Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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ससार मे जो विभिन्न विभिन्न आत्मतत्त्व की श्रेणियां दिखाई दे रही है। उनका कारण मूल गुणो में विकृति की न्यूनाधिकता है । जिस जिस आत्मा में जितना जितना सात्विक गुणो का विकास है, वह आत्मा उतनी ही ईश्वरत्व के पास है और जिसमें जितनी जितनी विकृति की अधिकता है, उतनी उतनी ही वह ईश्वरत्व से दूर है। सांसारिक आत्माओ में परस्पर में पाई जान वाली विभिन्नता का कारण सात्विक, तामसिक, और राजसिक वृत्तियाँ है, जो कि हर आत्मा के साथ कर्म रुप से, सस्कार रूप से और वासना रूप से सयुक्त है । वेदान्तदर्शन सम्बन्धी "ब्रह्म और माया' का विवेचन, साख्य दर्शन सम्बन्धी "पुरुष भार प्रकृति" की व्याख्या, और जैन-दर्शन सम्बन्धी "मात्मा. और कर्म" का सिद्धान्त मूल में काफी समानता रखते है । शब्द-भेद, भाषाभेद, और विवेचन-प्रणालि का भेद होने पर भी अर्थ में भेद प्रतीत नही होता है, तात्पर्य में भेद विदित नही होता है।
उपरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि जैन-दर्शन की मान्यता वैदिक धर्म के अनुसार एक ईश्वर के रूप में नही होकर अपने ही प्रयत्न द्वारा विकास की सर्वोच्च और अन्तिम श्रेणि प्राप्त करने वाली, निर्मलता और ज्ञान की अखड और अक्षयधारा प्राप्त करने वाली और इस प्रकार ईश्वरत्व प्राप्त करने वाली अनेकानेक आत्माओ का ज्ञान, ज्योति के रूप में सम्मिलित होकर प्राप्त होने वाले परमात्मवाद में है।
अतएव इस स्रष्टि का कर्ता हर्ता, धर्ता और नियामक कोई एक ईश्वर नही है, परन्तु इस लष्टि की प्रक्रिया स्वाभाविक है। हर आत्मा' का उत्थान और पतन अपने अपने कृत कर्मों के अनुसार ही हुआ करता है। इस प्रकार की सैद्धान्तिक और मौलिक दार्शनिक क्राति भगवान महावीर स्वामी ने तत्कालीन वैदिक मान्यता के अधिनायक रूप प्रचह और प्रवल प्रवाह के प्रतिकूल निडर होकर केवल अपने आत्म बल के आधार पर प्रस्थापित की, जो कि अजेय और सफल प्रमाणित हुई। वैदिक मान्यता झुकती हुई निर्वलता की ओर बढती गई । तत्कालीन बड़े२ गण राज्य, राजा गण, जनता और मध्यम वर्ग तेजा के साथ वैदिक