Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 58
________________ जैनविद्या 53 अपने व्यक्तित्व को प्रखर नहीं बना सकता। व्यक्तित्व की प्रखरता के लिए अपनी स्थिरता का विश्वास अत्यावश्यक है अन्यथा मरण की चिन्ता या कुछ समय बाद अस्तित्वविहीनता का बोध उसे निष्क्रिय अथवा प्रमादी बना देगा। जिससे व्यक्तित्व मात्र कूपमण्डूक बन कभी कहीं और कभी कहीं संसरणशील होता हुआ दुःखमूलक वेदनाओं का मातहत ही बनता रहेगा। दुःखमय वेदनाओं के परिकर से मुक्त होने की प्रेरणा देना प्रत्येक मनीषी साहित्यकार का ध्येय होता है। अपभ्रश कवि पुष्पदंत ने अपने इस काव्य में पात्रों का अनेक भवों संबंधी चरित्र चित्रित कर वेदनाओं से छुटकारा दिलाने हेतु प्रात्मा को अमर साबित कर दिया है जो जैनदार्शनिक धरा पर आधारित अत्यन्त उपयोगी प्रतिपादन है । ___जसहरचरिउ के पाठक जानते हैं कि बलिदान के लिए निगृहीत क्षुल्लक अभयरुचि ने राजा मारिदत्त को उसमें सद्योत्पादित पात्रता देखकर अपनी कथा सुनाई है। यह कथाप्रसंग हिंसादि दुष्कर्मों से विरत होने हेतु सहज और अचूक प्रेरणा देते हुए बता देता है कि मूढ़ताओं और अन्धविश्वासों में पली कुपरम्परामों का पर्दाफाश नहीं करने से प्रात्मा स्वकृतकों के अनुसार जन्म-मरणपूर्वक नाना योनियों में भटकता है तथा पुण्य-पापाधीन परिणामों के अनुरूप सांसारिक सुखदुःखात्मक वेदनाओं को सहन करता है, भोगता है। प्रकृत में विशेष पुष्टि का दायित्व हम पाठकों पर छोड़ते हैं और जसहरचरिउ में उल्लिखित पात्रों के भवों का मात्र नामोल्लेख करते हैं, जिससे उन्हें आत्मा के अमरत्व के बोध की झलक दिख जाय । पात्रों ने अपने भवों में नाना शरीर धारण किये और छोड़े तथापि आत्मा की अमरता को अक्षुण्ण बताया, तदर्थ क्या, क्यों और कैसे ? का समाधान पाने हेतु स्वयं जसहरचरिउ को नयनाभिराम बनाइयेगा स्थिति स्पष्ट हो जायगी। निदर्शनत्वेन हेतु अभिप्रेत उल्लेख इस प्रकार है (1) क्षुल्लक अभयरुचि-अपने पूर्व भवों में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य के मंत्री जितशत्रु16 थे। फिर क्रमशः राजा यशोधर', मयूर18, नकुल, पाण्डुररोहितमत्स्य20, बकरा21, बकरा22, कुक्कुट23 होकर राजा यशोमति के पुत्र अभयरुचि4 हुए, जिनने पहले क्षुल्लक दीक्षा ली पश्चात् मुनि बनकर25 देह त्याग वैमानिक देव26 हुए। (2) क्षुल्लिका अभयमति-अपने पूर्व भवों में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य की विन्ध्यश्री7 नामक पत्नी थी। वही मरकर अजितांग राजा की पुत्री तथा यशोधर की पत्नी चन्द्रमति28 होकर क्रमशः कूकर, सर्प30, संसुमार31, बकरी2, भैंसा33, कुक्कुट34 के भव धारणकर राजा यशोमति की पुत्री अभयमति हुई जिसने पहले क्षुल्लिका दीक्षा और बाद में प्रायिका दीक्षा 36 ली तथा अन्तिम समय में देह छोड़ कर वैमानिक देव पर्याय37 प्राप्त की। (3) सुदत्त मुनि-अपने पूर्व भवों में उज्जयिनी नरेश यशोवन्धुर थे जो मरण प्राप्त कर कलिंगराज भगदत्त के पुत्र सुदत्त हुए। राजा बनने पर चोर को दण्ड देने के प्रसंग से विरक्त हो मुनि बन गये38 तथा अन्त समय में संन्यासपूर्वक देह त्याग सप्तम स्वर्ग में देव हुए ।

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