Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 12
________________ - प्रारम्भिक............. " 'जनविद्या' का तृतीय अंक पुष्पदन्त विशेषांक : खण्ड-2 के रूप में पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें अतीव प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। गतांक में हमने लिखा था कि हमें पुष्पदन्त के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के सम्बन्ध में इतनी प्रचुर, महत्त्व एवं वैविध्यपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई कि उसे एक ही अंक में समाहित करना संभव नहीं हो सका अतः उसे दो अण्डों में विभाजित किया गया। प्रथम खण्ड महाकवि की तीन रचनाओं 'महापुराणु', 'जसहरचरिउ' और 'णायकुमारचरिउ' में से उसकी प्रथम रचना केवल 'महापुराणु' से सम्बन्धित था। उसमें पाठक महाकधि के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व, उसकी संवेदनशीलता, उसका काव्य, भाषा, उसकी बिम्बयोजना, उसका और सूरदास का तुलनात्मक अध्ययन, जैन रामकथाओं के परिप्रेक्ष्य में उसकी रामकथा, उसकी दृष्टि में जीवन की बरणभंगुरता, उसकी रचनामों की राजस्थान में लोकप्रियता प्रादि विषयों से सम्बन्धित रचनाओं का रसास्वादन कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त श्री महानंदिदेव की 'पाणंदा' शीर्षक एक माध्यात्मिक तथा रहस्यवादी रचना का भी पाठक परिचय प्राप्त कर चुके हैं। इस अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी शेष दो रचनाओं से सम्बन्धित सामग्री । इसमें हमारे पाठक पढ़ेंगे-णायकुमारचरिउ : एक प्राचन्त जन काव्य, उसमें प्रतिपादित जीवन-मूल्य, यशोधर का संक्षिप्त पाख्यान, जसहरचरिउ का काव्यवैभव, उसमें प्रात्मा सम्बन्धी विचार, पुष्पदंत को रसाभिव्यक्ति, विचारष्टि एवं उपमानसृष्टि, - उनकी- काव्य प्रतिभा आदि । सूक्तियों का भी अपना एक अलग ही महत्त्व और मानन्द है, उसकी उक्त दोनों रचनाओं में आई सूक्तियों के रसास्वादन का आनन्द भी पाठक इस अंक में ले सकेंगे साथ ही अपभ्रंश भाषा की दो नवीन लघु सानुषाद रचनामों से भी परिचित होंगे। जैनधर्म अहिंसा, समभाव तथा आत्मशुद्धि पर बल देता है अतः स्वभावतः जनरचनाकारों का ध्येय अपनी रचनाओं द्वारा जनसाधारण में नैतिक जीवनमूल्यों, अहिंसा और समता के भावों के प्रति श्रद्धा जागृत करना, इनका प्रचार एवं प्रसार करना रहा है। ये. सिद्धान्त किसी सम्प्रदाय अथवा जाति-विशेष के लिए ही उपयोगी न होकर सूर्य के प्रकाश और चन्द्रमा को चांदनी के समान सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय हैं। जैन रचनाकारों की रचनाए किसी एक ही विषय अथवा विधा तक सीमित न होकर महापुराण, चरितकाव्य, मुक्तककाव्य मादि विविधरूपों में प्राप्त हैं। इन सबका

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