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(२४०२४३) सागरदत्त श्रीमती के रूप एवं बदन को देखकर कामासक्त हो गया एवं उसे प्राप्त करने का उपाय सोचने लगा । उसने एक पोटली समुद्र में लिए दी। पोली के लिए जान जोर से रोने लगा तथा उसे प्राप्त करने के लिये हाहाकार करने लगा। जिनदत्त सागरदत्त की पीड़ा को देखकर एक रस्सी के सहारे पोटली को निकालने के लिये समुद्र में उत्तर गया। तब सागरदत्त ने डोरी को बीच ही में से काट दिया, जिससे जिनदत्त समुद्र में रह गया |
(२४४ से २५८) श्रीमती उसे डूबा हुआ जानकर विलाप करने लगी। सागरदत्त उसे मोटी २ बातों से फुसलाने लगा। लेकिन उसके शोल के प्रभाव से जलमान हो जगमगाने लगा। जलयान के अन्य व्यापारियों ने सागरदत्त को खूब फटकारा तथा सब लोग श्रीमती के हाथ पैर जोड़ने लगे। आखिर जलयान एक द्वीप पर जा लगा। फिर वह श्रीमती सागरदत्त को छोड़कर अन्य व्यापारियों के साथ चम्पापुरी चली गई और चैत्यालय में विमलमती के साथ रहने लगी ।
( २५६ से २६८ ) समुद्र में गिरते ही जिनदत्त ने भगवान का स्मरण किया । इतने में ही उसे दो लकड़ी के टुकड़े मिल गये और उनके सहारे वह एक विद्याधर नगरी में पहुँच गया । तट पर आते हुये देखकर पहिले तो वहाँ के चौकीदार उसे मारने के लिये दौड़े लेकिन बाद में उसकी शक्ति एवं साहस को देखकर उन्होंने उसका स्वागत किया और उसे विमान में बैठाकर विद्याधरों की नगरी रथनूपुर ले गये। वहां उसका भव्य स्वागत हुआ और वहाँ के राजा अशोक ने अपनी कन्या श्रृंगारमती का उसके साथ विवाह कर दिया । जिनदत्त को दहेज में १६ विद्याएँ मिली तथा इनके अतिरिक्त उनने और भी विद्याएँ प्राप्त की। जिनदत्त नहीं काफी समय भानन्द से रहा तथा अन्त में प्रस्थान की तैयारी करने लगा। राजा ने उसे काफी सम्पत्ति दी तथा एक विमान दिया | वह विमान से श्रृंगारमती सहित चषापुरी में आ गया।
दस