Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 63
________________ जैनविद्या भाषा जब अक्षरात्मक रूप में लिखी जाने लगी तब से ही उसके साहित्य की उत्पत्ति हुई । साहित्य में मानव के लाखों हजारों वर्षों के अनुभवों के आधार पर जो उपदेशात्मक कल्याणकारी प्रानन्ददायक वाक्य मानव के अन्तस्तल से प्रवाहित हुए वे ही सूक्ति-सुभाषित आदि नामों से अभिहित हैं । पार्थिव सृष्टि जहाँ सुख-दुःखमय है वहाँ सुभाषितों की सृष्टि प्रानन्द और उल्लास प्रदात्री है इसमें दो मत नहीं हो सकते । 58 to हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- "सूक्तियों में नीति के वचन थोड़े शब्दों में गागर में सागर की भाँति बड़ी सुन्दरता से व्यक्त होते हैं । इनमें उपदेश देने की छटा निराली होती है । ये भावों को सजा संवार कर सजीव बनाने एवं वक्तृत्वकला को चमकाने में बड़ी सहायक होती हैं । " सुभाषित साहित्य का शृङ्गार है । जिस प्रकार शृङ्गार नारी के सौंदर्य में चार चाँद लगा पुरुष को उसकी ओर आकर्षित करने का एक सक्षम साधन है उसी प्रकार सूक्तियाँ और सुभाषित साहित्य का शृङ्गार हैं जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने की पूर्व क्षमता रखता है । इसीलिए प्रत्येक कवि की कृति में जाने-अनजाने इनका प्रयोग अवश्य हुआ है । अपभ्रंश के महाकवि पुप्फयंत ( पुष्पदंत) भी इसके अपवाद नहीं हैं ! उनका महापुराण तो सूक्तियों और सुभाषितों का भण्डार ही है । उस ही महाकवि की एक अन्य कृति 'जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र) से चुनकर कुछ सुभाषित यहाँ पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं । सुविधा के लिए उनका विषयवार वर्गीकरण भी कर दिया गया है । श्रनित्यता ( राज्य और शरीर की ) सत्तवि रज्जंगई तणु अट्ठगइँ कासु वि भुवरिण रण सासयई । 1.28.9 - राज्य के सात अंग और शरीर के आठ अंग इस संसार में किसी के भी शाश्वत नहीं रहते । इन्द्रिय सुख 'इन्द्रिय सुखों की वास्तविकता क्या है ?' यह बताते हुए कवि प्राश्चर्य व्यक्त करता है- इन्दियसुहु गरूयउ दुहु, किह सेवइ पंडियरगरु । 2.10.17 - इन्द्रिय सुख बड़ा भारी दुःख है, ज्ञानी पुरुष इसका सेवन कैसे करते हैं ? दुराग्रह 'जब मनुष्य पर दुराग्रह का भूत सवार हो जाता है तो वह कैसा बन जाता है' कवि इस सम्बन्ध में बताता है श्रइ क्रूर दुरग्गह गहिउ जेग, कज्जु व श्रकज्जु वावरइ तेण । जो होइ मिच्छ मयगहिउ सहिउ, रग वि मण्णइ सो बुहयरगाह कहिउ । 1.8.9-10

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