की वह अवस्था है जिसमें बालक के शारीरिक, संवेगात्मक, गत्यात्मक तथा मानसिक पहलुओं में बड़े ही क्रान्तिकारी और आश्चर्यजनक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के चलते ही व्यक्ति के सामाजिक वातावरण का क्षेत्र व्यापक हो जाता है। पुस्तकों के अध्ययन से सामाजिक ज्ञान भी खूब फल-फूल जाता है। कई लोग तो ऐसे होते हैं जिनके सामाजिक विकास का क्षेत्र इतना विशद हो जाता है कि वे परिवार, जाति, धर्म, वर्ग आदि की शृंखलाओं को तोड़कर विश्व बन्धुत्व और विश्व - प्रेम की सर्वोच्च मानवीय भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं। यद्यपि कई लोग अकेलेपन के भी शिकार हो जाते हैं, पर एक उम्र - विशेष में वे भी विश्वभावना का सम्मान करने लग जाते हैं ।
आत्म-सम्मान और आत्म- गौरव ही वे पहलू हैं जो व्यक्ति को दूसरों के लिए सक्रिय होने को सम्प्रेरित करते हैं। बड़ों को ही क्यों, अगर हम बच्चों की भी क्रियाओं का अवलोकन करें तो यह साफ जाहिर हो जाएगा कि वे अपनी बुद्धि, शक्ति और योग्यता का दूसरों के सामने प्रदर्शन करना
बच्चों का सामाजिक विकस
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