Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
View full book text
________________
१८
दिया है। आश्चर्य तो इस बात का है कि प्रसिद्ध सभा दार्शनिको ने एव महामति मौमायकाचार्य कुमारिल भट्ट आदि भारताय घुरधर विद्वानो ने इस सिद्धान्त का शब्द रूप से खडन करते हुए भा प्रकारान्तर से और भावान्तर से अपने अपने दार्शनिक सिद्धान्तो में विरोधो के उत्पन्न होने पर उनकी विविधताओ का समन्वय करने के लिये इसी सिद्धान्त का आश्रय लिया है ।
दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर स्वामी ने इस सिद्धान्त को 'मिया अस्थि' जिया नत्थि, सिया अयत्तव्व' के रूप में फरमाया है, जिसका यह तात्पर्य है प्रत्येक वस्तु तत्व किसी अपेक्षा से वर्त्तमान रूप होता है, और किसी उत्तरी अपेक्षा से बही नाश रूप भी हो जाता है । इसी प्रकार किसी तीसरी पेक्षा विशेष से वही तत्त्व त्रिकाल सत्ता रूप होता हुआ भी शब्दों द्वारा अवाच्य अथवा अकथनीय रूपवाला भी हो सकता है ।
जैन तीर्थंकरो ने और पूज्य भगवान अरिहतो ने इसी सिद्धान्त को
उवा, विगएवा, घुवे वा
"
इन तीन शब्दो द्वारा "त्रिपदी" के रूप सुति कर दिया है । इस त्रिपदी का जैन आगमो में इतना अधिक महत्व और सर्वोच्चशीलता बतलाई है कि इनके श्रवण - मात्र से ही रोको चौदह पूर्वो का सपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है । द्वादशागी रूप चीतराग-वाणी का यह हृदय-स्थान कहा जाता है ।
"
भारतीय साहित्य के मूत्र-युग में निर्मित महान् ग्रथ तत्त्वार्थ सूत्र मे इसी सिद्धान्त का 'उत्पाद व्यय धीव्य युक्त सत्' इस सूत्र रूप से उल्लेख किया हूँ, जिसका तात्पर्य यह है कि जो सत् यानी द्रव्य रूप अथवा भाव रूप है, समें प्रत्येक क्षण नवीन नवीन पर्यायों को उत्पति होती रहती है, एव पूर्व
का नाश होता रहता है, परन्तु फिर भी मूल द्रव्य की द्रव्यता, मूल सन् की सत्ता पर्यायों के परिवर्तन होते रहने पर भी धोत्र्य रूप से वरावर रुपम रहती है । विश्व का कोई भी पदार्थ इस स्थिति से वचित नहीं है।
भारतीय साहित्य के मध्य युग में तर्क-जाल - सगुफित घनघोर शास्त्रार्थ समय समय में जैन साहित्यकारो ने इसी सिद्धान्त को "स्यात्