Book Title: Kaise kare Vyaktitva Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 23
________________ संचालित होने लगते हैं। चाहे मस्तिष्क का निम्न-केन्द्र हो या उच्च, क्रियात्मकता की पहल का निर्देशक तो मस्तिष्क ही है। बालक का जितना जल्दी क्रियामूलक विकास होगा, वह वातावरण के साथ अपने-आपको उतनी ही तीव्रता के साथ समायोजित कर लेगा। क्रियात्मक विकास और वातावरण के साथ समायोजन ही उसके कर्मकौशल को सहायता प्रदान करेगा। वह अपने पाँवों के बल पर खड़ा होना सीखेगा। हर प्रकार की शारीरिक गतिविधियों का वह स्वयं संचालक होगा। पहले तो वह केवल हाथ-पाँव फेंकेगा, पर बाद में वह अन्य क्रियात्मक कुशलताओं को भी सहजतया प्राप्त कर लेगा, जैसे स्वयं भोजन करना, खुद वस्त्र पहनना, गेंद फेंकना/पकड़ना, दौड़ना, कूदना, सीढ़ियों पर चढ़ना, ट्राइसिकल चलाना और लिखना आदि। जब तक क्रियात्मक योग्यताओं में प्रगति न हो, बालक बिल्कुल असहाय एवं पराश्रित होता है, फिर चाहे वह एक महीने का हो या दस वर्ष का। क्रियात्मक योग्यताओं का विकास ही उसे आत्म-निर्भर बनाता है। आत्म-निर्भरता अपने ही हाथ से काम-काज करने से उपलब्ध होती है, इसलिए घर के सदस्यों को चाहिए कि वह छोटे बच्चे को धीरे-धीरे यह प्रोत्साहन दें कि वे अपना काम स्वयं करने लग जाएँ। स्वावलम्बी बालक अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ और सजग होते हैं। क्रियात्मक विकास का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बच्चे को अपनी ही क्रियाओं के द्वारा आनन्द प्राप्त होने लगता है। खेलना बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यदि बच्चा खेल के प्रति रुचिशील न हो तो उसे खेल के प्रति प्रोत्साहन देना चाहिए। खेलने से आनन्द भी मिलता है और शारीरिक सामर्थ्य भी बढ़ता है। क्रियात्मक योग्यताओं से मात्र खेलने की शक्ति ही उत्पन्न नहीं होती, वरन् क्रियात्मक योग्यताएँ भी उसके सहयोग से विकसित हो जाती हैं। __ खेल-खेल में ही तो बच्चे का दूसरों के साथ हँसते-खेलते सम्पर्क हो जाता है। एक बच्चे से दूसरा बच्चा मिलता है। दो से चार मिलते हैं, - - - - - - - - कैसे करें व्यक्तित्व-विकास - - - - - - - - - - - - - - १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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