Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
View full book text
________________
"परिरिथति पर निर्भर है । प्रत्येक चेतन कण में वनाम प्रत्येक आत्मा मे यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह अपने स्वरूप को ईश्वर रूप में परिणित कर सकता है, एवं अपने में विकसित मखड परिपूर्ण और विमल ज्ञान द्वारा विश्व की सम्पूर्ण अवर वाओ का भार उसके हर अंग को देख सकता है।
प्रत्येक आत्मा अनादि है, अक्षय है, नित्य है, शाश्वत् हैं, अचिन्त्य है, गन्दातीत है, अगोचर है, मूलरूप से ज्ञान स्वरूप है, निर्मल है, अन्त सुखमय है, सभी प्रकार की सासारिक मोह माया आदि विकृतियो से पूर्णतया रहित है । प्रत्येक आत्मा अनन्त सस्तिगाली और बनत सात्विक सद्गुगो का पिंड मान है । वास्तविक दृष्टि से ईश्वरत्व मीर आत्मतत्व में कोई अन्तर नही है। यह जो विभिन्न प्रकार का अन्तर दिखलाई पड़ रहा है, उनका कारण वासना और सरकार है, और इन्ही से विकृति मय अन्तर अवस्था की उत्पत्ति होती है । वासना और सम्कारो के हटते ही आत्मा का नूल स्वरूप प्रगट हो जाया करता है, जैसे कि बादलो के हटते ही मूर्य का प्रकाश और धूप निकल जाती है, वैसे ही यहा भा समझ लेना चाहिये । अखिल विश्व में यानी सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनंनानत आत्माएं पाई जाती है, इनकी गणना कर सकना ईश्वरीय ज्ञान के भी वाहिर की बात है । परन्तु गुणो की समानता के कारण जैन-दर्शन का यह दावा है कि प्रत्येक आत्मा सात्विकता और नैतिकता के वल पर ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार माज दिन तक अनेकानेक आत्माओ ने ईश्वरत्व की प्राप्ति की है। ईश्वरत्व प्राप्ति के पश्चात् ये आत्माएं-ईश्वर में ही ज्योतिमे ज्योति के समान एकत्व आर एक रूपत्व प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार अनतानत काल के लिय, सदैव के लिये इस समार से परिमुक्त हो जाती है । ऐमी मस्त भार ईश्वरत्व प्राप्त आत्माएँ पूर्ण वीतरागी होने से संसार के सजन, विनाशन, रक्षण, परिवधन और नियमन आदि प्रवृत्तियो मे सर्वथा परिमत हात वीतरागता के कारण सासारिक-प्रवृत्तियो में भाग लेने का उनके लिये कोई कारण शेप नही रह: जाता है । यह है जैन-दगन की "आत्मतत्त्व और ईश्वरत्व" विषयक मौलिक दार्शनिक देन, जो कि हर आत्मा में पुरुपायं, स्वामयता, कर्मण्यता, नैतिकता, सेवा, परोपकार, एव सात्विकता की उच्च बार उदात्त लहर पैदा करती है ।