Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 61
________________ 56 जनविद्या कर्म-विडम्बना रिणयसिरि किं किर मण्णंति गरा, रणवजोव्वणु णासइ एइ जरा। उप्पण्णहो दीसइ पुणु मरणु, भीसावणु ढुक्कइ जमकरण। सिरिमंतहो धरि दालिद्दडउ, पइसरइ दुक्खभारम्भडउ । अइसुन्दर रूवे रूउ ल्हसइ, वीरु वि संगामरंगि तसइ। पियमाणसु अण्णु जि लोउ जिह, पिण्णेहें दोसइ पुणु वि तिह। रिणयकंतिहे ससिबिबु वि ढलइ, लावण्णु ण मणुयह कि गलइ । इह को सुत्थिउ को दुत्थियउ, सयलु वि कम्मेण गलत्थियउ । भावार्थ--मनुष्य अपनी लक्ष्मी को क्या समझते हैं ? नवयौवन का नाश होता है और बूढ़ापा आता है। जो उत्पन्न हुआ है उसका पुनः मरण देखा जाता है। उसे लेने भयंकर यम का दूत आ पहुंचता है। श्रीमान् के घर में दारिद्रय तथा दुःख का महान् भार आ पड़ता है, एक सुन्दर रूप दूसरे अधिक सुन्दर रूप के आगे फीका पड़ जाता है। वीर पुरुष भी रण में त्रास पाता है । अपना प्रिय मनुष्य भी स्नेह के फीके पड़ने पर अन्य लोगों के समान साधारण दिखाई देने लगता है । जब चन्द्रमण्डल भी अपनी कान्ति से ढ़ल जाता है तब क्या मनुष्यों का लावण्य नहीं गलेगा? इस संसार में कौन सुखी कौन दुःखी है, सभी कर्मों की विडम्बना में पड़े हैं। . -गाय० 2.4.5-11

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