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जैनविद्या
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चतुर्विशति स्तुति करते समय पद्मप्रभ (छठे तीर्थंकर) को लक्ष्मी के गृह में निवास करनेवाले पद्मप्रभ से सम्बोधित किया गया है यथा
जय सुमई सुमइसम्मयपयास, जय पउमप्पह पउमारिणवास ।
जस० 1.2 अमात्य नन्न का वर्णन करते समय कविवर पुष्पदन्त द्वारा पद्मिनी लक्ष्मी को मानसरोवर कहा गया है यथालच्छीपोमिरिणमाणसरेण ।
गाय 1.3 कविसमय के अन्तर्गत लक्ष्मी तथा सम्पद् में अभेद माना गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्रमंथन से मानी जाती है। ममुद्रमंथन से प्राप्त चौदह पदार्थ रत्न के ही अन्तर्गत पाते हैं। लक्ष्मी की गणना भी उन्हीं मंथित चौदह रत्नों में की जाती है। रत्न, धन और वैभव का प्रतीक है तथा लक्ष्मी धन तथा सौन्दर्य की दात्री। इस प्रकार इनकी अभिन्नता का यह आधार माना सम्भव दिखता है। .
लक्ष्मी में सौन्दर्यभाव की प्रधानता होती है । "कविसमय" के अनुसार स्त्रीसौन्दर्य की उपमा लक्ष्मी से दी जाती है। स्त्रियोचित गुणों से नत स्त्री साक्षात् लक्ष्मी कही जाती है । महाकवि पुष्पदन्त भी गुणों से नत-विनत नारी को लक्ष्मी स्वीकारते है यथा--
सा सिरिजा गुणणय गुण ते जे गय गुणिहि चित्तु हयदुरियउ । म० पु० 19.3 इसी कारण स्त्री गृहलक्ष्मी संज्ञा से भी संबोधित है। महाकवि पुष्पदन्त ने स्त्री के लिए गृहलक्ष्मी', साक्षात् लक्ष्मी', लक्ष्मीरूपीवधू आदि सम्बोधन स्थिर किए हैं । जैन मान्यता में तीर्थंकर के गर्भकल्याणक के समय इन्द्र के आदेश पर लक्ष्मी अन्य देवियों के साथ आकर तीर्थंकरों की मातुश्री के गर्भ का शोधन करती हैं यथा
विही प्रागया देवया पंकयच्छी,
हिरी कति कित्ति सिरी बुच्छि लच्छी। म० पु० 46.4 धन, वैभव, भूमि, राज्य तथा वैभवश्री आदि के अर्थ में सम्पद् (लक्ष्मी) का व्यवहार कविसमय के तद्रूप होता है। "महापुराण" में कवि पुष्पदन्त द्वारा भूमि को राजा की सखी' तथा चक्रवर्ती को लक्ष्मी10 कहा है। प्रथम तीर्थंकर की मातुश्री मरुदेवी विभु ऋषभनाथ के जन्म से पूर्व सोलह स्वप्नों की शृङ्खला में लक्ष्मी को भी देखती हैं। स्वप्नफल जानने की अभिलाषा में मातुश्री मरुदेवी राजा नाभिराय से पूछती हैं तब राजा नाभिराय उत्तर में बताते हैं कि लक्ष्मी देखने से तुम्हारा पुत्र त्रिलोक की लक्ष्मी का स्वामी होगा ।11
राजा द्वारा किसी दूसरे राजा को पराभूत करना तथा उसके राज्य पर अधिकार कर लेना उस राजा के प्रताप-पराक्रम का परिचायक होता है। इसी कारण विजय को विजयश्री अथवा विजयलक्ष्मी कहा जाता है यथा-- विजयलच्छिसुरगणियमिरिक्कई ।
णाय० 7.7