Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 60
________________ जनविद्या अंत में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि जसहरचरिउ आत्मोत्थान के सन्दर्भ में मात्र प्रेरणा ही नहीं देता अपितु व्यावहारिक स्तर पर हम-तुम में यह विश्वास जगाता है कि जब कूकर आदि पशु और दुराचारी-अनाचारी-हिंसाचारी-मांसाहारी जैसे लोग भी अपनी भूल सुधारकर सर्वप्राणीसमभाव से अहिंसा प्रधान सतर्क साधना कर परमात्मा बनने के अधिकारी हैं तो हम-तुम क्यों नहीं ? 1. जसहरचरिउ, प्रकाशित सन् 1972, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 1.1.4 2. वही, प्रस्तावना 26. 4.28.28 3. 1.1.5-6 27. 4.25.6-8 4. 1.2-20 28. 4.25.6-8 5. 3.17-20 29. 2.31.1 6. 3.25.1-5 30. 2.36.11 7. 3.21.4 31. 3.2.8 8. 3.21.12-13 32. 3.6.9 9. 3.21.11 33. 3.11.15-16 10. 3.21.15-16 34. 3.13.12-17 11. 3.23.5-19 35. 3.33-34 12. 3.23.12-13 36. 4.28.22-2313. 3.28.4 37. 4.28.28 14. 4.12.8 38. 4.27.27-36 15. 4.13.4 39. 4.29.3 16. 4.25.15-17 40. 4.23.19-20 17. 4.25.15-17 41. 4.26.10-12 18. 2.27.15 42. 3.41.6-11 19. 2.36.6 43. 4.24.25 20. 3.1.20. 44. 4.25.22-23 21. 3.6.10-11 45. 4.28.11 22. 3.7-8.1 46. 4.29.4-8 23. 3.13.17 47. 4.27.15-16 24. 3.33-34 48. 4.28.14-19 25. 4.28.2 49. 2.10.16-17.

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