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BRaदिदि
र णमुज्जीवी जोवी जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी
जैनविद्या
पुष्पदंत-विशेषांक : खण्ड-2
महावीर निर्वाण दिवस 2512
नाकामिसाहिवाघनातेमाश्महासज्ञदेविसरासज्ञाणिहयसयलसेदो हदुहामदुरवमउसडारी तिडयामारीपुष्फयतनिणवयणरुहाळ ॥इयउसहरमहारायचरियामदामहलननकन्नादरणामहाकपुष्फयती विरमहाकवाडमारिदेवयमारिदन्नधम्मलादानामचउबापरिलेस म्मन्नाळासेविal U-153SI सवतरण्यवर्षायासाजर। दिशानिदिने प्रवणनच चाश्रीपथानामनगरसत्यासिकंदरावादमुत्तस्या नि मुलितामसादिश्वास्मिरान्यपवर्तमाने श्रीमूलसंघावलाकारगणास स्वतीगछेत्रीकेदकुंदाचार्यान्वयेतहारकलीपनदिदेवा:रातत्यसमुतवेद दवा तत्पहेतपतिनवंददेवा नित्यपूर्वाचलदिनमणिषटतछताविकचूडा, मणिवादिमदहिपसिंहविवुधवादिमददलनवादिकंदकद्दालसकलजीव आपनमारम्यागवियारसायम्फायतसरणमियपद्धापसियनणायकुमारुतदार माया इयणायकुमारूचारुचरिणागमणामकिपामहाकश्मघायतविराम हाकवासिरिणायकुमारवालमहावालण्यत्तियमारकगमणणामणवमासंधीपरि
समता संधिपावनिसंवत १६ वर्षपष्टसुदियशनिवार श्रीवादिनाघचयालयातक्ष काहमहादुर्गमदाराताधिरारा श्रीरामपंधरायवर्तमानश्रीमूलसंधानघामायालाकारगण सरस्वतीग श्रीकंदजंदाचार्यान्वयनहारकरीयानदिदेवातत्य हमहारकी चंद्रदेवात हारकशीनिमचंदवातहारकश्रीपत्ताचदेवासियमंडलाचार्यश्रीधर्माचदेवातमियमंड लाचायश्रीललतकीर्तिदवााम्रदानयारपेडलवालावयामाagiगावासा वामाता-विजयीamar सधार-मासायटि-सा-नाला-सा-रतनार्थमा-मालासासाटानायामालासमधारपसाचा डा-मा-पीया सा-इलवर्थमादेवायं-सानासा-वाडमार्थामदनासा इलार्याकरमान सुवाय यः१.मा-यायाहि-मा-थलासा-श्रीपालमा मापासायर्यापासिरितत्स्वाहाप-भा-सरaufaaदियाइ मुस्ताणार्यामुदागदमा पन्हामार्यपथममरमविदितालामातत्युचौद्वीप्रदूगरमीतझायामाधीविता
जैनविद्या संस्थान ( INSTITUTE OF JAINOLOGY ) दि० जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी
जि०- सवाई माधोपुर, राजस्थान
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मुखपृष्ठ चित्र परिचय
___ इस अङ्क के मुखपृष्ठ पर संस्थान के पाण्डुलिपि सर्वेक्षण विभाग में उपलब्ध महाकवि पुष्पदंत की दो रचनाओं 1. जसहरचरिउ एवं 2. णायकुमारचरिउ की प्राचीनतम पाण्डुलिपियों की अन्त्य-प्रशस्तियों के कुछ अंश के चित्र हैं जिनका भाव निम्न प्रकार है
___ 1. ऊपर-जसहरचरिउ की यह प्रति सम्वत् 1580 आसोज सुदि 10 शनिवार को श्रीपथ नामक नगर के पास स्थित सिकन्दराबाद में सुलतान इब्र हीम के राज्यकाल में मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य तर्क, व्याकरण, छन्द, साहित्य, सिद्धान्त, ज्योतिष, वैदिक एवं संगीत-शास्त्र के पारंगत विद्वान्, जिनकथित सूक्ष्म सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, अध्यात्म ग्रंथों के समुद्र में महारत्न के समान, शीलव्रतसागर, सम्पूर्ण ग्यारह प्रतिमाओं के निरतिचारपालक, देशव्रतियों में तिलकीभूत ब्रह्म बीझा की आम्नाय में खण्डेलवाल श्रावक सा० दोदू ने लिखवाकर ब्रह्म बीझा को दी थी।
2. नीचे—णायकुमारचरिउ की यह प्रति संवत् 1612 आसोज कृष्णा द्वादशी गुरुवार को तक्षकगढ़ (टोड़ा रायसिंह) के राव रामचन्द्र के राज्यकाल में आदिनाथ चैत्यालय में भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य मण्ड लाचार्य धर्मचन्द्र के शिष्य मण्डलाचार्य ललितकीति की
आम्नाय में खण्डेलवाल अन्वय के साबडा (छाबड़ा) गोत्रीय सा० पूना की भार्या बाली ने लिखवाकर सोलहकारण व्रत के उद्यापन में मं० श्री ललितकीति को भेंट की थी।
दोनों ही प्रशस्तियों की पूर्ण प्रतिलिपियाँ इस ही अंक में श्री मुन्नालाल के निबंध में पृष्ठ 89 एवं 88 पर क्रमशः प्रकाशित हैं पाठक वहाँ अवलोकन करें।
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जैनविद्या
जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी द्वारा प्रकाशित अर्द्धवार्षिक
शोध-पत्रिका नवम्बर, 1985
सम्पादक मण्डल श्री मोहनलाल काला डॉ० राजमल कासलीवाल श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका श्री विजयचन्द्र जैन श्री फूलचन्द्र जैन श्री कपूरचन्द पाटनी डॉ. कमलचन्द सोगारणी डॉ. गोपीचन्द पाटनी प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन
प्रधान सम्पादक : . . प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन सहायक सम्पादक पं० भंवरलाल पोल्याका सुश्री प्रीति जैन प्रबन्ध सम्पादक . . श्री कपूरचन्द पाटनी मन्त्री वि० जन प्रतिशय क्षेत्र कमेटी श्रीमहावीरजी
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प्रकाशक .......... दि० जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी
मुद्रक : . दो कपूर प्रेस. जयपुर-302004
वार्षिक मूल्य : देश में : तीस रुपये मात्र विदेशों में : पन्द्रह गलर
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महावीर पुरस्कार
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित नैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी (Institute of Jainology) के सन् 1984 के रु० 5000/- के महावीर पुरस्कार के लिए प्राप्त कृतियों में से कोई भी कृति संस्थान समिति द्वारा पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई अतः 1984 का पुरस्कार निरस्त कर दिया गया है।
1985 के महावीर पुरस्कार के लिए 1983 से 1985 के मध्य प्रकाशित/अप्रकाशित हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश अथवा अंग्रेजी में लिखित जैन साहित्य से सम्बन्धित किसी भी विषय की कोई भी रचना, चाहे वह पुस्तक हो या स्वीकृत शोध प्रबन्ध, 31 जनवरी, 1986 तक आमंत्रित है।
नियमावली तथा आवेदन-पत्र आदि प्राप्त करने के लिए दो रुपये का पोस्टल आर्डर निम्न पते पर आना चाहिए---
एस०बी०-10, जवाहरलाल नेहरू मार्ग,
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
संयोजक नैनविद्या संस्थान
पुर-302004
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विषय-सूची
क्र.सं.
विषय
लेखक
लेखक
प्रास्ताविक
प्रकाशकीय
प्रारम्भिक णायकुमारचरिउ : एक प्राद्यन्त डॉ० गधामन नरसिंह बाके ।
जैनकाव्य __णायकुमारचरिउ में प्रतिपादित डॉ. कमलचंद सोगाणी
जीवनमूल्य 3. जिनेन्द्र-स्तुति
महाकवि पुष्पदन्त णायकुमारचरिउ की सूक्तियां और डॉ. कस्तूरचंद 'सुमन' उनका अध्ययन यशोधर का पाख्यान
श्री नेमीचंद पटोरिया गुरुकुल में व्याख्यान जसहरचरिउ का काव्य-वैभव श्री जवाहिरलाल जैन । जसहरचरिउ में प्रात्मा-सम्बन्धी . श्री श्रीयांशकुमार सिंघई विचार
___ कर्म-विडम्बना 9. जसहरचरिउ केर सुहासियवयणाई
महाकवि पुष्पदन्त भौर उनकी रसाभिव्यक्ति
महाकवि पुष्पदन्त श्री भंवरलाल पोल्याका डॉ० प्रेमचन्द रांवका
शील-महिमा महाकवि पुष्पदन्त की विचारदष्टि एवं उपमानसृष्टि
महाकवि पुष्पदन्त डॉ० (श्रीमती) पुष्पलता जैन
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गं० वृद्धिचन्द्र जैन
श्री मुन्नालाल जैन
13. महाकवि पुष्पदन्त की काव्य
प्रतिभा संस्थान में महाकवि पुष्पदन्त के
ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां 15. पुष्पदन्त काव्य में प्रयुक्त 'लक्ष्मी' 16. प्रशस्तिका
ऐमिसुर की जयमाल...
. डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति'
श्री रमेश मुनि शास्त्री मुनि कनककीर्ति
17,
पाण्डे की जयमाल
कवि नण्ड अनु०-श्री भंवरलाल पोल्याका
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18. साहित्य-समीक्षा 19. इस अंक के सहयोगी रचनाकार
111
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प्रास्ताविक
जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी की अध्ययन एवं शोधपत्रिका 'जैन विद्या' का यह तृतीय अङ्क है । जैसा पूर्व के द्वितीय अंङ्क में बताया गया है, अपभ्रंश भाषा के सन्दर्भ में महाकवि पुष्पदन्त (10वीं शती ई०) का स्थान भी महाकवि स्वयंभू के समान ही प्रमुख है। विख्यात विद्वान् राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित 'हिन्दी काव्यधारा' नामक अपभ्रंश काव्यों के संकलन एवं अपभ्रंश भाषा के कई अन्य इतिहासकारों की रचनाओं में भी महाकवि स्वयंभू के पश्चात् दूसरा स्थान महाकवि पुष्पदन्त को ही प्रदान किया गया है। जैनविद्या संस्थान का एक प्रमुख उद्देश्य प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, तमिल, कन्नड, राजस्थानी आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित-प्रकाशित अथवा अप्रकाशित जैन रचनाओं का प्राधुनिक शैली में सम्पादन, प्रकाशन, अध्ययन, शोध-खोज करना व कराना तथा उनको यथासम्भव हिन्दी अनुवादसहित प्रस्तुत करना है जिससे वह साधारण पाठकों को भी बोधगम्य हो सके । अपभ्रंश में मानव-जीवन से सम्बन्धित कई विषयों पर लिखा गया है। स्तोत्र, प्रबन्धकाव्य, मुक्तक, चरितकाव्य, कथा आदि साहित्य की सभी विधाओं से अपभ्रंश साहित्य भरा-पूरा है जिनमें दर्शन, इतिहास, पुराण, संस्कृति आदि विषयों पर अति सरल एवं भावपूर्ण रचनाएं लिखी गई हैं। यह विशेषकर जैन ग्रंथ भण्डारों की खोज के आधार पर सिद्ध हो चुका है।
__ अपभ्रंश भाषा के महत्त्व को देखते हुए ही जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी ने अपनी शोधपत्रिका के प्रारम्भिक कुछ अड्डों को केवल इसी भाषा को समर्पित करने का निश्चय किया है । इसी दृष्टि से पत्रिका के प्रथम दो अंक 'स्वयंभू विशेषांक' एवं 'पुष्पदन्त विशेषांक' के रूप में पाठकों तक पहुंचाये जा चुके हैं। महाकवि पुष्पदन्त की रचनाओं से सम्बन्धित इतने शोध-लेख प्राप्त हए हैं कि हमें जैनविद्या के इस तृतीय अक को भी 'पुष्पदन्त-विशेषांक, खण्ड-2' के रूप में प्रकाशित करना पड़ा। इसमें महाकवि की विशेषतः 'जसहरचरिउ' एवं 'णायकुमारचरिउ' इन दो कृतियों का देश के जाने-माने साहित्यमनीषियों द्वारा भिन्न-भिन्न दृष्टियों से अध्ययन एवं मनन किया गया है । साथ ही अपभ्रंश भाषा की दो लघु कृतियों का, सहसम्पादक पं० भंवरलाल पोल्याका, जैनदर्शनाचार्य, साहित्यशास्त्री कृत हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन किया जा रहा है।
ऐसा समझा जाता है कि अपभ्रंश वर्तमान में एक मृत भाषा है और समाज में इस भाषा का उपयोग नहीं हो रहा है किन्तु ऐसा समझना अथवा कहना ठीक नहीं है । आज भी श्रद्धालु भक्तजन अपभ्रंश भाषा में पद्यबद्ध पूजाएं नित्य एवं विशेष पर्वो पर उसी भक्तिभाव
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और उत्साह से करते हैं जिस प्रकार कि प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में रचित पूजाओं को । यह अलग बात है कि भक्त यह जानते हैं या नहीं कि जो पूजा वे कर रहे हैं वह अपभ्रंश भाषा की है। ऐसी कुछ पूजाओं के नाम हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं जो 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' में संगृहीत हैं1. देव जयमाला-'वट्टाणुद्वाणे जणु धणदाणे........................' 2. शास्त्र जयमाला-'संपइ सुहकारण कर्मवियारण................ 3. गुरु जयमाला -'भवियह भवतारण सोलहकारण-............' 4. सोलहकारण पूजा की जयमाला-'भव भविहिँ निवारणं................ 5. दशलक्षण पूजा में अंगपूजा के प्रत्येक अंग का पूर्णा_-'उत्तम खममद्दव.............'
मादि एवं अन्य । . .
'.. इनमें से संख्या 1 देवजयमाला महाकवि पुष्पदत्त द्वारा विरचितं 'जसहरचरित' की संधि । का अन्तिम पत्ता और संधि द्वितीय है जो कि कथित ग्रन्थ के मंगलाचरणरूप में है। संख्या 23 एवं 4 जयमाला के कर्ता का पता प्रभी अजात ही प्रतीत होता है। संख्या 5 की इस अंग की पूजात्रों के महार्य खेमसिंह के पुत्र होलू के कहने से महाकवि रयधू द्वारा रधिन है जैसा कि निम्न पंक्ति से प्रकट है
एणं उवाएं लब्भई सिवहरू, इम 'रहधू' बहु मणइ विणययरु ।
भो खेमसिंह सुय भव्व विणयजुय, होलुव मण इह करहु थिएं ॥
जैसाकि ऊपर बताया गया है, अपभ्रंश भाषा का साहित्य भी अन्य भाषाओं के साहित्य की तरह ही अनेक विधाओं में रचा मया है। यद्यपि इस दिशा में अभी बहुत कम प्रयत्न हुआ है किन्तु अब तक जितना भी साहित्य उपलब्ध हुआ है उसकी श्रीवृद्धि करने में राजस्थान के साहित्यकारों का योगदान भी कम नहीं है। उनमें से कुछ के नाम निम्न प्रकार
1. त्रिभुवनगिरि के निवासी मुनि विनयचन्द जिनकी चूनड़ी शीर्षक रचना इसी पत्रिका के
- प्रथम पत्र में प्रकाशित हो चुकी है । (13वीं श. वि.) । 2. सत्यपूरीय महावीर उत्साह के कर्ता सांचोर निवासी कवि धनपाल । ये 'भविसमत्तबहा'
के कर्ता धनपाल धक्कड़ से भिन्न हैं । (11 वीं श. वि.)।।.. . 3. 'धम्म परिक्खा' के रचनाकार चित्तौड़ निवासी श्री हरिषेण । (11 वीं श. वि.) । 4. 'जिणदत्तचरिड' के कर्ता त्रिभुवनगिरि के निवासी कवि लक्खण । (13 वीं श. वि.) । 5: .. 'पज्जुष्णकहा' के कर्ता सिरोही निवासी कवि सिंह । (13 वीं स. वि.)। .
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6.: चर्चरी, उपदेशरसायन रास एवं कालस्वरूपकुलक के रचनाकार अजमेर निवासी युगप्रधान . अचार्यश्री जिनदत्तसूरि । (12वीं-13वीं श. विः) । 7. कथाकोश और रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता सिरिबालपुर (श्रीमालपुर) के निवासी
श्रीचन्द्र (11-12वीं श. वि.) 8. हरिवंशपुराण और पाण्डवपुराण आदि कई ग्रंथों के रचयिता भ. यशःकीति । ये साध
होने से स्थान-स्थान पर विहार करते रहते थे। उक्त दोनों ग्रंथों की रचना इन्होंने नागौर और उदयपुर में की थी। (15वीं श. वि.)।
श्री देवेन्द्रकुमार शास्त्री इन्दौर ने अपने 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य' नामक ग्रंथ में 10वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक के काल को हिन्दी का 'आदिकाल' अस्वीकार करते हुए उसे अपभ्रंश का अन्तिमकाल माना है । प्रसिद्ध हिन्दी इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन ने अपनी 'हिन्दी काव्यधारा' नामक पुस्तक में इस काल को 'सिद्धसामन्तकाल' की संज्ञा से अभिहित किया है । उनके इस मत की आलोचना श्री शास्त्री ने कई आधारों पर की है।
प्रो. कोछड़ ने अपने 'अपभ्रश साहित्य' में लिखा है-'लगभग ईस्वी सन् 800 से लेकर 1300 या 1400 तक अपभ्रंश साहित्य का विशेष प्रचार रहा था । यद्यपि भगवतीदास का मृगांकलेखाचरित्र या चन्द्रलेखा वि. सं 1700 में लिखा गया। इस प्रकार प्राकृत और अपभ्रंश में रचना कुछ काल तक समानान्तर चलती रही, जिस प्रकार कुछ दिनों तक हिन्दी प्रथवा आधुनिक देशभाषाओं के साथ अपभ्रंश चलती रही (पृ. 17)।' ये भगवतीदास प्रसिद्ध हिन्दी जैन विद्वान् भैया भगवतीदास से भिन्न थे । ये दिल्ली के भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य होने के कारण पाण्डे या पण्डित कहलाते थे। ऊपर चर्चित पाण्डे भगवतीदास का यह ग्रन्थ संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग श्रीमहावीरजी में सुरक्षित है। . प्रो. कोछड़ के इस मत से सहमत होते हुए भी हम इसमें यह संशोधन करना चाहते हैं कि अपभ्रश भाषा में ग्रंथों की रचना सम्बत् 1700 वि. के पश्चात् भी होती रही है। श्रीचन्द का चन्द्रप्रभचरित जो सं. 1793 की रचना है, इस सम्बन्ध में उल्लेख्य है जिसका जिक्र डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री नीमच ने अपने 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोष प्रवृत्तियां' नामक शोध प्रबन्ध में किया है। यह प्रबन्ध सन् 1971 में लिखा गया था। उसके पश्चात् इस विषय पर और भी शोध-खोज हुई है/हो रही है। संस्थान भी अपने सीमित साधनों से इस पुण्यकार्य में शक्तिभर अपना कर्तव्य निभा रहा है ।
लिखने की आवश्यकता नहीं, हमारे इस प्रयास का जो स्वागत हुआ है, उससे हमारा उत्साह बढ़ा है और हमको भविष्य में अपभ्रंश भाषा एवं अन्य भाषाओं में इससे भी सुन्दर एवं उपयोगीरूप में अपना प्रयास चालू रखने हेतु प्रेरित किया है ।
इस अङ्क के लिए जिन-जिन लेखकों ने अपने लेख भेजकर व पत्रिका के प्रधान सम्पादक एवं उनके अन्य सहयोगियों ने जो सहयोग प्रदान किया है उन सबके प्रति तो संस्थान
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समिति आभारी है ही, इनके अलावा समिति के ही सदस्य डॉ० कमलचन्द सोगाणी, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष-दर्शनशास्त्र विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर भी पूर्व की भांति इस अङ्क को 'पुष्पदन्त विशेषांक, खण्ड-2' के रूप में प्रकाशित करने के लिए प्रेरणा देने एवं सम्पादनकार्य में सहयोग देने हेतु विशेष धन्यवादाह हैं । दो कपूर प्रेस, जयपुर के अधिकारी भी सुन्दर एवं कलापूर्ण मुद्रण के लिए धन्यवाद के पात्र हैं।..
एसबी-10, जवाहरलाल नेहरू मार्ग, बापूनगर, जयपुर-302004
ग. गोपीचन्द पाटनी (संयोजक, जैनविद्या संस्थान समिति)
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अध्ययन करना चाहते थे और इसके लिए वे समर्थ विद्वानों को पुरस्कृत एवं प्रोत्साहित करते रहते थे तथा उनको आश्रय भी प्रदान करते थे। महाकवि पुष्पदंत, रइधू आदि के नाम इसके उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
जैनों के इस स्वाध्याय प्रेम का ही परिणाम है कि उनके भण्डारों में जैन और जनेतर दोनों ही प्रकार के विभिन्न विषयों के ग्रंथों का बिना किसी भेदभाव के संग्रह हुआ जिनमें आज भी ऐसी हजारों कृतियां हैं जो पालमारियों में बंद पड़ी अपने प्रकाशन की बाट जोह रही हैं । दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी में भी एक ऐसा संग्रहालय है। वहां की प्रबन्धकारिणी कमेटी ने "जैन विद्या संस्थान" नामक एक संस्था की स्थापना की है जिसके कई उद्देश्यों में से एक प्रमुख उद्देश्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, तमिल, कन्नड़, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं के जैन ग्रंथों का आधुनिक शैली में विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन प्रस्तुत करना तथा अप्रकाशित रचनाओं को सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद सहित प्रकाशित करना है । अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु “जनविद्या" नामक एक पत्रिका के प्रकाशन का शुभारम्भ किया है। अब तक इसके दो अंक प्रकाशित हो चुके हैं तथा यह तीसरा अंक पाठकों के हाथ में है । इसमें अपभ्रंश भाषा के ज्ञात प्राद्य महाकवि स्वयंभू तथा उनके तत्काल बाद में होनेवाले महाकवि पुष्पदंत की रचनाओं का विभिन्न पाठकों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से मूल्यांकन किया है तथा चूनड़ी, पाणंदा, नेमीश्वर जयमाल तथा पाण्डे की जयमाल शीर्षक की अपभ्रंश भाषा की ही रचनाएं सानुवाद प्रकाशित की हैं। संस्थान ने अपभ्रंश भाषा की रचनाओं को प्राथमिकता इस कारण दी है कि इस क्षेत्र में अभी तक जो भी कार्य हुअा है वह न कुछ के बराबर है, दूसरे इस भाषा की 80 प्रतिशत के लगभग रचनाएं जैन रचनाकारों द्वारा रचित । हैं और वे मानव-कल्याण की दृष्टि से लिखी गई हैं।
आशा है हमारा यह प्रयास जनता में समाहत होगा और पाठक इसके स्वयं ग्राहक बन एवं अन्यों को अधिक से अधिक संख्या में ग्राहक बना हमारे उत्साह में वृद्धि करेंगे जिससे कि जनविद्या के प्रचार और प्रसार की यह योजना और भी अधिक तीव्रगति से प्रवहमान हो सके।
जिन रचनाकारों ने अपनी रचनाएं प्रेषित कर हमें उपकृत किया है उनके हम कृतज्ञ हैं । संस्थान के संयोजक महोदय डॉ. गोपीचन्द पाटनी, मानद निदेशक एवं पत्रिका के प्रधान सम्पादक प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन, सहायक सम्पादक पं० भंवरलाल पोल्याका तथा सुश्री प्रीति जैन आदि ने सम्पादन तथा प्रकाशन कार्य में जो सहयोग प्रदान किया है उसके लिए वे धन्यवादाह हैं । कपूर प्रेस के प्रोप्राईदर अपने अन्य सहयोगियों के साथ सुन्दर और कलापूर्ण मुद्रण के लिए प्रशंसा के पात्र हैं। ...
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. . .....
.... -कपूरचन्द पाटनी . ....प्रबन्ध सम्पादक
.
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प्रारम्भिक.............
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'जनविद्या' का तृतीय अंक पुष्पदन्त विशेषांक : खण्ड-2 के रूप में पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें अतीव प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है।
गतांक में हमने लिखा था कि हमें पुष्पदन्त के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के सम्बन्ध में इतनी प्रचुर, महत्त्व एवं वैविध्यपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई कि उसे एक ही अंक में समाहित करना संभव नहीं हो सका अतः उसे दो अण्डों में विभाजित किया गया। प्रथम खण्ड महाकवि की तीन रचनाओं 'महापुराणु', 'जसहरचरिउ' और 'णायकुमारचरिउ' में से उसकी प्रथम रचना केवल 'महापुराणु' से सम्बन्धित था। उसमें पाठक महाकधि के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व, उसकी संवेदनशीलता, उसका काव्य, भाषा, उसकी बिम्बयोजना, उसका और सूरदास का तुलनात्मक अध्ययन, जैन रामकथाओं के परिप्रेक्ष्य में उसकी रामकथा, उसकी दृष्टि में जीवन की बरणभंगुरता, उसकी रचनामों की राजस्थान में लोकप्रियता प्रादि विषयों से सम्बन्धित रचनाओं का रसास्वादन कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त श्री महानंदिदेव की 'पाणंदा' शीर्षक एक माध्यात्मिक तथा रहस्यवादी रचना का भी पाठक परिचय प्राप्त कर चुके हैं।
इस अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी शेष दो रचनाओं से सम्बन्धित सामग्री । इसमें हमारे पाठक पढ़ेंगे-णायकुमारचरिउ : एक प्राचन्त जन काव्य, उसमें प्रतिपादित जीवन-मूल्य, यशोधर का संक्षिप्त पाख्यान, जसहरचरिउ का काव्यवैभव, उसमें प्रात्मा सम्बन्धी विचार, पुष्पदंत को रसाभिव्यक्ति, विचारष्टि एवं उपमानसृष्टि, - उनकी- काव्य प्रतिभा आदि । सूक्तियों का भी अपना एक अलग ही महत्त्व और मानन्द है, उसकी उक्त दोनों रचनाओं में आई सूक्तियों के रसास्वादन का आनन्द भी पाठक इस अंक में ले सकेंगे साथ ही अपभ्रंश भाषा की दो नवीन लघु सानुषाद रचनामों से भी परिचित होंगे।
जैनधर्म अहिंसा, समभाव तथा आत्मशुद्धि पर बल देता है अतः स्वभावतः जनरचनाकारों का ध्येय अपनी रचनाओं द्वारा जनसाधारण में नैतिक जीवनमूल्यों, अहिंसा और समता के भावों के प्रति श्रद्धा जागृत करना, इनका प्रचार एवं प्रसार करना रहा है। ये. सिद्धान्त किसी सम्प्रदाय अथवा जाति-विशेष के लिए ही उपयोगी न होकर सूर्य के प्रकाश और चन्द्रमा को चांदनी के समान सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय हैं।
जैन रचनाकारों की रचनाए किसी एक ही विषय अथवा विधा तक सीमित न होकर महापुराण, चरितकाव्य, मुक्तककाव्य मादि विविधरूपों में प्राप्त हैं। इन सबका
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उद्देश्य पाठक का मनोरञ्जनमात्र न होकर उनमें अपने धर्म/कर्तव्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना होता है। यही कारण है कि शृंगारप्रधान रचनाओं का जैनों में प्रायः अभाव है। यदि कहीं कुछ ऐसा प्राप्य भी है तो उसका उद्देश्य भी पाठको में सांसारिक विषय-भोगों से विरक्ति उत्पन्न कर आध्यात्मिकता की ओर रुचि उत्पन्न करना रहा है, अपने इस ध्येय की पूर्ति में वे एक सीमा तक सफल भी रहे हैं। जैन रचनाकार सरल एवं सुबोध लोक-भाषा में अपने विचार और मान्यताएं जनता के समक्ष रखते एवं लिपिबद्ध करते थे। इसके अतिरिक्त ध्येयपूर्ति का अन्य कोई मार्ग भी नहीं था। यही कारण है कि अहिंसाप्रधान जैन और बौद्ध आगम-ग्रन्थों का निर्माण तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा प्राकृत में हुआ। जब प्राकृत परिवर्तन के अपने अन्तिम दौर में पहुंची तो वह अपभ्रश कहलाने लगी और जैनों ने इस भाषा में अपनी रचनाएं रचना प्रारंभ कर दिया । यही कारण है कि अपभ्रंश साहित्य का अधिकांश भाग जनों द्वारा विरचित है।
अपभ्रंश के अधिकांश रचनाकारों यथा स्वयंभू, पुष्पदंत आदि ने अपनी काव्यभाषा को देशी के नाम से ही अभिहित किया है। अवहट्ट, अवहंस नाम भी इसी भाषा के थे । मूलतः यह आभीरों की भाषा थी अतः आभीरी भी कहलाती थी। यह एक आश्चर्य किन्तु सत्य है कि इसका उद्गम-स्थल उत्तर भारत होते हुए भी इसका अधिकांश प्राचीन साहित्य दक्षिण में लिखा गया।
..हमारा प्रयास जहाँ एक अोर अपभ्रंश भाषा की अब तक ज्ञात एवं प्रकाशित रचनाओं का विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन प्रस्तुत करना है वहाँ अपभ्रंश की अब तक अज्ञात तथा अप्रकाशित रचनाओं को हिन्दी अनुवादसहित प्रकाश में लाना भी है। हमारे इस प्रयास की विद्वानों एवं मनीषियों ने प्रशंसा कर हमें प्रोत्साहित किया है।
आगामी अंक में हम अपभ्रश के ही दो अन्य महाकवि धनपाल एवं धवल की रचनाओं का शोध-खोजपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। 'जनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी' में अब तक क्या कार्य हुआ है अथवा हो रहा है उसकी भी एक संक्षिप्त सी झलक, संस्थान में तैयार की गई कृतियों के कुछ अंश पत्रिका के आगामी अंक में प्रकाशित कर समाज एवं विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने का हमारा विचार है जिससे कि संस्थान में हो रहे कार्य के महत्त्व का अंकन किया जा सके ।
जिन विद्वानों ने अपनी रचनाएं भेजकर अथवा अन्य प्रकार से हमें सहयोग प्रदान किया है उनके प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं। संस्थान समिति के तथा सम्पादक मण्डल के सदस्यों तथा अपने सहयोगी कार्यकर्तागों के द्वारा प्रदत्त परामर्श, सहयोग प्रादि के लिए हम उनके आभारी हैं। मुद्रणालय के मालिक, मैनेजर एवं अन्य कार्यकर्ता भी समय पर कार्य सम्पन्न करने तथा कलापूर्ण सुन्दर मुद्रण के लिए समानरूप से धन्यवादाह हैं ।
(प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन
प्रधान सम्पादक
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गायकुमारचरिउ एक प्राद्यन्त जैन-काव्य
-प्रो० डॉ० गजानन नरसिंह साठे
॥ सयम्भु भाण पुप्फयन्त णिसि-कन्त ॥
..
भारतीय साहित्य-मन्दिर में अपभ्रंश साहित्य का कक्ष बहुमूल्य देदीप्यमान रत्नों से जगमगा रहा है। चिरकाल उपेक्षित रहने पर, अपभ्रंश साहित्य की ओर जब से साहित्य-रत्नों के परीक्षकों की दृष्टि मुड़ गयी तब से उनकी चमक-दमक से उनकी आँखें चौंधिया जाती रही हैं। उनकी महत्ता को ध्यान में रखते हुए अल्पावधि में ही उस कक्ष में स्थित एक-से-एक अनूठे रत्न मर्मज्ञ पाठकों और जिज्ञासु अनुसंधान-कर्ताओं के सम्मुख अपभ्रंश के दिग्गज पण्डितों ने प्रस्तुत करना शुरू किया । ये रत्न जिन साहित्य-विधाताओं द्वारा निर्मित हैं उनमें प्रमुख हैंस्वयंभू, पुष्पदंत, धवल, हरिदेव, धाहिल, श्रीधर, रयधू ।।
____ जिस प्रकार हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में "सूर सूर तुलसी ससी" जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य-गगन की दो महिमामयी हस्तियों का यशोगान करती है, उसी प्रकार यदि कोई यह कहे कि
सयम्भु भाण पुप्फयन्त गिसि-कन्त । तो इसे इन दो महाकवियों की महिमा का सम्यक् परिचायक समझने में किसी को कोई प्रापत्ति नहीं होगी।
... स्वयंभू की अपेक्षा पुष्पदंत एक दृष्टि से अधिक सौभाग्यशाली सिद्ध हो चुके हैं। स्वयंभू-विरचित दो प्रबन्धकाव्यों में से केवल “पउम-चरिउ" प्रकाशित हो चुका है, उनका
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दूसरा काव्य "रिट्ठणेमिचरिउ" अब भी प्रकाशित न होकर पाठकों की पहुँच के बाहर ही रहा है। (उनकी तीसरी कृति "स्वयंभूच्छन्दस्" प्रकाशित हो गयी है ।) उधर पुष्पदंत को अपनी तीनों रचनाएं-तिसट्ठि-महापुरिस-गुणालंकार, जसहरचरिउ, और गायकुमारचरिउ सुसम्पादित होकर पाठकों के लिए सहजतया उपलब्ध होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । इस लेख में पुष्पदंत का सविस्तार परिचय देना अपेक्षित नहीं है। इसलिए उनके विषय में यहाँ पर निम्नलिखित बातों का उल्लेख करना पर्याप्त होगा।
पुष्पदंत केशवभट नामक किसी शैवमतावलम्बी ब्राह्मण के सुपुत्र थे जिन्होंने कालान्तर में जैनधर्म स्वीकार किया। अपने पिता के साथ जैनधर्म में दीक्षित हो जाने पर सम्भव है पुष्पदंत के आश्रय दाता उनसे अप्रसन्न हुए हों और फलस्वरूप उस आश्रय का त्याग कर वे भी मान्यखेट गये। संयोग से, मान्यखेट के तत्कालीन राष्ट्रकूटवंशीय शासक, वल्लभराय उपाधि से सम्मानित कृष्णराज और उनके महामंत्री भरत से उनकी भेंट हुई । कृष्णराज जैनधर्म का प्रादर करते थे, तो भरत स्वयं जैनधर्मानुयायी थे। भरत काव्यप्रेमी थे, कवि-कलाकारों का सम्मान किया करते थे । उन ही के अनुरोध पर पुष्पदंत ने अपभ्रश में "तिसदिठ-महापुरिस-गुणालंकार" अर्थात् महापुराण की रचना की (ई. 959-965)। भरत के पश्चात् उनके सुपुत्र नन्न कृष्णराज के महामात्य हुए । उनके पाश्रय में उपाध्याय के पद को ग्रहण करके पुष्पदंत ने अपने शिष्यों की विनती स्वीकार करते हुए "णायकुमारचरिउ" की रचना की। उसमें उन्होंने अपने आश्रय-दाता नन्न का यथास्थान गौरवगान किया है और अपने शिष्यों की इस प्रार्थना (जो रहउ परिणउ वरकहहिं भावें रिणयमणि भावहि । तहो गन्हो फेरउ पाउ तुहु सुसलियकन्वि चडावहि ॥ (णाय. 1.4) को स्वीकार करके "नन्न" के नाम को प्रत्येक संधि की पुष्पिका में "चढ़ाया" है । "णायकुमारचरिउ" के पश्चात् पुष्पदंत ने "जसहरचरिउ" की रचना की।
पुष्पदंत की कृतियों से यह निर्विवाद स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने संस्कृत भाषा और साहित्य का, छन्दःशास्त्र और काव्यशास्त्र का अध्ययन किया था । जैनदर्शन के साथ ही वे अन्य दर्शनों से भी सम्यक् परिचित थे। वे भाषाप्रभु, पण्डित तथा प्रतिभा-सम्पन्न कवि थे। जनसाधारण के लिए बोध-गम्य अपभ्रंश भाषा के प्रति उन्हें अपार प्रेम था जिससे संस्कृत में काव्य-रचना करने की क्षमता रखने पर भी उन्होंने भाषा-माध्यम के रूप में अपभ्रश को अपना लिया न कि संस्कृत को।
पुष्पदंत के पहले प्राचार्य जिनसेन ने "प्रादिपुराण" की और प्राचार्य गुणभद्र ने "उत्तरपुराण" की रचना की थी। इन दो पुराणों का सम्मिलित रूप “महापुराण" कहाता. है । इस संस्कृत महापुराण में जैन-परम्परा के त्रिषष्ठि-शलाकापुरुषों का चरित्र वर्णित है, फिर भी अपभ्रंश में जैन-परम्परा के सर्वप्रथम महापुराण की रचना करने का श्रेय पुष्पदन्त को ही जाता है। उसी प्रकार, यद्यपि जैन-धर्मावलम्बियों में श्रुतपंचमी व्रत की महत्ता को सूचित करनेवाली नागकुमार सम्बन्धी कथा मौखिक परम्परा में प्रचलित रही हो, तो उसे भी लिपि-* बद्ध काव्यरूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत किया “णायकुमारचरिउ" द्वारा महाकवि पुष्पदंत ने ही। संभव है, "पंचमीचरिय" नामक अपनी रचना में स्वयंभू ने इस कथा का वर्णन किया हो,
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लेकिन वह अब तक उपलब्ध नहीं हुई है। अतः उपलब्ध णायकुमारचरिउ जैसी रचनामों में पुष्पदंत-विरचित काव्य ही सर्वाधिक प्राचीन है। हम कह सकते हैं कि पुष्पदंत कृत "णायकुमारचरिउ" ने उस कथा को बहुत लोकप्रियता प्रदान की। फलस्वरूप उक्त विषय को लेकर पन्द्रह से अधिक कृतियां परवर्ती काल में निर्मित हुईं। जान पड़ता है कि पुष्पदंत ने परम्परागत नागकुमार-कथा के इधर-उधर बिखरे तत्त्वों को लेकर उसके आधार पर उसे सुरम्यरूप प्रदान किया।
पुष्पदंत कृत णायकुमारचरिउ आद्यन्त जनकाव्य है, वह अथ से इति तक पौराणिक शैली में लिखित जैनकाव्य के विशिष्ट संकेतों से अनुप्राणित है। इस लेख में उसकी इस विशिष्टता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। ..
. : (1) प्रेरणा का धार्मिक प्राधार
पुष्पवंत कहते हैं कि शिष्यवर गुणधर्म और शोभन ने "परमधर्म" का उपदेश देने (1.2.8) और "श्रीपंचमी" के व्रत के फल को स्पष्ट करनेवाले नागकुमार-चरित्र का वर्णन करने (1.2.1) की प्रार्थना की। तत्पश्चात् नन्न ने विनती की कि वे (पुष्पदंत) प्रालस्य को छोड़ दें, जैनधर्म के कार्य में मन्द न हों और "श्रुतपंचमी" के व्रत के निर्मल फलों को बताएँ। फिर नाइल्ल और शीलया ने यह अनुरोध किया कि वे उक्त विषय पर काव्य-रचना करते हुए उसमें नन्न का नाम चढ़ाएँ, जिससे आसन्न भव्य नन्न को सन्तोष हो (1.4.1)। . ... अनुरोधकर्ताओं के मत में पुष्पदंत उनके लिए पुण्यकर्मों के उपार्जन में हेतुरूप. हैं, वे उनके उपाध्याय हैं । अर्थात् इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुष्पदंत श्रुतपंचमी व्रत के फल को स्पष्ट करने, परमधर्म का उपदेश देने तथा उसके लिए माध्यमरूप नागकुमार-चरित्र को मनोहर काव्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिए सर्वथा सुयोग्य व्यक्ति हैं । वे सरस्वती देवी के निकेत (वाईसरिदेवीणिकेउ) हैं, धवल यशस्वी काव्यधुरन्धर (जसपबलु, कविपिसल्लर) हैं।..
श्रोता शिष्य तथा नन्न ज्ञानार्थी प्रार्तजन हैं। नन्न आसन्न भव्य हैं, बुद्धि में वृहस्पति हैं, प्रभु-भक्ति में अद्वितीय, शुद्ध चरित्र से युक्त, धर्मानुरक्त, त्यागी और दानशील, स्थिर-मति, सागर-सम गम्भीर हैं (1.4)। पुष्पदंत के कथन के अनुसार नन्न जिनेन्द्र-चरण-कमल के भ्रमर हैं, वे निरन्तर जिन मन्दिर बनवाया करते हैं, जिन-भवन में पूजा करने में लगे रहते हैं, जैन-शासन और पागम के उद्धारक हैं, उन्होंने बाह्य तथा आभ्यन्तर शत्रुओं को जीत लिया है (काव्य का उपसंहार)। मतलब यह है कि वक्ता और श्रोता सम-शील हैं। अतः श्रोताओं की प्रार्थना को स्वीकार करके कवि पुष्पदंत ने नागकुमार के चरित्र का काव्य में वर्णन कर उसके द्वारा श्रुतपंचमी व्रत के माहात्म्य को स्पष्ट किया है। -(2) गायकुमारचरिङ की फलश्रुति .
. कवि पुष्पदंत ने काव्य के अन्त में "णायकुमारचरिउ" के पठन-कथन आदि की सामान्य और विशिष्ट फल-श्रुति ' कही है। वे कहते हैं जो उसे पढ़े और पढ़ाये, जो उसे लिखे (प्रतिलिपि बनाए) और लिखवाये, जो उसकी व्याख्या करे, जो
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उसकी भावना भावे, वह सुख को प्राप्त हो जाए। महावीर.. भगवान् का शासन और सम्यक्जान, जय को प्राप्त हो जोयं, राजा और प्रजा सुख-आनंद से परिपूर्ण . हो, प्रावश्यकतानुसार वर्षा हो जाए।
सो गंदउ जो पढइ पढावइ, सो गंदउ जो लिहइ लिहावइ ॥ '. सो गंदउ जो विवरिवि दउवइ, सो रणंबउ जो भावें भावइ ॥
दउ......................"। उपसंहार । इसके साथ ही पुष्पदंत ने श्रोता नन्न के प्रति भी शुभकामनाएँ व्यक्त करते हुए कहा है कि वे सुखसम्पन्न हों, दीर्घायु हों, उन्हें अति पवित्र निर्मल-दर्शन, ज्ञान, चारित्र का लाभ हो, रोग-शोक के क्षयकारी पंचकल्याणक प्राप्त हों......। अपने लिए भी उन्होंने समाधि, बोधि, और निर्मल केवलज्ञान की उपलब्धि हो जाने की कामना व्यक्त की है।"
कहना न होगा कि इस प्रकार की फल-श्रुति का कितना प्रभाव होता है। यह फल-श्रुति जनशासन द्वारा स्वीकृत अभीष्ट चिन्तन की ओर ध्यान आकृष्ट करती है।
(3) कथा-कथन-कर्ता अर्थात् वक्ता और श्रोता
जैन पौराणिक शैली में लिखे जानेवाले ग्रंथों में कथा-कथन-कर्ता और कथा के श्रोता के विषय में एक परम्परागत विशिष्ट मान्यता है। उस परम्परा का निर्वाह पुष्पदंत ने णायकुमारचरिउ में किया है । जैन मान्यता के अनुसार समस्त कथानों, शास्त्रों, पुराणों, दार्शनिक सिद्धान्तों का उद्गम भगवान् महावीर के मुख से हुआ माना जाता है। उन विषयों का ज्ञान उनसे भगवान् के गणधर गौतम को प्राप्त है और वे ही उन बातों का वर्णन मगधाधिप श्रेणिक को सुनाते हैं। इस परम्परागत मान्यता का समादर करते हुए पुष्पदंत ने कहा-एक उद्यानपाल से राजा श्रेणिक को विदित हुआ कि भगवान् महावीर का समवशरण विपुलाचल पर पाया है, तो राजा नागरिकजनों सहित भगवान् के दर्शन के लिए वहाँ गये । पूजन-वन्दन प्रादि के पश्चात् मगधाधिप ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए भगवान् से अनुरोध किया
पत्ता-..................."भण परमेसर मह विमलु । विरिणवारयदुक्कियदुहपसरु सिरिपंचमिउववासफलु ॥
.
1.12
अर्थात्, हे. परमेश्वर, दुष्कर्म-जन्य दुःख के प्रसार का निवारण करनेवाले श्रीपंचमी के उपवास का विमल फल मुझे बताइए।
फलस्वरूप, भगवान् तीर्थंकर महावीर के आदेश से गणधर गौतम ने राजा श्रेलिक को नागकुमार की कथा सुनायी । इससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा का सम्मान करते हुए नागकुमार-चरित के आद्य वक्ता और प्राद्य श्रोता होने का श्रेय पुष्पदंत ने क्रमशः गौतम गणधर तथा राजा श्रेणिक को ही प्रदान किया है ।
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(4) बन्दना प्रकरण
पुष्पदंत ने अपनी रचना के प्रारम्भ में, काव्यारम्भ से पहले जैन कवियों की मान्यता के अनुसार पंच-परमेष्ठी को प्रणाम किया है । ये "पंचगुरु" वा पंचपरमेष्ठी हैं-अर्हत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु । पुष्पदंत ने उन्हें कलि-मलवजित और सद्गुणों से परिपूर्ण कहा है । पंचगुरु को प्रणाम करने के पश्चात् ही वे वागीश्वरी सरस्वती की वन्दना करते हैं।
(5) सष्टि की स्थिति के विषय में जैन-मान्यता
प्रारम्भ में जैन पौराणिक शैली के अनुसार पुष्पदंत ने जिनेन्द्र भगवान् का हवाला देते हुए अनन्तानन्त आकाश, उसके मध्य में स्थित त्रिभुवन, त्रिभुवन के अन्दर मध्य लोक में स्थित जम्बूदीप, उसके अन्तर्गत मेरु पर्वत, उस पर्वत की दाहिनी दिशा में स्थित भरत क्षेत्र का उल्लेख किया है। जैन मान्यता के अनुसार वे कहते हैं- यह त्रिलोक न ब्रह्मा द्वारा निर्मित है, न विष्णु द्वारा प्राधृत और न शिव द्वारा विनष्ट किया जाता है । (6) मगध, राजधानी राजगह, राजा श्रेणिक का उल्लेख
जैन मान्यता के अनुसार पुष्पदंत ने मगध, राजगृह और श्रेणिक का गौरव के साथ उल्लेख करते हुए कहा है कि राजा श्रेणिक क्यों और किस प्रकार भगवान् महावीर के दर्शन के लिए विपुलाचल पर्वत पर गये।
(7) जिनेन्द्र का प्रवचन .
जैन मान्यता के अनुसार, पुष्पदंत ने कहा कि वन्दना/भक्ति के पश्चात् श्रेणिक मनुष्यों के लिए निर्धारित कोठे में बैठ गये तब परमेष्ठी भगवान् के मुख से दिव्यवाणी खिरने लगी। उन्होंने पंचास्तिकाय, व्रत, कषाय, प्रतिमाएँ, पुद्गल द्रव्य, द्वादश-अंग, आदि समस्त विषयों पर सम्यक् प्रकाश डाला। (8) स्तुतियाँ
पौराणिक शैली में लिखित कथा-काव्यों में प्रायः अनेक स्तुतियां संकलित पायी जाती हैं । श्रद्धालु पात्र प्रसंगानुसार जिनेन्द्र भगवान् की तथा मुनियों की वन्दना करके स्तुति करते दिखाये जाते हैं । इन स्तुतियों में स्तुत्य का जयजयकार करते हुए गुणगान किया जाता है। जनसाधारण ऐसी स्तुतियों को कण्ठस्थ करके आवश्यकतानुसार उनका पठन वा गान भी किया करते हैं । पुष्पदंत ने ऐसी स्तुतियों की लोकोपयोगिता का ध्यान रखते हुए निम्नलिखित स्तुतियाँ "णायकुमारचरिउ" में प्रस्तुत की हैं
1. विपुलाचल पर मगध के राजा श्रेणिक कृत जिनेन्द्र महावीर की स्तुति, जिसके द्वारा उन्होंने अपने जन्म-जन्मान्तर के कर्मों की धूलि को झाड़कर दूर
किया (1:11)। 2. जिनेन्द्र मन्दिर में पृथ्वीदेवी कृत भगवान् की स्तुति (2.3) ।
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3. जिन-मन्दिर में राजा जयन्धर कृत जिनेन्द्र की स्तुति (8.11)।
4. तोयावलि में नागकुमारकृत जिनेन्द्र की स्तुति (8.11)। जिनेन्द्र भगवान् के अतिरिक्त, मुनियों की भी स्तुति करने की परम्परा है। "णायकुमार-चरिउ" में मुनि सुव्रत की जितशत्रु कृत स्तुति पठनीय है (6.3)। ' (9) वर्शन और वन्दना करना, भक्ति की अभिव्यक्ति
पुष्पदंत ने "णायकुमार-चरिउ" में दिखाया है कि किस प्रकार अनेक नर-नारी पात्र जिनेन्द्र के तथा मुनियों के दर्शन के लिए जाते हैं और उनकी भक्तिपूर्वक वन्दना करते हैं । कवि ने प्रथम संधि में बताया है कि भगवान् महावीर के विपुलाचल पधारने का समाचार सुनते ही राजा श्रेणिक धर्मानुराग से पुलकित होकर (धम्माणुरायकण्टइयकार) उनके दर्शन के लिए दौड़े और किस प्रकार नगर-निवासी स्त्री-पुरुष पूजन की सामग्री लेकर चल पड़े । भक्ति-भाव का कैसा अद्भुत प्रभाव हुअा, देखिये । कवि कहता है-किसी स्त्री ने अपनी बढ़ती हुई भोग-विलास की अभिलाषा का मर्दन करके अपने लिए लाये हुए आभरणों का अनादर किया, तो कोई कुंकुम न लगाते हुए नूपुरों को धारण न करके ही चल पड़ी। किसी ने संसार के परिभ्रमण के अन्त अर्थात् मोक्ष का ध्यान करते हुए पास ही चक्कर काटते रहनेवाले प्रिय पति की भी उपेक्षा की।
इस काव्य में कवि ने अनेक स्थलों पर जिन-मन्दिर में गमन, जिनेन्द्र-पूजन, मुनियों की वन्दना आदि का उल्लेख किया है । उदाहरणार्थ-त्रिभुवन-तिलक में नागकुमार द्वारा मुनि पिहिताश्रव की वन्दना करना (9.4), नागदत्त कृत महामुनि मनगुप्त की वन्दना (9.16), ऊर्जयन्त पर्वत पर नागकुमार द्वारा तीर्थंकरों के चरण-चिह्नों को नमस्कार करना (7.10), नागकुमार द्वारा स्फटिक शिला पर विराजमान श्रुतिधन नामक परम प्राचार्य के दर्शन करके उनकी वन्दना करना (6.10), नांगकुमार द्वारा भगवान् चन्द्रप्रभ के मन्दिर में जाकर उनके प्रतिबिम्ब का दर्शन करना, उनकी प्रतिमा का अभिषेक और पूजन करके वन्दना करना (5.11) इत्यादि।
इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि. यहाँ पर कोई भी व्यक्ति भक्ति के फलस्वरूप सांसारिक जय, समृद्धि, सुख, स्व-शत्रु का नाश आदि की उपलब्धि की कामना नहीं करता । उदाहरण के लिए पृथ्वीदेवी जिनेन्द्र भगवान् से अभ्यर्थना करती है-इसी मोक्खगामी। तुम मम सामी ।। फुर बेहि बोही। बिसुद्धा समाही ॥ आप मुझे स्पष्ट बोधिज्ञान और विशुद्ध समाधि प्रदान करें। जिन-मन्दिर पहुंचने पर उसके विषाद और सौतिया डाह का विनाश ही हुमा । उसी प्रकार, नागकुमार ने चन्द्रप्रभ भगवान् का पूजन करने पर ग्लानि के साथ संसार की असारता को अनुभव किया। (10) उपदेश
पुष्पदंतकृत "णायकुमार-चरिउ" में जैन दृष्टिकोण से अनुप्राणित धर्म, नीति और आचरण सम्बन्धी उपदेश प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत हुआ है। उदाहरण के लिए देखिये-मुनि
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पिहिताश्रव ने पृथ्वीदेवी को उपदेश देते हुए धन, यौवन, जीवन, स्नेह आदि की क्षणिकता और असारता सूचित की (2.4) । पृथ्वीदेवी ने प्रेमपूर्वक चाटुकारी करनेवाले अपने पति को जिनेन्द्र-वचनों की महत्ता तथा सम्यक्दर्शन की दुर्लभता बताते हुए कहा कि लाखों योनियों में भ्रमण करते हुए लाखों दुःखों को सहकर किसी को दुर्लभ मनुष्य-जन्म प्राप्त हो और उसमें वह तप न करे, विषयों से विरक्ति अनुभव न करे और अरिहन्त देव का पूजन न करे, तो समझिए, वह अपने आपको धोखा देता है (2.6) । पृथ्वीदेवी पर देवों ने उसके धर्माचरण के फलस्वरूप कृपा करके उसे कूप-जल से बचाया और उसके पुत्र को लौटा दिया, इस पृष्ठभूमि पर कवि ने कहा-संयम, तपश्चरण और व्रतोद्यापन ही मंगलधर्म है, जिसके मन में जैनधर्म है, उसे देव भी प्रतिदिन नमस्कार करते हैं (2.13)। नागदेव ने अपने मुंहबोले पुत्र नागकुमार को समस्त विद्याओं, कलाओं और शास्त्रों की शिक्षा प्रदान की। उसमें उसने राजनीति की शिक्षा में नीति धर्म, कर्म शुद्धि, मनोनिग्रह तथा अनुग्रह पर बल दिया है (3.2-3)। मथुरा के जयवर्म नामक राजा को एक मुनिवर ने गृह-धर्म का उपदेश देते हुए कहा कि दान किसे दिया जाय, अर्थात् दान देने योग्य कौन होते हैं ? उन्होंने पति-धर्म का भी विवेचन किया । उसमें प्रमुख तत्त्व ये हैं--दया, विनय, सत्यपालन, मधुरवाणी, पर-धन और पर-स्त्री से विमुखता, व्रतों का पालन, सूर्यास्तपूर्व भोजन, जिनेन्द्र प्रतिमा का ध्यान, पों में प्रोषध व्रतों का निर्वाह, अन्त में संन्यास धर्म को ग्रहण करना । सुव्रत केवली ने जितशत्रु को धर्मोपदेश देते हुए मृत्यु की अनिवार्यता, राज्य, धन और वैभव की क्षणिकता, पाप-तरु के दुःखरूपी फल आदि का विवेचन किया और कहा कि पाप को धर्म द्वारा खपाया जा सकता है । जितशत्रु को विद्याओं ने बताया कि जिनशासन में आपकी रुचि हो गई है इसलिए आपको हम से कोई काम नहीं रहा । इससे सूचित होता है कि जिन-शासन में अनुरक्ति अनेकानेक भौतिक लाभ दिलाने-- वाली विद्याओं से अधिक श्रेयस्कर है (6.4-5)। श्रुतिधर मुनि ने भी नागकुमार को जो उपदेश दिया, उसमें जीव-दया, सत्य, पर-धन तथा पर-स्त्री से विरक्ति आदि पर बल दिया गया है (6.10) । कवि ने कहा है कि धन, यौवन, हृदय-प्राणों की चरितार्थता किसमें है-- . परिणहि बच्चउ पिहलुसरणे, जुन्वणु जाइ जाउ तवयरणे ॥
हियबउ गुप्पउ जिरणसम्भरणे, पाण जन्तु मुरिणपण्डियमरणें ॥ .... जोयउ पवि असहाय-सहेज्जउ ।............. (7.15.6) : अर्थात् धन-निधि दीनों के उद्धरण में व्यय हो, यौवन तपश्चरण में व्यतीत हो, हृदय जिनेन्द्र-स्मरण में मग्न हो, प्राण जाएं मुनि के पण्डित-मरण में और जीएं तो असहाय की सहायता करते हुए । इसमें जिनेन्द्र-स्मरण और मुनि-मरण की महत्ता ध्यान देने योग्य है। (11) श्रुत-पंचमी व्रत तथा माहारादि दान की विधि
नागकुमार ने मुनिवर से यह जानना चाहा कि वह अपनी स्त्री लक्ष्मीमती के प्रेम में अंधा क्यों हो रहा है (लच्छीमइयए हउँ पेम्मन्धउ)। इस रहस्य को प्रकट करते हुए मुनिवर ने नागकुमार के पूर्वभव की कथा कही। उसके अनुसार नागकुमार अपने पूर्वभव में नागदत्त
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नामक वणिकपुत्र था, वसुमती उसकी स्त्री थी। मनदत्त नामक मुनिवर से धर्मोपदेश सुनकर नागदत्त ने फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी (श्रुतपंचमी) के उपवास का व्रत ग्रहण किया । प्यास से व्याकुल अपने पुत्र को पिता ने धोखा देकर जल-ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना चाहा परन्तु नागदत्त ने उसे जानकर जिनेन्द्र का स्मरण और पंचपरमेष्ठी का चिन्तन करते हुए मृत्यु को गले लगाया। इस पुण्यकर्म के फलस्वरूप वह सौधर्म स्वर्ग में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। अनन्तर उसकी स्त्री वसुमती भी संन्यास धर्म को स्वीकार करके मर गयी
और तदनन्तर स्वर्ग में नागदत्त से मिली। वही दम्पति, नागदत्त-वसुमती, इस भव में नागकुमार-लक्ष्मीमती के रूप में उत्पन्न हुए हैं। अपने पूर्व भव की कथा सुनकर नागकुमार ने मुनिवर से श्रुतपंचमी व्रत के विषय में जिज्ञासा प्रकट की। उसका समाधान करते हुए उन्होंने निम्नलिखित बातों पर प्रकाश डाला
जिनधर्म के अनुसार उपवास के प्रकार, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन की शुक्ल चतुर्थी के उपवास की विधि, आहार-दान, व्रत का उद्यापन, दान-विधि इत्यादि । उपरोक्त तीन मासों में से किसी एक को शुक्ल पंचमी के दिन ऐसी ही विधि से पांच वर्ष तक उपवास करें।
नागकुमार को राज्यश्री, सुख-सम्पत्ति आदि का परम लाभ हुआ। वैभव के अत्युच्च शिखर पर विराजमान होने पर उसे सांसारिक सुखोपभोग के प्रति विरक्ति हुई और उसने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। नियमानुसार कठोर तपस्या करके अन्त में उसने मोक्ष प्राप्त किया । यह सद्भाग्य उसे श्रुत-पंचमी के उपवास के फल-स्वरूप प्राप्त हुआ। (12) दीक्षा और तपाचरण
....... णायकुमारचरिउ में कहा है कि जयन्धर, श्रीधर, नागकुमार आदि अनेक व्यक्तियों ने सांसारिक सुखोपभोग का त्याग करके दीक्षा ग्रहण की और उग्र तपस्या की। जिन-शासन में गृहस्थाश्रम का निषेध नहीं है फिर भी यथाकाल दीक्षा ग्रहण करके कर्मकल्मष का क्षय । करते हुए पुण्यलाभ करने की आवश्यकता का भी प्रतिपादन किया गया है ।
पुष्पदंत कृत णायकुमारचरिउ प्रथम श्रेणी का चरितकाव्य है। उसका नायक नागकुमार सौन्दर्य, सद्-शील और वीरता का मानो मूर्तरूप है। उसकी इस महत्ता का रहस्य उसके द्वारा रखे हुए श्रुतपंचमी के व्रत में है। कवि ने उसकी कथा के माध्यम से उस व्रत की महिमा का गान किया है । णायकुमारचरिउ की रचना की प्रेरणा प्रधानतः धार्मिक है । कवि ने किस प्रकार जिन-शासन के दृष्टिकोण को इस काव्य द्वारा अभिव्यक्ति प्रदान की है, यह उपर्युक्त विवरण से आसानी से समझ में आएगा अतः इसमें कोई मतभेद नहीं होगा कि णायकुमारचरिउ आदि से लेकर अन्त तक एक 'जैन-काव्य' है ।
इस लेख का उद्देश्य सीमित है। णायकुमारचरिउ की काव्यगत विशेषताओं को प्रस्तुत करना इसमें अपेक्षित नहीं है। फिर भी, मैं इतना ही कहना उचित मानूंगा कि कथावस्तु का मनोहर स्वरूप, नायक का उज्ज्वल चरित्र, वीर, रौद्र तथा शान्त रस, अलंकारप्रचुरता, विविध छन्दों की रचना, भाषा-साहित्य, चरितकाव्य के अनेकानेक लक्षणों का निर्वाह, नगर, व्यक्ति आदि का चित्रात्मक वर्णन तथा उद्देश्य का गाम्भीर्य आदि की दृष्टि से काव्य-रसिक-जन गायकुमारचरिउ का अनुशीलन करके तुष्टि को ही प्राप्त होंगे।
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गायकुमारचरिउ में प्रतिपादित जीवनमूल्य
-डॉ० कमलचंद सोगारणी
मूल्यात्मक अनुभूति मानवीय चेतना का विशिष्ट आयाम है । दार्शनिक, साहित्यकार जीवन में प्रविष्ट कराने के लिए तत्पर रहते हैं । साहित्यकार अधिकतर घटना चक्रों के माध्यम से अनुभूतियों को संप्रेषित करने का प्रयास करते हैं ।
साकार हो सकें। साहित्यकार /
और योगी इन अनुभूतियों को समाज के दार्शनिक चिन्तन की अमूर्त प्रक्रिया से तथा योगी सूक्ष्म संचरण की विधि से इन साहित्यकार काव्य की विभिन्न विधाओं का प्रयोग करके अभिव्यक्ति को लालित्य प्रदान करता है जिससे सौंदर्य के साथ शिव और सत्य जीवन में काव्यकार कुछ मूल्यों को अपने मन में संजोये रखता है । उनको वह काव्य के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करता है । अमर साहित्यकार जीवन के शाश्वत मूल्यों को निस्तेज होने से बचाता है । सामयिक मूल्य भी उसके काव्य में स्थान पाते हैं पर वे साहित्य की स्थायी सम्पत्ति नहीं बन पाते हैं । अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदंत ऐसे अमर काव्यकार हैं जिन्होंने अपने खण्डकाव्य गायकुमारचरिउ में सामयिक मूल्यों के साथ शाश्वत मूल्यों को सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है । काव्य के नायक गायकुमार ( नागकुमार ) महाकवि पुष्पदंत की मूल्यात्मक चेतना का प्रमुखरूप से प्रतिनिधित्व करता है । अन्य चरित्रों के माध्यम से भी पुष्पदंत ने अपने मन में अंकित मूल्यों को दर्शाया है । हम इस लेख में महाकवि पुष्पदंत द्वारा वरित मूल्यों में से कुछ की चर्चा करेंगे ।
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पुष्पदंत जिन-भक्त हैं । "जिन" भक्ति/स्तुति के प्रसंग में उसमें अधिकतर शाश्वत मूल्यों की ही चर्चा की है । यद्यपि वे कहीं कहीं सम्प्रदाय से बंधे हुए नजर आते हैं पर उनका यह पक्ष नितान्त गौण है, जिन स्तुति के प्रसंग में कहा गया है
जय खमदमसमजमणिवहरिणलय गयणयलगख्य भुमणयलतिलय । जय गुण मणिरिणहि परियलिय हरिस जय जय जिरणवर जय परम पुरिस ॥
1.11.8-9 "पाप क्षमा, दम, शम और यमादि गुणों के समूह के निधान हैं, गगनतल के गौरव तथा भुवनतल के तिलक हैं । जय हो आपकी जो गुणरूपी मणियों की निधि हैं, हर्षरहित अर्थात् वीतराग हैं । हे परम पुरुष जिनेन्द्र, आपकी जय हो, जय हो ।”
जिनस्तुति के अन्य प्रसंग में कहा गया है
पइं जिण रिंगविउ विट्ठलु रणरंगु, विसएसु तुझ कि पि वि रण रंगु।
तुह समु कंचणु तणु सत्तु मित्त, तुहुँ देव भुषणपंकरहमित्त । पत्ता-इय वंदिवि जिरणवर हरि हरु वियर कमलासणु गुणरयणरिणहि । तवजालाभासुर कंपावियसुरु भवकारगण रिपहरणसिहि ॥
8.10 "हे जिनेन्द्र, आपने इस दूषित शरीर की निन्दा की है। आपका विषयों में कुछ भी अनुराग नहीं है । आपके लिए सोना और तृण तथा शत्रु और मित्र समान हैं । हे देव, पाप भुवनरूपी कमल के लिए सूर्य हैं।
इस प्रकार जिन भगवान् की वंदना की जो तपरूपी अग्नि की ज्वालाओं द्वारा भास्वर होने से विष्णु, अपने तपःतेज द्वारा देवताओं को कम्पायमान करने से हर अर्थात् महादेव, अज्ञानान्धकार का नाश करनेवाले होने से सूर्य तथा अनन्तचतुष्टयरूपी दिव्य कमल में विराजमान होने से कमलासन ब्रह्मा के समान थे और जो गुणरूपी रत्नों के निधान तथा संसाररूपी कानन को दग्ध करनेवाली अग्नि के समान थे।
पुष्पदंत करुणा और गुणियों की भक्ति को मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैंदुवई-कीरह परमभत्ति गुणगणहरे कारणं पि दुत्थिए । पंगुलकुंटमंटबहिरंषयरोयविसायमंथिए ।
4.4 __“जो गुणसमूह को धारण करनेवाले हैं उनकी परम भक्ति करनी चाहिये और जो लँगड़े, लूले, गूंगे, बहरे, अन्धे, रोग और विषाद से ग्रस्त दुःखी अवस्था में पड़े हैं उन पर करुणा करनी चाहिये।"
घत्ता-असणुल्लउ रिणवसणु देहविहूसणु गोमहिसिउलु भूमिभवणु।
कारणीणहें वीणह सिरिपरिहीणहं विज्जइ कारणेण षणु ॥
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करुणाभाव से अनाथों, दीनों और निर्धनों को भोजन, वस्त्र, देह के प्राभूषण, गायें और भैंसें, भूमि और भवनरूपी धन दिया जा सकता है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्पदंत की मानव मूल्यों में अटूट श्रद्धा है । एक अवसर पर नागकुमार ने नन्दनवन में श्रुतिधर आचार्य के दर्शन किये और उनसे धर्म का स्वरूप पूछा 11
धर्म का जो स्वरूप समझाया गया वह सार्वलौकिक है । आचार्य ने जिन मानव मूल्यों को उसमें समेटा है वे सम्प्रदायातीत हैं और बहुत ही आधुनिक प्रतीत होते हैं । प्राचार्य कहते हैं—
पुच्छिउ धम्मु जइ वज्जरह, जो सयलहं जीवहं दय करह । जो प्रलियपयंपणु परिहरह, जो सच्चसउच्च रद्द करइ । पेसुण्ड कक्कसवयरणसिहि, ताडणबंधरणविद्दवरणविहि । जो ग पउंजइ सयभीरुयँहँ दीरणारगाहहं पसरियकिवहं । जो देइ महुरु करुणावयणु, परदव्वे रंग पेरद्द कह व मणु । वज्जइ श्रवत्तु गियपियरवणु, जो ग धिवइ परकलत्ते गयणु । जो परहण तिसमाणु गराइ, जो गुणवंतउ भत्तिए युगइ । एयहं धम्महो अंगई जो पालइ विहंग । सो जि धम्मु सिरि तुगई प्रण्णु कि धम्म हो
सिंगई ।। 6.10.8 - 14 "जो समस्त जीवों पर दया करता है, झूठ वचन नहीं कहता, सत्य और शौच में रुचि रखता है, चुगलखोरी, अग्नि के समान कर्कश वचन, ताड़न, बन्धन व अन्य प्रकार की पीड़ाविधि का प्रयोग नहीं करता, क्षीण, भीरु, दीन और अनाथों पर कृपा करता है, मधुर करुणापूर्ण वचन बोलता है, दूसरे के धन पर कभी मन नहीं चलाता, बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता, अपनी प्रिय पत्नी से ही रमण करता है, परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं चलाता है, पराये धन को तृरण के समान गिनता है और गुणवानों की भक्ति सहित स्तुति करता है, जो अभंगरूप से इन धर्मों के अंगों का पालन करता है यही धर्म का स्वरूप है और क्या धर्म के सिर पर कोई ऊँचे सींग लगे रहते हैं ? "
उपर्युक्त मूल्यों के अतिरिक्त पुष्पदंत ने जिन दो मूल्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया है वे हैं - ( 1 ) ईर्ष्या / जलन का अभाव, ( 2 ) अन्याय का प्रतिकार ।
( 1 ) पुष्पदंत ने ईर्ष्या के प्रभाव को जीवन-मूल्य स्वीकार किया है । ईर्ष्या एक ऐसा संवेग है जो दूसरों की बढ़ोतरी को देखकर मन में क्लेश उत्पन्न कर देता है । अपने विकास के लिए इस पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । गायकुमारचरित में ऐसे प्रसंग उपस्थित होते हैं जहां ईर्ष्या वश कठिनाई उपस्थित होती है। एक प्रसंग में ईर्ष्या जीत ली जाती है, दूसरे प्रसंग में ईर्ष्या बनी रहती है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक आधार चाहिये । पुष्पदंत ने बड़ी खूबी के साथ ईर्ष्या के प्रसंगों की चर्चा की है
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(क) कनकपुर के राजा जयन्धर की ज्येष्ठ पत्नी विशालनेत्रा थी। जयन्धर ने कुछ समय पश्चात् पृथ्वीदेवी से विवाह किया। उद्यानक्रीड़ा के लिए जाते समय पृथ्वीदेवी विशालनेत्रा की वैभवपूर्ण शोभायात्रा को देखकर आश्चर्यचकित हो गई। उसके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। इससे उसके हृदय में संताप पैदा हुआ। उद्यानक्रीड़ा के विचार को छोड़ कर वह जिनेश्वर की वन्दना को चली गई जहां उसने पिहितास्रव मुनि के दर्शन किये । मुनि ने रानी की मनःस्थिति को समझकर उपदेश दिया
गुरु पभणइ म करि विसाउ तुहूं, पेक्खेसहि अग्गइ पुत्तमुहूं। रिणयसिरि कि किर मण्णंति गरा, रणवजोव्वणु णासइ एइ जरा। उप्पण्णहो दोसइ पुणु मरण, भीसावणु ढुक्कइ जमकरण। सिरिमंतहो घरि दालिद्दडउ, पइसरइ दुक्खभालभडउ । प्राइसुंदररुवें रूउ ल्हसइ, वीर वि संगामरंगि तसइ । पियमाणुसु अण्ण जि लोउ जिह, पिण्णेहें बीसइ पुणु वि तिह। रिणयकंतिहे ससिबिंबु वि ढलइ, लायण्णु ण मणुयह किं गलइ । इह को सुत्थिउ को दुत्थियउ, सयेलु वि कम्मेण गलत्थियउ। 2.4.4-11
"तुम विषाद मत करो, शीघ्र ही तुम्हें अपने पुत्र का मुख देखने को मिलेगा । मनुष्य अपनी लक्ष्मी को क्या समझते हैं ? नये यौवन का नाश होता है और बुढापा आता है । जो उत्पन्न हुआ है उसका पुनः मरण देखा जाता है। उसे लेने भयंकर यम का दूत पा पहुँचता है । श्रीमान् के घर में दारिद्र्य तथा दुःख का महान् भार आ पड़ता है। एक सुन्दर रूप दूसरे अधिक सुन्दर रूप के आगे फीका पड़ जाता है। वीर पुरुष भी रण में त्रास पाता है । अपना प्रिय मनुष्य भी स्नेह के फीके पड़ने पर अन्य लोगों के समान साधारण दिखाई देने लगता है। जब चन्द्रमण्डल भी अपनी कान्ति से ढल जाता है तब क्या मनुष्यों का लावण्य नहीं गलेगा? इस संसार में कौन सुखी और कौन दुःखी है ? सभी कर्मों की विडम्बना में पड़े हैं।"
___इस उपदेश से पृथ्वीदेवी का मन शान्त हुआ । वास्तव में संसार की अस्थिरता को समझने से ही विवेक उत्पन्न होता है और ईर्ष्या विलीन हो जाती है । हम संसार में कुछ प्राप्त कर सकेंगे इस विश्वास से भी ईर्ष्या चली जाती है । जब पृथ्वीदेवी को यह आश्वासन मिला कि शीघ्र ही उसके पुत्र-रत्न उत्पन्न होगा तो इस भविष्यवाणी से भी पृथ्वीदेवी का मन शांत हुआ। जीवन में कोई उपलब्धि और आध्यात्मिक आधार ये दोनों ही ईर्ष्या को जीतने में सहायक होते हैं। यहाँ यह समझना चाहिये कि पुष्पदंत ने ईर्ष्या को समाप्त करने के लिए जिस प्रकार के उपदेश का सहारा लिया है, वह उनकी मनोवैज्ञानिक सूझबूझ का परिचायक है।
(ख) णायकुमार (नागकुमार) जयन्धर की कनिष्ठ पत्नी, पृथ्वीदेवी का पुत्र था और श्रीधर जयन्धर की ज्येष्ठ पत्नी विशालनेत्रा का पुत्र था। एक बार नागकुमार की वीरता को देखकर श्रीधर के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। ईर्ष्या जब शान्त नहीं होती है तो वह शत्रुता में बदल जाती है । श्रीधर के प्रसंग में ऐसा ही हुआ । श्रीधर सोचने लगा
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दुवई–पहणमि जिणमि एह कं दिवसु वि मारमि परमि संगरे।
. इय संभरिवि तेण भडसंगहु कउ णिययम्मि मंदिरे ॥ . 3.15 - "इसे किस दिन मारू, जीत लूं अथवा संग्राम में पकड़ लूं, ऐसी चिंता करते हुए श्रीधर ने अपने महल में योद्धाओं का संग्रह किया।"
___इस जानकारी से राजा जयन्धर को अत्यन्त दुःख हुआ। वह सोचने लगा कि लक्ष्मी के लम्पटों के करुणा नहीं होती (सिरिलंपडहं पत्थि कारुण्ण) । इस प्रकार सोचकर राजा ने एक अलग नगर बनवाया और उसे नागकुमार को दे दिया । यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि जो व्यक्ति भौतिक सम्पदाओं में लीन है उसकी ईर्ष्या शत्रुता में बदल जाती है। हमने पृथ्वीदेवी के उदाहरण में देखा कि आध्यात्मिक ज्ञान से पृथ्वीदेवी की ईर्ष्या शान्त हो गई थी किन्तु श्रीधर के उदाहरण में ईर्ष्या शत्रुता में बदल जाती है । इससे पुष्पदंत संभवतया यह सिखाना चाहते हैं कि आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन में उतारने से मानवीय सम्बन्धों में मृदुता का संचार हो सकता है । ईर्ष्या सामाजिक सम्बन्धों को विकृत कर देती है, इसकी समाप्ति विवेक से ही सम्भव है।
(2) प्रजाबन्धुर (नागकुमार) को समुचित शिक्षा प्राप्त कराने हेतु नाग के घर लाया गया। वहां उसने सभी प्रकार की विद्याओं को सीखा। विद्योपार्जन के फलस्वरूप "वह व्यसनहीन, स्वच्छ, क्रोधरहित, शूरवीर, महाबलशाली, उचितकार्यशील, दूरदर्शी, दीर्घसूत्रतारहित, बुद्धिमान, गुरु व देव का भक्त, सौम्य सरलचित्त, दानी, उदार एवं ज्ञानी पुरुषोत्तम बन गया ।"4 इन नैतिक आध्यात्मिक मूल्यों के ग्राही नागकुमार ने अपना सारा जीवन अन्याय के प्रतिकार करने में लगाया । वास्तव में सशक्त और सद्गुणी व्यक्ति का कर्तव्य है कि कमजोर के प्रति जहां कहीं भी अन्याय दृष्टिगोचर हो उसको निःस्वार्थ भाव से मिटाए । नागकुमार ने ऐसा ही किया । हम तीन प्रसंगों में इसकी चर्चा करेंगे। .: (अ) पिता की आज्ञा पाकर नागकुमार स्वदेश छोड़कर मथुरा की ओर चला गया । उसने देवदत्ता की सहायता से नगर में प्रवेश किया । देवदत्ता से बातचीत करते समय ज्ञात हुआ कि मथुरा के राजा दुर्वचन ने राजा विजयपाल की सुपुत्री शीलवती का, विवाह के लिए जाते हुए मार्ग में ही युद्ध करके, अपहरण कर लिया है और उसे बन्दीगृह में डाल दिया है। देवदत्ता ने राजकुमारी शीलवती के दुःख को बताया । नागकुमार इस अन्याय को सह न सका और वह उस राजकुमारी के कारागार पर ही जा पहुंचा । राजकुमारी ने नागकुमार को देखकर पुकार लगायी
भरिणउ ताइ भो णरपंचाणण, भो जयलच्छिविलासिणिमाणण । भो भो सरणागयपविपंजर, दुक्खरुक्खचूरणदिसिकुंजर । दोसहि को वि कुलोणु महापहु, फेडही महु बंदिहे बंदिग्गहु । 5.3.9-11
"हे नरसिंह, हे विजयलक्ष्मीरूपी विलासिनी के मान्य, हे शरणागतों के लिए वज्र के पिंजड़े, हे दुःखरूपी वृक्ष को चूर-चूर करनेवाले दिग्गज, आप कोई कुलीन महाप्रभु दिखाई देते हैं अतएव आप मुझ बन्दिनी को इस बन्दीगृह से छुड़ाइए ।"
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इस पर नागकुमार ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने किंकरों से कहा- पत्ता-ता कुमरें किंकरवर भणिय कड्ढहु बलिवंड सुलोयरिणय।
सस एह महारी जो घरइ तो इंदु वि समरंगण मरइ। 5.3 "हे जवानो, इस सुलोचना को इस बन्दीगृह से निकालो । यह हमारी बहन है । इसे जो कोई रोकेगा वह यदि इन्द्र भी हो तो भी समरांगण में मरेगा।"
युद्ध चल पड़ा । अन्त में नागकुमार युद्ध में विजयी हुआ और शीलवती बन्दीगृह से छुड़ा ली गई तथा अपने पिता के घर भेज दी गई। इस तरह से नागकुमार ने निःस्वार्थभाव से अन्याय का प्रतिकार किया । . (ब) नागकुमार ने कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। कश्मीर की राजकुमारी त्रिभुवनरति को वीणा-वाद्य में जीतकर प्रस्तावानुसार विवाह किया। इस तरह से कश्मीर के राजा नन्द की पुत्री त्रिभुवन रति के साथ नागकुमार नन्द के राज-भवन में सुखपूर्वक रहने लगे । एक बार वहाँ सागरदत्त नामक धनिक अाया। उसने अपनी यात्रा का अनुभव बताते हुए कहा कि रम्यकवन में एक शबर रहता है जो निरन्तर अन्याय-अन्याय की पुकार लगाता रहता है, किन्तु उसके नेत्रों से झरते हुए अश्रुजल को कोई पोंछनेवाला नहीं है। प्रपुसियणयणचुयंसुअपिच्चं, अण्णायं णिव घोसइ णिच्चं ।
5.10.21 यह सुनकर नागकुमार अपनी सेना सहित रम्यकवन की ओर चल पड़ा । वहाँ उसने दीनमन पुलिन्द (शबर) को देखा जो शबरी के वियोग में दुःखी था और "बचानो-बचाओ" चिल्ला रहा था और सुननेवालों में करुणा उत्पन्न कर रहा था।" परितायहु परितायहु भणइ णिसुणंतह कारुण्णउ जणइ ।
5.11 जब नागकुमार ने पुलिन्द से पूछा तो उसने कहा कि यहाँ कालगुफा में भीमासुर नाम के राक्षस ने मेरी प्रिय पत्नी का अपहरण कर लिया है । हे स्वामी, आप दीनोद्धारक दिखाई देते हैं। यदि आपसे हो सके तो शीघ्र ही मेरी पत्नी को वापस दिलवा दीजिये ।' पुलिन्द की प्रार्थना को स्वीकार करके नागकुमार कालगुफा में पहुंच गया । राक्षस ने नागकुमार को आसन दिया और सम्मान में रत्नमयी आभूषण और वस्त्र प्रदान किये । असुर राक्षस ने मनोवैज्ञानिक ढंग से नागकुमार को कहा
रक्खियाइँ मई तुझ णिमित्ते, प्रवहारहि पहु दिव्वें चित्तें । जं किउ मई वणयरपियहारण, तं पहु तुम्हायमणहो कारणु ।
5.13.4-5 "मैने आपके निमित्त से ही इन्हें रक्षित रखा है अतएव हे प्रभु, दिव्यचित्त से इन्हें ग्रहण कीजिये । मैंने जो इस वनचर की पत्नी का अपहरण किया वह भी हे प्रभु, आपके प्रागमन के कारण ही ।"
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इस पर नागकुमार ने कहाता मयणेण भरिणउ मणहारिणि, देहि समरि समरहो सुहकारिणी।
5.13.6 "उस मनोहारिणी व सुखकारिणी शबरी को उसके पति शबर को दे दो।" असुर ने तुरन्त शबरी को उसके पति को समर्पित कर दिया ।
(स) शबर ने नागकुमार को रम्यकवन की सीमा पर छोड़ दिया। वहां उसकी भेंट गिरिशिखर नामक नगर के वनराज से हुई। एक दिन नागकुमार ने श्रुतिधर प्राचार्य के दर्शन किये । नागकुमार ने आचार्य से पूछा-8 क्या वनराज किरात है ? कोई क्षत्रिय राजा नहीं ? क्या कहीं राजा भी वन में निवास करते हैं ? यह भ्रांति मेरे मन में बनी हुई है, मिटती नहीं । तब प्राचार्य ने कहा कि पुण्डवर्धन नामक नगर में अपराजित नामक राजा था । उसकी दो पटरानियां थीं सत्यवती और वसुन्धरा । सत्यवती का पुत्र अतिबल था और वसुन्धरा का पुत्र भीमबल था। अपराजित राज्य छोड़कर ऋषि हो गया । लोभ के वशीभूत होकर भीमबल ने अतिबल का राज्य छीन लिया । अतिबल अपनी सेना सहित वहां से निकल पड़ा और उसी ने यह नगर बसाया है। प्राचार्य ने कहा कि भीमबल का पौत्र, सोमप्रभ पुण्ड्रवर्धन में राज्य कर रहा है और अतिबल का पौत्र वनराज है । यह सुनकर नागकुमार ने वनराज के प्रति हुए अन्याय को सोचा और उसने अपने सहयोगी व्यालभट्ट से इस अन्याय को मिटाने के लिए कहा । व्यालभट्ट के साथ युद्ध हुआ। सोमप्रभ परास्त हुआ । वनराज पुण्ड्रवर्धन का राजा बना।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पुष्पदंत ने मानवीय मूल्यों का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है । नागकुमार का यह कथन 'मैं उसी नृपत्व और जगतभर में यशकीर्तन को सार्थक समझता हूं जिसके द्वारा दीन का उद्धार किया जाय ।" हम सभी के लिए मार्गदर्शक हो सकता है।
मणमि रायत्तण जगजसकित्तणुं जेरण वीण उद्यारियउ।
.
8.13
1. णायकुमारचरिउ, 6.10, सं० डा० हीरालाल जैन, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ । 2. णायकुमारचरिउ. 3.14.15 3. वही, 3.15 4. वही, 3.4 5. वही, 4.15 6. वही, 5.2 . 7. वही, 5.12 8. वही, 6.11
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जिनेन्द्र स्तुति
गरिदेण णाइंददेविदवंदो, थुश्रो देवदेवो श्रणदो जिणिदो । महापंच कल्ला रणरणाराहिणारगो, सयाचामरोहेण विज्जिज्जमारगो । पडू पहू तु गसिंहासरत्थो, सभासासमुम्भासियत्यो पत्थो । विमुक्कामपुप्फट्ठीसुयंधो, अलं दुदुहीरावपूरंतरंधो । विरेहंत सेयायवत्तो विदोसो, असोयमासीरणपक्खिदघोसो । फुरंतेक्कभामंडलो मूरिसोहो, प्रसंगी असण्णो अलोहो प्रमोहो ।
भावार्थ -- हे देवों के देव, आप अनिन्द्य हैं । आपके पंचमहाकल्याणक हुए हैं। आप ज्ञानरूप हैं । आप पर सदैव चमरों के समूह दुलते रहते हैं। आप प्रभु के भी प्रभु हैं और उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं । आप सब जीवों को उनके समझने योग्य भाषाओं में पदार्थों का उपदेश देते हैं । आप प्रशंसनीय हैं । आपके ऊपर देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि की जा रही है जिसकी सुगन्ध उड़ रही है एवं दुन्दुभि की ध्वनि से समस्त भुवन भर रहा है। आपके ऊपर श्वेत छत्र शोभायमान हैं । आप दोषरहित हैं । अशोक वृक्ष पर बैठे हुए पक्षिराज आपका जयघोष कर रहे हैं। आपका अद्वितीय भामण्डल चमचमा रहा है । आपकी अद्भुत शोभा है । आप परिग्रह रहित, संज्ञा रहित, लोभ रहित और मोह रहित हैं ।
- गाय ० 2.11.1-6
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गायकुमारचरिउ की सूक्तियाँ
और उनका अध्ययन -डॉ० कस्तूरचंद "सुमन"
हिन्दी साहित्य में बिहारी सतसई के सम्बन्ध में विद्वानों की मान्यता है कि सतसई के दोहे देखने में तो छोटे लगते हैं किन्तु नाविक के तीर के समान वे गम्भीर घाव करते हैं ।। सूक्तियों की सतसई के दोहों के साथ तुलना करने से ज्ञात होता हैं कि सूक्तियां सतसई के दोहों की अपेक्षा अधिक छोटी और अधिक अर्थ-गाम्भीर्य लिये हुए होती हैं। अल्पकाय होने से यदि हम यह कहें कि वे सूत्ररूप में होती हैं तो अनुचित नहीं होगा। सूत्र के रूप में होते हुए भी उनमें अर्थ-गाम्भीर्य वैसा ही दिखाई देता है जैसा कि तत्वार्थसूत्र के सूत्रों में, इस कथन में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
सूक्तियों में लोक-हितेषी भावनाएं दिखाई देती हैं । लगता है विशिष्ट अनुभव, चिन्तन और मनन के उपरान्त ही उनका कथन किया जाता है। वे किसी घटनाविशेष या कथन के निष्कर्षरूप में कही जाती हैं। उनमें शाश्वत् सत्य उद्घाटित किये जाते हैं। संक्षेप में होना उनका विशिष्ट गुण है । सूक्तियों से नवचेतना जागृत होती है, अस्थिरता स्थिरता में परिणत हो जाती है। - सूक्ति शब्द की शाब्दिक व्युत्पत्ति से भी यही प्रतिफलित होता है । सूक्ति=सु+उक्ति से निर्मित है । सु का अर्थ है सुष्ठु/अच्छा और उक्ति का अर्थ है कथन । इस प्रकार सूक्ति, इस व्युत्पत्ति के अनुसार, वह है जिसे अच्छा कथन कहा जा सके और अच्छा कथन वही कहा
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जा सकता है जिसका श्रोता पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहे । श्रोता उसी कथन से प्रभावित होता है जो हितकारी, मनोहारी और कर्णप्रिय हो ।
अतः इस व्याख्या के आलोक में कहा जा सकता है कि वे "यथा नाम तथा गुण" कहावत को चरितार्थ करती हैं ।
पुराणों में सूक्तियों को सुभाषित कहा गया है तथा रत्न भी । सुभाषित शब्द की शाब्दिक व्युत्पत्ति की जावे तो सुभाषित और सूक्ति दोनों के अर्थ समान ही ज्ञात होते हैं । अतः सुभाषित और सूक्ति दोनों में अर्थसाम्य होने से सुभाषित को सूक्ति का पर्यायवाची कहा जा सकता है । "रत्न" कहा जाना बहुमूल्यत्व का प्रतीक है। सूक्तियाँ हैं भी रत्न के समान बहुमूल्य, क्योंकि वे अनुभव के बाद कही जाती हैं । पुराणों और चरितकाव्यों में ऐसे रत्न भरे पड़े हैं, किन्तु प्राप्त उन्हें ही होते हैं जो ऐसे काव्य-सागर में गोता लगाने में सिद्धहस्त हैं ।।
सुभाषितों को मन्त्र ही नहीं महामंत्र भी कहा गया है। परन्तु वे ऐसे मंत्र हैं जिनका प्रयोग कवि ही कर सकता है । ऐसे मंत्रों से दुर्जन पुरुष भूतादि ग्रहों के समान प्रकोप को प्राप्त होते हैं । मंत्र कहे जाने से यह अर्थ भी ध्वनित होता है कि सुभाषित भी मंत्रों के समान कष्टहारी हैं । इनके प्रयोग से अर्थात् चिन्तन-मनन से कष्टं वैसे ही दूर हो जाते हैं जैसे मंत्रों से सर्पदंशादिजनित कष्ट ।
संस्कृत साहित्य जैसे सूक्तियों का वृहद् भण्डार है वैसे ही अपभ्रश साहित्य भी सूक्तियों का खजाना है । पुष्पदंत, स्वयंभू के उत्तरवर्ती कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं । आपकी तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-महापुराण, जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउ । इनमें केवल "णायकुमारचरिउ" की सूक्तियों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सूक्तिसाहित्य में उनका कितना योगदान रहा है।
णायकुमारचरिउ की सूक्तियां न केवल कर्णप्रिय हैं अपितु उनमें वैसा ही अर्थ-गाम्भीर्य भरा है जैसा कि संस्कृत भाषा के कवि भारवि की रचनाओं में अर्थ-गौरव । वे शाश्वत् सत्य प्रकट करती हैं। उनमें ऐसे तथ्यों का समावेश है जो इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की पोर जीवों को प्रेरित करते हैं । सूक्तियों के अन्तर में कवि का गहन अध्ययन और चिन्तन है । सूक्तियां किंकर्तव्यविमूढ़ावस्था में अन्धे की लाठी हैं ।
कवि ने वृद्ध उसे नहीं माना है जो जरा से जर्जरित या दन्तविहीन है अथवा जिसके केश श्वेत हो गये हैं। उनकी दृष्टि में तो वृद्ध वे हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुए शास्त्र और कर्मसंबंधी विषयों में प्रवीण हैं । इसी प्रकार उन्होंने अधर्म और तीर्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में, गृहस्थ धर्म कैसे धारण हो ? आदि विषयों के समाधानों में, नवीन दृष्टि से चिन्तन किया है। उदाहरणार्थ -
ते बढा जे सुयण सलक्षण सत्थकम्मविषएसु वियक्खण। 3.2.3
वृद्ध वे ही हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुए शास्त्र और कर्मसंबंधी विषयों में - प्रवीण हों।
पर काम किया
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जैन विद्या
बुट्ठो परिपालणु जहि किज्जइ सो ग्रहम्मु जहि साहु वहिज्जइ । 3.2.10 धर्म वह है जहाँ दुष्ट का परिपालन और साधु का वध किया जावे ।
धरधम्मु धरिज्जs रिगग्गहे ।
लोहस्य पमारण परिग्गहेण ॥ 4.2.8
लोभ - निग्रह और परिग्रहप्रमाण द्वारा ही गृहधर्म धारण किया जाता है ।
तित्थ रिसि ठारणाइँ पवित्तइँ । 9.13. घत्ता
जहां ऋषियों का वास होता है वे तीर्थ - पवित्र होते हैं
सिहि उह सीयलु होइ मेहु । 1.5.5
अग्नि उष्ण और मेघ शीतल होता है ।
अपने अनुभवों को भी कवि ने सूक्तियों में उंडेल दिया है। उनमें शाश्वत् सत्य है, दूरदर्शिता है, संकेत है विसंगतियों से बचने का, उनसे जूझने का एवं पराजय प्राप्त होने पर धैर्य धारण करने का । इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है
विहो सुहि वंक वयणु । 2.14.10 अभागे मनुष्य से मित्र भी मुंह फेर लेता है ।
श्रइसुंदररूवें रूउ ल्हसइ । 2.4.8
एक सुन्दर रूप प्रतिसुन्दर रूप के आगे फीका पड़ जाता है ।
वीरू वि संगामरंगि तसइ । 2.4.8
वीर पुरुष भी संग्राम में त्रास पाता है ।
पियमाणुसु प्रण्णु जि लोउ जिह ।
from बीस पुणु वि तिह ॥ 2.4.9
:
जं जारगइ सं तो वि श्रणुट्ठउ । 5.6.7
जानकारी के अनुसार ही अनुष्ठान किया जाता है ।
अपना प्रिय मनुष्य भी स्नेह के फीके पड़ने पर अन्य लोगों के समान साधारण दिखाई देने लगता है ।
पुण्य और पाप का माहात्म्य
भ कि पुण्यवंतो कियउ । 2.14.6
कहो ! पुण्यवान् के लिए क्या नहीं किया जाता है ?
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जह पावपसत्तहो सुहसहणु, वालिद्दिएण पावइ रयणु 1 2.6.17 पापासक्त को दारिद्र्य के कारण सुखदायी रत्न प्राप्त नहीं होते ।
रंग मिलइ रायलच्छि श्रहगारहो । 3.2.11
पापी को राजलक्ष्मी नहीं मिलती ।
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जैनविद्या
भाग्य की प्रबलता
दइवेण कालसप्पु वि सयणु। 2.14.10
भाग्यवश काला नाग भी स्वजन बन जाता है। कर्मानुसार सुख-दुःख
इह को सुत्थिउ को को दुत्थियउ । सयलुवि कम्मेण गलत्थिउ ॥ 2.4.11
इस संसार में कौन सुखी और कौन दुःखी है ? सभी कर्मों की विडम्बना में पड़े हैं। चित्त शुद्धि
सुद्धचित्त वेस वि कुलउत्ती। 3.7.10
शुद्धचित्त वेश्या भी कुलपुत्री ही है । निर्मल स्वभाव की महत्ता
रिणम्मलु कि परवइरें पडियउ। 9.7.5
जो निर्मल स्वभावी हैं वे दूसरों के प्रति वैरभाव के वशीभूत कैसे हो सकते हैं ? गुरु-शिष्य के प्रादर्श सम्बन्ध
जुत्ताजुत्तउ गुरुयणु जारणइ । सिसु दिण्णउ पेसणु संमाणइ ।। 3.7.14
योग्य अयोग्य गुरुजन जानते हैं, शिष्य तो उनकी आज्ञा का सम्मान ही करते हैं। .. संसार की निस्सारता
उज्झउं चत्तसार संसारउ । 5.11.11
संसार सारहीन और तुच्छ है । देह और स्नेह की सार्थकता
कि रणेहें वढिय सिविणेहें। 5.11.10 उस स्नेह से क्या जो स्वप्नेच्छाओं का वर्द्धक है ? कि देहें जीविय संदेहें। 5.11.10 उस देह से क्या जिसमें सदैव जीवन का संदेह बना रहता है ?
गुरणी के प्रति सद्भाव
गुणवंतउ माणुसु भल्लउ। 3. 13. घत्ता गुणवान् मनुष्य ही भला होता है ।
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जैनविद्या
विनय की महत्ता
विरणएं इंदियजउ संपज्जइ। 3.2.8 विनय से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है ।
गुरणग्रहण
सयपत्तणु सज्जणगुणगहेण, पोरिसु सरणाइयरक्खरणेण। 8.13.10 सज्जनों के गुणग्रहण से स्वजनत्व तथा शरणागतों के रक्षण से पौरुष सार्थक होता है।
जीवहितैषी भावनाओं को भी सूक्तियों में पल्लवित-पुष्पित होने दिया है। सुख-दुःख के कारणभूत संसार से छूटने हेतु क्षणभंगुरता और नश्वरता का भलीभाँति बोध कराया गया है । यौवन नाशवान् है, मरण सुनिश्चित है, अच्छी वस्तुओं का योग वियोगमयी है
णव जोव्वणु णासइ एइ जरा। 2.4.5 नव यौवन का नाश होता है और बुढ़ापा पाता है । उप्पण्णहो दोसइ पुणु मरणु। 2.4.6 जो उत्पन्न हुआ है उसका पुनःमरण देखा जाता है ? कि सम्र्गे खय संसग्गें। 5 11.9 उस स्वर्ग से क्या जिसका संसर्ग क्षयशाली है ? किं सोहग्गे पुणरवि भग्गें। 5.11.9 उस सौभाग्य से क्या जो फिर भग्न हो जाता है । रायत्तणु संझाराउ जिह। 6.4.8 राज्यत्व संध्याराग के समान है । चिंध खचिधु ण ढंकियउ। 6.4.10
ध्वजा-पताका से विनाश चिह्न ढका नहीं जा सकता। मरणकाल में कोई शरण नहीं है
को रक्खइ बलवंतहें सरणई। 5.3.4 बलवान् के चंगुल में फंसे व्यक्ति की कौन रक्षा कर सकता है ? एउ कहिं मि मरण दिण उव्वरइ। 6.4.3 मरण के दिन कहीं भी रक्षा नहीं हो सकती । सुहु रायपट्ट बंधे वसइ किं प्राउणि बंधणु ण उल्हसइ । 6.4.4 मनुष्य राजमुकुट बांधकर सुख से वास करता है तो क्या उसका आयुबंघ क्षीण नहीं होता ?
इस प्रकार के विषयों का निरूपणकर स्वहित करने के लिए सूक्तियों के माध्यम से कवि ने प्रेरणा प्रदान की है।
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विकारोत्पादक है, धन हो तो निर्धनों का तो पालन-पोषण करे किन्तु पापियों
का नहीं । पापियों को धन देना कोश को सुखाना है । धन के सम्बन्ध में कवि के विचारों में नवीनता है । वे यथार्थता को प्रकट करने में सफल हैं
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जासु प्रत्यु सो जाइ वियाहि । 3.1.19
जिसके धन है वही विकार को प्राप्त होता है ।
कुत्थिय गर पोसणु कोससोसु, इहभवि परभवि तं करइ दोसु । 4.4.4
पापियों का पोषण करना अपने धनकोष को सुखाना है, वह इस भव तथा परभव में दोष उत्पन्न करता है ।
धणु खीणु वि विहलिय पोसणेण ।
मरणु वि चंगउ सण्णासणेण ।। 8.13.8
निर्धनों के पालन-पोषण में धन व्यय तथा संन्यासपूर्वक मरण होना अच्छा है ।
संगति उन्नति के लिए प्रावश्यक है कुसंगति नहीं
होइ समुज्जवेण सुसहाएं परिसिय छत्तहय गया ।
अलसंतेरण पिसुरग जरग संगे गासइ राव संपया ॥। 3. 2. दुबई
भली भाँति उद्यम करने से एवं सन्मित्र के सहयोग से ही छत्र, अश्व और हाथियों से सहित राज-सम्पत्ति उत्पन्न होती है तथा आलस्य करने और नीच पुरुषों की संगति से वह नष्ट हो जाती है ।
मुसु रिसीह कुपरिसह संगमु होइ तेग भीसणु वसरागमु । 3.3.15 कुपुरुषों की संगति छोड़ो, उससे भयंकर व्यसनों का आगमन होता है ।
शोभा किसकी किससे
सोहइ गरवरु सच्चर वायए । 9.3.1
मनुष्य सत्य वाणी से शोभता है । सोहइ कइयणु कहए सुबद्धए । 9.3.2 कविजन सुविरचित कथा से शोभते हैं । सोहइ मुणिर्वावु मरण सुद्धिए । 9.3.9 मुनिवर मन की शुद्धि से शोभते हैं । सोहइ विहउ सपरियर रिद्धिए । 9.35 वैभव परिजनों की वृद्धि से शोभता है । सोहइ माणुसु गुण संपत्तिए । 9.3.6 मनुष्य गुणरूपी संपत्ति से शोभता है ।
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सोहइ कज्जारंभु समत्तिए। 9.3.6 कार्यारम्भ कार्य की समाप्ति से शोभता है । सोहह सहर सुपोरिस राहए। 9.37 सुभट पौरुष के तेज से शोभता है । सोहइ महिरहु कुसुमिय साहए। 9.3.7 वृक्ष फूलीहुई शाखाओं से शोभता है । विषयों की बोधक सूक्तियां भी इस चरित में उपलब्ध हैं । इनमें जीवनसुधारसम्बन्धी संकेतों का समावेश है।
मनुष्य की धन-पिपासा कैसे शान्त हो? इस हेतु सूक्तियों में कहा गया है कि अर्थसिद्धि का कारण धर्म है। धर्म से ही पापों का क्षय तथा नाना प्रकार की संपत्तियां प्राप्त होती हैं
धम्में विण ण प्रत्य साहिन्जह । 3.2.13 धर्म के बिना अर्थसिद्धि नहीं होती। किरण पाउ धम्में खविउ । 6.5.6 धर्म से किस पाप का क्षय नहीं होता ?
वह धर्म कौनसा है जिससे ऐसा होता है ? इस प्रश्न के समाधान हेतु नीतियों में अहिंसामयी धर्म को प्रधानता दी गई है
धम्मु अहिंसा परमु जए। 9.13 पत्ता अहिंसा धर्म ही श्रेष्ठ है।
इस प्रकार जीवन में धर्म के महत्त्व का प्रतिपादन कर कवि ने धर्म की उपादेयता सिद्ध की है ।
नीतिपूर्ण सूक्तियों में ऐसे तथ्यों को भी उद्घाटित किया गया है जिनसे कि लोग सामान्य व्यवहार का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर सकते हैं और परस्पर में प्रेमभाव बनाये रख सकते हैं । मनुष्यों का कर्तव्य है
जण ण तव चरण, किउ दुहहरणु, विसए ण मणु पाउंचिउ ।
प्ररहु ग पुज्जियउ, मल वज्जियउ, ते अप्पारणउ, ते वंचिउ ।। 2. घत्ता 6 जिसने दुःखहारी तपश्चरण नहीं किया, विषयों से मन को नहीं खींचा एवं
दोषरहित अर्हन्त को नहीं पूजा उसने अपने को ही ठगा है । परिजनों को कैसे सन्तुष्ट किया जावे ?
परियणु दाणे संतोसिज्जइ । 3.3.10
परिजनों को दान से संतुष्ट करे । विघ्न के सम्बन्ध में योग्य परामर्श
उवसग्गु वि हवंतु णासिज्जइ । 3.3.10 विघ्न उत्पन्न होते ही उसका विनाश करना उचित है ।
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लक्ष्मीलम्पटी और खल कैसे होते हैं ? सिलिंडहँ गत्थि कारुण्णउ । 3.15.3 लक्ष्मीलम्पटों के करुणा नहीं होती । खलु गायous पिय जंपियाइँ । 4.8.3 खल मनुष्य प्रिय वाणी नहीं सुनता ।
क्षुद्र का स्वभाव
खुद सहुँ कि पियजपिएन ।
सत्तच्चिहें कि धि धिए ।। 4.9.10
क्षुद्र मनुष्य के साथ प्रियवचन बोलना उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे अग्नि में घृत
डालना ।
आदि ऐसे विषय हैं जिनसे सुखपूर्वक जीवन-यापन के लिए योग्य निर्देश प्राप्त होते हैं। ऐसा भी कथन प्राप्त होता है कि तप यद्यपि कष्टसाध्य है परन्तु है वह उपादेय ही, हेय नहीं -
क्ख वि चंगउ सुतवें करण । 8.13.7
सुतप करने से दुःख भी हो तो भी भला है ।
अतः गायकुमारचरिउ की सूक्तियों के साक्ष्य में कहा जा सकता है कि सूक्तियों के रूप में जीवनोपयोगी, कल्याणकारी, दिशाबोधक बहुमूल्य सामग्री देकर कवि ने न केवल सूक्तिसाहित्य को समृद्ध किया है अपितु भारतीय वाङ्मय की समृद्धि में भी चार चाँद लगाये हैं ।
1.
जैनविद्या
2.
सतसइया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर । देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥ यथा महार्घ्यरत्नानां प्रसूतिमंकराकरात् । तथैव सूक्तरत्नानां प्रभवो स्यात्पुराणतः । सुदुर्लभं यदन्यत्र चिरादपि सुभाषितम् । सुलभं स्वरसंग्राह्यं तदिहास्ति पदे पदे ।।
आचार्य जिनसेन, महापुराण - 2.116 और 122
3. सुभाषितमहामन्त्रान् प्रयुक्तान्कविमन्त्रिभिः । श्रुत्वा प्रकोपमायान्ति दुर्ग्रहा इव दुर्जनाः ।।
महापुराण - वही, 1.88
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यशोधर का प्राख्यान गुरुकुल में व्याख्यान
-श्री नेमीचंद पटोरिया
हस्तिनापुर के प्रसिद्ध गुरुकुल के प्राचार्य सुनीतिजी बोले-हे विद्याप्रिय बटुको ! मैंने तुम्हें इसके पहिले कवि पुष्पदंत की दो महान् रचनाओं अर्थात् “महापुराण" और "नागकुमारचरित्र" (णायकुमारचरिउ) के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है। भाज मैं उनकी तीसरी कृति “यशोधरचरित" (जसहरचरिउ) के सम्बन्ध में कुछ कहूंगा।
यशोधर-चरित (जसहरचरिउ) अपभ्रंश भाषा की उत्तम कृति मानी जाती है । यह न महाकाव्य है और न खण्डकाव्य । इसमें केवल प्रधानतः एक व्यक्ति यशोधर का चरित्रचित्रण है इसलिए "यशोधरचरित" (जसहरचरिउ) एक चरित-काव्य ग्रंथ है । यद्यपि यह ग्रंथ कवि पुष्पदंत के सब ग्रंथों में छोटा है किन्तु अपने ध्येय में बहुत ऊंचा है।
___ इसकी कथा एक व्यक्ति यशोधर के आसपास मंडराती है। मूल नायक के एक जन्म की ही नहीं, अनेकों जन्मों की कहानी उनके जीवन के चारों ओर से लिपटी है । इस कथानक के द्वारा कवि ने धर्म, त्याग व अहिंसा का दिव्य संदेश व उपदेश मुखरित किया है। ग्रंथ के पाख्यान को मैं संक्षेप में सुनाता हूं
_ यौधेय देश का नरपति मारिदत्त है। उसकी राजधानी राजपुर प्रति समृद्ध और मनोहर है। यद्यपि राजा अनेक भोग-विलासों में डूबा रहता है, फिर भी उसकी नयी-नयी भोगेच्छा उसके हृदय में उमड़ती-घुमड़ती रहती है। वह सोचता है और चाहता है कि उसे
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जनविद्या
आकाश-गामिनी विद्या मिल जावे जिससे आसपास के राजाओं के महलों व अंतःपुरों में चुपचाप जा सके व नव-यौवन-सम्पन्न नवनीतांग राजकुमारियों व रूप-सम्पन्न नारियों से विषयभोग का आंनद ले सके, साथ ही अपनी विद्या के बल से स्वयं सुरक्षित रह सके । उसकी यह चाहना उत्कट होती गई। इसके लिए वह मंत्र-वादियों, ऋद्धिधारी-योगियों, अघोरियों, कापालिकों व याज्ञिकों की खोज में रहता है ।
___ एक दिन विचित्र वेश-भूषा में बना-ठना, ऊंचे पूरे कद का भैरषानन्द नाम का एक कापालिक राजसभा में आता है और वह अपनी ऋद्धि-सिद्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण कथनी से वर्णन करता है तथा राजा मारिदत्त को आकाश-गामिनी विद्या प्राप्त कराने का वायदा करता है लेकिन इसके लिए वह राजा से चंडमारी देवी की विशेष पूजन व अनुष्ठान विधि की आवश्यकता बताता है । उस अनुष्ठान में जलचर, थलचर व नभचर के जीव-मिथुनों की बलि दी जायगी । बलि में एक सुन्दर अविकलांग नवयुवक व एक सुन्दरी नवयुवती की प्रारम्भ से ही मावश्यकता होगी। राजा की आज्ञानुसार राज-कर्मचारी सब जीव-मिथुनों को एकत्र करते हैं और योग्य नर-मिथुन की तलाश करते हैं। उसी समय उस नगर के एक उपवन में मुनि सुदत्त का संघ ठहरा था । संघ के क्षुल्लक अभयरुचि और क्षुल्लिका अभयमति नगर में आहार को जा रहे थे । तभी उनकी नूतन वय व सर्वांग-मनोहर अवयवों को देखकर राजकर्मचारी उन्हें पकड़ते हैं और राजा के पास ले जाते हैं। राजा भी ऐसी अनिन्द्य आकर्षक प्राकृति को देखकर विस्मित हो जाता है, फलतः उनसे उनका परिचय जानने की इच्छा प्रकट करता है।
..तब नवयुवक क्षुल्लक ने बोलना प्रारम्भ किया- "हे राजन् ! आपने अवन्तिका के नृपति जसबंधु का नाम सुना होगा। उनकी रानी का नाम था चंद्रमति । मैं उन दोनों का पुत्र यशोधर था । शस्त्र-शास्त्र विद्या में पारंगत जब मैं नवयौवन की देहली पर पहुंचा तो मेरा विवाह विदर्भ देश की राजकुमारी अमृतमति से कर दिया गया । फिर मेरे पिता मुझे राज्य सौंपकर तप करने चले गये । मेरी पत्नी प्रति रूपवती और मधुर भाषिणी थी। मैं उस पर अत्यन्त आसक्त था। एक रात जब मैं अपने महल के शयनागार में अपनी रानी के साथ सो रहा था, तो मुझे सोता समझ मेरी रानी सेज से उठी और कहीं जाने लगी। मेरी नींद भी उचट गई और मैं भी हौले-हौले उसी के पीछे हो लिया। मैंने देखा कि वह अपने एक कुबड़े प्रेमी के पैरों पर गिड़गिड़ा रही है और उसका प्रेमी देर से आने पर उसे ठोकर से हटा रहा है। रानी की कुछ मिन्नतों के बाद वे दोनों प्रालिंगन-बद्ध हो गये और प्रेमलीला में खो गये । यह देखकर मैं अपना आपा खो बैठा। मैं तलवार से दोनों का काम तमाम कर देना चाहता था, पर स्त्री-हत्या राजपूतों में वर्जित है, साथ ही इसमें महल की बदनामी का भी अंदेशा पाया, तो मैंने वध का विचार बदल दिया और पुनः सेज पर प्राकर नींद का बहाना करके लेट गया। मैंने इस बात को किसी से नहीं कहा। मेरा मन उदास हो गया। मुझे उदास देख माता ने इसका कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि मैंने रात में एक भयानक स्वप्न (खोटा स्वप्न) देखा है और मैं अब राज-काज छोड़ दीक्षा लेना चाहता है। इस पर मेरी मां ने ममता से मुझे ऐसा करने से स्पष्ट मना कर दिया व दुःस्वप्न की शांति हेतु
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राजपुरोहित की सलाह से जीव-बलि कराने का आग्रह करने लगी। मैंने बहुत समझाया व जीवबलि न करने की मेरी प्रतिज्ञा को सुन उसने आटे के मुर्गा-मुर्गी की बलि देने का आयोजन किया, जिसका विरोध मैं नहीं कर सका। इस आयोजन व दुःस्वप्न की बात मेरी रानी अमृतमति समझ गयी कि मैंने उसके पाप को देख लिया है तो उसने एक चाल खेली । उसने मेरे सम्मानार्थ समूचे रनिवास में एक प्रीति-भोज का आयोजन किया। मुझे व मेरी माता को भी निमंत्रण मिला, जिसे हम अस्वीकार न कर सके। प्रीति-भोज के विशेष लड्डुओं में उसने जहर मिलाया था वे लड्डू मुझे और मेरी माता को परोसे गये थे। लड्डू खाकर मेरी माताजी परलोक सिधार गई और मैं बेसुध होकर गिरा किन्तु कुछ होश था। मेरी भार्या अमृतमति ने मेरी छाती पर चढ़कर मेरा गला घोंट दिया। फल-स्वरूप में भी पंचतत्त्व में समा गया। यह सब देख कर मेरा पुत्र भी मूच्छित हो गया। मंत्रियों ने मेरे पुत्र जसवई को समझा-बुझाकर राज-तिलक के लिए राजी किया क्योंकि राज्य बिना राजा के सूना मामा जाता है । धूम-धाम से मेरे पुत्र का राजतिलक हुआ। मर कर मैं कर्मोदय से मोर तथा मेरी मां मोरनी के पर्याय में उत्पन्न हुए।
हम वन में भ्रमण कर रहे थे तो एक शिकारी ने हमें पकड़ कर कोतवाल के हवाले किया और कोतवाल ने राजा को दिया। वहीं महल में हमें रखा गया । वहां रानी अमृतमति को अपने प्रेमी से केलि करते देख मैं रानी के ऊपर झपटा । रानी ने मेरी टांग तोड़ दी व कुत्तों से उसने हम दोनों का सफाया करा दिया। हम दोनों मर कर सांप व नेवला हुए फिर कुत्ता व मछली हुए। इस प्रकार नाना योनियों में हमने विचरण किया और कष्ट उठाये । उधर रानी अमृतमति की बुरी दुर्दशा हुई। उसे गलित कोढ़ हुआ। उसका शरीर गल गल कर गिरा और वह बड़े दुःख से मर कर नरक में गई। हम फिर मुर्गा-मुर्गी हुए और एक वन खण्ड में कोतवाल के द्वारा पकड़े गये । उसी वन में एक मुनि से कोतवाल की भेंट हुई । मुनि ने हमारे जन्म-जन्मान्तरों की कथा सुनाई कि हमारा जीव यशोधर व मुर्गी का जीव राजमाता था। ऐसा जानकर कोतवाल ने हमें तुरन्त मुक्त कर दिया। हमें भी अपना सब जाति-स्मरण हो गया । हम मुक्त तो हुए किन्तु शीघ्र ही उस समय के राजा के शब्द-भेदी-बाण से हम हत कर दिये गये । मर कर हम दोनों अपने पुत्र राजा जसवई की रानी कुसुमावली के गर्भ में पुत्र और पुत्री युगलरूप उत्पन्न हुए। मेरा नाम अभयरुचि रखा गया और मेरी बहन का नाम अभयमति हुआ। वहीं महल में हम दोनों बड़े हुए। हम दोनों बहुत सुन्दर थे। मैंने राजकीय सभी विद्यायें सीख ली और पिता राजा जसवई ने पूर्ण योग्य समझकर मुझे युवराजपट्ट बांधने का शुभ संकल्प किया। शानदार राजकीय भोज के हेतु मांसादि लाने मेरे पिता 500 शिकारी कुत्तों के साथ वन में मृगया के लिए निकले ।
वन में एक वृक्ष के नीचे एक नग्न मुनि को बैठे देखकर राजा ने विचारा कि शुभ काम के प्रारम्भ में यह नंगा अपशकुनरूप क्यों मेरी दृष्टि-पथ में आया ? इससे उसने खूख्वार कुत्तों को मुनिवर का नाश करने भेजा किन्तु वे कुत्ते मुनिराज के समीप जाकर शांत हो गये तो राजा और भी क्रोधित हुआ और तलवार लेकर मुनिराज को मारने दौड़ा किन्तु बीच में
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ही एक वणिकवर खड़े हो गये और राजा से परम दयालु मुनि को मारने के लिए मना किया। साथ ही साथ कहा कि ऐसे तपस्वियों को तो पापको प्रणाम करना चाहिये । मुनिराज के पास अनेकों ऋद्धियां और सिद्धियां हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं जिससे वन के भयानक पशु सर्पादि उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं । आप ही देखिये कि आपके खूस्वार कुत्ते मुनिराज के समीप कसे शांत बैठे हैं। राजन् ! यह परम पूज्य मुनि सदत्त नाम के हैं जो दीक्षा से पहिले कलिंग देश के राजा थे । ऐसा सुन राजा ने सभक्ति मुनि की वन्दना की। राजा के पूछने पर मुनिवर ने राजा को पूर्व भवों की कथा सुनाई तो राजा का हृदयपरिवर्तन हो गया। .... राजा ने अपने को सुधारने का संकल्प किया। इससे उसने मुनिराज से प्रार्थना की कि वे उसे दीक्षित कर अपना शिष्य बनावें । मुनिराज ने कहा-राजन् ! पहिले अपना राज्य राजकुमार को सौंपो व जितने उलझे काम हैं उन्हें सुलझाकर, अपने निकट सम्बन्धियों से अनुमोदना प्राप्त कर निर्द्वन्द्व हो मेरे पास प्रावो फिर तुम्हें उचित दीक्षा दूंगा। फलतः अभयरुचि ने कहा कि राज्य का भार मुझे सौंपा गया और मेरे पिता वन में उन मुनि के पास आत्मोद्धार हेतु चले गये। मेरा मन भी राज काज में नहीं लगता था। मैं हमेशा उदासीन रहता था, भोग-विलास में रुचि नहीं थी। मैंने अपने छोटे भाई को राज्य सौंप दिया और जब राजभवन से दीक्षार्थ निकला तो मेरी बहिन राजकुमारी अभयमति भी दीक्षार्थ मेरे साथ हो ली। बस, इस प्रकार हम दोनों की उतार-चढ़ाव भरी ये जीवनगाथाएँ हैं ।
कथा सुनकर राजा मारिदत्त का कठोर हृदय भी पिघल गया। उसने मेरे गुरु मुनि के दर्शन की सदिच्छा व्यक्त की और मुझसे गुरु के दर्शन कराने की प्रार्थना की। मैं उसे अपने मुनि महाराज के पास ले गया। मुनिराज ने राजा मारिदत्त के पूर्व-जन्म जब बताये तो वह गद्गद हो गया व दीक्षा ग्रहण कर ली। फिर क्या था, परम मुनि के प्रभाव से राजमहल के बालक-बालिकानों तक ने कठोर व्रत लिये । उनके राजगुरु, चंडीदेवी के पुजारी व भक्तों तक ने दीक्षा ली, समूचा हिंसा का दृश्य दया और त्याग में बदल गया।
प्रिय बटुको ! इसी कथानक के पुष्प-माल को कवि पुष्पदंत ने अपनी पटुता से ऐसा गूंथा कि शब्दावली के सुन्दर कुसुमों से सज्जित, साहित्य अलंकारों से मंडित, शांति रस से सराबोर तथा वैराग्य और अहिंसा की सुरभि से वह सम्पूर्ण काव्यमाल गमगमाती है। ऐसी कथानक-पुष्प-माल सदियों से विद्वज्जनों को प्रिय लगी है और लगती रहेगी।
मैंने प्रारम्भ में ही व्यक्त कर दिया था कि जसहरचरिउ लघु काव्य है। इस काव्य में केवल 4 (चार) संधियां और 138 कडवक हैं तथा 2114 पद हैं। इसमें प्रत्येक कडवक का प्रारम्भ दुवई-छंद से हुआ है। कडवक के अन्त में घत्ता का ध्रुवक दिया गया है। संधि 2, 3, 4 के प्रारम्भ में कवि के प्राश्रयदाता श्री नन्न की प्रशंसा संस्कृत पद्य में की गई है।
___एक ब्रह्मचारी (खड़े होकर) बोला- "गुरुदेव ! जानने की इच्छा है कि क्या यशोधर पाख्यान कवि पुष्पदंत की काल्पनिक कृति है या इसका कुछ प्राधार भी है ?"
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प्राचार्य-"प्रिय बटुक ! तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है। यह यशोधरचरित का आख्यान कवि की कल्पना-प्रसूत कृति नहीं । इसका आधार पूर्व परिचित लगभग 75 रचनाएं हैं जिनमें यह कथानक वर्णित है। जिनमें 29 रचनाएं ऐसी हैं जिनमें कवि या रचयिता के नाम भी हैं। ये रचनाएं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल आदि भाषाओं में हैं । श्री सोमदेव कृत "यशस्तिलक" (सन् 959 ई० की रचना) इसका प्रधान आधार है । पुष्पदंत ने श्री सोमदेव का ही अनुसरण किया है। यद्यपि यह आख्यान बहुत पहिले ही लोकप्रिय रहा है । हां, कवि पुष्पदंत ने इसमें अपनी मनोहर काव्यशैली से नूतन लोच व आकर्षण का पुट डाला है जिससे यह उत्तम काव्य-चरित बन गया है ।
दूसरा ब्रह्मचारी-"गुरुदेव, बतायेंगे कि आख्यान या चरित-काव्यों में किन तत्त्वों का समावेश होता है ? और क्या वे सब तत्त्व यशोधरचरित में विद्यमान हैं ?"
प्राचार्य-"प्रिय शिष्य ! चरितकाव्य में निम्नलिखित तत्त्वों का होना आवश्यक
आ
hc
- 1. नायक के पूर्वजन्मों का परिचय,
2. उसके वर्तमान जन्म के कारण, 3. नायक के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनायें, 4. कथा-सम्बन्धित देश, नगर, युद्ध आदि का वर्णन, 5. अनेक घटनाओं को एक में गुम्फित करने की कला, 6. चरितग्रंथों में प्रलौकिक, अप्राकृतिक तथा प्रमानवीय घटनाओं व शक्तियों का
वर्णन । .. ये सब तत्त्व "यशोधरचरित" में स्पष्टतः मनोहर ढंग से पाये जाते हैं।"
तीसरा ब्रह्मचारी-"गुरुदेव ! कृपा कर यह बतावें कि यह यशोधर-चरित या आख्यान कवि पुष्पदंत द्वारा कब लिखा गया ?
___प्राचार्य-"प्रिय शिष्य ! इस पाख्यान का रचनाकाल मुझे पहले ही कहना चाहिये था। तुमने यह अच्छा प्रश्न पूछ लिया। प्रिय शिष्यो ! पहले दिन मैंने तुम लोगों को बताया था कि “महापुराण" की रचना-समाप्ति सिद्धार्थ संवत्सर में आषाढ़ शुक्ल दशमी को हुई थी । ईस्वी सन् की गणना के अनुसार वह रविवार सन् 965 ई० होता है, और यशोधरचरित की रचना सबसे पीछे हुई। विद्वानों ने सब घटनाओं पर विचार कर इसे सन् 975 ई० की माना है। अतः यह रचना आज से एक सहस्र वर्ष से कुछ अधिक पुरातन है।
कोई एक अन्य शिष्य-"गुरुदेव, क्या कवि की अच्छी ख्याति उनके जीवन काल में
ही हो गई थी?"
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जैन विद्या
आचार्य - " तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैं ग्रंथ - प्रमाण सहित देना श्रेष्ठ समझता हूँ । कवि की विशेष कीर्ति या ख्याति न होती तो वे अपने लिए ऊँचे विशेषण न लगाते । देखो ये विशेषण -
38
अभिमानमेरु
1.1.4
अभिमान-चिह्न
4.31.6
कविकुल-तिलक
1.8.17
सरस्वति-निलय
1.8.16
महाकवि
38.2.2
सकल-कलाधर
38.2.8
सरस्वति - विलास
102.14.4
गुण-गरण-निधान
1.6.5
99
इतने प्रचुर और उच्च विशेषरणों से सिद्ध होता है कि उस समय के विद्वज्जन उन्हें कवि के लिए प्रयुक्त करते थे । कवि के जीवनकाल में ही कवि की विशेष ख्याति फैल चुकी थी ।
सहचरि
1.
13
'
2.
3.
"
13
महापुराण
"
अब मैं काव्य-कलापक्ष के विषय में दो शब्द कहना आवश्यक समझता हूँ
रस- इस जसहरचरिउ ( यशोधर चरित) में वैसे तो सभी रसों के छींटे पड़े हैं पर प्रधानतः वैराग्य रस (शांत रस) और वीभत्स रस का प्रभाव ज्यादा है। बुढ़ापे की दुर्दशा (1.28) और मनुष्य शरीर की प्रकृति (2.11 ) विशेष पठितव्य हैं ।
99
लंकार — कवि ने अलंकारों का अपने काव्य में यथोचित उपयोग किया है । शब्दालंकारों में उपमा, यमक और श्लेष का सुन्दर उपयोग हुआ है । अर्थालंकारों में उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक और संदेह अलंकारों ने अपना सुस्थान बना लिया है ।
छंद -- अधिकांश रचना पज्झटिका और अलिल्लाह छंदों में हुई है। वैसे तो मात्रिक छंदों में दुवई और घत्ता का खूब प्रयोग हुआ है । वरिंगक छंदों में सोमराजी, समानिका और भुजंगप्रयात का उपयोग कवि ने जहां-तहां किया है। रचना में अनेकों प्रकार के छंद व्यवहृत हैं ।
इस प्रकार, हे प्रिय शिष्यो, मैंने जसहरचरिउ या यशोधर श्राख्यान के सम्बन्ध में कुछ बताया है । वास्तविक श्रानन्द तो मूल कविता के पठन से ही प्राप्त होगा ।
महाकवि पुष्पदंत, चिन्मय प्रकाशन, पृष्ठ 101 महाकवि पुष्पदंत, चिन्मय प्रकाशन, पृष्ठ 98
जसहरचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रस्तावना पृष्ठ 51
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जसहरचरिउ
का काव्य-वैभव -श्री जवाहिरलाल जैन
अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुप्फयंत (पुष्पदंत) की तीन रचनाएँ-महापुराण, णायकुमारचरिउ तथा जसहरचरिउ प्राप्त हैं। इनका समय ईस्वी सन् की दसवीं शताब्दी है और स्थान महाराष्ट्र-कर्नाटक । इनकी काव्यरचना राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट में हुई । वह गौरवपूर्ण समय कृष्णराज तृतीय का था जिसने मद्रास और आन्ध्र पर आक्रमण कर टोंड मंडल जीता और चोल नरेश राजराज को मारा। यह घटना 949 ई० की है। इसके विपरीत तेईस वर्ष बाद ही कृष्णराज के पुत्र के समय धारा के हर्ष परमार ने मान्यखेट को लूटा और जलाया। यह घटना 972 ई० की है। पुष्पदंत की तीनों रचनाएँ इस चढ़ाव-उतार के समय की हैं । संभवतः इस दुर्घटना का ही उल्लेख उन्होंने इस ग्रंथ के अन्तिम कड़वक (परिच्छेद) में किया है
जणवयणीरसि, दुरियमलीमसि। करिणदायरि, दुस्सहदुहरि ।
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जैनविद्या
परियकवालइ, परकंकालइ । बहुरंकालइ, अइबुपकालइ । पवरागारि, सरसाहारि। . सहिं चेलि, वर तंबोलि । महु उवयारिउ, पुणि पेरिउ । गुणभत्तिल्लाउ, गणुं महल्लउ ।
होउ चिराउसु,. .... 4.31.13-21 अर्थात् - इस समय देशवासी नीरस हैं। दुष्कृत्यों से मलीन हैं। कवियों के निंदक हैं । देश में दुःसह दुःख व्याप्त है। जहां-तहां नरकंकाल तथा कपाल पड़े दिखाई देते हैं । अधिकांश घरों में दरिद्रता व्याप्त है। ऐसे दुष्काल में गुणग्राही महामन्त्री नन्न ने मुझे अपने महल में रखकर सरस आहार, चिकने वस्त्र और तांबूल से मेरा बहुत उपकार किया और इस कार्य में प्रेरित किया । वे चिरायु हों । अंत में उन्होंने यह भी कहा है
जय यय जिरणवर । जय भय मय हर। विमलु सुकेवलु। गाणु समुज्जलु।
महु उप्पज्जउ । एत्तिउ दिज्ज। 4.31.28-30 अर्थात्-जिनेन्द्र की जय हो । भय और मद का हरण करनेवाले महापुरुषों की जय हो । मुझे विमल और उज्ज्वल केवल-ज्ञान की प्राप्ति हो । मैं इतना ही
यह महाकवि की अन्तिम कृति प्रतीत होती है। इस काव्य के नायक यशोधर का चरित्र भारतीय भाषाओं में बहुत लोकप्रिय रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ के विद्वान् संपादक डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य ने 29 रचनाओं का उल्लेख किया है जो दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक लिखी गई । इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल और हिन्दी भाषाएँ समाविष्ट हैं, जिनमें इस ग्रंथ के अतिरिक्त सोमदेव कृत यशस्तिलक और वादिराज कृत यशोधर चरित्र प्रकाशित हो चुके हैं। इन उन्तीस ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन, कथावस्तु, इतिहास, काव्य, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध हो सकता है।
कथावस्तु इतनी ही है कि उज्जैन का राजा यशोधर और उसकी माता चंद्रमती प्राटे का मुर्गा बनाकर देवी के आगे उसका बलिदान करते हैं। फलतः विषखाद्य से उनकी मृत्यु होती है और वे दूसरे जन्मों में मयूर और श्वान, नकुल और सर्प, मत्स्य और सुंसुमार, दोनों प्रज, फिर अज और महिष, फिर दोनों कुक्कुट होते हैं। अंत में कुछ सुसंस्कारों
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नविद्या
के कारण वे उसी उज्जैन राजकुल में भाई-बहन के रूप में जन्म लेते हैं। धार्मिक जीवन व्यतीत करके वे फिर क्षुल्लक और क्षुल्लिका हो जाते हैं। फिर यौधेय देश की राजधानी राजपुर में वे चण्डमारीदेवी के सम्मुख राजा मारिदत्त द्वारा नरबलि हेतु उपस्थित किये जाते हैं । क्षुल्लक-क्षुल्लिका के साथ वार्तालाप से राजा की दृष्टि बदल जाती है। हिंसा पर अहिंसा की विजय होती है। इसी कथानक का विकास और विस्तार इन सब कथाओं में
हुआ है।
पुष्पदंत ने इस कथा को अधिक नाटकीय बनाने की दृष्टि से काव्य का प्रारम्भ यौधेय देश तथा उसके राजा मारिदत्त से किया है जो भैरवानन्द नामक कौलाचार्य के प्रभाव से चण्डमारी देवी के मंदिर में बलि के निमित्त नर-मिथुन की खोज में हैं। इस खोज में क्षुल्लक युगल पकड़े और मन्दिर में लाये जाते हैं। क्षुल्लक के संबोधन से राजा विचार में पड़ जाता है और उनका वृत्तान्त जानना चाहता है। तब क्षुल्लक अवंति के राजा यशोधर, उसकी माता तथा उनके भवांतरों का वर्णन करता है। अनेक जन्मों के पश्चात् पुनः यशोधर और चंद्रमती का अपने पुत्र के यहां अभयरुचि तथा अभयमति के नाम से भाई-बहिन के रूप में जन्म होता है। वे ही क्षुल्लक और क्षुल्लिका हैं। इसे सुनकर राजा मारिदत्त को पश्चात्ताप होता है । अंत में मारिदत्त दीक्षा ले लेते हैं, भैरवानंद अनशन व्रत धारण करता है और चण्डमारी देवी सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाती है। ये सब स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।
प्रक्षेपांश
इस काव्य की एक विशेषता यह है कि रचना के लगभग तीन शताब्दी बाद कृष्ण-पुत्र गन्धर्व कवि ने पट्टन निवासी बीसल साहू के आग्रह पर इस काव्य में भैरवानंद के राजकुल में प्रवेश, यशोधर के विवाह तथा सब पात्रों के भव-भ्रमण के वर्णन जोड़ दिये । गन्धर्व ने यह रचना वत्सराज द्वारा लिखित वस्तुबन्ध काव्य के आधार पर वि. सं. 1365 में सम्पन्न की । गन्धर्व ने तीन शताब्दी के बाद जो अंश जोड़े उनका प्रत्येक स्थान पर अत्यन्त प्रामाणिकता से उल्लेख किया है। प्रथम संधि के आठवें कडवक की पन्द्रहवीं पंक्ति में कहा गया है
गन्धब्बु भणइ मई कियउ एउ। णिवजोईसहो संजोयमेउ । घत्ता-प्रगइ कइराउ पुष्फयंतु, सरसइणिलउ ।
देवियहि सरूउ वणइ, कइयणकुलतिलउ ।
1.8.15
अर्थात्-गंधर्व का कथन है कि मैंने ही राजा और योगी के संयोग का वर्णन किया है । इसके आगे सरस्वती-निलय तथा कविकुलतिलक कविराज पुष्पदंत देवी के स्वरूप का वर्णन करते हैं। यह प्रक्षेपांश पहली संधि के पांचवें से लेकर आठवें कड़वक तक है।
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जैन विद्या
दूसरा प्रक्षेपांश यशोधर के विवाह वर्णन का इसी संधि के चौबीसवें से लेकर सत्ताईसवें कड़वक तक है, जिसका अंत इस प्रकार है
जं वासवसेरिंग पुव्वि रहउ । तं पेक्खिवि गंधव्वेर कइउ ।
अर्थात् - पूर्वकाल में जो रचना वासवसेन ने की थी उसे देखकर गंधर्ब ने यह कथन किया है । खेद की बात है कि वत्सराज की रचना अभी तक अप्राप्य है ।
42
तीसरा प्रक्षेपांश चौथी संधि के बाईसवें कड़वक के अंत से लेकर तेतीसवें कड़वक के अंत तक है । तीसवें कड़वक में गंधर्व कवि ने इन प्रक्षेपों का पूरा वर्णन लिख दिया है । वे कहते हैं कि प्राचीन काल में जिसे कवि ने वस्तु छन्द में लिखा था, उसे मैंने यहां पद्धड़िया छंद में लिख दिया है । पात्रों के भवांतरों का यह वर्णन कृष्ण के पुत्र गंधर्व ने एकाग्रचित्त होकर किया है । इसका मुझे दोष न दिया जाय क्योंकि पूर्वकाल में जो रचना कवि वच्छराज ने की थी उसी का सूत्र मैंने ग्रहण किया है ।
ये अंश इस काव्य में इस बुद्धिमानी से जोड़े गये हैं कि इस ग्रन्थ के सम्पादक डा० वैद्य तथा डा० हीरालाल जैन दोनों चाह कर भी इसे अलग नहीं कर सके क्योंकि वैसा करने पर यह काव्य अपूर्ण और असंबद्ध रह जाता। इसलिए इन्हें इस काव्य का अविभाज्य अंश ही माना जाना चाहिये ।
महाकाव्य
• कवि गंधर्व के शब्दों में "सरस्वतीनिलय", "कविकुलतिलक", "कविराज” पुष्पदंत की यह सुन्दर रचना साहित्य दर्पण में इंगित महाकाव्य के लगभग सभी लक्षणों से युक्त है और इसमें शान्त, करुणा, श्रृंगार और वीर रस का तो परिपाक हुआ ही है, साथ ही अद्भुत, भयानक और वीभत्स रसों का भी इसमें पर्याप्त समावेश है । देश, काल और परिस्थिति तथा भावों का वैविध्य दर्शनीय है । छन्द, अलंकार, रस, भाव, शब्द सभी काव्यगुणों से उनकी रचना श्रोतप्रोत है । उपमा औौर उत्प्रेक्षा की तो मानो वे झड़ी ही लगा देते हैं ।
संधियों को अनेक
घत्ता छंद रहता है।
कभी-कभी कड़वक
रचना शैली अपभ्रंश काव्यों की अपनी विशिष्ट है। अनेक संधियों में विभाजित किया जाता है और कड़वक में अनेक प्रर्धालियां और अंत में एक प्रारंभ में दुवई छंद भी रहता है। स्वयंभू और पुष्पदंत दोनों की सभी रचनाएँ इसी शैली में हैं । स्वयंभू के कथनानुसार यह शैली उन्हें चतुर्मुख से प्राप्त हुई थी । हिन्दी में जायसी और तुलसीदास ने चौपाई तथा दोहा छंदों में इसी शैली का प्रयोग किया है ।
इसके अनुसार काव्य को
कड़वकों में । प्रत्येक
इस महाकाव्य में अधिकतर पज्झटिका (पद्धडिया) और अलिल्लह ( अडिल्ल) छंदों का उपयोग किया गया है । घत्ता छंद 24, 28 और 31 मात्राओं के विभिन्न संधियों में
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जनविद्या
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प्रयुक्त हुए हैं । 28 मात्रा के दुवई छंद के अतिरिक्त कहीं-कहीं 5 तथा 8 मात्राओं के छंद तथा 16 और 20 मात्राओं के पादाकुलक और मंजुतिलका छंदों का भी उपयोग किया गया है । वणिक छंदों में 6 वर्णों के सोमराजी के अतिरिक्त 8 तथा 12 वर्णों के छंदों का भी प्रयोग हुआ है । पुष्पदंत की जिह्वा पर मानो सरस्वती विराजमान है। वे विभिन्न प्रकार के छंदों का प्रयोग बहुत सरलता से करते हैं । कथा कहते जाते हैं और काव्य-रसिकों को मुग्ध करते जाते हैं। वर्णन वैचित्र्य
कथा का प्रारम्भ चतुर्विंशति स्तुति से होता है। यह स्तुति दिगम्बर जैन समाज में इतनी लोकप्रिय है कि इसे नित्य पूजा में देव पूजा की जयमाल के रूप में स्थान प्राप्त है । इसका प्रारंभ ऋषभदेव की वंदना के घत्ता छंद से होता है
वत्ताणहाणे, जण घणवाणे, पई पोसिउ तुहुँ खत्तधर ।
सवचरणविहाणे, केवलणावं, तुहुँ परमप्पउ परमपर । बारह अर्धालियों में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने के पश्चात् अंत पुनः निम्नलिखित घत्ता से होता है
इह जाणियणामहि, कुरियविरामहि परिहिवि णविय सुरावलिहिं । पणिहणहि प्रणाइहि समियकुवाइहि पणविवि परिहंतावलिहि ॥
1.2 पत्ता अर्थात्-मैं उन अरिहंतों को प्रणाम करता हूँ जिनके नाम विख्यात हैं, जो पापों का शमन करनेवाले हैं, देवों से वंदित हैं, अनादि निधन हैं तथा कुवादियों को शांत करनेवाले हैं। यौधेय देश और राजपुर
फिर उन्होंने यौधेय देश तथा उसकी राजधानी राजपुर का वर्णन किया है
जोहेयउ गामि अत्यि बेसु, गं धरणिए परियउ विश्ववेसु । जहिं चलई जलाई सविम्भमाई, णं कामिणिकुलई सविम्भमाई।. .. भंगालई गं कुकइत्तणाई, जहि गोलणेत्तणिबई तणाई।
कुसुमियफलियई जहि उववणाई, णं महिकामिणिणवमोठवणाई। 1.3.4-7
अर्थात् -- यौधेय नाम का देश है मानो धरा ने दिव्य रूप धारण किया हो । नदियों में भंवर पड़ता हुआ जल ऐसे प्रवाहित था मानो कामिनी समूह हाव-भाव दिखाते चल रहा हो । नीले बंधनों से युक्त ,गों सहित घास के पूले ऐसे थे मानो नीले नेत्रों से युक्त कामुक स्त्रियों के संबंध में कुकवियों की कविताएँ । वहाँ के उपवन फल-फूलों से परिपूर्ण थे मानो महीरूपी कामिनी का नया यौवन हो।
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जैन विद्या
कयसहि कण्णसुहावरहि, कणइ व सुरहरपारावरहि । सरहँसई जहिं णेउरवेण, मउ चिक्कमति जुबईपहेण । णं वेढिउ वहुसोहग्गभार, गं पुजीकयसंसारसार ।
सिरिमंतई संतई सुस्थियाई जहिं कहिमि ण बीसहि दुत्थियाई।
—वह सरस उपवनों से आच्छादित था मानो कामदेव के वाणों से विद्ध था। दवालयों के पारावतों की कर्णमनोहर ध्वनियां ऐसी लगती थीं मानो नगर गा रहा हो। सौभाग्य की सारी सामग्री से भरपूर वह नगर संसार की सार वस्तुओं से भरा हो। वहाँ के मनुष्य श्रीमंत, शांत और स्वच्छ थे। कहीं भी दुःखी मनुष्य दिखाई नहीं देते थे।
इसी प्रकार अवन्ति देश तथा उज्जयिनी का वर्णन भी बहुत काव्यपूर्ण तथा मनोहर हुआ है। स्वाभाविकरूप से उनकी उपमाएँ वियोगशृंगार और संयोगशृंगार से युक्त हैं । कवि का कथन है कि वहां का राजमार्ग लोगों के मुख से गिरे हुए तांबूलरस से लाल तथा गिरे हुए प्राभूषणों की मणियों से विचित्र दिखाई देता था। वहां चंवरियां कर्पूर की धूलि से धूसरित थीं तथा कस्तूरी की सुगन्ध से आकर्षित होकर भ्रमर उन पर मंडराते थे । एक बड़ी सुन्दर बात कवि ने कही है
जहि गंवइ जणु जगजरिणयसोक्खु, णिच्चोरमारि णिल्लुत्तदुक्खु । 1.22.8
अर्थात्-वहां लोग परस्पर सुख बढ़ाते हुए आनंद से रहते थे। वहां चोर तथा महामारी का भय नहीं था तथा दुःख का प्रभाव ही था।
नंदन वन तथा श्मशान वन
कवि ने सुदत्त मुनि के राजपुर आगमन के अवसर पर नंदन वन तथा श्मशान वन का वर्णन एक साथ कर दिया है । वे कहते हैं कि नंदन वन में प्रामों की पुष्पमंजरी शुकों के चुम्बन से जर्जरित होती थी। कोमल और ललित मालती मुकुलित कलियों सहित फूल रही थी और भौंरे उस पर बैठ रहे थे । दर्शन तथा स्पर्श में रसयुक्त और मृदु बहुतों का मन क्यों न आकर्षित करें ? हंस नवांकुर खंड हंसिनी को दे रहा था और वह अपनी चोंच से हंस की चोंच को चूम रही थी। नूपुरों की मधुर ध्वनि को सुनकर संकेत-स्थल पर खड़ा प्रेमी यह कहता हुआ नाच रहा था कि मैं ही उस प्रागंतुकप्रेयसी का प्रिय हूँ। यह कवि के मधुर शब्दों में प्रस्तुत है
जत्थ य चूयकुसुममंजरिया, सुयचंचू चुंबरणजन्जरिया।
छप्पय छित्ता कोमलललिया, वियसइ मालइ मउलिय कलिया। बंसरणफंसरण हिं रसयारी, मयउ क्कोण बहूमरणहारी। जस्थ सरे पोसियकारंडं, सरसं गवभिस किसलय खंड। दिग्णं हंसेणं हंसीए, चंचू चंचू चुंबताए। संकेयत्यो । जत्य सुहवं, सोऊणं मंजीरयसव्वं । ... महमेंतीए तीए सामी, एवं भरिणत गच्या कामी। 1.12
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श्मशान का वर्णन
तं च केरिसं कालगोयर, सिवसियालदारियमसोयरं । रक्खसीमुहामुक्करणीसणं, सूलभिण्णचोरउलभीसणं । धूमगंधधावंतसाणयं, सव्वदेहिवेहावसारणयं । पवरणपेल्लगुल्ललियभप्परं, भग्गमारणविक्खित्तखप्परं।
1.13
अर्थात्-वह श्मशान भूमि मानो यमराज की गोचर भूमि ही थी। वहां शृगालशृगालियाँ मृत मनुष्यों के उदर फाड़ रही थीं, राक्षसी के मुख की विकराल ध्वनि सुनाई देती थी । शूल से छेदे गए चोरों से वह भूमि भीषण दिखती थी । धुएँ की गन्ध के कारण कुत्ते दौड़ रहे थे । वह समस्त देहधारियों के देहावसान का स्थान था। वहां चिताओं की पवन से प्रेरित भस्म उड़ रही थी और टूटे हुए कपाल बिखरे पड़े थे ।
सुदत्त मुनि को नंदनवन शम, दम, और यम की साधना करनेवाले संतों के निवास के अनुकूल नहीं लगा । अतः वे श्मशान में चले गये जहां शुभ लेश्या से युक्त तथा दुर्भावना सेर हित होकर वे चतुर्विध संघ सहित विराजमान हुए।
इसी प्रकार प्रभात और रात्रि, राजमहल और चाण्डाल-वाड़ा, विवाह-भोज, भोजन में विष और श्मशानयात्रा, भोगोपभोग और वैराग्य, श्राद्ध प्रादि के वर्णन रोचक और प्रभावोत्पादक हैं । सबसे अधिक रोचक यशोधर और उसकी माता चन्द्रमती के मयूर, कुक्कुट, नकुल, सर्प, मैसे, ग्राह, मादि की योनियों में जन्म लेने और पूर्व जन्म के बैर तथा पाप के कारण कष्ट भोगने के वर्णन हैं।
पुष्पदंत ने व्यक्तियों के चरित्र-चित्रण में भी अपनी कुशलता, अनुभव, कल्पना तथा काव्यशक्ति का सुंदर परिचय दिया है। राजा मारिदत्त, भैरवानंद, सुदत्तमुनि, क्षुल्लकझुल्लिका, चण्डमारी आदि चरित्रों का चित्रण बहुत प्रभावोत्पादक बना है।
सारी कथा हिंसा के विरोध तथा उसके कुपरिणाम पर केन्द्रित है । वास्तविक नरबलि तथा पशुबलि के अनौचित्य और उससे होनेवाली हानि का वर्णन बहुत लोमहर्षक है । इतना ही नहीं केवल आटे के कुक्कुट की बलि देने और उसका कल्पित मांस खाने का भी जो कुपरिणाम भुगतना पड़ा वह वास्तविक पशुबलि के परिणाम से कम दुःखदायीं और भयंकर नहीं था । इन पूर्वभवों के कथा-खंडों में करुणा, भयानक, वीभत्स और अद्भुत रसों का खूब परिपाक हुआ है।
इस कथा में सुदत्त मुनि का चरित्र-चित्रण बड़ा उदात्त है । एक प्रकार से सारी कथा का नेतृत्व उन्हीं के हाथों में है । क्षुल्लक-क्षुल्लिका को वे ही राजा मारिदत्त के पास भेजते हैं जो अपने पूर्वभवों का वृत्तांत राजा को कहते हैं । मुनि ही अन्य राजाओं को उनके पूर्वभव सुनाते हैं । मारिदत्त, भैरवानंद, मारिदत्त के माता-पिता और स्वयं मुनि इन सबके पूर्वभवों का प्राश्चर्यजनक काव्यमय वर्णन, गंधर्व द्वारा इस कथा में जोड़ा गया है ।
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जनविद्या
पुष्पदंत ने अपना परिचय महामंत्री नन्न-कर्णाभरण-स्वरूप महाकवि के नाम से दिया है । वे अपने आपको श्यामल वर्ण, मुग्धा ब्राह्मणी के उदर से उत्पन्न, काश्यप गोत्रीय केशव के पुत्र, जिन-पद-भक्त, धर्मासक्त, व्रतसंयुक्त, श्रेष्ठ काव्यशाक्तिधारी, शंकारहित, अभिमानांक अथवा "अभिमानमेरु" और प्रसन्नमुख कहते हैं । यह रचना उनकी श्रेष्ठ काव्यशक्ति का निःसंदेह प्रमाण है। इसी यशकाया से कवि अमर है ।
वृद्धावस्था
तारुण्ण रण्णि दड्ढे खलेण, उगि लग्गि कालाणलेण । सियसभार णं छार घुलइ, थेरहो बलसत्ति व लाल गलइ । थेरहो पावि णं पुण्गसिटि, वयरणाउ' पयट्टइ रयरणविट्ठि। जिह कामिरिणगइ तिह मंद दिट्टि, थेरहो लट्ठी वि रण होइ लट्ठि। हत्यही होती परिगलिवि जाइ, कि अण्णविलासिणि पासि ठाइ । थेरहो पयाई ण हु चिक्कमंति, जिह कुकइहि तिह विहडेवि जंति । थेरहो करपसरु ण विठ्ठ केम, कुत्थियपहु विरिणहयगामु जेम। थेरहो जरसरिहि तरंगएहि, घोहउ तणुलोणु अहंगएहिं।
.
___ भावार्थ-वृद्धावस्थारूप उग्र कालाग्नि द्वारा तारुण्यरूपी वन के जला डालने पर उसके श्वेत केशों का भार मानो, उसकी भस्म को उड़ाता है। वृद्ध पुरुष को मुख को लार के साथ उसको बल-शक्ति भी गिर जाती है। वृद्ध के पाप से उसकी पुण्य-सृष्टि मानो उसकी रदन-वृष्टि (दांतों का पतन) के रूप में उसके मुख से गिर जाती है । उसकी दृष्टि उसी प्रकार मन्द हो जाती है जैसे स्त्री की गति । वृद्ध के पद (पैर) भी बराबर नहीं चलते। वे उसी प्रकार लड़खड़ाते हुए चलते हैं जैसे कुकवियों द्वारा विरचित पद। वृद्ध के कर (हाथ) का प्रसार होता दिखाई नहीं देता जैसे कुत्सित स्वामी से पीडित हुए ग्राम में करप्रसार (राजशुल्क का संचय) नहीं देखा जाता। वृद्ध के शरीर का लावण्य मानो जरारूपी नदी की अभंग तरंगों द्वारा घोकर बहा दिया जाता है।
-जस० 1.28.1-8
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जसहरचरिउ में . प्रात्मा सम्बन्धी विचार
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–श्री श्रीयांशकुमार सिंघई
- अपभ्रंश के यशस्वी कवि अभिमानमेरु पर पापभीरु पुष्पदंत की अन्तिम कृति: जसहरचरिउ हिंसा में रत शासकों, शासितों एवं धर्मान्धजनों को अहिंसक बनने की सहज, सफल और प्रबल प्रेरणा है । यह कृति मानव-मात्र ही नहीं अखिल प्राणियों के सुखमय जीवन जीने के अधिकार का स्फुरण करती हुई लोकोपकार के लिए अहिंसागभित सर्वोदयी समुदात्त भावनाओं के प्रतिपादन से भारत की मूल प्रात्मा का दिग्दर्शन कराती है। अहिंसामूलक विचार ही भारत की प्रात्मा है, पार्यों, महर्षियों, सज्जनों और अनंधश्रद्धालुओं के प्राण हैं। यह सत्य है कि भारत में फलने-फूलनेवाले सभी धर्मों ने, वाङमय ने, भारतीय संस्कृति और समाज ने सदा ही अहिंसा की महत्ता और उपयोगिता साबित की है तथा अपने मूल में स्वयं भी उसकी गौरव सुगंधी से गंधायमान हुए हैं । वस्तुत: अहिंसा के माध्यम से अर्थात् स्वयं महिंसक जीवन जीने के संकल्प से सारे विश्व को सुखशांति का मार्ग बताना हमारी संस्कृति का मूल मन्तव्य रहा है । संस्कृति के इस मन्तव्य से समन्वित साहित्य ही भारत का आत्मीय पौर अमर साहित्य हो सकता है । 'जसहरचरिउ' इसी श्रेणी का एक निदर्शन है। - अहिंसा तो दूर उसकी चर्चा-वार्ता भी पुरतो विद्यमान भौतिक अचिद् वस्तुओं से नहीं की जा सकती क्योंकि अहिंसा का सद्भाव या उसकी चर्चा-वार्ता का उपक्रम मात्र चैतन्य प्राणों से स्पन्दित जीवन में ही संभव होता है। चैतन्य प्राणों से स्पन्दित यही जीवन दार्शनिक मन्दावलि में 'आत्मा' माना गया है।
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हिंसा के सरगम से मशगूल वातावरण को श्रहिंसामय बनाने का संदेश देने में कोई भी महापुरुष, मनीषी या साहित्यकार श्रात्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता, उसकी चर्चा वार्ता से बच नहीं सकता। श्रात्मा संबंधी विचार स्वयमेव उसके चिन्तन में प्राण बन प्रत्यक्ष या परोक्ष सरणि में प्रवाहित होने लगते हैं। महाकवि पुष्पदंत इसके अपवाद नहीं हैं।
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"पापप्रेरक और धन-प्रधान कथायें तो खूब कही, अब धर्म सम्बन्धी कथा कहता हूं जिससे मुझे मोक्ष सुख मिले" कवि की यह भावना श्रात्मा संबंधी विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उसकी भावभूमि का निदर्शन है क्योंकि मोक्षसुख के लिए कारणभूत धर्मं श्रात्मसीमाओं से परे होता ही नहीं है ।
श्रध्यात्म-शास्त्रों जैसी आत्मा की सूक्ष्म और साक्षात् चर्चा जसहरचरिउ में नहीं है पर परोक्षरूप में सुनिश्चित ही प्रबल संस्कार हैं ।
"चतुर्विंशति तीर्थेश वन्दना से अपने को गुणानुरागी बनाते हुए कवि यौधेयदेशस्थ राजपुर नगर के राजा मारिदत्त को समुचित कविकलाचातुर्य से प्रकट करता है। नगर में समागत स्वप्रशंसक कौलाचार्य भैरवानंद की बहुत सी बातें उसके कानों में पड़ती हैं। वह उन्हें राजदरबार में बुलवाता है तथा यथोचित आदर-सत्कार और वार्तालाप के अनन्तर प्रकाशगामिनी विद्या से स्वयं भूषित होने हेतु निवेदन करता है। भैरवानंद कहता है कि राजन् ! यदि तुम लोगों की बातों में न आओ और आगमोक्त रीति से अर्थात् प्रत्येक जाति के जलचर, थलचर प्रोर नभचर जीवों के नर-मादा, युवायुगलों के बलिदान से कुलदेवी चण्डमारी को प्रसन्न करो तो तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो जायगी, तुम्हारे खड्ग में ज्योतिर्मयी जयश्री श्रा बसेगी, तुम अमर हो जानोगे इत्यादि । कौलाचार्य की बात को इदमित्थं सत्य मानकर उसने वैसा ही करने के लिए अपने अनुचरों को आदेश दे दिया। फिर क्या था ? चण्डमारी देवी कास्पद सर्वविध प्राणियों के नर-मादा युगलों से भर गया पर नर- मिथुन की कमी रही । यह कमी देख राजा लाल-लाल आँखें करता हुआ बोला -- "रे सैनिकप्रवर चण्डकर्म ! तू शीघ्र ही अच्छे मनुष्य जोड़े को ला ।" आज्ञा का पालन हुआ और निजी किंकर तदर्थं प्रयत्नशील हुए ।
• बलिदान के दिन ही राजा के नन्दनवन में सुदत्त मुनि का ससंघ पदार्पण हुआ पर सम्प्रति उस स्थल को शृङ्गार-प्रधान होने से संयम में बाधक जान वे श्मशान में ठहरे। इसी संघ का एक क्षुल्लकयुगल मुनिश्री से आज्ञा ले भिक्षार्थ नगर की ओर आ रहा था । यह नरमिथुन बलि के लिए सर्वोत्कृष्ट है - ऐसा सोचकर राज-सेवकों ने उसे पकड़ लिया । संकटापन्न इस स्थिति में क्षुल्लकयुगल अर्थात् अभयरुचि और उनकी ही बहिन ने विचार किया कि शरीर के छेदन - भेदन से मरण दिवस आ जाने पर भयभीत न होकर शील की रक्षा करते हुए विचारों में समताभाव धारण करना चाहिए, इससे मुनि प्रसिद्ध होता है और इन्द्रादि देव या अष्टगुणधारी सिद्ध हो जाता है ।
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राजसेवकों द्वारा दोनों ही देवी के मन्दिर में राजा के सम्मुख लाये गये । उनके आते ही राजा का क्रोध काफूर हो गया । शारीरिक संगठन से उनकी उच्चकुलोत्पन्नता जानकर या साधना से प्रसूत उनकी मुखमण्डलीय आभा देखकर या भावों से स्फुरायमान उनका मधुर सम्बोधन सुनकर वह प्रभावित हुआ और विचारने लगा कि वास्तव में ये कौन हैं ? नाना संभावनाएँ भी की पर अन्त में कुमार से ही निवेदन किया, “हे कुमार ! तुम मुझे पापों को क्षय करनेवाली, कानों को प्रिय तथा सुखदायी अपनी कथा सुनायो ।"4
. प्रकृत में उक्त कथांश के सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि संयोग और अनुभूति की अपेक्षा से प्रात्मा के दो स्तर निर्धारित किये जा सकते हैं-पहला स्तर संसारी आत्माओं का और दूसरा मुक्त आत्माओं का । संसारी आत्माओं की अनुभूतियाँ रागादिजन्य या रागसहकारिणी होती हैं तथा सहचारी संयोग भी नाना विचित्रताओं को लिये हुए होते हैं । मुक्त आत्माओं की अनुभूतियां सदैव सदृश और वीतरागानन्दजन्य होती हैं तथा सहचारी संयोगों का प्रभाव या अप्रभाव होता है । जसहरचरिउ के सन्दर्भ में इसकी स्पष्टाभिव्यक्ति के लिए निम्न तथ्य पर्यवलोकनीय हैं--
(1) जसहरचरिउ में चतुर्विशति तीर्थंकरों की गुणमूलक स्तुति का समावेश होने से
मुक्त आत्माओं का मूल्यांकन परिगणन परिलक्षित होता है। (2) कवि ने सुदत्त मुनि एवं उनके संघस्थ साधुओं, क्षुल्लक आदि का प्रसंगोपात्त
दिग्दर्शन कराते हुए संसार से उदास, संयम की साधना में संरत, वासनाओं से विरत मुक्ति के लिए साधक आत्मानों का परिचय दिया है। संसारोच्छेद के प्रयत्न में संरत होने पर भी तदवस्थित होने से इन्हें संसारी आत्माएँ कहा
जाता है । (3) कवि ने राजा मारिदत्त, भैरवानन्द एवं अन्य भी तदनुगामी प्राणियों का
उल्लेख कर सांसारिक विलासों में प्रासक्त, मुक्ति से विरक्त, मुक्ति में रत अर्थात् सम्प्रति मुक्ति के लिए बाधक आत्माओं का परिचय कराया है। संसार प्रवर्धन के प्रयास में रत होने से इन्हें संसारी आत्माएं ही जानना
चाहिये। (4) क्रूरता एवं सरलता, हिंसा एवं अहिंसा, क्षमा एवं क्रोध आदि के परिणाम
तथा भोग और योग की प्रवृत्तियां आत्मा में ही संभव हो सकती हैं चाहे वह मनुष्य पशु, पक्षी आदि किसी भी रूप में ही क्यों न हो ? जसहरचरिउ में यह तथ्य शतशः अनुकरणीय हुआ है।
जैनदार्शनिकदृष्टि संसारी और मुक्त के रूप में उभयविध आत्माएँ स्वीकारती है । तदनुसार परमात्मा के अभिधान से मुक्त-आत्माओं का परिगणन है तथा संसारी आत्माएँ बहिरात्मा और अन्तरात्मा के व्यपदेश से वर्गीकृत हैं। जसहरचरिउ में परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा आदि प्रात्मा के त्रिविधरूपों का परिभाषात्मक स्पष्ट विवेचन तो नहीं है पर तीर्थंकरों, सिद्धों और जिनेन्द्रों के गौरव गुणगान से परमात्माओं का, सुदत्त आदि मुनियों एवं
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क्षुल्लक प्रादि श्रावकों के साधनामय जीवन का अंकन हो जाने से अन्तरात्माओं का और राजा मारिवत्त, भैरवानन्द आदि के चरित्र-चित्रण से बहिरात्माओं का व्यक्तित्व साकार हो उठा है । सरल, सहज और सुललित प्रवाह में परिभाषात्मक अवधेय के बोझ से बचाकर भावावबोध के स्तर पर आत्मा के विविधरूपों का ज्ञान करा देने में जसहरचरिउ अथ से इति पर्यन्त प्रयासशील दिखाई देता है जो इसकी अपनी विशेषता है।
अन्तरात्मा और बहिरात्मा के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए जसहरचरिउ का अधोलिखित संक्षिप्त सन्दर्भ द्रष्टव्य है
"दूसरों के लिए ताप-दुःख का निवारण करनेवाला शीतल, सौम्य एवं रम्य अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ एक मुनिराज को हिंसाचारी कोतवाल ने देखा । वे मुनि इहलोक और परलोक संबंधी आशाओं से रहित तथा राग-द्वेष आदि दोषों से मुक्त थे। मन, वचन और काय को वशीभूत कर उन्होंने मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीनों शल्यों को जीत लिया था । ऋद्धि, रस और सुख रूप तीनों गारव को नष्ट कर वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी रत्नों से विभूषित थे तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायरूपी तुष के लिए अग्नि समान थे । पाहार, परिग्रह, भय और मैथुन संज्ञाओं का विनाशकर ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और निष्ठापन इन पांचों समितियों के सद्भाव को प्रकाशित कर रहे थे। अहिंसा, अचौर्य, अमृषा, अव्यभिचार और अपरिग्रह नामक पंच महाव्रतों को धारण करने में धुरन्धर उन्होंने मिध्यात्व. अविरति. प्रमाद, . कषाय और योग इन पांचों प्रास्रव द्वारों का निरोध कर लिया था। पांचों इन्द्रियों को जीत पंचमगति अर्थात् मोक्ष पाने हेतु वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य नामक पंचाचार के महापथ पर चल रहे थे। षट् जीवनिकायों पर स्थिररूप से दयावान् सप्तभयरूप अन्धकार को दूर करने में दिवाकर, आठों ही दुष्ट मदों के निवारक तथा अष्टम पृथ्वी निवास अर्थात् मोक्षसुख सम्बन्धी ज्ञान की खान उन मुनिराज ने सिद्धों के अष्टगुणों पर अपना मन संयोजित कर रखा था और नवविध ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से ब्रह्मचारी थे । उन्होंने दशविध धर्म का लाभ लिया था,- प्राणी हिंसा का निषेध किया था, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का सुविचारित उपदेश दिया था, बारह तपों का उद्धार किया था एवं तेरह प्रकार से चारित्र का विभाजन किया था । वे मुनि मद, मोह, लोभ, क्रोध, आदि शत्रुओं के लिए रण में दुर्जेय थे । उन्होंने तपश्चरण की साधनारूपी अग्निज्वालाओं द्वारा काम का पूर्णतः दहन कर डाला था।
ऐसे उन मुनिवर को देखकर वह तलवर (कोतवाल) रुष्ट हो गया । वह दुष्ट, धृष्ट, पापिष्ठ चिन्तन करने लगा-यह बिगड़ा हुअा, नंगा, दुःख से पीड़ित, हमारी भूमि को दूषित करने बैठा है अतः इस अपशकुन श्रमण को कोई दूसरा देख पाये इसके पूर्व ही इसे इस राजोद्यान से निकाल भगाता है। अपने मन में कितना भी क्रुद्ध होऊं किन्तु कपटपूर्वक इसके बिना पूछे ही मैं कुछ पूछता हूँ फिर वह जो कुछ जैसा भी कहेगा उसमें उसी प्रकार दूषण बतलाऊँगा और इस अपशकुन को निकाल बाहर काँगा । इस प्रकार विचार करते हुए उस चोरों के यमराज ने मायाचारी से साधु की वन्दना की। मुनि ने यह जान लिया था कि यह दुर्जन और भक्तिहीन है फिर भी आशीर्वाद दे दिया और कहा-तुम्हें धर्मबुद्धि प्राप्त हो, आत्मगुण
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और मोक्ष की प्राप्ति हो, सुख मिले और भ्रान्ति भंग हो । ठीक ही है महर्षियों को न निन्दा से क्रोध उत्पन्न होता है और न ही प्रशंसा से हर्ष । तृण और स्वर्ण भी उन्हें समान हैं तथा शत्रु व मित्र एक सदृश ।
तलवर ने कहा- योद्धा के शासन में धनुष को ही धर्म कहा गया है। उसके छोरों पर जो प्रत्यंचा बंधी रहती है वही उसका गुण है तथा रण में शत्रु का विनाश करने के लिए जो बाण छोड़ा जाता हैं, वही मोक्ष है । इसके अतिरिक्त मैं अन्य किसी धर्म, गुण या मोक्ष को नहीं जानता तथा अपनी पाँचों इन्द्रियों के सुखों को ही सुख मानता हूँ। किन्तु तू तो दुर्बल दिखाई देता है, तेरे पास न चीर है, न वस्त्र और न कम्बल । तेरे आठों अंग दुर्बल और छिन्न हो रहे हैं तथा नेत्र कपाल में मिल गये हैं। शरीर पसीने से लिप्त है इसे धो क्यों नहीं डालता? तू रात-दिन में एक पल भी सोता क्यों नहीं ? अपने मुख पर नेत्रों को बन्द कर तू किस बात का ध्यान करता है और हम लोगों में भ्रान्ति उत्पन्न करता है ? इस पर मुनि ने कहा-मैं अपना ध्यान लगाकर जीव और कर्म इन दो का विभाजन कर जीव के लिए निर्वाण की अभिलाषा करता हूँ। यह (आत्मा) पुरुष हुआ, स्त्री और नपुंसक भी हुआ । शांत स्वभावी भी हुआ और यमदूत के समान प्रचण्ड भी। राजा भी व दीन याचक भी। रूपवान् और कुरूप भी । मलिन गोत्र और उच्च गोत्र भी। बलहीन और बलवान भी। नरभव पाकर आर्य भी हुआ और म्लेच्छ भी तथा दरिद्री और धनवान भी। विद्वान् होकर फिर चाण्डाल भी हुआ । क्रूर मांसाहारी हुआ और वन में तृणचारी मृग भी। तत्पश्चात् रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्पन्न होकर बड़े-बड़े आघात सहे। नरकवासी होकर फिर जलचर, थलचर व नभचर तिर्यंच हुआ । इन भवों में अनेकों पाप किये फिर भी कुत्सित देवों के भव में जा पड़ा, जहाँ रत्नत्रय का अभाव रहा । इस प्रकार अन्य-अन्य देह धारण करते हुए और छोड़ते हुए हाय बाप ! दुःख सहते हुए बहुत काल व्यतीत हुआ। मैं दुःख को पाप का फल मानता हूँ और इसीलिए इन्द्रिय सुखों की निन्दा करता हूं । मैं तो भिक्षा मांगता हूं, तपस्या करता हूं, थोड़ासा खाता हूं और निर्जन स्थान में निवास करता हूं । धर्म का उपदेश देता हूं या मौन रहता हूँ। मैं मोह की इच्छा नहीं करता और निद्रा में भी नहीं जाता। मैं क्रोध नहीं करता तथा कपट को खरोंच फेंकता हूं। मान को खेंच फेंकता हूं और लोभ का त्याग करता हूं। देह के दुःख में उद्वेग होता है पर मैं कहीं भी काम का उन्माद नहीं करता। न तो मैं भय से आतुर होता हूं और न ही शोक से भीजता हूँ । न मैं हिंसा का कर्म करता हूं और न ही दम्भ । मैं स्त्री को देखने में अन्धा, गीत सुनने में बहरा, कुतीर्थपंथ गमन में लंगड़ा तथा अधार्मिक कथा कहने में मूक हूं।"5
उपर्युक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि परपीड़नप्रधान विपरीत अभिनिवेशों से ग्रस्त उद्दण्ड विचारोंवाला तलवर तथा समतासमन्वय की स्वाश्रित सुगन्ध में मस्त लोकोपकार के सहज मसीहा पूज्यपाद मुनिराज दोनों के ही विचार और जीवन परस्पर विपरीत होने से सातिशय विषमता रखते हैं। यही विषमता उन्हें क्रमशः बहिरात्मा और अन्तरात्मा सिद्ध करती है।
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परमात्मा विषयक सहमति जसहरचरिउ में इस प्रकार अभिव्यक्त हुई है-इन्द्र, प्रतीन्द्र, चन्द्र, नाग, नर तथा खेचरों द्वारा पूजित एक सहस्र आठ लक्षणों के धारक, केवलज्ञान लोचन, अष्ट प्रातिहार्यों के अमल चिह्नधारी जैसे मानो चन्द्रमा उदयाचल पर स्थित हो, धर्म-चक्र द्वारा लोगों के मनोगत मलिन भावों को दूर करनेवाले तथा वीतरागी मुनिवरों में मुनिपुंगव सकल परमात्मा होते हैं । शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा जानना चाहिये ।
आत्मा या जीव दोनों ही शब्द अनर्थान्तर हैं। शरीर और आत्मा एकक्षेत्रावगाही होकर भी पृथक्-पृथक् हैं? यह जनर्षियों या विवेकप्रवणों की दृढ़ आस्था है । जसहरचरिउ इस आस्था के पोषणार्थ सैद्धान्तिक शब्दावलि के बिना व्यावहारिक और सयुक्तिक विवेचन प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार द्रष्टव्य है.. जिस प्रकार वृक्ष के पुष्प से उसका गन्ध भिन्न नहीं है उसी प्रकार देह से जीव भी भिन्न नहीं है तथा जैसे पुष्प के विनष्ट होनेपर गन्ध स्वयमेव नष्ट हो जाती है वैसे ही शरीर का नाश हो जाने पर जीव भी विनष्ट हो जाता है। अतः यथार्थतः देह और जीव एक ही हैं --ऐसा अज्ञानी मानते हैं। विचार करने पर उनकी यह दलील अधिक महत्त्व नहीं रखती क्योंकि चम्पक आदि पुष्प की वास-गंध तेल में लग जाती है, समा जाती है और इस प्रकार जैसे पुष्प से उसकी गन्ध पृथक् सिद्ध होती है वैसे ही जीव की भिन्नता भी देखी जाती है ।10
प्राणियों में शरीर के माध्यम से जो चेष्टाएं देखी जाती हैं वे सभी प्रात्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं। एतदर्थ भी जसहरचरिउ मौन नहीं है। वह कहता हैबिना जीव के तो नेत्र अपने आगे खड़े बैरियों और मित्रों को देख नहीं सकते। बिना जीव के जीभ किसी वस्तु के गुण कैसे पहिचानेगी, नाना रसों के स्वाद कैसे चखेगी? बिना जीव के केसर का आदर कौन करेगा, घ्राणेन्द्रिय गंध को कैसे जानेगी? जीव के बिना कान सुन भी तो नहीं सकते—इस प्रकार जीव के बिना शरीर के पांचों तत्त्व निश्चेष्ट हैं ।11 जीव में न स्पर्श है, न रस, न गंध, न रूप । वह शब्द से भी रहित है, तथापि पांचों इन्द्रियों द्वारा . इन गुणों को जानता है ।12
जैनमतानुसार प्रत्येक द्रव्य पूर्णतः स्वाधीन और स्वसत्तासमवेत है। तात्पर्य यह है कि वह अपने अस्तित्व आदि के लिए पर-प्रभावित नहीं है। जीव भी एक द्रव्य है जिसके सन्दर्भ में उक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए पुष्पदंत ने लिखा है-जीव का स्वभाव अन्य वस्तु के आधीन नहीं है ।13 उन्होंने "सच्चेयरण भावें सच्चवंतु"14 कहकर जीव को चेतन स्वभाव से चिद्-स्वभावी कहा है "जीव के बिना चेतन भाव कहाँ प्रकट हो सकता है"15 कह कर जीव का लक्षण चैतन्य बताया है जो जैनमान्यता में सर्वसम्मत है।
प्रात्मा के सन्दर्भ में जसहरचरिउ का सर्वतोधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है आत्मा की अमरता के बोध से पाठक को परिचित कराना। यह सुनिश्चित है कि अनादि संसार में भटकते प्राणी को जब तक यह बोध न हो कि मैं शाश्वत अर्थात् अनादि अनंत प्रवाह में अविनश्वर हूँ तब तक वह मुक्ति-मार्गारोहण एवं पाप परित्यजन का सम्यक् पुरुषार्थ कर
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अपने व्यक्तित्व को प्रखर नहीं बना सकता। व्यक्तित्व की प्रखरता के लिए अपनी स्थिरता का विश्वास अत्यावश्यक है अन्यथा मरण की चिन्ता या कुछ समय बाद अस्तित्वविहीनता का बोध उसे निष्क्रिय अथवा प्रमादी बना देगा। जिससे व्यक्तित्व मात्र कूपमण्डूक बन कभी कहीं और कभी कहीं संसरणशील होता हुआ दुःखमूलक वेदनाओं का मातहत ही बनता रहेगा।
दुःखमय वेदनाओं के परिकर से मुक्त होने की प्रेरणा देना प्रत्येक मनीषी साहित्यकार का ध्येय होता है। अपभ्रश कवि पुष्पदंत ने अपने इस काव्य में पात्रों का अनेक भवों संबंधी चरित्र चित्रित कर वेदनाओं से छुटकारा दिलाने हेतु प्रात्मा को अमर साबित कर दिया है जो जैनदार्शनिक धरा पर आधारित अत्यन्त उपयोगी प्रतिपादन है ।
___जसहरचरिउ के पाठक जानते हैं कि बलिदान के लिए निगृहीत क्षुल्लक अभयरुचि ने राजा मारिदत्त को उसमें सद्योत्पादित पात्रता देखकर अपनी कथा सुनाई है। यह कथाप्रसंग हिंसादि दुष्कर्मों से विरत होने हेतु सहज और अचूक प्रेरणा देते हुए बता देता है कि मूढ़ताओं और अन्धविश्वासों में पली कुपरम्परामों का पर्दाफाश नहीं करने से प्रात्मा स्वकृतकों के अनुसार जन्म-मरणपूर्वक नाना योनियों में भटकता है तथा पुण्य-पापाधीन परिणामों के अनुरूप सांसारिक सुखदुःखात्मक वेदनाओं को सहन करता है, भोगता है। प्रकृत में विशेष पुष्टि का दायित्व हम पाठकों पर छोड़ते हैं और जसहरचरिउ में उल्लिखित पात्रों के भवों का मात्र नामोल्लेख करते हैं, जिससे उन्हें आत्मा के अमरत्व के बोध की झलक दिख जाय । पात्रों ने अपने भवों में नाना शरीर धारण किये और छोड़े तथापि आत्मा की अमरता को अक्षुण्ण बताया, तदर्थ क्या, क्यों और कैसे ? का समाधान पाने हेतु स्वयं जसहरचरिउ को नयनाभिराम बनाइयेगा स्थिति स्पष्ट हो जायगी। निदर्शनत्वेन हेतु अभिप्रेत उल्लेख इस प्रकार है
(1) क्षुल्लक अभयरुचि-अपने पूर्व भवों में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य के मंत्री जितशत्रु16 थे। फिर क्रमशः राजा यशोधर', मयूर18, नकुल, पाण्डुररोहितमत्स्य20, बकरा21, बकरा22, कुक्कुट23 होकर राजा यशोमति के पुत्र अभयरुचि4 हुए, जिनने पहले क्षुल्लक दीक्षा ली पश्चात् मुनि बनकर25 देह त्याग वैमानिक देव26 हुए।
(2) क्षुल्लिका अभयमति-अपने पूर्व भवों में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य की विन्ध्यश्री7 नामक पत्नी थी। वही मरकर अजितांग राजा की पुत्री तथा यशोधर की पत्नी चन्द्रमति28 होकर क्रमशः कूकर, सर्प30, संसुमार31, बकरी2, भैंसा33, कुक्कुट34 के भव धारणकर राजा यशोमति की पुत्री अभयमति हुई जिसने पहले क्षुल्लिका दीक्षा और बाद में प्रायिका दीक्षा 36 ली तथा अन्तिम समय में देह छोड़ कर वैमानिक देव पर्याय37 प्राप्त की।
(3) सुदत्त मुनि-अपने पूर्व भवों में उज्जयिनी नरेश यशोवन्धुर थे जो मरण प्राप्त कर कलिंगराज भगदत्त के पुत्र सुदत्त हुए। राजा बनने पर चोर को दण्ड देने के प्रसंग से विरक्त हो मुनि बन गये38 तथा अन्त समय में संन्यासपूर्वक देह त्याग सप्तम स्वर्ग में देव हुए ।
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(4) अमृतमति-अपने पूर्व भव में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य की पुत्री गन्धर्वश्री थी जो अगले भव में राजा विमलवाहन की पुत्री अमृतमति' हुई। मांसभक्षिणी, मुनिनिदिका तथा जार में आसक्त हो पतिप्राणहन्त्री, पापिनी होने से पांचवें नरक में
गई।
(5) राजा मारिदत्त- अपने पूर्वभव में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य के पुत्र गन्धर्वसेन थे। गन्धर्वसेन ही धर्मानुकूल आचरण करते हुए मरण को प्राप्त हो राजा मारिदत्त के भव में आया । राजा मारिदत्त पहले हिंसक था बाद में सद्धर्म से प्रभावित हो मुनि बन गया तथा देह त्याग कर स्वर्ग के अग्रभाग में देव हुआ ।
(6) कौलाचार्य भैरवानन्द-अपने पूर्व भव में राजा मारिदत्त की माता के रूप में चित्रसेना था। वही चित्रसेना मरकर भैरवानंद हुई।47 भैरवानंद पहले हिंसाप्रिय था बाद में मुनि के उपदेश से करुणापूरित हो मुनि दीक्षा लेनी चाही पर मात्र अनशन व्रत के पालन से ही तीसरे स्वर्ग में देव हुआ।
इनके अलावा जसहरचरिउ में यशपूर्व राजा यशोध एवं यशोमति, गोवर्धन सेठ, वणिग्वर कल्याणमित्र, रानी कुसुमावलि, कुलदेवी चण्डमारी आदि के भवों का उल्लेख है जो संसार में आत्मा की स्थिति अर्थात् प्रात्मा किस प्रकार मोह के वशीभूत होकर अंधविश्वासों
और विपरीत-अभिनिवेशों का शिकार होता हुआ अनर्थों की परम्परा को जन्म देनेवाला हिंसादि कर्मों में रत हो उन्हें ही धर्म मान लेता है तथापि अज्ञान अन्धेरा मिट जाने पर ज्ञान के प्रकाश में वही आत्मा आत्मोत्थान के रास्ते पर यात्रा प्रारंभ कर अनाकुल आनंद परिभोग से इन्द्रियाधीन भोगमयी समस्त पराश्रय वृत्तियों का बहिष्कार करता हुआ योगी बन परमात्मपद का प्रत्याशी बन जाता है, को बताता है ।
जसहरचरिउ का यह मन्तव्य, "इन्द्रिय सुख एक महान् दुःख है और जीव के लिए दुष्कर्मों का घर है जो पग-पग पर महान् बाधायें उत्पन्न करता है"49 भी प्रात्मोत्थान की यात्रा के लिए निःसन्देह प्रबल सम्बल है और है अध्यात्म-विद्या-साधकों के लिए विकल्पात्मक भूमिका में कभी न भूलने योग्य मंत्र ।
जैनदार्शनिकों की यह दृढ़ धारणा है कि वर्तमान में पतित से पतित प्राणी भी अपनी भूल सुधारकर अहिंसादि वृत्तियों के सहारे स्वावलम्बन के रास्ते पर चलता है तो अवश्य ही महान्, मात्र महान् ही नहीं महान्तम बन जाता है । महाकवि पुष्पदंत ने अपने इस काव्य में पात्रों से. ऐसी ही भूमिका का निर्वाह करा सचमुच ही अध्यात्म प्रधान जैनधारा को महत्त्व दिया है, शैली भले ही परोक्ष हो।
सूक्ष्म और विवेकप्रवण मूल्यांकन दृष्टि यदि निराकुल सुखोत्कर्ष के लिए प्रयासशील होकर जसहरचरिउ का आलोढन, अध्ययन, मनन और चिन्तन करे तो अप्रतिहततया आत्मा सम्बन्धी विचार उसमें हंसमुख ही नहीं परिपुष्ट भी नजर आयेंगे ।
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अंत में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि जसहरचरिउ आत्मोत्थान के सन्दर्भ में मात्र प्रेरणा ही नहीं देता अपितु व्यावहारिक स्तर पर हम-तुम में यह विश्वास जगाता है कि जब कूकर आदि पशु और दुराचारी-अनाचारी-हिंसाचारी-मांसाहारी जैसे लोग भी अपनी भूल सुधारकर सर्वप्राणीसमभाव से अहिंसा प्रधान सतर्क साधना कर परमात्मा बनने के अधिकारी हैं तो हम-तुम क्यों नहीं ?
1. जसहरचरिउ, प्रकाशित सन् 1972, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 1.1.4 2. वही, प्रस्तावना
26. 4.28.28 3. 1.1.5-6
27. 4.25.6-8 4. 1.2-20
28. 4.25.6-8 5. 3.17-20
29. 2.31.1 6. 3.25.1-5
30. 2.36.11 7. 3.21.4
31. 3.2.8 8. 3.21.12-13
32. 3.6.9 9. 3.21.11
33. 3.11.15-16 10. 3.21.15-16
34. 3.13.12-17 11. 3.23.5-19
35. 3.33-34 12. 3.23.12-13
36. 4.28.22-2313. 3.28.4
37. 4.28.28 14. 4.12.8
38. 4.27.27-36 15. 4.13.4
39. 4.29.3 16. 4.25.15-17
40. 4.23.19-20 17. 4.25.15-17
41. 4.26.10-12 18. 2.27.15
42. 3.41.6-11 19. 2.36.6
43. 4.24.25 20. 3.1.20.
44. 4.25.22-23 21. 3.6.10-11
45. 4.28.11 22. 3.7-8.1
46. 4.29.4-8 23. 3.13.17
47. 4.27.15-16 24. 3.33-34
48. 4.28.14-19 25. 4.28.2
49. 2.10.16-17.
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जनविद्या
कर्म-विडम्बना
रिणयसिरि किं किर मण्णंति गरा, रणवजोव्वणु णासइ एइ जरा। उप्पण्णहो दीसइ पुणु मरणु, भीसावणु ढुक्कइ जमकरण। सिरिमंतहो धरि दालिद्दडउ, पइसरइ दुक्खभारम्भडउ । अइसुन्दर रूवे रूउ ल्हसइ, वीरु वि संगामरंगि तसइ। पियमाणसु अण्णु जि लोउ जिह, पिण्णेहें दोसइ पुणु वि तिह। रिणयकंतिहे ससिबिबु वि ढलइ, लावण्णु ण मणुयह कि गलइ । इह को सुत्थिउ को दुत्थियउ, सयलु वि कम्मेण गलत्थियउ ।
भावार्थ--मनुष्य अपनी लक्ष्मी को क्या समझते हैं ? नवयौवन का नाश होता है और बूढ़ापा आता है। जो उत्पन्न हुआ है उसका पुनः मरण देखा जाता है। उसे लेने भयंकर यम का दूत आ पहुंचता है। श्रीमान् के घर में दारिद्रय तथा दुःख का महान् भार आ पड़ता है, एक सुन्दर रूप दूसरे अधिक सुन्दर रूप के आगे फीका पड़ जाता है। वीर पुरुष भी रण में त्रास पाता है । अपना प्रिय मनुष्य भी स्नेह के फीके पड़ने पर अन्य लोगों के समान साधारण दिखाई देने लगता है । जब चन्द्रमण्डल भी अपनी कान्ति से ढ़ल जाता है तब क्या मनुष्यों का लावण्य नहीं गलेगा? इस संसार में कौन सुखी कौन दुःखी है, सभी कर्मों की विडम्बना में पड़े हैं। .
-गाय० 2.4.5-11
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जसहरचरिउ केर सुहासिय-वयरगाई
- श्री भंवरलाल पोल्याका
प्रकृति ने अपने मनोगत भावों को ग्रन्य व्यक्ति तक संप्रेषण करने की जो भाषागत विशेषता मानव को प्रदान की है वह विश्व के अन्य किसी प्राणी में नहीं है । भाषा की उत्पत्ति के इतिहास का सम्बन्ध मानव के इस धरा पर जन्म के साथ जुड़ा है । उसका प्रतीत इतना दीर्घ है कि उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई कालावधि निश्चित करना सम्भव नहीं । इस बारे में अब तक जो कुछ भी कहा गया अथवा लिखा गया है वह केवल अनुमानों पर प्रधृत है और इसी कारण उनमें पर्याप्त मत - वैभिन्न्य भी है ।
मानव की यह भाषा नदी के बहते नीर की भाँति गतिशील एवं परिवर्तनशील है । जिस प्रकार नदी का प्रवाह सतत् चालू रहता है किन्तु उसकी धाराओं में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है उसी प्रकार भाषा का प्रवाह भी जब से मानव ने बोलना सीखा तब से ही गतिमान किन्तु परिवर्तनस्वरूपी है । वैदिक, प्राकृत, संस्कृत. हिब्र ू, अपभ्रंश, योरोपीय, लेटिन, फारसी, अरबी आदि भाषाओं की उत्पत्ति इसी परिवर्तनशीलता का परिणाम है । अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य हिन्द प्रार्य भाषा के मध्यकाल के तृतीय स्तर पर विकसित हुई ऐसा भाषाविदों का कथन है ।
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जैनविद्या
भाषा जब अक्षरात्मक रूप में लिखी जाने लगी तब से ही उसके साहित्य की उत्पत्ति हुई । साहित्य में मानव के लाखों हजारों वर्षों के अनुभवों के आधार पर जो उपदेशात्मक कल्याणकारी प्रानन्ददायक वाक्य मानव के अन्तस्तल से प्रवाहित हुए वे ही सूक्ति-सुभाषित आदि नामों से अभिहित हैं । पार्थिव सृष्टि जहाँ सुख-दुःखमय है वहाँ सुभाषितों की सृष्टि प्रानन्द और उल्लास प्रदात्री है इसमें दो मत नहीं हो सकते ।
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to हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- "सूक्तियों में नीति के वचन थोड़े शब्दों में गागर में सागर की भाँति बड़ी सुन्दरता से व्यक्त होते हैं । इनमें उपदेश देने की छटा निराली होती है । ये भावों को सजा संवार कर सजीव बनाने एवं वक्तृत्वकला को चमकाने में बड़ी सहायक होती हैं । "
सुभाषित साहित्य का शृङ्गार है । जिस प्रकार शृङ्गार नारी के सौंदर्य में चार चाँद लगा पुरुष को उसकी ओर आकर्षित करने का एक सक्षम साधन है उसी प्रकार सूक्तियाँ और सुभाषित साहित्य का शृङ्गार हैं जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने की पूर्व क्षमता रखता है । इसीलिए प्रत्येक कवि की कृति में जाने-अनजाने इनका प्रयोग अवश्य हुआ है । अपभ्रंश के महाकवि पुप्फयंत ( पुष्पदंत) भी इसके अपवाद नहीं हैं ! उनका महापुराण तो सूक्तियों और सुभाषितों का भण्डार ही है । उस ही महाकवि की एक अन्य कृति 'जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र) से चुनकर कुछ सुभाषित यहाँ पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं । सुविधा के लिए उनका विषयवार वर्गीकरण भी कर दिया गया है ।
श्रनित्यता ( राज्य और शरीर की )
सत्तवि रज्जंगई तणु अट्ठगइँ कासु वि भुवरिण रण सासयई । 1.28.9
- राज्य के सात अंग और शरीर के आठ अंग इस संसार में किसी के भी शाश्वत नहीं रहते ।
इन्द्रिय सुख
'इन्द्रिय सुखों की वास्तविकता क्या है ?' यह बताते हुए कवि प्राश्चर्य व्यक्त
करता है-
इन्दियसुहु गरूयउ दुहु, किह सेवइ पंडियरगरु । 2.10.17
- इन्द्रिय सुख बड़ा भारी दुःख है, ज्ञानी पुरुष इसका सेवन कैसे करते हैं ?
दुराग्रह
'जब मनुष्य पर दुराग्रह का भूत सवार हो जाता है तो वह कैसा बन जाता है' कवि इस सम्बन्ध में बताता है
श्रइ क्रूर दुरग्गह गहिउ जेग, कज्जु व श्रकज्जु वावरइ तेण ।
जो होइ मिच्छ मयगहिउ सहिउ, रग वि मण्णइ सो बुहयरगाह कहिउ । 1.8.9-10
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जैनविद्या
धन
धर्म
भाग्य
मद
कर करने लगता है । का भी कहना नहीं मानता ।
- प्रत्यन्त क्रूर दुराग्रह से ग्रस्त मनुष्य नहीं करने योग्य कार्य को करने योग्य समझ मिथ्या - मतरूपी उन्माद से उन्मत्त मनुष्य बुद्धिमान् पुरुषों
श्रत्थु केरण परिचत्त । 2.1.12
-धन को किसने छोड़ा है ?
धर्म की महिमा का बखान कवि इन शब्दों में करता है
धम्मिं सग्गु मोक्खु पाविज्जइ । धम्मं होंति मणु हरि हलहर, धारण चक्कवट्टि विज्जाहर || 3.26.8-9 - धर्म से मनुष्य को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है, और धर्म से ही मनुष्य हरि, हलधर, चारणऋद्धिधारी, चक्रवर्ती और विद्याधर बन जाता है ।
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धम्मिं होंति जिरिंगद गरिद वि धम्मिं होंति सुरिद फरिंगद वि । 3.26.11 - धर्म से ही मनुष्य जिनेन्द्र, नरेन्द्र, सुरेन्द्र और फणीन्द्र भी बनता है ।
हा खल विहि हयसुयरण सुह ।
— सज्जनों के सुख को नष्ट करनेवाला विधाता हाय बड़ा दुष्ट है ।
बलवन्त जीवहँ कम्मु । 2.26.20
— जीवों के कर्म बड़े बलवान् होते हैं ।
प्रणम्मि जिमियम्मि एण्गो कहँ घाई । 3.13.8
— अन्य के भोजन करने से क्या किसी अन्य की भूख मिट सकती है ?
यौवन एवं धन के मद को सन्मार्ग की प्राप्ति में बाधक बताते हुए कवि की मान्यता है—
जोव्वरणमउ सिरिमउ जेत्थु फार वट्टति तेत्थु बहलंघयार ।
कह दीसह तह सुहमग्गुसार, बुहरवियरेहि विणु विहिउ चारु ।। 1.5.10-11
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-जहाँ यौवन के मद और सम्पत्ति के मद की प्रचुरता होती है वहाँ ही घना अंधकार फैलता है। क्या बुधजनरूपी सूर्य की किरणों के प्रकाश के बिना
विचरण करते हुए मनुष्य को सुखपूर्ण मार्ग का सार दिखाई दे सकता है ? महर्षि कवि की दृष्टि में सच्चा महर्षि होता है
गउ रिणदइ मच्छरु विच्छरइ, रण पसंसइ वड्ढइ हरिसु । समतरण कंचरणहं महारिसिहि, सत्तु विमिततु समसरिसु॥ 3.8.13-14 -महर्षियों को न तो अपनी निंदा से मात्सर्य उत्पन्न होता है और न प्रशंसा से
हर्ष। उनके लिए तो तृण और कंचन, शत्रु एवं मित्र एक समान होते हैं। शरीर
माणुससरीरु दुहपोट्टलउ, धोयउ धोयउ अइविट्टलउ । वासिउ वासिउ णउ सुरहि मलु, पोसिउ पोसिउ रणउ धरई बलु ॥ तोसिउ तोसिउ रणउ अप्पणउ, मोसिउ मोसिउ धरभायणउ । भूसिउ भूसिउ ण सुहावरणउ, मंडिउ मंडिउ भीसावरणउ ॥ वोल्लिउ वोल्लिउ दुक्खावरणउ, चच्चिउ चच्चिउ चिलिसावरणउ । मंतिउ मंतिउ मरणहो तसइ, दिक्खिउ दिक्खिउ साहुहुँ भसइ ॥ सिक्खिउ सिक्खिउ वि रण गुणि रमइ, दुक्खिउ दुक्खिउ वि ण उवसमइ। वारिउ वारिउ वि पाउ करइ, पेरिउ पेरिउ वि ण धम्मि चरइ ॥ अब्भंगिउ अन्भंगिउ फरिसु, रुक्खिउ रुक्खिउ प्रामइसरिसु । मलियउ मलियउ वाएं घुलइ, सिंचिउ सिंचिउ पित्ति जलइ ॥ सो सिउ सोसिउ सिभि गलइ, पत्थिउ पत्थिउ कुठ्ठहें मिलइ । चम्में बधु वि कालिं सडइ, रक्खिउ रक्खिउ जममुहि पडइ ॥ 2.11 कितने ही प्रयत्न करने के पश्चात् भी शरीर वैसा नहीं बन पाता जैसा हम उसे बनाना चाहते हैं और रक्षा करते करते भी वह किस प्रकार मौत के मुंह में चला जाता है इसका कितना सुन्दर और सटीक वर्णन कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में किया है, जरा देखिये
-मानव शरीर दुःखों की पोट है, उसे बार-बार धोने पर भी वह अत्यन्त अपवित्र ही रहता है, उस पर कितने ही सुगंधित द्रव्यों का मर्दन करो फिर भी वह दुगंधित ही बना रहता है, पोषण करते करते भी वह पुष्ट नहीं होता, उसे जितना चाहे संतुष्ट करो फिर भी वह अपना नहीं होता, बार बार चुरा लिये जाने पर भी घर में ही बना रहता है अर्थात् मृत्यु द्वारा बार बार छीन लिये जाने पर भी शरीर में ही बना रहता है, आभूषणों से भूषित
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करने पर भी सुहावना नहीं दीखता, उसको जितना ही सजानो उतना ही भीषण बना रहता है, बचाते बचाते भी दुःखी हो जाता है, चर्चित करते रहने पर भी घृणित ही बना रहता है, समझाते-समझाते भी मृत्यु से भयभीत रहता है, कई बार दीक्षित होकर भी साधुओं पर भौंकता है, बारंबार शिक्षा देने पर भी गुणों में रमण नहीं करता, दुःख सहने पर भी उपशम भाव धारण नहीं करता, रोकते रोकते भी पापकर्म करना नहीं छोड़ता, करता ही जाता है, प्रेरित किये जाने पर भी धर्म का आचरण नहीं करता, बार-बार मालिश करने पर भी रुक्ष बना रहता है तथा रुक्ष रखते-रखते भी व्याधिग्रस्त हो जाता है, मलतेमलते भी वात रोग लग जाता है, उष्ण पदार्थों का सेवन करते रहने पर भी कफ-खांसी से पीड़ित हो जाता है, चमड़े से प्राबद्ध होने पर भी समय पर सड़ जाता है, परहेज रखते-रखते भी कुष्ट का रोगी बन जाता है तथा रक्षा करने पर भी यमराज के मुंह में चला जाता है।
बिना जीव के शरीर की अकिंचित्करता बताते हुए कवि उदाहरण देता हैविणु धवलेण सयडु कि हल्लइ, विणु जीवेण बेहु किं चल्लइ। 3.21.3
-क्या बिना बैल के गाड़ी हिल सकती है और बिना जीव के शरीर चल सकता है ?
व्यर्थ कार्य
अपात्र को दान, मोहांध को व्याख्यान और बकवादी मनुष्य के गुणगान की व्यर्थता सिद्ध करते हुए कवि ने किस प्रकार उदाहरणों पर उदाहरणों का प्रयोग किया है पढिये और आनन्द लीजिये
अंधे पढें बहिरे गीयं, ऊसर छेत्ते ववियं वीयं । संढे लग्गं तरुणि कडक्खं, लवरणविहीणे विविहं भक्खं ॥ अण्णाणे तिब्बं तवचरणं, बलसामत्यविहीणे सरणं । असमाहिल्ले सल्लेहणयं, णिद्धणमणुए णवजोव्वणयं ॥ णिन्भोइल्ले संचिय दविणं, णिएणेहे वरमाणिणि रमणं । अवि य अपत्ते दिएणं दाणं, मोहरबंधे धम्मक्खाणं ॥ पिसुणे भसरणो गुणपडिवणं, रण्णे रूएणं विय लइ सुएणं। 1.19.2-8 -अंधे के आगे नाचना, बहरे के आगे गीत गाना, ऊसर भूमि में बीज बोना, नपुंसक पुरुष की अोर तरुणी स्त्री का कटाक्ष करना. अनेक प्रकार के भोजन होने पर भी उनका लवण विहीन होना, अज्ञानपूर्वक तीव्र तपश्चरण करना, बल और सामर्थ्य से विहीन पुरुष की शरण में जाना, समाधिरहित मनुष्य द्वारा सल्लेखना धारण करना, निर्धन मनुष्य के लिए नवयौवन, नहीं भोगने के लिए मंचित द्रव्य, श्रेष्ठा मानिनी स्त्री का स्नेहविहीन पुरुष के साथ रमण, अपात्र
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जैनविद्या
को दिया हुआ दान, मोहांध को धर्म का व्याख्यान दुष्ट और बकवादी मनुष्य का गुणगान ये सब अरण्यरोदन के समान शून्य में विलय हो जानेवाले हैं, व्यर्थ एवं निष्फल हैं। कि सुक्के रक्खें सिंचिएण, प्रविणीयं कि सबोहिएण। 1.20.2 -सूखे वृक्ष को सींचने और विनयहीन पुरुष को संबोधित करने से क्या लाभ ?
हिंसा
कि होइ हिंस जगसंतियरी, सिलणावइ मूढ़ तरंति सरि। 2.15.4 -क्या हिंसा संसार में शांतिकारी हो सकती है ? मूर्ख ही पत्थर की नाव से नदी पार करना चाहते हैं। पसुणासई जइ हिंसई परमधम्मु उप्पज्जइ । तो बहुगुणि मेल्लि वि मुरिण पारद्धिउ पणविज्जइ ॥ 2.17.19-20 -यदि पशुवधरूपी हिंसा से परम धर्म की उत्पत्ति हो सकती है तो गुणसमृद्ध साधु को छोड़कर पारधी (शिकारी) को प्रणाम क्यों न किया जाय ?
इस प्रकार पाठक देखेंगे कि महाकवि के ये सुभाषित कितने मधुर, कितने प्रभावक हैं ? अज्ञानांधकार एवं निराशा में गर्त व्यक्ति के मानस को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करने और प्राशा से परिपूर्ण करने की शक्ति से कितने सक्षम और अोतप्रोत हैं।
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महाकवि पुष्पदंत
और उनकी रसाभिव्यक्ति
-डॉ. प्रेमचंद रांवका
अपभ्रश काव्यों में हमें भाषा की दो धाराएँ बहती हुई दिखाई देती हैं । एक तो प्राचीन संस्कृत, प्राकृत परिपाटी को लिये साहित्यिक भाषा है जिसमें पदयोजना, अलंकार, शैली प्रादि अलंकृत शैली के अनुसार हैं। दूसरी धारा अपेक्षाकृत अधिक उन्मुक्त और स्वच्छन्द है जिसमें भाषा का सर्वसाधारण की बोलचाल का रूप मिलता है । कुछ कवियों ने एक धारा को अपनाया तो कुछ ने दूसरी को पसन्द किया। "पुष्पदंत" जैसे प्रतिभाशाली कवियों की रचनाओं में दोनों धाराएँ मिलती हैं ।
"रसात्मक वाक्यं काव्यम्" रस ही काव्य का प्रमुख लक्षण या गुण है । काव्य-रस से सहृदयों को जिस आनंद की अनुभूति होती है वह लौकिक पदार्थों से प्राप्त आनंद से उच्चकोटि का होता है। इसलिए उसे "ब्रह्मानंद सहोदर" कहा गया है। आनंद जीवन की मूल्यवान् निधि है । "रसो वै सः" कहकर स्वयं ब्रह्म को प्रानन्दमय माना गया है । इस प्रकार काव्य-रस आनंद प्रदान करनेवाला होने से महत्त्वपूर्ण है।
___ भरतमुनि के अनुसार “विभावानुभावसंचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः” अर्थात् स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारीभावों के संयोग से रस बनता है । रस प्रक्रिया सहृदय को उसके हृदय में विद्यमान स्थायी भाव को ही रसरूप में अनुभव कराती है । स्थायी
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जनविद्या
भाव रसत्व को प्राप्त होकर प्रास्वाद्य होता है । ये जन्मजात सर्वनिष्ठ और रस परिणामी होते हैं । भरतमुनि ने इनकी संख्या नौ मानी है । रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, जुगुप्सा, भय, विस्मय और निर्वेद । इनसे उत्पन्न होनेवाले रस भी नौ होते हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, वीभत्स, भयानक, आश्चर्य और शान्त ।
अंतःकरण में रजोगुण और तमोगुण को हटाकर सत्वगुण के सुन्दर, स्वच्छ प्रकाश होने से जो रस का साक्षात्कार होता है वह अखण्ड, अद्वितीय स्वयं प्रकाश-स्वरूप और आनंदमय है । काव्य में रस का वही स्थान है जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार सब अंग-प्रत्यंगों के रहते हुए भी बिना प्रात्मा के शरीर व्यर्थ है, उसी प्रकार छंद, अलंकार आदि सभी अवयवों से पूर्ण काव्य बिना रस के व्यर्थ है। इसीलिए “रसात्मकं वाक्यं काव्यम्"-- रसयुक्त वाक्य ही काव्य है ।
रसात्मकता की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों में हमें मुख्यरूप से शृंगार, वीर और शान्त रस का ही वर्णन मिलता है । सौन्दर्य वर्णन में शृगार, पराक्रम और युद्धवर्णन में वीर और संसार की असारता, नश्वरता आदि के प्रतिपादन में शान्त रस दृष्टिगोचर होता है। इनमें भी प्रधानता शान्त रस की ही रखी गई है। जहां वीरता के प्रदर्शन से चमत्कृत नायिका प्रात्म-समर्पण कर बैठती है वहां वीर रस शृंगार का और जहां झरोखे में बैठी सुन्दरी की कल्पना का नायक वीरता प्रदर्शन के लिए संग्राम भूमि में उतरता है वहां शृगार रस वीर रस का सहायक होकर आता है। इन दोनों का पर्यवसान शान्त रस में दिखाई देता है। जैन अपभ्रश-परम्परा में धार्मिक भावना विरहित काव्य की कल्पना नहीं की जा सकती। संसार की अनित्यता, जीवन की क्षण-भंगुरता और दुःखबहलता दिखाकर विराग उत्पन्न करना, शान्त रस में काव्य एवं जीवन का पर्यवसान ही कवि को अभीष्ट होता है।
महाकवि पुष्पदंत के काव्यों में वीर, शृंगार और शान्त इन तीन रसों की अभिव्यंजना मिलती है । प्रायः सभी तीर्थंकर, चक्रवर्ती और अन्य महापुरुष अपने जीवनकाल में सुख-भोग की सामग्री की प्राप्ति के लिए अनेक बार युद्ध करते हैं, जीवन के अन्त में संसार से विरक्त हो निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं। ऐसे स्थलों में शृंगार और वीर दोनों रसों का पर्यवसान शान्त रस में होता है। कहीं-कहीं करुण, वीभत्स एवं आश्चर्य रस के दृश्य भी मिलते हैं । सब शान्त रस के पूरक बन कर पाते हैं ।
वीर रस
महापुराण में वासुदेवों एवं प्रतिवासुदेवों के संघर्ष में वीर रस के सरस उदाहरण मिल जाते हैं। वीर रस के वर्णनों में वीर रस के परिपाक के लिए कवि ने भावानुकूल शब्दयोजना की है। भडु को वि भणइ रिउं एंतु चंडु, मई अज्जु करेवउ खंडखंडु।
52.12.4
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जैनविद्या
- युद्धोन्मुख योद्धा की वधू उसे दधि-तिलक नहीं लगाती वह उसे बैरी के रुधिर से तिलक करना चाहती है ।
बहु कासु विवेद र दहियतिलड, हिलसइ वइरिरुहिरेण तिलउ ।
- कोई वधू अपने पति को अक्षत ( टीके पर ) नहीं लगाती, वह तो अक्षत के स्थान पर शत्रु के हाथियों के मोती लगाना चाहती है ।
बहुवि कासु घिवह रण प्रक्खयाउ, खलवइ करिमोतियश्रक्खयाउ ।
भारतीय वीरांगना का यह रूप उत्तरकालीन भारतीय राजपूत नारी में विशेष प्रस्फुटित हुआ है ।
गायकुमारचरित में पुष्पदंत ने नायक को वीर रस का श्राश्रय दिखाया है। यहां वीर रस श्रृंगार से परिपुष्ट है क्योंकि नागकुमार के शौर्य को देखकर स्त्रियां मोहित हो जाती हैं । सैन्य-संचलन में वीर रस की व्यंजना देखिये --
धरिरिग वि संचलइ, मंदरु वि टलटलइ । जलरिगहि वि भलभलइ, विसहरु वि चलचलइ ॥ *
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शृङ्गार रस
महापुराण में श्रृंगार रस की व्यंजना स्त्रियों के सौन्दर्य और नख - शिख वर्णन में मिलती है । शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का निरूपण कवि ने किया है। सीता के वर्णन में कवि कहता है-
far दित्तिय जित्त धत्तियाई इयरह कह विवई मोतियाई ।
मुह ससि जोहर दिस धवल धाइ इयरह कह ससि भिज्जंतुजाइ ॥
- सीता के दांतों की पंक्ति से मोती जीते गये और तिरस्कृत हो गये अन्यथा वे मुखचन्द्रचन्द्रिका से दिशाएँ धवलित हो गईं अन्यथा शशि
क्यों बींधे जाते ? क्यों क्षीण होता ?
नख-शिख के परम्परागत वर्णन में भी कवि ने अपनी अद्भुत कला से अनुपम चमत्कार उत्पन्न कर दिया है । सुलोचना के सौन्दर्य संदर्भ में-
पाहुं काई कमलु समु भरिणयजं तं खणभंगुरु कहिं ण मुणियउं । frees वासरि कहिं मि ण दिट्ठई, कण्णारणहपहाहि गं गट्टई ॥5
- उसके पैरों को कमल के सदृश कैसे कहा जाय ? वे तो क्षणभंगुर है। ऐसा कवियों ने सोचा । दिन में नक्षत्र कहीं नहीं दिखाई देते मानो वे सुलोचना के नखों की प्रभा से नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार कवि ने संयोग श्रृंगार का मर्यादित वर्णन किया है ।
पुष्पदंत के वियोग वर्णन में हा हा कार नहीं, अपितु हृदय को स्पर्श करनेवाली करुण वेदना की पुकार है । ऐसे स्थलों में वियोगी का दुःख उसके हृदय तक ही सीमित
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जैद्यनावि
नहीं रहता, प्रकृति भी उसके शोकावेग से प्रभावित दिखाई देती है। सीता के वियोग से राम को जल विष के समान और चन्दन अग्नि के समान दिखाई देता है । मंदोदरी के विलाप एवं अन्य स्थलों पर कवि की रसाभिव्यंजना सुन्दरता से हुई है--
मलयारिणलु पलयालु भावइ, भूसणु सणु करि बद्धउ गावइ । -वियोगिनी को मलयानिल प्रलयानिल के समान, भूषण सण के बन्धन के समान प्रतीत होता है।
करुण रस
युद्धोत्तर वर्णनों में युद्ध के परिणामस्वरूप करुण-रस और वीभत्स रस के. दृश्य भी सामने आ जाते हैं । करुण रस का एक चित्र मंदोदरी-विलाप में मिलता है
तातहि मंदोयरि देवि किसोयरि थण अंसुयधारहिं धुवइ । शिवडिय गुणजलसरि खगपरमेसरि हा हा पिय भरणंति क्यइ ॥ -उस अवसर पर वह कृशोदरी मंदोदरी देवी अपने वक्षस्थल को अश्रुधारा से धोती है। गुणजलरूपी नदी की भांति (भूमि पर) गिरी हुई वह विद्याधर परमेश्वरी हा प्रिय, हा प्रिय कहकर रो उठती है । पई विणु जगि दसास जं जिज्जइ, तं परदुक्खसमूहु सहिज्जइ ।
हा पिययम भरणंतु सोयाउरु, कंदइ गिरवसेसु अंतेउरु ॥ ___ --हे दशमुख ! यदि तुम्हारे बिना जग में जिया जाता है तो यह परम दुःखसमूह
को सहन करना है । हा प्रियतम ! कहता हुआ शोक से व्याकुल समूचा अन्तःपुर क्रंदन करता है।
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पत्र
शान्त रस
जहां न दुःख रहता है न सुख, न द्वेष और न राग समस्त जीवों में समभाववाला वह शान्त रस प्रसिद्ध माना गया है । शान्त रस का रसराजत्व इसलिए सिद्ध है कि मानव जीवन की समस्त वृत्तियों का उद्गम शान्ति से ही होता है। शान्ति का अनन्त भण्डार आत्मा है। जब आत्मा देह आदि परपदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगती है तभी शान्त रस की उत्पत्ति होती है। यह वह विशुद्ध-ज्ञान और प्रात्मानंद की दशा है, जहां काव्यानंद और ब्रह्मानंद दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जैन कवियों की काव्यरचना का उद्देश्य मनुष्य मात्र में वैराग्य उत्पन्न कर चरमोत्कृष्ट सुख-शान्ति की ओर ले जाना रहा है जिनमें वे सफल हुए हैं।
___ पुष्पदंत के काव्यों में निर्वेद भावों को जागृत करनेवाले कई स्थल मिलते हैं जहाँ शान्त रस का प्रभावी परिपाक बन पड़ा है
इहं संसार दारुण, बहुसरीरसंधारण । वसिऊणं दो वासरा, के के रण गया रणरवरा ॥10
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जैन विद्या
- इस दारुण संसार में दो दिन रहकर कौन नरवर यहां से नहीं गया ? धन इन्द्रधनुष के समान नष्ट हो जाता है । विद्वानों का उपहास करनेवाली लक्ष्मी जलधर के समान अस्थिर है। शरीर, लावण्य और वर्ण सब क्षरण में क्षीण हो जाते हैं ।
पुष्पदंत को अपभ्रंश भाषा का व्यास कहा जाता है । 11 अकेला महापुराण उनकी काव्यकीर्ति को अमरता प्रदान करता है । इनकी रचनाओं में जो प्रोज, प्रवाह, रस और सौन्दर्य है वह अन्यत्र दुर्लभ है । उनकी सरस और सालंकार रचनाएँ परवर्ती संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी कवियों का निदर्शन करती हैं। अनेक परवर्ती कवियों ने उनका सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है । पुष्पदंत की प्रतिभा का प्रतिमान इसी से प्रमाणित होता है। कि इनको अपने महापुराण में एक ही विषय स्वप्न-दर्शन को 24 बार अंकित करना पड़ा परन्तु सर्वत्र नवीन छन्दों एवं नवीन पदावलियों की योजना मिलती है जो उनका Story है ।
साहित्य दर्पण - प्राचार्य विश्वनाथ कविरत्न
अपभ्रंश साहित्य - प्रो. हरिवंश कोछड़
महापुराण - 52.13.4-5
1.
2.
3.
4. गायकुमारचरिउ -7.5.15-16
5.
महापुराण 28.12 7-8
6.
महापुराण 73.3-8
7.
महापुराण 78.21 - घत्ता
8.
महापुराण 78.22.12
9.
यत्र न सुखं न दुःखं न द्वेषो नापि मत्सरः ।
समः सर्वभूतेषु स शान्तः प्रथितो रसः ॥ - भरतमुनि
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10. महापुराण 7.1
11. अपभ्रंश साहित्य - प्रो. कोछड़
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जैन विद्या
शील-महिमा
मा बीहसु करणे अज्ज पवणे मरणदिणे। हिययं अविवंकं गयखयसंकं ठवसु जिणे ॥ छिदउ तणुचम्मं भिंदउ वम्मं रसवसउ । भक्खउ जंगलयं चंपउ गलयं रक्खसउ ॥ घुट्टउ कोलालं खंडउ सोलं जइ रण मुरगी। ता होइ पसिद्धो देवो सिद्धो अट्ठगुणी ॥
भावार्थ-हे कन्ये ! आज अपना मृत्युदिवस आ जाने पर भी भयभीत मत होनो और अपने निर्विकार एवं मृत्यु की शंका से रहित हृदय को जिनेन्द्र के स्मरण में लगायो । शरीर का चर्म छिद जाय, शरीर का रस, वसा आदि भिद जावें और राक्षस उसका मांस खा डालें तो भी यदि मुनि अपना शील खण्डित न करे तो वह मुनि प्रसिद्ध होता है, देवयोनि प्राप्त करता है एवं अष्टगुणधारी सिद्ध भी हो जाता है।
जस० 115.5-10
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महाकवि पुष्पदंत की विचारदृष्टि
एवं उपमानसृष्टि
- डॉ० श्रीमती पुष्पलता जैन
महाकवि पुष्पदंत दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश के उन श्रेष्ठ कवियों में से हैं जिन्होंने पांडित्य और वैदूष्य के साथ ग्रंथों की रचना की है। उनकी पर्यवेक्षण शक्ति अनोखी थी, काव्य-प्रतिभा के धनी थे । स्वाभिमानी पंडित थे और थे मानवता के पुजारी । गिरिकन्दराओं में रहना उन्होंने उचित समझा, पर किसी की वक्रदृष्टि को वे सहन नहीं कर सके । दक्षिणवासी ब्राह्मणजन्मा पुष्पदंत जीवन के अन्त तक इसी विचारधारा पर अडिग रहे । उनकी विद्वत्ता, गंभीरता और सूक्ष्मचिंतन को भरत और नन्न ने भली-भांति समादृत किया फलतः महापुराण, जसहरचरिउ और गायकुमारचरिउ जैसे तीन उच्च कोटि के काव्य उनकी सरस्वती साधना की मणिमाला के तेजस्वी रत्न आज हमें उपलब्ध हो सके ।
विचारदृष्टि
महाकवि पुष्पदंत विचारों के धनी थे। कथासूत्र के साथ जोड़ दिया है। उन सभी पर कतिपय बिन्दुनों पर ही प्रकाश डाला जा रहा है।
उन्होंने हर क्षेत्र में अपने विचारों को विचार करना संभव नहीं इसलिए यहां ऐसे बिन्दुनों में धर्म अन्यतम है । धर्म
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वस्तुतः एक रहस्यात्मक तत्त्व है, अनुभूतिगम्य है इसलिए जितना अधिक मंथन और चिंतन धर्म पर हुआ है उतना शायद अन्य किसी विषय पर नहीं हुआ । धर्म की यथार्थता तक वही पहुँच सकता है जिसने स्व और पर की भेदक रेखा को खींच लिया हो, संसार और मृत्यु को समझ लिया हो तथा भेद - विज्ञान की देहली पर बैठकर अन्तर में झाँकने का साहस जुटा लिया हो । महाकवि ने धर्म के संदर्भ में जो विचार व्यक्त किये हैं वे निश्चय श्रौर व्यवहार की समन्वित अवस्था में ही पुष्पित- फलित हुए हैं । इसलिए आज भी वे सामयिक बने हुए हैं ।
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पुष्पदंत के तीनों ग्रंथों की पृष्ठभूमि में महापुरुषों का वह व्यक्तित्व है जो प्रधार्मिक व्यक्तियों को दंडित कर या तो उनको धार्मिक बना देता है अथवा समाज को उनके कराल पंजे से मुक्त कर देता है । इसलिए कवि ने धर्म की व्याख्या को अधर्म के साथ जोड़ दिया है । उनकी दृष्टि में धर्म वह है जहां दुष्ट का परिपालन और साधु का वध किया जाय
हो परिपालणु, जह किज्जइ, सो ग्रहम्मु जहि साहु वहिज्जइ । 1
आचार्य समन्तभद्र ने धर्म की परिभाषा " यो धरत्युत्तमे सुखे" लगभग तृतीय शती की अपनी सामाजिक और धार्मिक तथा राजनीतिक स्थिति के साये में की, तो पुष्पदंत को दसवीं शती में अधर्म की व्याख्या के माध्यम से धर्म को समझाने की आवश्यकता प्रतीत हुई । यह परिभाषा धर्म, समाज या राष्ट्र को सामने रखकर भी उतनी ही सामयिक होगी जितनी स्व को केन्द्रित कर की जा सकती है। इसलिए उन्होंने अपने समूचे साहित्य में धर्म के साथ हिंसा को एकाकार किया है । उपशम, दम, यम व संयम इसी के अंग हैं
गावइ उपसमुदमु जमु संजमु, गाई श्रहिंसए वाविउ यिकमु । 2
इसलिए धर्म के प्रधान अंग के रूप में जरा-मरणादि दुःख परम्परा को समाप्त
जीवदया को स्वीकार किया है । करनेवाला होता है ।
धम्मु करेहु तुम्हि वयसारउ भवे भवे जरमरणाइ शिवारउ ।
यही धर्म
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि महाकवि ने अहिंसा को ही धर्म अवश्य माना है पर व्यावहारिक क्षेत्र में उतर कर उन्होंने यह भी कहा है कि अनुचित कार्य को रोकने के लिए युद्ध भी करना पड़े तो उससे पीछे नहीं हटना चाहिये । पौरुष सज्जनों का गुरण है और उसका उपयोग दीनों के उद्धार में किया जाना चाहिये तभी उसकी सार्थकता है
पारंभिय बलिबल रिग्गहेण, रणु चंगउ दीरणपरिग्गहेण । सयरणत्तणु सज्जरगुरणगहेण पोरिसु सरगाइयरक्खणे ॥ जुज्झिज्जर किज्जइ कज्जसिद्धि, दिज्जइ विहलियदुत्थियहं रिद्धि | 3
महाकवि ने आगे गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का भी विवेचन किया है पर उस विवेचन में शासकीय वृत्ति कम और व्यावहारिकता अधिक दिखाई देती है । उन्होंने अणुव्रत या महाव्रत जैसे शब्दों का प्रयोग न कर सीधे-साधे शब्दों में उसे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने मुनिराज के मुख से गृहस्थधर्म का वर्णन कराया है और कहा है कि गृहस्थधर्म
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वही नरश्रेष्ठ धारण करता है, जो नित्य ही त्रस जीवों के प्रति दया करने में तत्पर रहता है, जो विनयी, सत्यवादी और मधुरभाषी होता है, जो दूसरे के द्रव्य का अपहरण नहीं करता, जो पर-स्त्री से पराङमुख रहता है। लोभ के निग्रह और परिग्रह के प्रमाण द्वारा ही गृहधर्म धारण किया जाता है । इसी प्रसंग में उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना, मद्य मांस-मधु का परित्याग करना, पंचोदम्बर फलों का त्याग करना, शिक्षाव्रतों का पालन करना, सामायिक प्रोषधव्रत करना आदि को भी आवश्यक बतलाया है । इसी के परिपूरक रूप में आचार्य श्रुतिधर ने नागकुमार को जो गृहस्थधर्म का विवेचन किया है वह भी द्रष्टव्य है
जो समस्त जीवों पर दया करता है, झूठ वचन नहीं कहता, सत्य और शौच में रुचि रखता है, चुगलखोरी, अग्नि के समान कर्कश वचन, ताड़न-बंधन और अन्य पीड़ाविधि का प्रयोग नहीं करता, क्षीण, भीरु, दीन और अनाथों पर कृपा करता है, मधुर करुणापूर्वक वचन बोलता है, दूसरे के धन पर कभी मन नहीं चलाता, प्रदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करता, के अपनी पत्नी से ही रमण करता है, परस्त्री पर दृष्टि नहीं चलाता, पराये धन को तृण समान मानता है, गुणवानों की भक्तिसहित स्तुति करता है, जो अभंगरूप से इन धर्मों के अंगों का पालन करता है, वही धर्म का धारक है। अंत में तो कवि झुंझलाकर यह भी कह उठते हैं कि क्या धर्मी के सिर पर कोई ऊँचे सींग लगे रहते हैं । इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि उनकी दृष्टि में धर्म की यही सरलतम परिभाषा हो सकती है ।
यहां यह द्रष्टव्य है कि महाकवि पुष्पदंत ने अमृतचंद्र और अमितगति आदि आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट श्रष्टमूलगुरण - परम्परा का अनुकरण किया है। इसके साथ रात्रिभोजनत्याग को भी सम्मिलित किया है । लगता है उन्होंने समन्तभद्र और रविषेण दोनों की परम्परानों को समन्वित करने का प्रयत्न किया है। महाकवि आशाधर इस संदर्भ में प्रभावित दिखाई देते हैं । इसी तरह शिक्षाव्रतों के संदर्भ में भी पुष्पदंत की समन्वयदृष्टि का पता चलता है ।
इन दोनों प्रसंगों में विवेचित गृहस्थधर्म को शास्त्रीय परिभाषा में नहीं बांधा गया बल्कि कुछ ऐसे भी तत्त्वों को सम्मिलित कर दिया गया है जो अणुव्रतों के अन्तर्गत नहीं प्राते या प्राते भी हैं तो स्पष्ट नहीं होते । यह तथ्य कवि की अथक व्यावहारिक दृष्टि की ओर इंगित करता है । उनकी सूक्ष्म दृष्टि वहां और अधिक दिखाई देती है जहां वे सामुदायिक चेतना के आधार पर कहते हैं कि सम्पत्ति का सदुपयोग तो तभी कहा जा सकता है जब वह गरीबों के उद्धार में लगे और जीवन की सार्थकता भी तभी मानी जा सकती है जब वह असहाय की सहायता करे। एक अन्य स्थान पर उन्होंने धन को दान से अलंकृत माना है अन्यथा वह घोर पाप का कारण है । 7
इसी प्रकार श्रीपंचमीव्रतोपवासविधि के प्रसंग में उन्होंने पशुओंों को भी भोजन कराने का नियम निर्धारित किया है । इन सभी तत्त्वों को महाकवि ने गृहस्थधर्म के चौखटे में बांधने का प्रयत्न किया है। यहां एक अन्यतम विशेषता और भी द्रष्टव्य है कि यहां रात्रिभोजन करने का भी निषेध कर दिया । इतना ही नहीं, उन्होंने रात्रि में मिष्ठान्न
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का भी त्याग करना आवश्यक बताया है । लगता है, महाकवि के समय रात्रि में मिष्ठान्न खाने की प्रथा अधिक बलवती हो गयी थी ।
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इसके अतिरिक्त महाकवि ने कुछ और भी महत्त्वपूर्ण विचारदृष्टि प्रस्तुत की है । उदाहरणार्थ - बालकों में गुणों की प्रेरणा हो और उन्हें दोषों से दूर रखा जाय, विनय की शिक्षा दी जाय 110 नारी निन्दा के संदर्भ में उन्होंने परम्परागत स्वर में ही अपने स्वर मिलाये हैं पर यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने प्रकुलीन स्त्रीरत्न को स्वीकार करने की भी वकालत की है और कहा है कि शुद्धचित्त वेश्या भी कुल-पुत्री हो सकती है । 11 इससे यह प्रतीत होता है कि महाकवि यद्यपि नारी को प्राध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में बाधक तत्त्व के रूप में स्वीकार करते थे पर उसकी सामाजिक दशा को सुधारने की ओर भी उनकी पैनी दृष्टि लगी हुई थी ।
दीक्षा देने का भी विरोध समझाते हैं कि तुम अभी इसके विपरीत तपस्या
एकाधिक स्थान पर पुष्पदंत ने बालक-बालिकाओंों को किया है । 12 अभरुचि दीक्षा लेना चाहते हैं पर मुनिराज उन्हें अत्यन्त दुबले-पतले बालक हो और कमलपत्र के समान कोमल हो। करने का विधि-विधान बहुत कठिन होता है । इसलिए बालक-बालिकाओं के लिए यह ग्रहण करने योग्य नहीं है । तुम तो उत्तम श्रावक बनकर गुरु की सेवा करते हुए ग्रागमपदों का शिक्षण प्राप्त करो । परिपक्वता के बिना साधु के व्रत भार भी बन सकते हैं, वह पथभ्रष्ट भी हो सकता है | महाकवि का मन्तव्य यह भी प्रतीत होता है कि एक तो साधु-अवस्था क्रमिक वृत्ति का परिणाम होना चाहिये और दूसरी बात यह कि व्यक्ति यदि उसे गृहस्थावस्था के बाद अंगीकार करता है तो उसमें परिपक्वता और स्थिरता अधिक रहेगी ।
उपमानसृष्टि
कवि की प्रतिभा और काव्य के सौन्दर्य को उपमान के निकष से परखा जाता रहा है क्योंकि उपमानों के संयोजन में उसकी पैनी दृष्टि निहित रहती है। जिसके साथ उपमेय की समता स्थापित की जाय उसे उपमान कहा जाता है । इसलिए उपमेय को अल्पगुणशाली तथा उपमान को उत्कृष्ट गुणशाली माना जाता है । उपमान के लिए अप्रस्तुत, प्रकृत, वर्ण्य विषयी, प्राकरणिक, अप्रासंगिक जैसे शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । साम्य-स्थापनरूप साधारण धर्म जब उपमान- उपमेय में रहता है तभी उनमें तुलना की जाती है । वे साधारण धर्म विशेषतः अनुगामी वस्तु प्रतिवस्तु तथा बिबप्रतिबिंब भाव में प्रतिफलित होते हैं । उपमेय-उपमान में जब धर्म एक रूप में स्थित होता है तो उसे अनुगामी धर्म कहते हैं । जब भिन्न-भिन्न वाक्यों में विभिन्न शब्दों द्वारा व्यक्त हो तो उसे वस्तु प्रतिवस्तु-भाव कहते हैं और जब साधारण धर्म के भिन्न-भिन्न होने पर भी पारस्परिक सादृश्य के कारण उनमें भिन्नता स्थापित की जाती है तो उसे बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव कहा जाता है इस दृष्टि से उपमान का क्षेत्र काफी व्यापक हो जाता है । उपमान के इस क्षेत्र की व्यापकता को हमने कुछ और बड़े कॅनवास में ले लिया है । महाकवि के ग्रंथों को देखने से उनकी उपमानसृष्टि की गहराई का पता चलता है ।
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उपमान
' महाकवि पुष्पदंत द्वारा प्रयुक्त उपमानों को हम सुविधा की दृष्टि से भाव, अंग और वस्तु के रूप में विभाजित कर सकते हैं। यह विभाजन निर्दोष नहीं होगा यह समझते हुए भी सुविधा के लिए इनका वर्गीकरण कर दिया गया है1. भाव के सन्दर्भ में उपमान बुद्धि वृहस्पति,
(णाय० 1.4) प्रभुशक्ति हनुमान,
(णाय० 1.4) चारित्र्यशुद्धि गांगेय (भीष्म)
(णाय० 1.4) कामिनियों के हाव-भाव नदी जल की भौंर,
(णाय० 1.3) त्याग
(णाय० 1.4) गौरव पृथ्वी,
(णाय० 1.4) स्थिरता, उन्नत
(गाय० 1.4) गंभीरता, क्षमा समुद्र
(णाय० 1.4) उज्ज्वलता प्रोस,
(णाय० 1.6) सौम्यता, कांति चन्द्र
(गाय० 9.16, 1.5) सूर्य,
(णाय० 9.16) अभिमान ज्वाला
(णाय० 9.16) हाथी की सूंड का चारों ओर लपकना
- (णाय-1.8)
कर्ण,
मेरु,
तेज
मन
2. ग्रंग के संदर्भ में उपमान
मुख
भुजा, उरु
नई मूंग स्तंभ हाथी की सूड अर्गला
कृष्ण केश
(जस. 1.2, 1.14)
(णाय. 5.10)
(णाय. 1.7) (णाय. 1.57, 3.4).
(णाय. 4.1)
(जसहर. 1.17) (जस. 1.15, णाय. 1.5)
(णा 44.7) (जस. 1.5) (जस. 1.5) (जस. 1.8)
(जस. 1.9) (जस. 1.14, 1.23)
(णाय. 1.15)
भ्रमर कृष्णनील लेश्या कोटद्वार का कपाट मेघगर्जन जल बहनेवाली नाली दूज का चांद कमल हरिण नेत्र
वक्षस्थल' शब्दोच्चारण अंधा मनुष्य दाढ़ .
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जनविद्या
....
अधर .. भाल
कुबड़ा अंग आँख
हृदय
बिम्बाफल राजपट्ट अग्नि से दग्ध वृक्ष कीचड़ का बुलबुल पलटी पीठ वृक्ष पल्लव नये अंकुर नये कोपल कमल नाल
जिह्वा
(जस. 1.17) (जस. 1.17) (जस. 2.6) (जस. 2.6)
(जस. 2.6) (णाय. 3.35) (णाय. 3.35) (णाय. 4.6) (णाय. 2.1) (जस. 1.17) (णाय. 3.4)
नख
कामिनी की भुजायें
नासिका
स्कन्ध
वल्ली की शाखायें चम्पक पुष्प सिंह सदृश कूक जलतरंग
मधुर शब्द त्रिवली
(णाय. 2.1) (णाय. 1.17)
3. वस्तु के संदर्भ में उपमान
तोरण मणिमय श्मशान भूमि .. खड्ग सहित राजा रत्नप्रभा कुंकुम कामासक्त राजा दिशा
(जस. 1.4) (जस. 1.13) (जस. 1.16) (जस. 1.22) (जस: 1.22)
(जस. 2.1)
(जस. 2.4) - (जस. 2.2)
सन्ध्या
मणिमय हारयुक्त पुरवासियों के मुख यमराज की. गोचर भूमि दाढ़ों से भोजन करता सिंह धवलकीर्ति पदमराग मरिण हस्तियों के बीच वनगजेन्द्र नारी लता चक्र, कृष्ण, गुरुमंडन, कीर्तिमुख, अमृतकुंड, यशःपुंज, श्वेत छत्र अशोक वृक्ष का नवीन पल्लव, सिंदूरपुंज, अरुण छत्र, चूड़ारत्न लालकमल लाल अंकुर हिमहारावलि तारागरण
चन्द्र
(जस. 2.2)
ज्योत्स्ना थाल की कटोरियां
अचार. . . .. विषेले लड्डू
(जस. 2.12) (जस. 2.12) (जस. 2.2) (जस. 2.2) (जस. 2.23) (जस. 2.24) (जस. 2.24)
शत्रु
घातक मृत्य
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जनविद्या
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दुष्कर्म
मयूरपंख पंचरंगी मणिमाला
(जस. 2.30) इन्द्रधनुष तोरण
(जस. 2.30) कचड़ा
(जस. 3.24) कुत्तों की पूंछ पापिष्ठ के चित्र
(जस. 3.35) घास के पूले कुकवियों की कवितायें
(जस. 1.3) पुष्पित वन कामिनियों का नवयौवन
(जस. 1.3) परिखा जल परिधान
(णाय. 1.7) प्राकार प्रोढ़ा हुआ चीर
(णाय. 1.7) कुंकुम रति की रंगभूमि
(णाय. 1.7) रंगावलियां हारपंक्ति
(साय. 1.7) नारी गति हंस गति
(णाय. 1.7) गज गति
(णाय. 3.5) भस्त्रा (धौंकनी) ... सांसे भरना
(णाय. 2.10) द्यूत फलक गगन प्रांगन
(णाय. 3.12) पांसा चन्द्रमा
(णाय. 3.12.) कौंडिया नक्षत्र
(णाय. 3.12) अभद्र तुरंग
दुर्जन, कर्ण, यम, लक्ष्मण (णाय. 3.14) व्यंजनसहित भोजन विपुल गहन वन
(णाय. 6.9) नाटक
. (णाय. 6.9) घृत निर्मित पकवान स्नेहसिक्त मिथुन
--- (णाय. 6.9) स्वादयुक्त भोजन आयुबंधयुक्त गति कर्म - - (णाय. 6.9) उचित प्रमाण छन्द मात्रा नियमित काव्य (णाय. 6 9) व्यंजन का प्राधिक्य व्याकरण जो व्यंजन पर .. .. : अधिक विचार करे
(णाय. 6.9) शुद्ध दूध
व्याकरण जो सुबन्त आदि .... पर विचार करे -
(णाय. 6.9) रोगनाशक भोजन गज विनाशक सिंह
(णाय. 6.9) मुंडित दासियां
(णाय. 7.1) सत्पुरुष वट-वृक्ष
(णाय. 8.9) जिनेन्द्र
विष्णु, हर, सूर्य, ब्रह्मा, अग्नि (णाय. 8.10) मंगल-कलश यज्ञोपवीतयुक्त ब्राह्मण
(णाय. 9.12) कलश-धारा
(णाय. 8.10) सिर पर रखा कलश शिष्यों से घिरा गुरु
(णाय. 8.10) पल्लव ढका कलश कल्पवृक्ष
(णाय. 8.10) कंठयुक्त कलश मधुरकंठी गायक
(णाय. 8.12)
तम्बू
नवमेघ
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जैन विद्या
महाकवि पुष्पदंत की रचनायें इस प्रकार की सामग्री से प्रोत-प्रोत हैं कि उनमें महाकवि का काव्यत्व, दार्शनिक का चिंतन और अध्यात्मवेत्ता का गुह्य रहस्य भरा हुआ है । समय के साथ कदम मिलाने की अपूर्व क्षमता और प्रतिभा से उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सना हुआ है। जैन धर्म को उन्होंने कुछ नया आयाम देने का जो प्रयत्न किया है वह तात्कालिक परिस्थितियों के संदर्भ में नितांत आवश्यक था। प्रस्तुत संक्षिप्त लेख में उनके गहन विचार और पर्यवेक्षण शक्ति का आभास मात्र उपस्थित किया जा सकता है । आवश्यकता है, उनके समग्र अध्ययन की जिससे सांस्कृतिक, भाषिक और दार्शनिक नये तथ्य उभर कर सामने आयें और अपभ्रश साहित्य की बेजोड़ विशेषताओं को उद्घाटित कर नया दिशाबोध दे सकें।
1. गायकुमारचरिउ, 3.2 2. वही, 9.4,
वही, 2.13 संजमु तवचरणू णियमुद्धरणु धम्मु जि मंगलु वुत्तउ ।
वही, 2.9 णं जणेउ अहिंसए धम्मु परु । 3. वही, 8.13, यह कथन पाक्षिक श्रावक की दृष्टि से किया गया है । 4. वही, 4.2 5. वही, 6.10 6. वही, 7.14, शास्त्रीय परिभाषा में बंधे धर्म को देखिये ।
वही, 9.12 7. जसहरचरिउ, 2.11
णायकुमारचरिउ, 8.13 8. णायकुमारचरिउ, 9.21 9. जसहरचरिउ, 4.9 10. वही, 1.24 11. रणायकुमारचरिउ, 3.7 12. जसहरचरिउ, 4.8, 4.15
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महाकवि पुष्पदंत
काव्यप्रतिभा
-डॉ० वृद्धिचन्द्र जैन
अपभ्रंश भाषा के मुकुटमणि, अभिमानमेरु महाकवि पुष्पदंत द्वारा प्रणीत साहित्य साहित्य-जगत् की बहुमूल्य निधि है। जैन ग्रंथ भण्डारों में इस अपभ्रंश भाषा का साहित्य प्रचुर मात्रा में भरा पड़ा है । यह बहुत समय तक लोक-भाषा तो रही ही साथ ही इसको राज्याश्रय भी प्राप्त था। इसका पता हमें राजशेखर की काव्यमीमांसा के इस कथन से भलीभांति ज्ञात होता है कि राजसभाओं में राजासन के उत्तर की ओर संस्कृतकवि, पूर्व की ओर प्राकृतकवि, पश्चिम की ओर अपभ्रंशकवियों को स्थान दिया जाता था।
पुष्पदंत का परिवार में प्रचलित नाम "खण्ड" या "खण्डु" था । "अभिमानमेरु", "अभिमानचिह्न," "काव्य-रत्नाकर", "कविकुल-तिलक", "सरस्वती-निलय", "काव्य-पिसल्ल" (काव्यपिशाच) इत्यादि उनकी पदवियां थीं। इन पदवियों से उनके व्यक्तित्व की कल्पना सहज में ही की जा सकती है।
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(1)
( 2 )
( 3 )
जैन विद्या
महाकवि पुष्पदंत की निम्न तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-
तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकार (त्रिषष्टिमहापुरुषगुणालंकार) या महापुराण
गायकुमारचरिउ ( नागकुमार चरित्र ) जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र )
अपभ्रंश के अप्रतिम महाकवि पुष्पदंत के इन ग्रंथों के प्रालोक में ही उनकी काव्यप्रतिभा के सम्बन्ध में प्रति संक्षेप में विचार व्यक्त किये गये हैं
गायकुमारचरिउ ग्रंथ के आरम्भ में कवि ने काव्य तत्त्वों का बड़ा ही अच्छा वर्णन प्रस्तुत किया है । कवि रूपक अलंकार प्रस्तुत करता हुआ लिखता है -
दिति ।
धरति । संभरंति ।
दुविहालंकारें विष्फुरंति लीलाको मलई पयाइँ महकवरिल रि संचरंति बहुहावभावविन्भम सुपसत्यें प्रत्यें दिहि करंति सव्वš विष्णारण रीसेसदेसभा स चंवति लक्खगईं विसिट्ठइँ दक्खवंति । श्रहरु दछंदमग्गेरण जंति पाणेहि मि दह पारणाइँ लेंति । वह मि रसेहिँ संचिज्जमारण विग्गहतएण गिरु सोहमारग । पुल्लि वुवालसंगि जिरणवयरण विणिग्गय सत्तभंगि । वायररणवित्ति पाय डियरणाम पसियउ मह देवि मरणोहिराम |
गाय 1.1.3-10
- वह सरस्वती देवी मुझ पर प्रसन्न होवे जो शब्द और अर्थ इन दोनों प्रकार के अलंकारों से शोभायमान है, जैसे स्त्री अपने शीलादि से आभ्यन्तर गुरणों तथा वस्त्राभूषणादि बाह्य अलंकारों से सुन्दर दिखाई देती है, जो लीलायुक्त कोमल सुबन्त तिङन्तादि पदों की दात्री है, जैसे स्त्री विलासपूर्ण कोमल पदों से चलती है, जो महाकाव्यरूपी गृह में संचरण करती है, जो विविध हाव-भाव और विभ्रमों को धारण करती हैं, जो सुप्रशस्त अर्थ से
आनन्द उत्पन्न करती है, जैसे सद्गृहिणी अच्छा धन संचय कर पति को आश्वस्त करती है, जो समस्त देश- भाषाओं का व्याख्यान करती है, जो संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के विशेष लक्षणों को प्रकट करती हैं, जैसे सौभाग्यवती स्त्री के कलशादि सामुद्रिक चिह्न दिखाई देते हैं, जो विशाल मात्रादि छन्दों द्वारा विचरण करती है, जैसे कुलवधू अपने सास-ससुर आदि श्रेष्ठ पुरुषों के अभिप्रायानुसार आचरण करती है, जो काव्य-शैली के श्लेष प्रसादादि दस प्रारणभूत गुणों को ग्रहण करती है, जैसे स्त्री पंचेन्द्रियादि दस प्राणों को धारण करती है, जो शृंगारादि नवरसों से संसिक्त होती है, जैसे गृहिणी नवीन घृत, तैलादि रसों से भरपूर रहती है, जो तत्पुरुष कर्मधारय और बहुब्रीहि नामक तीन समासों अथवा समास, कारक और तद्धित रूप तीन विग्रहों से शोभायमान होती है, जैसे स्त्री ऊर्ध्व मध्य एवं अधो शरीररूपी त्रिभंगी से सौन्दर्य को प्राप्त होती है, जो प्राचारांग आदि
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द्वादश अंगों एवं चौदह पूर्वो से युक्त है, जैसे स्त्री अपने हाथ, पैर आदि द्वादश अंगों एवं पितृ पक्ष के सात व मातृ पक्ष के सात इन चौदह पूर्वजों से कुल स्त्री होती है, जो जिनेन्द्र के मुख से निकली उपदेशात्मक स्याद्वादरूपी सप्तभंगी से सम्पन्न है, जैसे सद् स्त्री जिनेन्द्र द्वारा उक्त शंखादि विविध लक्षणों से युक्त होकर शोभायमान होती है तथा जिनका नाम व्याकरण, वृत्ति से विख्यात है।
राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कवि ने उत्प्रेक्षा की श्रेणी ही प्रस्तुत कर दी हैजोयइ व कमलसरलोयणेहि पच्चइ व पवरणहल्लियवणेहि। ल्हिक्कइ व ललियवल्लीहरेहिं उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहिं । वरिणयउ व विसमवम्महसरेहिं करणइ व रयपारावयसरेहि। परिहइ व सपरिहाधरियणीर पंगुरइ व सियपायारचीरु । णं घरसि हरग्गहिँ सग्गु छिवइ णं चदमिय धाराउ पियइ । कुंकुम छडएं रणं रइहि रंगु णावइ दक्खालिय-सुहपसंगु । विरइय मोत्तिय रंगावलीहिं जं भूसिउ णं हारावलीहि । चिहिँ धरिय रणं पंचवण्णु चउवण्णुजणेण वि भइरवग्गु ।
णाय. 1.7.-1.8
कवि कहता है कि वह राजगृह मानो कमल-सरोवररूपी नेत्रों से देखता था, पवन द्वारा हिलाये हुए वनों के रूप में नृत्य कर रहा था तथा ललित लतागृहों के द्वारा मानो लुका-छिपी खेलता था, अनेक जिन-मन्दिरों द्वारा उल्लसित हो रहा था, कामदेव के विषबाणों से घायल होकर मानो अनुरक्त कपोतों के स्वर से चीख रहा था, परिखा के भरे हुए जल के द्वारा वह नगर परिधान धारण किये था तथा अपने श्वेत प्राकाररूपी चीर को अोढ़े था मानो चन्द्र की अमृतधारा को पी रहा था, कुंकुम की घटानों से जान पड़ता था जैसे वह रति की रंगभूमि हो और वहां के सुख प्रसंगों को दिखला रहा हो, वहां जो मोतियों की रंगावलियां रची गई थीं उनसे प्रतीत होता था मानो वह हार-पंक्तियों से विभूषित हो, वह अपनी उठी हुई ध्वजारों से पंचरंगा और चारों वर्गों के लोगों से अत्यन्त रमणीक हो रहा था।
कवि वस्तु-वर्णन प्रणाली एवं वर्णन-प्रवीणता दोनों में अपनी अनूठी प्रतिभा का परिचय देता है। प्रकृति-वर्णन के अन्तर्गत मगध देश की वनश्री सम्पदा, सम्पन्नता, गंगायमुना वर्णन, नारी के रूप में गंगा सौंदर्य, लंका के समुद्र का वर्णन, हिमालय-कैलाश वर्णन, सूर्योदय-चन्द्रोदय वर्णन, संध्या वर्णन, बसन्त, वर्षा, शरद् आदि ऋतु वर्णन, मगध-यौधेय आदि देश तथा राजगृह, राजपुर आदि नगर-वर्णन सूक्ष्मावलोकन से परिपूर्ण कवि की अद्भुत प्रतिभा एवं उत्कृष्ट काव्य-शैली के प्रतिनिदर्शन हैं । युद्ध वर्णन, जल-क्रीड़ा, उपवनक्रीड़ा, नृत्य-गान, संगीत, गोपियों आदि के वर्णन, नख-शिख वर्णन बड़े ही रोचक तथा अनुपम हैं।
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जैनविद्या
शृंगार, वात्सल्य, करुणा, शान्त, अद्भुत, वीर, भयानक आदि रसों का काव्य में अच्छा परिपाक दृष्टिगोचर होता है ।
कवि ने अपने काव्यों में कला-पक्ष के अन्तर्गत अलंकार, छन्द, उक्तिवैचित्र्य आदि का अच्छा समावेश किया है।
हिमालय प्रदेश का वर्णन करते हुए कवि ने उसका अच्छा सजीव चित्र प्रस्तुत किया है, यथा
गाणामहिरह फलरसहरई कत्थइ किलिगिलियइंवारणरइं । कत्थइ रइरत्तइं सारसई कत्थइ तवत्तइं तावसई । कत्थइ झरझरियइं पिज्झरइं कत्थइ जलभरियई कंदरई । कत्थइ वीणियवेल्लीहलई दिढ्इं भज्जंतइं साहलई ।
महापुराण-15.1.6-7 कहीं नाना फलोंयुक्त वृक्ष हैं, कहीं वानर किलकारियां भरते हुए दौड़ रहे हैं, कहीं रति में लीन सारस हैं, कहीं तपस्या में लीन तपस्वी हैं, कहीं निर्भर झर-झर झर रहे हैं, कहीं जल से भरी कन्दराएँ हैं, कहीं भोले-भोले शबर देखते ही भागते हैं ।
राजगृह का वर्णन करता हुमा कवि लिखता है कि वहां जो मोतियों की रंगावलियां रची गई थीं उनसे प्रतीत होता था मानो वह हार-पंक्तियों से विभूषित हो। वह अपनी उठी हुई ध्वजारों से पंचरंगा और चारों वर्गों के लोगों से अत्यन्त रमणीक हो रहा था।
विरइयमोत्तियरंगावलीहिं जं भूसिउ णं हारावलीहि । चिहिँ धरिय रणं पंचवण्णु चउवण्ण जणेण अइरवण्णु ।
णाय. 1.7.7-8
कवि ने अलंकारों के प्रयोग में अपनी विशिष्ट अभिरुचि प्रदर्शित की है। अलंकार को सुकवि के काव्य का प्रावश्यक अंग माना गया है और निरंलकार को कुकवि की कथा कहा हैनिरलंकार कुकइ कह जेही।
गाय. 3.11.12
उपमा अलंकार
माता मरुदेवी के गर्भ में जब ऋषभ का जीव आता है तो कवि उसकी उपमा शरदकालीन मेघ के मध्य चमकता हुअा चन्द्र तथा कमलिनी-पत्र पर स्थित जलबिन्दु से देता है
सरयम्भमण्झम्मि रइरवइंदु ध्व, सयवत्तिणीपत्तए तोयबिंदु व्व ।
महापुराण, 2.7.10
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जैन विद्या
उत्प्रेक्षा अलंकार
चलना देवी से मंडित राजा श्रेणिक ऐसे सुशोभित होते हैं मानो वल्लरी सुरतरु का आलिंगन कर रही हो -
चेल्लिरिणदेवि मंडिउ गं श्रवरु डिउ वल्लरीइ सुरतरुवरु ।
महापुराण, 1.17.13
चन्द्रोदय के वर्णन के समय कवि कुछ मनोरम कल्पनाएं करता है जिसमें उत्प्रेक्षालंकार की छटा दर्शनीय है - चन्द्रमा मानो अन्धकार समूह को खण्डित करनेवाला चन्द्र हो, मानो देवों के कृष्णमुख का मण्डन हो, मानो कीर्ति देवी ने अपना मुंह दिखाया हो, मानो लोगों को सुखदायी अमृतकुण्ड प्रकट हुआ हो, मानो परमेश्वर का यश पुंज हो, मानो इन्द्र का श्वेत छत्र हो, रात्रिरूपी वधू के मस्तिष्क का तिलक हो अथवा स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों के गमनागमन को रोकने का साधन हो—
तमोहविहंडरगउ णं
चक्कु सुरकरिसियमुहमंडणउ । णं कित्तिए दाविउ यियमुहु णं श्रमयभवणु जगदिसु । णं जसु पुंजिउ परमेसरहो णं पंडुरछत्तु सुरेसर हो । णं रयरणीवहुहि खिलाडतिलउ उग्गउ ससि गं सइरिगिविलउ
कवि के काव्यों में सूक्तियों का प्रयोग मणिकांचन सदृश दर्शनीय है
जो जं करइ सो ज्जि तं पावइ । म.पु. 7.7.10
- जो जैसा करता है वह वैसा प्राप्त करता है ।
सुहाइ उलूयहो उइउ भाणु । म.पु. 1.8.5
- उलूक को सूर्योदय अच्छा नहीं लगता ।
मारग भंग वर मरणु रंग जीविउ । म.पु. 16.21.8 - मान भंग हुए जीवन से मरना श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है।
भरियड पुणु रित्त होई । म. पु. 39.8.5
- जो भरता है वह खाली भी होता है ।
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ati gas fuses लिहियउ । म.पु. 24.8.8.8
- ललाट पर लिखा हुआ कौन मिटा सकता है ।
जस. 2.2.7-10
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जनविद्या
कवि के काव्यों में उक्तिवैचित्र्य भी देखने को मिलता है । परोपकार ही मनुष्य का भूषण है इस पर जोर देने के लिए कवि ने अठारह विभिन्न मंडनों (भूषणों) की कल्पना की है
भुवणहु मंडणु परहंतु देउ माणिणिमुहमंडणु मयरकेउ । वेसहि मंडण वइसिउ णिरुत्त ववहार मंडणुहु चायवित्त ।
म.पु. 8.15.5.6 कवि की छन्द-योजना भी अद्वितीय है। मात्रिक तथा वर्णिक छन्दों के विभिन्न प्रकारों का प्रयोग कवि के काव्यों में सर्वत्र दिखाई देता है।
इस प्रकार महाकवि पुष्पदंत ने अपभ्रंश भाषा के श्रेष्ठ कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है । इनकी रचनाओं में सुकोमल पद-विन्यास, गूढ़ कल्पना, प्रसन्न भाषा, अलंकार-छंद शैली की रमणीयता, अर्थगम्भीरता आदि काव्यतत्त्वों का अच्छा समावेश हुआ है। वे काव्य-प्रतिभा के अनोखे धनी सिद्ध होते हैं जिसका निदर्शन उनकी काव्य-कृतियों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।
वान !
णेहु व्व दाणेण, पारिण व्व पारणेण ।
अर्थ-दान द्वारा स्नेह दृढ़ होता है, प्राणदान द्वारा प्राणी में कृतज्ञता भाव प्रगट होता है।
–जस० 1.17.5
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संस्थान में महाकवि पुष्पदंत के
ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां -श्री मुन्नालाल जैन
वर्तमान में ज्ञात अपभ्रंश के महाकवियों में स्वयंभू के पश्चात् पुष्पदन्त का नाम आता है। अपभ्रंश के ही कवि वीर ने अपने पूर्व में होनेवाले इस भाषा के जिन तीन महाकवियों का नाम गिनाया है उनमें भी पुष्पदन्त का नाम सम्मिलित किया है। इससे पुष्पदन्त की महत्ता का सरलता से मूल्यांकन किया जा सकता है ।
संयोग से जनविद्या संस्थान के पाण्डुलिपि सर्वेक्षण विभाग में प्राचीनतम पाण्डुलिपि पुष्पदन्त के महापुराण की वि०सं० 1391 की लिपीकृत है । उनके एक एक ग्रन्थ की कई कई पाण्डुलिपियां हैं जिनकी प्रशस्तियां भी ऐतिहासिक दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । इन पाण्डुलिपियों का उनकी प्रशस्तियों सहित संक्षिप्त परिचय नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है
1. वेष्टन संख्या 799 । पत्र संख्या-398 । पूर्ण । प्राकार 32x101 | लिपिक पं० गंधर्व पुत्र चाहड़। लिपि स्थान-योगिनीपुर । लिपि समय-संवत् 13911
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अनविद्या
प्रशस्ति (1) संवत्सरेस्मिन् श्री विक्रमादित्य गताव्दाः । संवत् 1391 वर्षे ज्येष्ठ वदि 9 गुरुवासरे । अद्येह श्री योगिनीपुरे समस्त राजावलीशिरोमकुटमाणिक्यखचितनखरश्मो सुरत्राण श्री महम्मदसाहिनाम्नि महीं विभ्रति सति । अस्मिन् राज्ये योगिनीपुरस्थित अग्रोतकान्वयनभः शशांक सा० महिपाल । पुत्रैः जिनचरणकमलचंचरीकः । सा० खेतू । फेरा। साढ़ा। महाराजा तूपा एतैः । सा० खेतू पुत्र गल्ला प्राजा एतौ। सा० फेरा पुत्र वीध्या हेमराज एतैः ॥ घर्मकर्मणि सदोद्यमपरैः । ज्ञानावरणीयकर्मक्षयाय । भव्यजनानां पठनाय उत्तरपुराण पुस्तकं लिखापितं । लिखितं गौडान्वय कायस्थ पंडित गंधर्व पुत्र चाहड़। राजदेवेन ।
(ii) संवत् 1460 वर्षे वैशाखसुदि तेरस पंडिल्लवंशे । गणपति पुत्र पं९ खेमलेन एषा पुस्तिका भट्टारक श्री पद्मनंदि देवादेशेन गुणकीर्तये प्रदत्तं ।
.. 2. वेष्टन संख्या 796 । पत्र संख्या 201 । पूर्ण । आकार 28X13। लिपिकजोशी लषमण । लिपि समय संवत् 1594 । लिपिस्थान-राणपुर ।
प्रशस्ति-संवत् 1594 वर्षे श्रावण सुदी 3 मंगलवारे । राणपुरनामनगरे। रायश्री हेमकरण राज्ये श्री मूलसंघे बलात्कारगणे । सरस्वतीगच्छे । नंद्याम्नाये । श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये । भ। ट्टारक श्री पद्मनंदि देवास्तत्पट्टे । भ. श्री शुभचंददेवास्तत्पट्टे । भ. श्री जिनचन्द्र देवास्तत्प? भ० श्री प्रभाचन्द्रदेवास्तत्शिष्य मंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्रदेवाः तदाम्नाये । षंडेलवालान्वये । टोंग्यागोत्रे संघवी तीकु तस्य भार्या गलि प्रथम पुत्र संघवी हमीर भार्या सोना तत् पुत्र संघवी तेजसी भार्या त्रीभुवनदे द्वितीय भार्या कपूरदे""द्विति पुत्र संघवी जा"..." (अपूर्ण)।
3. वेष्टन संख्या 68। पत्र संख्या-257। पूर्ण । प्राकार 291 x 123 से०मी० । लिपिसमय-संवत् 1461 । लिपिस्थान-योगिनीपुर। स्थान-स्थान पर इसमें चित्र बनाने के लिए रिक्तस्थान छूटे हुए हैं। इसमें पृष्ठ सं० 14, 15, 56, 94, 96, 97, 104, 145, 168, 183, 201 एवं 255 नहीं हैं।
___ प्रशस्ति-संवत् 1461 वर्षे ।। , भाद्रवावदि 9 बुधवासरे ॥ छ । अद्येह श्रीमद्योगिनीपुरे । समस्तराजावली विराजमान । सुरताण श्री महम्मूदसाहिराज्यप्रवर्तमाने ॥छ। श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये । वलात्कारगणे । सरस्वती गच्छे । मूलसंघे भट्टारक श्री रत्नकीर्तिदेवा । तत्पट्टे श्री रायराजगुरु मंडलाचार्य वादींद्र विद्यापरमपूजार्चनीय भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवा। तत्पट्टेतपोधन श्री अभयकीतिदेवा ॥ अजिंकाबाई क्षेमसिरि । तस्य अजिका अध्यात्म शास्त्ररसिरसिका भेदाभेदरत्नत्रयग्राराधक चारित्रपात्रि ।। भव्यंजनप्रबोधक । दीनदुष्टसंतापनिवर्तक । चतुरासीजीवदयापर । प्रात्मरहस्यपरिपूर्ण ॥ अर्जिका । धर्मसिरि ।। नगावस्थानात् ॥ सहिलवालान्धये । परमश्राविक । ऐकादशप्रतिमाधारक सा० वीधू । तस्य भार्या प्रियंवद ।।गल्हो। तस्य पुत्र देवगुरभक्त । अनेक गुणसंपून जीवदयातत्पर । कुलमंडणोपकारक । धर्मकार्यविषयान्तत्पर सास जोल्हा। तस्य भ्राता सहोदरान् सा० सूढ़ा। तस्य भ्राता गुणोपकारक । सा० मोल्हा । ।सा० थिरदेव ।।सा० : जोल्हा ॥ तस्य-भार्या अनेकदानविषयान् तत्पर ।
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जनविद्या
गुणसम्पूर्ण । जैनधर्मविषयतत्परान् । गुण प्रियंवद । हरो। तस्य प्रथमपुत्र । जिनपूजा पुरन्दर। सा० सतन । भ्राता परोपकारक । सा० बलिराज । तस्य भ्राता। जीवदयापर। सा० पदम । . भ्राता अनेकगुण सम्पूर्ण । विद्या विषयतत्पर। सा. नल्हा । एतं ॥ जैन धर्मापका""""।
इसके पुट्टे पर रंगीन कागज के बेलबूटे काटकर चिपककर कलापूर्ण बनाया गया है। इसी पुढे पर दूदू ग्राम में संवत् 1604 भादवा वदी से अभिषेक करने की पारी (अहसेव ना वारा) के लिए श्रावकों के नाम तिथिवार दिये हैं। इससे ज्ञात होता है कि उस समय भी मंदिरों में अभिषेक की पारी
4. वेष्टन संख्या 70 । पत्रसंख्या 217 । पूर्ण । श्लोक संख्या 8000 । प्राकार32X113लिपिसमय-सं० 1662 । . विशेष—पत्रसंख्या 216 की अंतिम तीन पंक्तियों से मूलग्रन्थ की लिपि प्रशस्ति प्रारम्भ होती है जिसकी प्रथम तीन लाइनों को काटकर ऊपर लाल स्याही के संवत् 1662 के 62 पर काली स्याही फेरकर 93 बनाया गया है एवं आगे भी संशोधन किया गया है। प्रशस्ति की पहली पंक्ति सूक्ष्मदर्शक यंत्र से देखने पर इस प्रकार स्पष्टरूप से पढ़ी जाती है-"संवत् 1662 वर्षे श्री विक्रमादित्यराज्ये भादवां वदी पांचे बुध दिने । श्री पातिसाह जहांगीर"...........।" .. ... ऐसा ज्ञात होता है कि कोई व्यक्ति इस प्रशस्ति में ही काट फांस करके इसे संवत्
1693 की बनाना चाहता था किन्तु उसने तीन पंक्ति. संशोधन के पश्चात् अपना इरादा , छोड़ दिया और सं० 1693 की अलग प्रशस्ति लिखकर इस ग्रन्थ में संलग्न कर दी। प्रथम
प्रशस्ति का शेष अंश इस प्रकार है-सा. नरसिंघ. तद्भार्या। द्वौ प्रथमभार्याचाउ द्वितीय : भाउ । नरसिंघ प्रथम पुत्र सा०: गुणिया भार्या विल्हो तत्पुत्राः चत्वारः ।
प्रथमपुत्रदेवगुरुशास्त्रभक्त साई चरपति । भार्या ठकुरी। तत्पुत्र सा० ज्ञानचन्द ॥ गुणिया *. द्वितीय पुत्र सा० मोलू। भार्याः। चंदणी। तृतीय पुत्र सा० दिउचन्द । चतुर्थ पुत्र सा० दुलू । सा० नरसिंघ द्वितीय पुत्र सा० तोल्हा । भार्या जिणो। तत्पुत्रौ द्वौ । प्रथम पुत्र सा० रावण । तद्भार्या वीध्धो। तत्पुत्र सा० विमलू । तोल्हा द्वितीय पुत्र सा० भोला तद्भार्या दीपो। तत्पुत्र सा० चोचा। सा० नरसिंघ पुत्र तृतीय । सा० हेमातद्भार्या डलो। सा० नरसिंघ चतुर्थ पुत्र सा० तिहुणा। तद्भार्या जीवो। तत्पुत्र : सा० ऊदा । सा० नरसिंघ पंचम पुत्र तेजू भार्या सोभी। सा. नरसिंघ षष्टम पुत्र सा० वस्तू । भा० कुम्वरी । सा० सीधर द्वितीय पुत्र सा० देईदास । भार्या मल्हो । ,तत्पुत्र सा० छाजू । भा० पल्हो । सा० सीधर तृतीय पुत्र सा० लोलू । तद्भार्या जालपही तत्पुत्रा 2 प्रथमपुत्र सा० ढूंढा द्वितीय गूजर । भार्या दोदाही। एतेषां मध्ये साहगुणिया पंचमी उद्धरण धीर
दीवानदीपक । परोपकारकान् । सा० गुणिया तत्पुत्र सा० नरपतिकेन इदं आदिपुराण । ग्रन्थं ।। आत्मकर्मक्षयनिमित्तं लिखापितं ॥ ब्रह्म सारू पठनार्थेन दत्तं ।।शुभम्।।.....
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जैनविद्या
उपर्युक्त सं० 1693 की प्रशस्ति जिसका कागज पतला है निम्न प्रकार है
॥ श्रीमंतं जिनं नत्वा केवलज्ञान लोचनं । लिषामि प्रशस्तिकेमां वंशसिद्धिप्रदायकां ॥1॥ त्रिनवत्यधिके वर्षे मासे श्रावण पंजिके । संवते षोडशाख्याते पंचम्यां भोमवासरे ॥2॥ संवत् 1693 वर्षे श्रावण सुदि 5 भौमवासरे नगरे चोग्रदुर्गाष्ये साहिजिहा दिलीपतेः राज्यं सेवकोग्रसिंघे धर्मपूर्व कुर्वति ॥3॥ कुंदकुंदान्वये श्रीमान् बलात्कारगणे शुभे श्री मूलसंघे भूद्धीमान् मुनिराज प्रभेदुकः ।।4। तत्प? मुनिपो धीरः चन्द्रकीाभिधो यतिः । तत्पट्ट शक्रकीयाख्यो भूपसेवितपन्कजः ॥5॥ तत्पट्ट राजते श्रीशो नरेशोमुनिपोवशी । रूपनिज्जित् देवेशो भट्टारक गणादिपः ।।6॥ तदाम्नाये च विख्याते श्री खंडेलवालान्वये । लुहाडया गोत्रे भूद्धीमान् संघेशो विष्णुनामकः ॥7॥ तवंशे रत्नसीनामाप्रियत्रिर्वलवान् वभौ तत्पुत्राः षट् च विज्ञेया। हद्दाद्याः संघ धारकाः ।।8।। हदू च गढमल्लश्च पद्मसी च जटुस्तथा पंचमः साहिमल्लाख्यः वलूनामाच षष्टमः ॥9॥ हद्देः प्रतापदे भार्या द्वितीयाच सुजाणदे। तेषां पुत्रा च विख्याता पदार्थावा नवाश्रिताः ।।10॥ पेमराजो गूजरश्च हेमराजेन्द्र राजको । दयाजयाष कल्याणमनोराजांतकामुवि ॥11॥ पेमराजः प्यारमदे सुप्यारदे प्रभुः परः । रेजे सुमतिदासस्य सुमतादे प्रभोः पिता ।।12।। गौरादे गूजरो जज्ञे चन्द्रभाण तयो सुतः । तृतीयो हेमराजाख्यो लाडीहमीर दे धवः ॥13॥ तत्पुत्रौ मुविज ज्ञाते नाथू कालू च घीघनौ। लाडी घवेन्द्र राजाख्यो धणराजपिता वभौ ।।14।। पंचमोऽभय राजाह्वो भार्या दुर्गादेपतिः। चूहड़ कुशलाभिख्यौ तत्पुत्रौ च वभूवतुः ।।15।। अजराजोराइसिंह पिताऽजाडव दे प्रभुः । धीनडपिताऽपैराजः प्रिया हींकारदे धवः ।।16।। छीतर धीनड तात प्रिया कल्याणदे प्रिया। कल्याणाहोऽष्टमो रेजे नवमोमनराजकः ॥17॥ तस्य प्रिये द्वे ज्ञाते लाडीचमन सौख्यदे जिनवेश्मकृतं येनखूग्रदुर्गे मनोरमं ॥18॥ द्वितीयो गढमल्लास्यस्त्रि भार्यस्त्रि पुत्रकः । दयाल ऋषभाव्ह सुंदरैश्च विराजते।।19।। तृतीय पद्मसीमामाऽ पागदे पारदेपतिः टोडरस्यपितारेजे जगरूपपितामहः ॥20॥ तुर्योजटमल्लाव्होऽभूत् जौणादे भर्तृकः परः। पंचम साहिमल्लश्च दुर्गादे रमणः सुधीः ॥21॥ वलू विराजते षष्ठःभर्ता बहुरंगदेस्त्रियः । मंत्रीशः पेमराजश्च उग्रसिंहमहीपतेः ॥22॥ संघेश पेमराजस्य चोग्रसिंह महीपतेः । मंत्रीशस्य वभौकान्ता सुप्यारदे च नामतः ।।23।। शीतेव रामराजस्य पांडोः कुंतीव सुंदरी। दानतः कल्पवल्लीव रेजेभीव सुताशुभा ॥2411 तयेदं शास्त्रं लिषाप्य नरेशाय मुनिपाय च दत्तं कर्मक्षयार्थ वै चिरं नंदतु भूतले ।।25।।
5. वेष्टन संख्या 69। पत्र संख्या 307 । पूर्ण । आकार 28X11 लिपि समयसंवत् 1663। लिपिस्थान-अम्बावती ।
. शुभसंवत् 1663 वर्षे महामंगलीक माघमासे । पंचम्यां तिथौ। वृहस्पतिवासरे। अंबावती वास्तव्ये श्री नेमिनाथ चैत्यालये। महाराजाधिराज राजश्रीमान सिंह विजयराज्ये । श्री मूलसंधे नंद्याम्नाये । वलात्कारगणे । सरस्वतीगच्छे । श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये । भट्टारक श्री शुभचंददेवा । स्तत्पट्टे भ० श्री जिनचन्द्र देवा । स्तत्प? भ० श्री चन्द्रकीतिदेवा स्तत्प? श्री देवेन्द्रकीति । स्तदाम्नाये। षंडेलवालान्वये । गोधागोत्रे। साहपचायण ।
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जैनविद्या
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तस्य भार्यारूपाई । तयो पुत्रौ द्वौ । प्रथमसाह नूना तस्य भार्याषीवरिण । तयो पुत्राश्चत्वार । प्रथमसाहवीरदास । तस्य भार्या ल्होकन । द्वितीय जिणदास । तस्य भार्या द्वे प्रथम सरूपदे । द्वितीय ल्होडी तयो पुत्र सागा तस्य भार्या सिंगारदे । तृतीय साह विमला । नस्य भार्या वजरंग दे। तयो पुत्रा त्रय प्रथमपुत्र साह जीव तस्य भार्या द्वे प्रथम सिंगारदे द्वितीय ल्होडी। तयो पुत्रौ द्वौ प्रथम साह"............" ।
6. वेष्टन संख्या-73 । पत्र संख्या 219। पूर्ण। श्लोक संख्या 8000 । आकार 28X101 से०मी० ।
विशेष—इसमें निम्न दो प्रशस्तियां हैं--
प्रथम प्रशस्ति-श्री मूलसंभे नंद्याम्नाये वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनंदि देवाः । तत्प? भ. श्री शुभचन्द्र देवाः । तत्पट्टे भ० श्री जिनचन्द्र देवाः । तत्प? भट्टारक श्रीमदभिनवप्रभाचन्द्र देवाः । तैनिजनिजमताखर्वगर्वपर्वतारूढ सर्वचार्वाकादिपरवादिमदांधसिंधुरसिंहायमानविहिताचार्यपदस्थापनाय । सकलभव्यचेतश्चमत्कारि सर्वजीवोपकारि चारुचारित्रचारि यथोक्तनग्नमुद्राधारि समस्त विद्वज्जनमनोहारि श्रीमन्निग्रंथाचार्य श्री विशालकीर्तिदेव दीक्षिताय । लघुविशालकीर्तये। निःशेष मिथ्यात्वतमस्काण्डखंडनोच्चंडचंडिमप्रकांडमार्तडमंडलायमान खंडेलवाल विशदवंशे श्रीमन्नायक गोत्रे । सं० भोजा । भा-भीवणि । तत्पुत्र सं० लोहट । द्वितीय पुत्र सं० गोरा । लोहट भार्या धम्मिणि । तत्पुत्र खेमा । द्वितीय पुत्र दूदा । तृतीय पुत्र सेवा । गोरा भार्या केलू । एतेषां मध्ये संघपति लोहटाख्येन निजज्ञानावरणीय कर्मक्षयार्थमिदं पुष्पदन्तकविकृतमादिपुराणशास्त्रं दत्तमिति ।
. द्वितीय प्रशस्ति-सिधिः । संवत् 1664 वर्षे कार्तिक शितषष्टयां शुक्रवासरे पूर्वाषाढनक्षत्रे तक्षकवास्तव्ये श्री आदिनाथचैत्यालये । महाराजा श्री जगन्नाथजी राज्ये श्री मूलसंघे नंद्याम्नाये वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्री जिनचन्द्रदेवा: स्तत्पट्ट भ० श्री प्रभाचन्द्र देवाः स्तत्प? भः श्री चन्द्रकीतिदेवाः तत्प? भ० श्री देवेन्द्रकीर्तिस्तदाम्नाये पंडेलवालान्वये कालागोत्रे साह नानू तद्भार्या नाइकदे तयोः पुत्रास्त्रयः प्रथम साह चेला तद्भार्या लाडमदे तत्पुत्र चिरंजीवकल्याण द्वितीय साह तेजास्तीर्ये द्वे प्रथम त्रिभुवनदे द्वितीय सुहागदे तयोः पुत्रौ द्वौ प्रथम चिरंजीव केशव द्वितीय चिरंजीव मनरूप त्रितीय साह मोहन तद्भार्यामहिमादे एतेषां मध्ये साह श्री नानूतद्भार्यानायकदे तया इदं अष्टाह्निकाव्रत उद्यापनार्थ भ० श्री देवेन्द्रकीर्तयेदत्तं ॥ शुभं भूयात् ।
वेष्टन संख्या 79, 797, 798, 795 और 71 की प्रतियां अपूर्ण हैं ।
7. वेष्टन संख्या 104 । पत्रसंख्या 473 । पूर्ण । आकार 271X13 से०मी० । - लिपिक-पांडेकेशव ।
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जनविद्या
. विशेष-लिपि सुंदर अक्षर की है, 137 पत्रों तक कठिन शब्दों के संस्कृत टिप्पण दिये हैं।
8. वेष्टन संख्या 802 । भाषा-अपभ्रंश । विषय-पुराण । ग्रंथनाम-प्रादिपुराण टिप्पण। रचनास्थल-मान्यखेट। लिपि-देवनागरी। पत्र संख्या 1 से 102। अपूर्ण । आकार 32X13। : विशेष-पैतीसवीं संधि तक के अपभ्रंश से संस्कृत में टिप्पण दिये हैं ।
9. वेष्टन सं० 105 । भाषा-अपभ्रंश, संस्कृत । विषय-टिप्पण । ग्रन्थनामउत्तरपुराण-टिप्पण (समुच्चय) । ग्रंथकार-श्रीचन्द्रमुनि ।
रचनाकाल-संवत् 1080। लिपि देवनागरी । पत्रसंख्या 57 । 'पूर्ण । प्राकार 25x11 से०मी० । लिपिस्थान-नागपुर । लिपिसमय संवत् 1577 ।
लेखक प्रशस्ति-संवत् 1577 वर्षे आषाढवदि 2 रविवारे । श्री मूलसंधे नंद्याम्नाये। वलात्कारगणे। सरस्वतीगच्छे। श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये । भ० श्री पद्मनंदि देवा। स्तत्प? भ० श्री सुभचन्द्रदेवा । स्तत्पट्टे भ० श्री जिनचन्द्र देवा । स्तत्प? भ० श्री प्रभाचन्द्र देवास्त त्शिष्य मुनि धर्मचन्द्रस्तदाम्नाये । षंडेलवालान्वये पाटणगोत्रे। नागपुरवास्तव्ये । संघभार धुरधर साह । लूणातत्भार्या लूग्गश्री तयोः पुत्रः चतुर्विधदान-वितरणकल्पवृक्षः । साधु अर्हदास तत्भार्या अल्हसिरि । तत्पुत्र साधु पहराज । द्वियसाधु धनराज। साधु । पहराज भार्यापाटमदे एतैःइदं शास्त्रं लिषाप्यं । ज्ञानावरणीयकर्मक्षयार्थ विधिनाभक्तया मुनि श्री धर्मचंद्राय दत्तं ।
10. वेष्टन संख्या 517 । भाषा-अपभ्रश । विषय-चरित्र । ग्रंथनामणायकुमारचरिउ । ग्रंथकार-पुप्फयंत । लिपि-देवनागरी। पत्रसंख्या 71 । पूर्ण । आकार-26X11 से०मी० ।
विशेष—प्रति प्राचीन है किन्तु अंतिम पृष्ठ दूसरे लिपिकार ने लिखकर बाद में ग्रन्थ को पूरा किया है, ऐसा ज्ञात होता है ।
11. वेष्टन संख्या 518। भाषा-अपभ्रंश । विषय-चरित्र । ग्रन्थनामणायकुमारचरिउ । ग्रन्थकार-पुप्फयंत । लिपि-देवनागरी। पत्रसंख्या 70 । पूर्ण । आकार 28X14 सै०मी० । लिपि समय-संवत् 1612 । लिपि स्थान-तक्षकगढ़ ।
प्रशस्ति-स्वस्ति संवत् 1612 वर्षे ज्येष्टसुदि 5 शनिवारे श्री आदिनाथ चैत्यालये । तक्षकगढ़ महादुर्गे महाराजाधिराज राउ श्रीरामचन्द्रराज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसंधे । नंद्याम्नाये । वलात्कारगणे। सरस्वतीगच्छे श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनंदि. देवातत्त्पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवातत्प? भ० श्री जिनचन्द्र देवातत्प? भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवातत्शिष्यमंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देवातत्शिष्य मंडलाचार्य श्री ललतकीर्तिदेवा । स्तदाम्नाये। खंडेलवालान्वये। सावडागोत्रे । सा० वीझा तद्भार्या विजय श्री तत्पुत्राः
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जनविद्या
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चत्वारः प्र० सा० सोढा द्वि० सा० गाल्हा तृ० सा० रतनचतुर्थ सा० माल्हा सा० सोढा भार्या भोलीतत्पुत्र चत्वार प्र० सा० चाहड़ द्वि० सा० खीवा तः सा० दूलह चतुर्थ, सा० .देवा पं सा० पूना सा० चाहड़ भार्या मदना सा० दूलहभार्या करमातत्पुत्रात्रयः प्र० सा० पोपा द्वि० सा० थेल्हा तृ० सा० श्रीपाल सा० पोपाभार्या पौसिरि तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा० सुरताण द्वितीय चि० पचाइण। सुरताण भार्या सुहागदे सा० थेल्हाभार्ये द्वे प्रथम सरसतिद्विती लाडा तत्पुत्रौ द्वौ प्र० डूगरसी तद्भार्यानाथी द्वितीभेला सा० श्रीपालभार्ये द्वे० प्र० सरूपदे द्वितीय लहुड़ी तत्पुत्र सा० रूपा सा० देवाभार्ये द्वे प्र० साभो द्वितीय सरूपदे तत्पुत्राः त्रयः प्र० सा० सरवरण भार्या होली तत्पुत्र हेमा सा० रोहा भार्या चन्द्रा सा० ईसर भार्ये द्वे प्र० ईसरदे द्वि० वारू सा० रतन भार्या सिरमा तत्पुत्रा त्रयः प्र० सा० डालू भार्ये द्वे० प्र० डोली द्वित नौलादे तत्पुत्र षीवसी द्वितीय सा० डूगा भार्या नीनी तत्पुत्राः त्रयः प्र० सा० छीतर भार्या छायलदे तत्पुत्र चि० कौन सा० चौहथ भार्या चतुरगदे त्रि० सा० राणा भार्या रैणादे भेला भार्या सावलदे सा० माल्हा भार्ये द्वे० प्र० नाल्हा द्वि मेहा तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा० टेहू द्वितीय सा० नोता सा० टेहू भार्या त्रयः प्र० तिहुण श्री द्वितीय सोहागदे तृती० गूजरि तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा० पदमसी भार्ये द्वे प्र० प्रताप दे । द्विती पाटमदे तत्पुत्र चिरंजी रामदास सा० रोता भार्ये द्वे प्र० नौणादे द्विती कोणम दे तत्पुत्र चि० आषा भार्या अहकारदे द्विती सागा एतेषां मध्ये सा० टेहू सा० नोता इदं शास्त्रं नागकुमार पंचमी लिखाप्य पंचमीव्रत उद्योतनार्थ । मंडलाचार्य श्री ललतकीर्तये दत्तं ।
12. वेष्टन संख्या 852 । भाषा अपभ्रंश । विषय-चरित्र । ग्रन्थनाम-जसहरचरिउ । ग्रन्थकार-पुप्फयंत । लिपि-देवनागरी। पत्र संख्या 86। पूर्ण । प्राकार 251X11 । लिपि समय सं० 15751
प्रशस्ति-संवत् 1575 (इससे आगे की तीन पंक्तियों पर हड़ताल फेरी हुई है) स्पट्ट भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवाः स्तत्प? भ० श्री प्रभाचन्द्रदेवाः । स्तदाम्नाये । षंडेलवालान्वये । साहगोत्रे । संघभारधुरंधरान् संघइ बीझा। तस्य भार्या सोना । तत्पुत्र सं० तेजा। तस्य भार्यालोचमदे। तत्पुत्रदूलह । दुतीयपुत्र श्रीपाल ॥ साह दूलह तस्य । भार्यादूलहदे । तत्पुत्रचोषा। दुतीय भाषा ॥ चोषा भार्याचादणदे ।। साह श्रीपालतस्य भार्यासरसति । तत्पुत्र होला। दुतीय लाला त्रितीय पुत्र वाला एतेसां मध्ये इदं शास्त्रं । जसोधर चरित्रं बाई पारवती लिषायतं कर्मक्षयनिमित्तं ।। भ० श्री प्रभाचन्द्र योग्य दातव्यं ।
ये हैं।
• हासिये पर. कठिन शब्दों के संस्कृत भाषा में टिप्पण दिये हैं।
13. वेष्टन संख्या 850 । पत्र संख्या 91 । पूर्ण। प्राकार 26X11 । लिपिसमय सं० 1580। लिपि स्थान-सिकंदराबाद ।
प्रशस्ति--संवत् 1580 वर्षे । श्रावणवदि 5 गुरु दिने। पूर्व भाद्रपदनक्षत्रे । शौभाग्यनाम योगे। श्री पार्ने सिंकदराबाद स्थाने ॥ लोदीवंस उद्योतके साहिइब्राहि ।
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जैनविद्या
प्रति में हासिये पर संस्कृत में टिप्पण दिये हुए हैं ।
14. वेष्टन संख्या 854 । पत्र संख्या 94 । पूर्ण । आकार 27-12 से० मी०। लिपिसमय-संवत् 1580। लिपि स्थान-श्रीपथ के पास सिकंदराबाद ।
विशेष प्रति के हासिये पर संस्कृत में टिप्पण है। कई पत्रों में हासिये पर दीमक लगी है।
प्रशस्ति-संवत् 1580 वर्षे ॥ प्रासौजसुदि 10 शनि दिने । श्रवण नक्षत्रे । श्रीपथानाम नगरे तत्पाद्वेसिकंदराबाद शुभस्थाने ।। सुलितान साहि इब्राहीम राज्य प्रवर्त्तमाने ॥ श्री मूलसंघे । बलात्कारगण । सरस्वती गच्छे । श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये भ० श्रीपद्मनंदि देवाः । तत्प? भ. सुभचन्द्र देवाः । तत्पट्टे भ० जिनचन्द्र देवा । स्तत्पट्ट पूर्वाचल दिनमणि षट्तर्कतार्किक चूढामणि वादिमदद्विपसिंहविवुधवादिमददलन वादिकंदकुद्दाल सकलजीवअबुधप्रतिबोधक भट्टारक श्री 3 प्रभाचन्द्रदेवाः। तत्सिष्य तर्कव्याकरणछंदोलंकारसाहित्य-सिद्धान्तज्योतिष्कवैदिकसंगीतशास्त्रपारंगत जिनकथितसूक्ष्मसप्ततत्वनवपदार्थ-षद्रव्यपंचास्तिकाय अध्यात्मग्रन्थसमुद्रमध्यमहारत्न । प्रायनिरतिचारशीलव्रतसागरसम्पूर्णकादशप्रतिमाप्रतिपालक श्री प्रभाचन्द्र गुरुस्वामिचरणस्मरणेण हर्षितचित्त देशव्रति तिलकीभूत ब्रह्मबीझा । तदाम्नाये खंडेलवालान्वये परम श्रावक सा० क्रिता तस्य भार्या मीता तयोः पुत्रात्रयः 3 प्रथमपुत्र सा० देवू । तस्य भार्याराणी द्वितीय पुत्र सा० नरसिंधु भार्याषीमणि । तृतीय पुत्र सा० घणसी भार्याराणी देवू पुत्र सा० दोदू तस्य भार्या सवीरी। तयोः पुत्र चत्वारः। प्रथमपुत्र सा० धरमू । भार्यादेवल । द्वितीय पुत्र । सा० दासा तस्य भार्यासूहो। तृ० सा० विमलू । च० पुत्रु गजपालु । एतेषांमध्ये सा० दोदू इदं यशोधर शास्त्रं लिखाप्य कर्मक्षयनिमित्तं । ब्रह्मवीझाय दत्तं । लेषकपाठकयोः शुभं भूयात् ।
15. वेष्टन संख्या 853 । पत्र संख्या 73 । पूर्ण । आकार 261x13 से० मी० । लिपि समय-संवत् 1610। लिपि स्थान-तक्षकगढ़ ।
विशेष : हासिये पर संस्कृत भाषा में टिप्पण दिये हुए हैं।
प्रशस्ति-संवत् 1610 वर्षे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे षष्ट्यांतिथौ सोमवासरे स्वाति नक्षत्रे तक्षक महादुर्गे श्री आदिनाथ जिणचैत्यालये पातिसाह श्री सल्लेमसाहराज्य प्रवर्तमाने राव श्री रामचन्द्र प्रतापे श्री मूलसंघे नंद्याम्नाये वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे, श्रीकुंदकंदाचार्यान्वये भ० श्री पद्मनंदि देवास्तत्प? भ० श्री शुभचन्द्र देवास्तत्प? भ० जिणचन्द्र देवास्तत्प? भ० श्री प्रभाचन्द्र देवास्तच्छिष्य मं० श्री धम्मचन्द्र स्तदाम्नाये खंडेलवालान्वये अजमेरा गोत्रे सा० लोहट तद्भार्या शीला तत्पुत्रास्त्रयः प्र० सा० गोइंद द्वि० सा० दामा तृ०सा० मोकल सा० गोइंद भार्या सोढी तत्पुत्राश्चत्वारः प्र० सा० पासा द्वि० सा०
आभा तृ० सा० पाल्हा च० सा० पचायण सा० पासा भार्या पाटमदे तत्पुत्रौ द्वौ प्र० चि० गेहा द्वि० हरदास सा० पासा भार्या अहंकारदे तत्पुत्रौ द्वौ प्र० श्रीपाल द्वि० वछा श्रीपालभार्या श्रृंगारदे
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जनविद्या
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तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा० नेमा द्वि० चि० खेमा सा० पाल्हा भार्ये द्वे प्र० नौजू द्वि० सुहागदे तत्पुत्रास्त्रय : प्र० सीहा तद्भार्या सफलादे द्वि० चि० हेमा तृ० चि० धीनड़ सा० पचायण भार्या गूजरि तत्पुत्रौ द्वौ० प्र० वीरदाश द्वि० चि० राणा द्वि० सा० दामा तद्भार्या चांदोतत्पुत्री द्वौ० प्र० चोहिथ द्वि० सा० बाला सा० चोहिथ, भार्या वालादे तत्पुत्रौ द्वौ० प्र० सा० सुरताण द्वि० सा० साधू सा० सुरताण भार्ये प्र० सुरताणदे द्वि० सोभागदे तत्पुत्रौ द्वौ प्र० चि० गोपाल द्वि० चि० गढमल सा० साधू भार्या सफलादे सा० वाला भार्या बहुरंगदे तत्पुत्रो द्वौ० प्र० सा० सारंग द्वि० चि० माधव तृ० सा० मोकल भार्ये द्वे प्र० भार्या मुक्तादे द्वि० लाडी तत्पुत्र सा० कुंभा तद्भार्या कौतिगदे तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा० भाणा द्वि० चि० पदमसी एतेषां मध्ये सा० बालानामध्येयेनेदं शास्त्रं प्रा० श्री ललितकीर्तये घटापितं मेघमाला व्रतोद्योतनाथ ॥
16. वेष्टन संख्या 851 । पत्र सं0 65 । पूर्ण । आकार 271x13 से० मी० । लिपिसमय--सं० 1612। लिपिस्थान-तक्षकगढ़ ।
विशेष-हासिये पर कठिन शब्दों के संस्कृत में टिप्पण दिये हुए हैं। पत्र तड़कने लगे हैं ।
__प्रशस्ति-संवत् 1612 वर्षे आसोजमासे कृष्ण पक्षे द्वादशी दिवसे गुरवारे अश्लेषानक्षत्रे। तक्षकगढ़ महादुर्गे महाराजाधिराजराउ श्री रामचन्द्र राज्य प्रवर्तमाने । श्रीयादिनाथ चैत्यालये श्री मूलसंधे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे । श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये । भ० श्री पद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्र देवा। स्तत्पट्टे भ० श्रीजिनचन्द्र देवास्तत्प? भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा । स्तत्सिष्यमंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देवा । तत्सिष्यमंडलाचार्य श्री ललितकीर्तिदेवा स्तदाम्नाये। खंडेलवालान्वये सावड़ा गोत्रे। सा० सोढ़ा तद्भार्या सुहडादे तत्पुत्राश्चत्वार प्र० सा० चाहड़ द्वि० सा० दूलह तृ० सा० देवा चतुर्थ सा० पूना प्र० सा० चाहड़ भार्या मदना द्विती दूलह भार्या दूलहदे । तत्पुत्रास्त्रय । प्र० सा० पोपा द्विती सा० थेल्हा तृती सा० श्रीपाल प्र० सा० पोपा भार्या पोंसरि तत्पुत्री द्वौ प्र० सा० सुरताण द्विती चि० पचाइण प्र० सा० सुरताण भार्या सुरताणदे द्वि० सा० थेल्हा भार्ये द्वे प्र.. थेल्ह श्री द्विती कौतिगदे तत्पुत्रास्त्रय : प्र० सा० डूगरसी । द्विती चि० भेला तृ०सा० तोल्हा प्र. सा० डूगर भार्या दाड्योदे तृ० सा० श्रीपाल भार्ये द्वे प्र० सरूपदे द्वि ल्होकन तत्पुत्रौ द्वौ प्र० चि० रूपा द्विती चि० धर्मदास तृ० सा० देवा भार्ये द्वे प्र० द्योसरि द्विती सरूपदे तत्पुत्रौ द्वौ० प्र० सा० सरवण द्वि० सा० ईसर प्र० सा० श्रवण भार्या सुहागदे तत्पुत्र चि० हेमराज द्विती सा० ईसर भार्या अहकारदे चतुर्थ सा० पूना भार्या वाली एतेषां मध्ये सा० पूना भार्या बाली इदं शास्त्रं जसोधरचरित्रं लिषाप्य सोलहकारणवतउद्योतनार्थ । मंडलाचार्य श्री ललितकीर्तये दतं ।
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जैनविद्या
प्राचार्य श्री सिंघनंदि की पोथी।
17 वेष्टन संख्या 855 । पत्र संख्या 82 । पूर्ण । प्राकार 24X13 से० मी० । लिपिक-राधा। लिपिसमय-संवत् 1657।
विशेष-हासिये पर टिप्पण है। बाई ओर का हासिया कैंची से काट दिया गया है।
प्रशस्ति-संवत् 1657 वर्षे आसोज सुदि 11 बुधवासरे लिपिक राधा लिषतं । .. प्रशस्तियां यथासंभव अपने मूलरूप में दी गयो हैं।
जिन-स्तति
कयाहिंदसेवो, जिणो देवदेवो । प्रसंगो प्रभंगो, जहाजालिंगो । दुहारणं विरणासो, सुहाणं रिणवासो। गुणाणं रिणसेरणी, रणयारूढ़वारणी।। तमारणं पईवो, तवाणं पहायो। प्रगानो अपाम्रो, सयासुद्धभावो।
सयारणंतरणारणी, जसुप्पत्तिखारगी। भावार्थ-हे भगवन् ! नागेन्द्र भी आपकी सेवा करते हैं। आप असंग, अभंग, यथाजातलिंग, दुःखों के विनाशक, सुखों के निवास, गुणों की नसेनी (सोढ़ी), नयानुसार उपदेशक, अन्धकार के प्रदीप, तपस्या के प्रभाव, अगम्य, निष्पाप, सदा शुद्धभाव, सदा अनन्त ज्ञानो तथा यशोत्पत्ति की खान हैं।
... -रणाय० 2.3.7-13 :
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पुष्पदंत काव्य में
प्रयुक्त “लक्ष्मी" -डॉ० प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति'
काब्याभिव्यक्ति में कविसमय का योग-प्रयोग महनीय है । "कविसमय" एक पारिभाषिक शब्द है ।' कवि तथा समय के समवाय से "कविसमय" शब्द का गठन हुआ है । समयः शब्द सम् उपसर्गपूर्वक इण गतौ धातु से अच् प्रत्यय लगकर सिद्ध होता है। इसकी व्युत्पत्ति "सम्यगेतीति समय" अर्थात् जो उचितरूप से चला आ रहा है। वस्तुतः देशकाल के विपरीत होने पर भी सुदीर्घ काल से चली आ रही कवि व्यंजित वाणी जो सर्वथा यथार्थ से दूर-सुदूर हो लेकिन काव्य निबद्ध होने के कारण तथा भावगत तादात्मता, संगत-सटीक होने से "कविसमय" कहलाती है। महाकवि पुष्पदन्त का अलौकिक श्रेणी के कविसमयों में शुक्ल पक्षान्तर्गत "लक्ष्मी" पर आधृत कविसमय उल्लेखनीय है । संस्कृत से अपभ्रंश में होता हुआ यह "कविसमय" हिन्दी में व्यवहृत हुआ है।
कविसमय के अनुसार लक्ष्मी का निवास पन में माना जाता है । "अमरकोश" में लक्ष्मी को पनालय, पना, कमला आदि से सम्बोधित किया गया है-"लक्ष्मी, पद्मालय, पभकमला श्री हरिप्रिया ।" "पूर्वकारणागम" ग्रंथ ( पटल012 ) में लक्ष्मी को "पद्म पत्रासनासीना पद्ममाभापग्रहस्तिनी" कहा गया है । "विष्णुधर्मोत्तरपुराण" में लक्ष्मी का वर्णन करते हुए उसे पयस्था पद्महस्तां च गंजोत्सिप्तघट प्लुता" अर्थात् पद्म
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जनविद्या
पर स्थित, कमलधारिणी तथा हाथियों पर उठाए हुए घड़ों से अभिसिक्त कहा गया है। "अंशुमदभेदागम" ( पटल-49 ) के आधार पर लक्ष्मी की मूर्ति को कमल पुष्प पर बैठी हुई, दो भुजाओंवाली स्वर्ण सदृश वर्णवाली दिखाना चाहिए। यथा
लक्ष्मी पद्म समासीना, द्वि भुजा कांचन प्रभा।
हेमरत्नलोज्वलनक, कुण्डलः कर्णमण्डिता ॥ मथुरा, अमरावत, भारहुत तथा साँची आदि की कला में पद्मस्थित लक्ष्मी की अनेक मूर्तियां उपलब्ध होती हैं । गुप्तकालीन एक मूर्ति पर कमलालया लक्ष्मी का गजों द्वारा अभिषेक चित्रित मिलता है। बीजापुर के समीप "पट्टदकल" नामक स्थान में एक कलाकृति पर जलबीच कमल-शय्या पर लेटी हुई लक्ष्मी को दिखाया है। लीलाबीच कमल शय्याधारिणी की एक सुन्दर प्रतिमा श्रवणबेलगोला (मैसूर राज्य) में मिली है। वस्तुतः कमल शुभ्रता और शांति का प्रतीक है और लक्ष्मी सौन्दर्य और समृद्धि की संकेतक ।
___ लक्ष्मी धन तथा सौन्दर्य की देवी कही जाती है। कमल भी सौन्दर्य का प्रतीक है। दोनों में ही सौन्दयंभाव की प्रधानता है। लक्ष्मी का वास पद्म में मानने के मूल में भी सौन्दर्यभाव ही प्रतीत होता है। लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्रमंथन से स्वीकृत है तथा कमल का वास भी जल में ही मान्य है अतएव दोनों में तादात्म्य स्थिर हो जाता है । लक्ष्मी को कमला भी कहा जाता है। कमला कहने के मूल में कमल-लक्ष्मी स्नेहभाव ही परिलक्षित है।
___महाकवि पुष्पदन्त ने लक्ष्मी को कमला, पद्मावती, कमलमुखी, कमलधरलक्ष्मी तथा कमल को कमलाकर आदि कहा है। यथा
कमलासण कमला कमलमुहि तहु मुहकमलु णिहालइ। म० पु० 28.8 "महापुराण" में तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व उनकी माताओं को होनेवाले सोलह स्वप्नों का वर्णन करते समय कमल में निवास करनेवाली बहु विलासिनी लक्ष्मी का भी वर्णन किया गया है। यथा
बहुविलासिणी एलिणवासिणी। म० पु० 41.4 जिनेन्द्र भगवान् की वंदना के लिए जाते हुए समूह में एक स्त्री हाथ में कमल लिए इस प्रकार चलती है मानो वह स्वयं लक्ष्मी ही हो। यथा
भाविणि का वि देवगुणभाविणी,
चलिय स कमलहत्य रणं गोमियो । म० पु० 2.1 एक अन्य स्थल पर लक्ष्मी को कमल हाथ में लिए हुए कमल में निवास करनेवाली कमलमुखी कहा गया है यथा
कह अग्गइ धावह कमलकरि, कमलालब कमलापरिणय सिरि ।
म०पू० 15.7
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जैनविद्या
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चतुर्विशति स्तुति करते समय पद्मप्रभ (छठे तीर्थंकर) को लक्ष्मी के गृह में निवास करनेवाले पद्मप्रभ से सम्बोधित किया गया है यथा
जय सुमई सुमइसम्मयपयास, जय पउमप्पह पउमारिणवास ।
जस० 1.2 अमात्य नन्न का वर्णन करते समय कविवर पुष्पदन्त द्वारा पद्मिनी लक्ष्मी को मानसरोवर कहा गया है यथालच्छीपोमिरिणमाणसरेण ।
गाय 1.3 कविसमय के अन्तर्गत लक्ष्मी तथा सम्पद् में अभेद माना गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्रमंथन से मानी जाती है। ममुद्रमंथन से प्राप्त चौदह पदार्थ रत्न के ही अन्तर्गत पाते हैं। लक्ष्मी की गणना भी उन्हीं मंथित चौदह रत्नों में की जाती है। रत्न, धन और वैभव का प्रतीक है तथा लक्ष्मी धन तथा सौन्दर्य की दात्री। इस प्रकार इनकी अभिन्नता का यह आधार माना सम्भव दिखता है। .
लक्ष्मी में सौन्दर्यभाव की प्रधानता होती है । "कविसमय" के अनुसार स्त्रीसौन्दर्य की उपमा लक्ष्मी से दी जाती है। स्त्रियोचित गुणों से नत स्त्री साक्षात् लक्ष्मी कही जाती है । महाकवि पुष्पदन्त भी गुणों से नत-विनत नारी को लक्ष्मी स्वीकारते है यथा--
सा सिरिजा गुणणय गुण ते जे गय गुणिहि चित्तु हयदुरियउ । म० पु० 19.3 इसी कारण स्त्री गृहलक्ष्मी संज्ञा से भी संबोधित है। महाकवि पुष्पदन्त ने स्त्री के लिए गृहलक्ष्मी', साक्षात् लक्ष्मी', लक्ष्मीरूपीवधू आदि सम्बोधन स्थिर किए हैं । जैन मान्यता में तीर्थंकर के गर्भकल्याणक के समय इन्द्र के आदेश पर लक्ष्मी अन्य देवियों के साथ आकर तीर्थंकरों की मातुश्री के गर्भ का शोधन करती हैं यथा
विही प्रागया देवया पंकयच्छी,
हिरी कति कित्ति सिरी बुच्छि लच्छी। म० पु० 46.4 धन, वैभव, भूमि, राज्य तथा वैभवश्री आदि के अर्थ में सम्पद् (लक्ष्मी) का व्यवहार कविसमय के तद्रूप होता है। "महापुराण" में कवि पुष्पदन्त द्वारा भूमि को राजा की सखी' तथा चक्रवर्ती को लक्ष्मी10 कहा है। प्रथम तीर्थंकर की मातुश्री मरुदेवी विभु ऋषभनाथ के जन्म से पूर्व सोलह स्वप्नों की शृङ्खला में लक्ष्मी को भी देखती हैं। स्वप्नफल जानने की अभिलाषा में मातुश्री मरुदेवी राजा नाभिराय से पूछती हैं तब राजा नाभिराय उत्तर में बताते हैं कि लक्ष्मी देखने से तुम्हारा पुत्र त्रिलोक की लक्ष्मी का स्वामी होगा ।11
राजा द्वारा किसी दूसरे राजा को पराभूत करना तथा उसके राज्य पर अधिकार कर लेना उस राजा के प्रताप-पराक्रम का परिचायक होता है। इसी कारण विजय को विजयश्री अथवा विजयलक्ष्मी कहा जाता है यथा-- विजयलच्छिसुरगणियमिरिक्कई ।
णाय० 7.7
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जनविद्याः
धन-वैभव के अतिरिक्त विद्या को भी धन माना गया है। विद्याधन अन्य सभी धनों में श्रेष्ठ माना गया है। कवि काव्य में ज्ञानरूपी लक्ष्मी उल्लिखित है ।12 लक्ष्मी का एक नाम चंचला भी है। वस्तुत: इसमें स्वभावतः- चांचल्य होता है। इसी प्रवृत्ति के कारण पुष्पदन्त ने लक्ष्मी को एक स्थान पर.. कभी- न स्थिर रहनेवाली13 तथा स्वेच्छाचारिणी14 बताया है।
कविसमय की प्रेरक भावना का अभीष्ट प्रायः आदर्शात्मक रहता है। सुन्दर वस्तु को भी सुन्दरतम बनाना ही उसका अभिप्रेत है। महाकवि पुष्पदन्त इस ईप्सा की सिद्धि के शिखर पर हैं।
1. हलायुध कोश, सम्पा० जयशंकर जोशी, हिन्दी समिति सूचना विभाग, उ०प्र० लखनऊ,
द्वि० स० सन् 1967, पृष्ठ 693 । 2. कविसमय-मीमांसा, विष्णुस्वरूप, काशी विश्वविद्यालय, वाराणसी, प्र०सं० 1963
पृष्ठ 220 । ..... 3... अमरकोश, अमरसिंह, जयकृष्णदास, हरिदास गुप्त, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, र सम्वत् 1944. पृष्ठ 12 । ... .... ...... 4. ब्रज के लोक व्रतानुष्ठान, डॉ० सत्येन्द्र, भारतीय साहित्य, सम्पा० विश्वनाथप्रसाद, :: क०-मु० हिन्दी तथा भाषा विज्ञान विद्यापीठ, प्रागरा वि० वि०, आगरा, वर्ष 5, - अंक 4, अक्टूबर 1960, पृष्ठ 277-78 । .
.. 5. काव्य मीमांसा, प्राचार्य राजशेखर, अनुवादक-केदारनाथ सारस्वत, बिहार राष्ट्रभाषा. ... परिषद पटना, प्रथम संस्करण सम्वत् 2011, अध्याय 16, पृष्ठ 212-14। 6. णायकुमारचरिउ, पुष्पदन्त, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वि० संस्करण
1972 ई०, संधि 1, पृष्ठ 2 7. वही, पृष्ठ 2।
- -
- 8. महापुराण, भाग 2, पुष्पदन्त, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई-दिल्ली, प्रथम संस्करण ... 1979 ई०, संधि 22, पृष्ठ 84 । -... 9. महापुराण, भाग 1, संधि 2, पृष्ठ 36 ।
. 10. महापुराण, भाग 1, संधि 5, पृष्ठ 104 । 11. महापुराण, भाग 1, संधि 2, पृष्ठ 52। । 12. महापुराण, भाग 3, संधि 40, पृष्ठ 42। 13. महापुराण, भाग 3, संधि 50, पृष्ठ 192 । ..... .. . 14: महापुराण, आग 1, संधि 16, पृष्ठ 370 ।:
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प्रशस्तिका
-श्री रमेश मुनि शास्त्री
भाषाणां तु स्वभावोऽयं, क्रमशः परिवर्तनम् अपभ्रंशी समुद्भूता, भाषा प्राकृततः शुभा ॥1॥ भाषा तु भाषते शब्दे, भावानामभिव्यञ्जिका शब्दसंकेतरूपेण, द्विविधा परिगण्यते ।।2।। गुणभेदभिदा दृष्ट्या, तयोर्भेदोऽयमीरितः सांकेतिकी ससीमेयं, निस्सीमा शाब्दिकी मता ॥3॥ सारल्येन प्रबोधाय, पुष्पदन्तेन धीमता अपभ्रश्यां तु भाषायां, ग्रन्थाः हि परिग्रन्थिताः ।।4।। माधुर्येण हि संपृक्तं, द्विरेफः संचितं मधु भारती मधुरा तद्वत्, पुष्पदन्तस्य रोचते ।।5।। पुष्पदन्तद्विरेफेण, साहित्योद्यानतो द्रुतम् मधुना भरितोऽयं वै, स्थापितश्चषको महान् ॥6॥ एवं हि पुष्पदन्तोऽसौ, काव्याकाशे महाकविः चकाशे सूर्यसंकाशः, स्वीय प्रज्ञा शुभांशुभिः ।।7।। माहात्म्यं श्रुतपंचम्या, व्याख्यातुं काव्यकर्मणा नागकुमारचारित्र्यं, चचितं चारुरूपतः ॥8॥
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जैनविद्या
नवसन्धिषु पूर्णेयं, सुचिरा रुचिरा कथा स्वाभाविकः कथारम्भो, ऽलंकारैः समलंकृतः ।।9।। कथानाटकरूपेण, दार्शनिकी च धार्मिकी अध्यात्मतत्वसंवृत्ता, सात्त्विकभावदीपिका ।।10॥ श्री यशोधरचारित्र्यं, स्वीयमाचरितं यथा प्रबन्धकाव्यसिद्धान्तः, प्रशस्तं पूरितं ध्र वम् ।।11।। महापुराणसंज्ञेयं, तृतीया - महती कृतिः सहस्राणां त्रिषष्ट्या च, गदितं काव्यमद्भुतम् ।।12।। मृदुसंवादसंदोहैः, पूरितं च कथानकम् उपमानटिनी यत्र, स्मारं स्मारं समागता ॥13॥ भावभाषासुशैलीभिः, त्रिवेणीसंगमः कृतः मज्जनेन च पानेन, स्वानुभूतिः प्रकाशिता ।।14।। त्वदीयां प्रतिभा मातु, कथं शक्योऽल्पधीरहम् शशिबिम्ब हि सम्पूर्ण, यथा स्पृष्टुं पिपीलिका ।।15।। यज्ञः सुरभिपूर्ण हि, भवतां कृतिभिर्जगत् प्रत्यक्षी क्रियते नूनं, जीवन्तं च विभावये ।।16।। प्रशस्तिका समासृष्टा, कुसुमांजलिरूपिणी । कवये पुष्पदन्ताय, रमेश मुनिनार्पिता ।।17।।
-(*)
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रणेमिसुर की जयमाल -मुनि कनककोति
एवं पाण्डे की जयमाल
-कवि नहु
[संस्थान की घोषित नीति के अनुसार इस अंक में भी अपभ्रंश भाषा की उपर्युक्त दो रचनाएं सानुवाद प्रकाशित की जा रही हैं।
प्रथम रचना में बाईसवें तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ की उनके गुणों एवं पौराणिक घटनाओं का वर्णन करते हुए स्तुति की गई है। इस रचना के रचनाकार घत्ता के 'करणय सुहेव कित्तियए' इन शब्दों के आधार पर मुनि कनककीर्ति ज्ञात होते हैं ।
द्वितीय रचना में 'पण्डित' में किन-किन गुणों का होना आवश्यक है' यह बताया गया है। इसको निबद्ध करनेवाले हैं 'कवि नण्हु' । उनका कहना है कि उन्होंने पण्डित के आवश्यक गुणों का वर्णन अपनी मर्जी से नहीं अपितु, जैसा गुणधरदेव के द्वारा कहा गया अथवा परम्परा से जैसा चला पाया है वैसा ही किया है।
- रचनाओं से रचनाकारों के नाम के अतिरिक्त उनका अन्य कोई परिचय या विवरण प्राप्त नहीं होता । ये रचनाएं कहीं प्रकाशित हुई हों ऐसा हमारी दृष्टि में तो नहीं आया फिर भी हम ऐसा दावा नहीं करते ।
दोनों ही रचनाओं के अनुवादक हैं संस्थान में पाण्डुलिपि सर्वेक्षक एवं इस पत्रिका के सह-सम्पादक प्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक पं० मंवरलाल पोल्याका, जैनदर्शनाचार्य, साहित्यशास्त्री।
आशा है पूर्व की भाँति ही हमारा यह प्रयास भी पाठकों को रुचिकर होगा।
-प्रधान सम्पादक]
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मुनि कनककीर्ति
णेमिसुर की जयमाल
घणघायपहंजण
भवदुहभंजण,
भवियणकमलदिणेसर। णयणाणंदरण जत्थ मिजिणेसर ॥1॥
सिवएविहिणंवरण
जय
. जिरणपुंगव णेमिकुमार मो,
सुरवइ सय वंदिय पाय रणमो। मरगयमणिसावलगत्त णमो, सहसट्टसुलक्खरगजुत्त
णमो॥2॥
णमो।
पुरसंचियकामकयंत
वरजावयकुलपहचंद वहलक्खरगधम्मपयास
रगमो, दहसंजम संजमसामि
णमो ॥3॥
णमो।
वहदण्डपमारणसरीर णमो,
बहदहदुपरीसहसहण - दह सरिस सपाउ पमारण एमो,
दहपंचपमायपमुक्क
. णमो ॥4॥-..
गमो।
अट्ठदोसपरिचत्त
दहदहपणभावन परियारिणय दव्वसहाव
परियाणिय
णमो, भावि गमो, पंचमचरण
णमो॥5॥
मो।
परिवझिय जीवसमास णमो,
परिछिण्ण दुरासापास परिऽसि पसिधि पुरंधि णमो,
परिचत तिदंड तिसल्ल
मो॥6॥
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मुनि कनककोति
नेमीश्वर की जयमाला
घातियाकर्मरूपी मेघों को छिन्न-भिन्न करनेवाले, संसार के दुःखों को नष्ट करनेवाले, भव्यजनरूपी कमलों के लिए सूर्य के समान, शिवदेवी के लाल. नेत्रों को आनन्द देनेवाले हे नेमिजिनेश्वरदेव ! आपकी जय हो ॥1॥
जिनोत्तम नेमिकुमार को नमस्कार हो, जिसके चरण सौ इन्द्रों द्वारा वंदित हैं उसको नमस्कार हो, जिसका शरीर मरकतमरिण के समान श्याम रंगवाला है उसको नमस्कार हो, एक हजार पाठ सुलक्षणों से युक्त प्रभु को नमस्कार हो ॥2॥
पूर्व संचित काम के नष्टकर्ता को नमस्कार हो, श्रेष्ठ यादवकुलरूपी आकाश के चन्द्रमा को नमस्कार हो, दशलक्षण-धर्म का प्रकाश करनेवाले को नमस्कार हो, दस प्रकार के संयमों के संयमस्वामी को नमस्कार हो ।।3।।
___ दस धनुषप्रमाण शरीरधारी को नमस्कार हो, बाईस परीषहों के सहनकर्ता को नमस्कार हो, दस सदृश प्रमाणों का कथन करनेवाले को नमस्कार हो, पन्द्रह प्रमादों से रहित (मुक्त) को नमस्कार हो ।।4।।
जिन्होंने अठारह दोषों का परित्याग कर दिया है उनको नमस्कार हो, पच्चीस भावनाओं के भानेवाले को नमस्कार हो, द्रव्यस्वभाव का परिज्ञान करनेवाले को नमस्कार हो, पंचम चरण (यथाख्यात चारित्र) के परिज्ञानी को नमस्कार हो ।।5।।
जीवसमास को जाननेवाले को नमस्कार हो, दुराशाओं के जाल को छिन्न-भिन्न करनेवाले को नमस्कार हो, स्त्रियों को परितोष प्रदान करने हेतु प्रसिद्ध प्रभु को नमस्कार हो, तीन दण्ड और तीन शल्यों का परित्याग करनेवाले को नमस्कार हो ।।6।।
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102
जनविद्या
परिमुक्क कसाय चउक्क मो,
परिसिंचिय वय-गुण-सील णमो। परिसोसिय भवसिरिसलिल एमो,
परिचितिय अप्पसरूव णमो 170 हरिवंससमुद्भव देव णमो,
हरिवीढ णिवसिय पाय णमो। हरि-हलहर-सेविय साह णमो,
हरिजाया कीय जलकील एमो ॥8॥ हरिचावचढावरण वीर णमो,
हरिजइलपरपूरणधीर मो। हरिसेजारोहणु देव णमो,
हरिणयणाणंदजणेर णमो॥9॥
गमो।
तिहुवणसिरिकतासत्त
तिहुवरणवइ धरि भत्ति छेत्त एमो। तिहुवरण-जणमरण-संतोस णमो।
तिहुवणसिरिविहियणिवास णमो॥10॥ सूरियपुरि वट्ट णिजाव णमो,
गिरि उज्जल किय णिक्खवण णमो। गिरि उज्जल पाविपणास णमो,
गिरि उज्जल कुन णिवाण णमो॥11॥
घत्ता
कि किज्जइ दव्वें, पाविय गव्वे,
___ करणय सुहेव कित्तियए। छड़ बसणसहियउ, भवभवरहियउ,
होउ मरण सुसमाहियए ॥12॥
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जनविद्या
103
___ जो चारों कषायों से परिमुक्त हैं उनको नमस्कार हो, व्रत, गुण और शील का परिसिंचन करनेवाले को नमस्कार हो, भवसागर के जल को शोषित करनेवाले को नमस्कार हो, प्रात्मस्वरूप का चिन्तन करनेवाले को नमस्कार हो ।।7।।
हरिवंश में उत्पन्न होनेवाले देव को नमस्कार हो, कृष्णपीठ निवासी प्रभु के चरणों को नमस्कार हो, कृष्ण और हलधर (बलभद्र) द्वारा सेवित नाथ को नमस्कार हो, कृष्ण की स्त्रियों के संग जलक्रीड़ा करनेवाले को नमस्कार हो ॥8।।
कृष्ण का धनुष चढ़ानेवाले वीर (नेमिनाथ) को नमस्कार हो, कृष्ण के जटिल शत्रुओं को नष्ट करनेवाले धीरवीर को नमस्कार हो, कृष्ण की सेज पर आरोहण करनेवाले देव को नमस्कार हो, कृष्ण के नेत्रों में आनन्द उत्पन्न करनेवाले को नमस्कार हो ।।9।।
तीनलोक की लक्ष्मीरूपी स्त्री पर जो आसक्त हैं उनको नमस्कार हो, त्रिभुवनपति के तीर्थक्षेत्र को भक्तिपूर्वक नमस्कार हो, तीनलोक के जीवों को संतोषप्रदाता को नमस्कार हो, तीनलोक की लक्ष्मी के विहित निवास को नमस्कार हो ।।10।
शौरीपुर में जन्म लेनेवाले को नमस्कार हो, उज्ज्वलगिरि (ऊर्जयन्तगिरि) से निष्क्रमण करनेवाले को नमस्कार हो, उज्ज्वलगिरि पर पापों का क्षय करनेवाले को नमस्कार हो, उज्ज्वलगिरि से निर्वाण प्राप्त करनेवाले को नमस्कार हो ॥11॥
घत्ता
___ यदि भवभव में सम्यग्दर्शन रहे और समाधिपूर्वक मरण होय तो फिर मुनि कनककीति को द्रव्य पाकर गर्व क्यों करना ? ।।12।।
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कवि नहु
पाण्डे की जयमाल
(पंडित - गुणवर्णन)
परिविवि
विपुरिसंपत्त
जगमंडर
कलिमलखंडणे, शांतिनाह सांकरणे ।
भयमयचत्तउ, वज्जिय
परतिय छंडई,
सो पंडिउ जो
विरणयवंतु वहयण महि सोहइ,
सो पंडिउ जो मणु संबोहइ ।
सो पंडिउ जो श्रणुवय पालह ||2||
जललोले हि कलंकु पखालइ,
पंडिउ जो वसरणह
जमजरामर ||1||
परहंदोस वोलंतज लज्जइ, सो पंडिउ जो अप्पा
सो पंडिउ जो ज्ञानु उप्पावद्द, वीतरागु सो पंडिउ जो महुरउ जंपइ, घोरु होइ
सो पंडिउ जो मछर
अणुविणु
वज्जइ ।
सो पंडिउ जो श्रप्पा fies,
झायइ ||3||
श्राराहइ ।
जिसु चित्तु ग कंपइ || 4 ||
वज्जइ,
कोहु लोहु मय मोहु विवज्जइ ।
तिष्णिकाल जिगवर पद वंद ॥5॥
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कवि नण्ह
पण्डित की जयमाला
. जो संसार के भूषण हैं, जिनका पापरूपी मैल नष्ट हो गया है, जो शांति के करनेवाले हैं, जिन्होंने मोक्षरूपी पुरी को प्राप्त कर लिया है, जो (सात प्रकार के) भय और (आठ प्रकार के) मदों से रहित हैं, जो जन्म, जरा और मरण से वर्जित हैं ऐसे श्री शांतिनाथ भगवान् को प्रणाम करता हूँ॥1॥
पण्डित वह है जो परस्त्री का त्याग करता है। पण्डित वह है जो मन को संबोधित करता है। पण्डित वह है जो अणुव्रतों का पालन करता है। ऐसा विनयवान् पण्डित विद्वानों के मध्य सुशोभित होता है ॥2॥
पण्डित वह है जो निश्चितरूप से पानी की लहरों की भाँति अपने दोषों का प्रक्षालन करता है और वस्त्रों का त्याग कर देता है। पण्डित वह है जो दूसरे के दोषों का बखान करते हुए लज्जित होता है और अपनी आत्मा का ध्यान करता है ॥3॥
पण्डित वह है जो ज्ञान का उपार्जन करता है और वीतराग प्रभु की दिनरात आराधना करता है। पण्डित वह है जो मिष्ठ वचन बोलता है, धैर्यशील होता है, जिसका चित्त कम्पायमान नहीं होता ।।4।।
पण्डित वह है जो मात्सर्य का परित्याग करता है, क्रोध लोभ मद और मोह को विवजित करता है। पण्डित वह है जो अपनी निंदा करता है और तीनों काल जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों की वन्दना करता है ॥5॥
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106
जैनविद्या
सो
पंडिउ
जो खमदमवंतउ, विसयसुक्खु पुण विसय विरत्तउ । जो भवदुह बीहइ, सो पंडिउ जो मोक्ख समोहइ ॥6॥
सो पंडिउ
पत्ता-इय पंडिय गुण वज्जरिया,
जि गुणणाहहिं कवि कहइ नहु कर जोड़ि,
करि जिमि परंपर
सिट्ठिया।
प्रक्लिया ॥7॥
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जनविद्या
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पण्डित वह है जो क्षमाशील और दमनशील होता है, विषयों और विषयसुखों से भी विरक्त होता है। पण्डित वह है जो संसार के दुःखों से भयभीत रहता है, पण्डित वह है जो मोक्ष की चाहना करता है ।।6।।
नण्हु कवि हाथ जोड़कर कहता है कि उसने पण्डित के इन गुणों का वर्णन वैसा ही किया है जैसा कि गुणों के स्वामी (भगवान् जिनेन्द्र) ने कहा है और जैसा परम्परा से प्रसिद्ध है ॥7॥
टिप्पण-मूल पाठ एक ही प्रति के आधार पर जैसा का तसा प्रस्तुत किया गया है। मेरी दृष्टि में इसमें प्रथम कडवक की द्वितीय पंक्ति में 'सांतेंकरणें' के स्थान में 'संतिकरणे' और अन्तिम कडवक की द्वितीय पंक्ति में 'जि' के स्थान में 'जिम' होना चाहिये । लिपिकार ने लिपि करते समय इनके पढ़ने में भूल की हो ऐसा असंभव नहीं है।
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जैन विद्या
जैविद्या
(शोध-पत्रिका)
सूचनाएं T 1. पत्रिका सामान्यतः वर्ष में दो बार प्रकाशित होगी। 2. पत्रिका में शोध-खोज, अध्ययन-अनुसंधान सम्बन्धी मौलिक अप्रकाशित
रचनाओं को ही स्थान मिलेगा। 3. रचनाएं जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित ।
किया जायगा। स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का : उत्तरदायित्व रचनाकार का रहेगा। 4. रचनाएं कागज के एक ओर कम से कम 3 सेमी. का हाशिया छोड़कर
सुवाच्य अक्षरों में लिखी अथवा टाइप की हुई होनी चाहिए। अन्य अध्ययन अनुसंधान में रत संस्थानों की गतिविधियों का भी
परिचय प्रकाशित किया जा सकेगा। 6. समीक्षार्थ पुस्तकों की तीन-तीन प्रतियाँ पाना आवश्यक है । 7. रचनाएं भेजने एवं अन्य सब प्रकार के पत्र-व्यवहार के लिए पता :
प्रधान सम्पादक
जैनविद्या B-20. गणेश मार्ग, बापूनगर
जयपुर-302015
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FARProf-
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साहित्य-समीक्षा
जैनदर्शन का व्यावहारिक पक्ष अनेकान्तवाद : लेखक - डॉ० भागचन्द जैन 'भागेन्दु' । प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी । पृष्ठ संख्या-231 साइज 18" × 22" / 8। मूल्य - 1.50 रुपये । प्रथम संस्करण ।
1.
2.
3.
प्रस्तुत कृति जैनदर्शन के मूलभूत सिद्धान्त 'अनेकान्त' की परिचयात्मक लघु पुस्तिका है। विद्वान् लेखक ने प्रत्यन्त सरल सहज शब्दों में अनेकान्त व स्याद्वाद को - समझाया है । पुस्तिका उपयोगी व पठनीय है ।
पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और क्रमबद्ध भी : लेखक- बंशीधर शास्त्री, व्याकरणाचार्य । प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी । पृष्ठ संख्या - 27 । साइज - 18" × 22/8। मूल्य - 1.50 रुपये । प्रथम संस्करण ।
प्रस्तुत कृति में लेखक ने पुष्ट प्रमाणों द्वारा 'पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी' यह सिद्ध करने का प्रयास किया है । पुस्तक उपादेय है ।
दोनों ही पुस्तिकायें मन्दिरों, पुस्तकालयों एवं जिज्ञासु पाठकों द्वारा संग्रहणीय हैं ।
सज्ज्ञान- चन्द्रिका (सम्यग्ज्ञान - चिन्तामणि ) : लेखक - डॉ० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, सागर । प्रकाशक - वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी । प्रथम - संस्करण, 1985 । पृष्ठ संख्या – 148+32=180 1 मुद्रक - नया संसार प्रेस, भर्दनी, वाराणसी-1। आकार 18 X 22 / 4 मूल्य 15 रु.
2
पं० ( डॉ० ) पन्नालाल समाज के उन कतिपय शीर्षस्थ विद्वानों में से एक हैं जो न केवल संस्कृत साहित्य के अपितु धर्मतत्त्व के भी मर्मज्ञ विद्वान् हैं । जैन साहित्य क्षेत्र में उनकी कर्मठता अनुकरणीय है । वे निरन्तर मां सरस्वती की सेवा में रत रहते हैं । उनकी इस लग्नशीलता ने समाज को कई पुराणों के हिन्दी अनुवाद एवं मौलिक रचनाएं प्रदान की हैं। आलोच्य ग्रंथ उनकी स्वयं की मौलिक रचनाओं में से एक है ।
प्रस्तुत कृति उनकी पूर्व संकल्पित रत्नत्रयी नामक रचना का द्वितीय खण्ड है । प्रथम खण्ड " सम्यक्त्व - चिन्तामरिण" के नाम से प्रकाश में आ चुका है जिसमें मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन का सांगोपांग विस्तृत विवेचन किया गया है । पुस्तक का महत्त्व एवं उपादेयता इसी से प्रकट है कि वह श्री दिगम्बर जैन प्रतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी के जैन विद्या संस्थान द्वारा प्रदेय सन् 1983 के महावीर पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुकी है ।
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1.
2.
3.
प्राप्ति स्वीकार :
पद्मावती आदि शासन देवों, होम, हवन, मंत्र, तंत्र सम्बन्धी मिथ्यात्व : लेखक faceाल सेठी | प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षण समिति, 8- अरविंद पार्क, टोंक फाटक, जयपुर-302015 | पृष्ठ संख्या -24 | साइज - 20 " x 30 " / 16 । मूल्य- 00.80 रु० । द्वितीयावृत्ति परिवर्धित |
4.
समालोच्य पुस्तक उसी श्रृङ्खला की द्वितीय कड़ी है। जैसाकि इसके नाम से ही प्रकट है इसमें मोक्षमार्ग की द्वितीय श्रेणी सम्यग्ज्ञान का वर्णन है । लेखक ने इसके लेखन में भी प्रथम खण्ड की भाँति ही पर्याप्त श्रम किया है और फलस्वरूप सम्यक् और मिथ्या दोनों ज्ञानों के सम्बन्ध में प्राय: सम्पूर्ण जानकारी का समावेश इसमें हो गया है यथा- पात्रभेद से ज्ञान के भेद, मिथ्याज्ञान का विस्तार, चार अनुयोग, सम्यग्ज्ञान के आठ अंग, सम्यग्ज्ञान के भेद-प्रभेद, द्वादशांग श्रुतज्ञान, नय, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान, ऋद्धियां, ध्यान आदि ।
जैन विद्या
पुस्तक मूलरूप में संस्कृत में है । साथ में उसकी स्वयं ग्रंथकार कृत हिन्दी टीका है जिसमें आवश्यकतानुसार मूल से हट कर भी विषय का विस्तार किया गया है जिससे पुस्तक की उपादेयता में वृद्धि ही हुई है ।
मुद्रण और गैट-अप आदि सुन्दर कलापूर्ण हैं । एक शब्द में प्रकाशन सर्वांग सुन्दर है जिसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र हैं । विषय के जिज्ञासु पाठकों से अनुरोध है कि वे एक बार इसका अवलोकन अवश्य करें ।
हमारा इस
ग्रंथ प्रत्येक मंदिर पुस्तकालय आदि में संग्रहणीय है ।
आदर्श नित्य नियम पूजा : पद्यरचना - कविभूषण पृष्ठ संख्या-14 । साइज - 20 " x 30 / 16। संशोधित ।
श्रमृतलाल 'चंचल' । प्रकाशक - वही । मूल्य 00.50 रु० । द्वितीयावृत्ति
अरहंत प्रतिमा का अभिषेक जैनधर्मसम्मत नहीं है : लेखक- स्व० पं० बंशीधर शास्त्री । प्रकाशक- वही । पृष्ठ संख्या - 24 | साइज - 20 " x 30 " / 16 । मूल्य- 00.80 रु० । तृतीय संस्करण ।
जैन साधु कौन ? 20" x 30 "/16 | मूल्य - 1.00 रु० । प्रथम संस्करण ।
: लेखक - बिरधीलाल सेठी । प्रकाशक - वही । साइज -
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इस अंक के सहयोगी रचनाकार
1. गे० मादित्य प्रचण्डिया 'बीति'-जन्म-20 दिसम्बर, 1953 । एम.ए. (स्वर्णपदक
प्राप्त), पीएच डी. । कवि, लेखक एवं समीक्षक । अनेक लेख एवं पुस्तकें प्रकाशित । रिसर्च एसोसिएट, हिन्दी विभाग–क. मु. भाषाविज्ञान एवं हिन्दी विद्यापीठ, आगरा । इस अंक में—पुष्पदंत काव्य में प्रयुक्त 'लक्ष्मी'। सम्पर्क सूत्र-मंगलकलश, 394,
सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001 (उ. प्र.)। 2. ग. कमलचन्द सोगाणी-जन्म-15 अगस्त, 1928 । बी.एससी., एम.ए.,पीएच.डी. ।
प्रो.-दर्शनशास्त्र, मो.ला. सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर । अनेकों पुस्तकों के लेखक । देश-विदेश के अनेकों सम्मेलनों में पत्रवाचन । कई सामाजिक संस्थानों से संबद्ध । “जैनविद्या' के सम्पादक-मण्डल के सदस्य । इस अंक में-गायकुमारचरिउ में प्रतिपादित जीवनमूल्य ।
सम्पर्क सूत्र-टीएच. 4; स्टॉफ कॉलोनी, यूनिवर्सिटी न्यू कैम्पस, उदयपुर । 3. गॅ० कस्तूरचंद 'सुमन'--जन्म 12 अप्रैल, 1936 । एम.ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास
एवं स्थापत्य, पालि-प्राकृत), शास्त्री, काव्यतीर्थ, साहित्यरत्न, बी.एड., पीएच.डी. । शोध-सहायक-जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। इस अंक में-णायकुमारचरिउ की सूक्तियां और उसका अध्ययन । सम्पर्क सूत्र-जैन विद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
(राज.) 322220 । 4. गॅ० गजानन नरसिंह साठे-जन्म-1 फरवरी, 1922 । एम.ए. (मराठी, हिन्दी,
अंग्रेजी), पीएच.डी., बी.टी., साहित्यरत्न । अनेकों हिन्दी, मराठी एवं गुजराती पुस्तकों के अनुवादक तथा लेखक । भूतपूर्व प्राचार्य । इस अंक में-णायकुमारचरिउ : एक आद्यन्त जैन-काव्य । सम्पर्क सूत्र-1472, सदाशिव पेठ, परांजपे सदन, पुणे
(महाराष्ट्र)-411030 । 5. श्री जवाहिरलाल जैन-जन्म 1909 । एम.ए. (राजनीति एवं इतिहास) । सर्वोदयी
विचारक, लेखक, पत्रकार एवं शोधक । भूतपूर्व उपाचार्य । अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रबन्ध-सम्पादक । वर्तमान में मंत्री, राजस्थान खादी संघ, निदेशक कुमारप्पा ग्राम स्वराज्य शोध संस्थान, जयपुर एवं अन्य अनेकों संस्थाओं के पदाधिकारी । इस अंक में-जसहरचरिउ का काव्य-वैभव । सम्पर्क सूत्र-जीवन ज्योति, ए-21, बजाज नगर, जयपुर।
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जैन विद्या
6. श्री नेमीचंद पटोरिया - एम.ए., एल.एल.बी., साहित्यरत्न । अनेकों पत्रों के भूतपूर्व सम्पादक । अनेकों पुस्तकों व बोधकथाओं के लेखक, टीकाकार | मानद शोध सहायकजैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । इस अंक में - यशोधर का प्राख्यान - गुरुकुल में व्याख्यान | सम्पर्क सूत्र - जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी (राज.), 3222201
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7. डॉ० (श्रीमती) पुष्पलता जैन - - एम. ए. (हिन्दी एवं भाषाविज्ञान ), पीएच.डी. । अनेकों पुस्तकें प्रकाशित । प्राध्यापिका – हिन्दी विभाग, एस.एफ.एस. कॉलेज, नागपुर इस अंक में — महाकवि पुष्पदंत की विचारदृष्टि एवं उपमानसृष्टि । सम्पर्क सूत्र – न्यू एक्सटेंशन, सदर, नागपुर (महाराष्ट्र ) ।
8. डॉ० प्रेमचंद रावका - जन्म - 20 अक्तूबर, 1943 एम. ए., जैनदर्शनाचार्य, शिक्षाशास्त्री, पीएच.डी. । प्राध्यापक - महाराजा स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर । इस अंक में महाकवि पुष्पदंत और उनकी रसाभिव्यक्ति । सम्पर्क सूत्र - 1910, खेजड़े का रास्ता, तोपखाना देश, जयपुर-302001 ।
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9. श्री भंवरलाल पोल्याका - जन्म - 1 फरवरी, 1918 जैनदर्शनाचार्य, साहित्यशास्त्री | अनेकों ग्रंथों, स्मारिकाश्रों, पत्रों के सम्पादक । वर्तमान में - पाण्डुलिपि सर्वेक्षक - जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी एवं सहसम्पादक - जैनविद्या । इस अंक में - जसहरचरिउ केर सुहासिवरणाइँ । सम्पर्क सूत्र - 566, जोशी भवन के सामने, मणिहारों का रास्ता, जयपुर-302003
10. श्री मुन्नालाल जैन - जन्म - 25 जुलाई, 1954 एम. ए., बी. एड., साहित्याचार्य । सहायक पाण्डुलिपि सर्वेक्षक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । इस अंक में संस्थान में महाकवि पुष्पदंत के ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ । सम्पर्क सूत्र - पाण्डुलिपि सर्वेक्षण. विभाग, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी, जिला - सवाई माधोपुर, राज 322220 श्री रमेश मुनि शास्त्री - जैन सिद्धान्ताचार्य, साहित्यशास्त्री । संस्कृत व प्राकृत के उद्भट विद्वान्, कवि एवं लेखक । इस अंक में – प्रशस्तिका । सम्पर्क सूत्र - श्री श्रानन्दकुमार जैन, 2771, चीराखाना, रोशनपुरा, नई सड़क, दिल्ली-110006 ।
11. भी
12. डॉ० वृद्धिचंद्र जैन – जन्म - 15 मार्च, 1937 एम.ए., पीएच. डी., साहित्यशास्त्री, जैनदर्शनशास्त्री, बी.एड. । शोध सहायक- जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । इस अंक — महाकवि पुष्पदंत की काव्यप्रतिभा । सम्पर्क सूत्र - जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी - 322220
13. श्री श्रीयांशकुमार सिंघई - जन्म - 21 अगस्त, 1958 प्राचार्य ( जैन दर्शन ), शोधस्नातक । प्राध्यापक - भाषाविज्ञान, दिगम्बर जैन स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर । इस अंक में – जसहरचरिउ में ग्रात्मा सम्बन्धी विचार | सम्पर्क सूत्र - दिगम्बर जैन स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय, मणिहारों का रास्ता, जयपुर-302003 ।
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प्रकाशकीय
पर्याप्त प्राचीन समय से जैनधर्मानुयायियों में एक परिपाटी चली आ रही है। प्रायः प्रत्येक जैन शौचादि नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निवृत्त हो शुद्ध वस्त्र पहन सर्वप्रथम जिनमंदिर में अवश्य जाता है। वहां वह भगवान्, जिनेन्द्र की भक्तिभावपूर्वक वन्दना, स्तुति, पूजा, अर्चना अादि कर कुछ काल जप, ध्यान आदि करता है। इसके पश्चात् यदि वहां कोई साधु आदि उपस्थित हों तो उनके समीप बैठ तत्त्व चर्चा करता है अथवा उनका धर्मोपदेश सुनता है । तदनन्तर जिनवाणी शास्त्र का स्वाध्याय करता/कराता है । यद्यपि काल के प्रभाव से वर्तमान पीढ़ी में यह प्रथा प्रायः समाप्ति की ओर अग्रसर है किन्तु पुरानी पीढ़ी के लोग अभी भी इस परिपाटी का पालन करते हैं । यह उनकी दिनचर्या का एक आवश्यक अंग है। धर्मशास्त्रानुसार भी जैन गृहस्थ की छह आवश्यक क्रियानों में इनका प्रारम्भिक तीन आवश्यकों के रूप में विधान है । जैनों में प्रचलित इस परम्परा ने जैनधर्म और संस्कृति की रक्षा, उसके प्रचार तथा प्रसार में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में जो इतने कलापूर्ण मंदिर एवं शास्त्रों के विपुल भण्डार प्राप्त हैं वे सब इसी के फल/परिणाम हैं। इस प्रकार की परम्परा जैनों के अतिरिक्त अन्य किसी सम्प्रदाय में नहीं है । वहां मात्र देवदर्शन अथवा साधु-सेवा ही प्रावश्यक अंग के रूप में विद्यमान है अतः वहां मंदिरों का निर्माण तो हुप्रा किन्तु उसमें, कुछ अपवादों को छोड़कर, शास्त्र-भण्डारों का प्रायः अभाव रहा।
यदि किसी को अपनी बात, अपनी मान्यताओं से प्रभावित करना हो तो उसको उसी की भाषा में अपनी बात कहनी चाहिये, यह एक निर्विवाद सत्य है। अन्य भाषा में उससे बात करने पर यथेच्छ प्रभाव पड़ ही नहीं सकता। जैन तीर्थंकरों ने इस तथ्य को समझा था, इसलिए अपने उपदेशों के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रचलित लोकभाषामों को चुना था। युगादिदेव भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों ने इस सिद्धान्त का पालन किया तथा उनके पश्चात् होनेवाले गणधरों, प्राचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं, भट्टारकों, पण्डितों और विद्वानों ने इस परम्परा को चालू रखा। यही कारण है कि जैसे ही प्राकृत भाषा का स्थान अपभ्रंश भाषा ने ग्रहण किया उन्होंने इस भाषा को अपनी रचनायों का माध्यम बनाना प्रारम्भ कर दिया । उनकी देखा-देखी नाथ सम्प्रदाय के साधुओं ने भी ऐसा करना प्रारम्भ किया। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों ने इसे और बढ़ावा दिया। वह काल भारत पर विदेशियों के आक्रमण का काल था और लोग उनसे त्रस्त होकर इधर से उधर शांति की खोज में भागते फिरते थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हें उच्च अध्ययन का अवसर ही प्राप्त नहीं होता था, अतः वे अपनी भाषा में धर्मतत्त्व का श्रवण, मनन और
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जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी महावीर पुरस्कार
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी (राजस्थान) की प्र० कारिणी समिति के निर्णयानुसार जैन साहित्य सृजन एवं लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए रु० 5,001/- ( पांच हजार एक) का पुरस्कार प्रतिवर्ष देने की योजना
योजना के नियम :
1. जैनधर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति सम्बन्धी किसी विषय पर किसी निश्चित अवधि में लिखी गयी सर्जनात्मक कृति पर "महावीर पुरस्कार" दिया जावेगा । अन्य संस्थाओं द्वारा पहिले से पुरस्कृत कृति पर यह पुरस्कार नहीं दिया जावेगा ।
2. पुरस्कार के लिए विषय, भाषा, आकार एवं अवधि का निर्णय जैनविद्या संस्थान समिति द्वारा किया जावेगा ।
3. पुरस्कार हेतु प्रकाशित / अप्रकाशित दोनों प्रकार की कृतियां प्रस्तुत की जा सकती हैं । यदि कृति प्रकाशित हो तो यह पुरस्कार की घोषणा की तिथि के 3 वर्ष पूर्व तक ही प्रकाशित होनी चाहिये ।
4. पुरस्कार हेतु मूल्यांकन के लिए कृति की चार प्रतियां लेखक / प्रकाशक को संयोजक, जैनविद्या संस्थान समिति को प्रेषित करनी होगी । पुरस्कारार्थ प्राप्त प्रतियों पर स्वामित्व संस्थान का होगा ।
5. अप्रकाशित कृति की प्रतियां स्पष्ट टंकरण की हुई अथवा यदि हस्तलिखित हों तो वे स्पष्ट और सुवाच्य होनी चाहिये ।
6. पुरस्कार के लिए प्रेषित कृतियों का मूल्यांकन दो या तीन विशिष्ट विद्वानों/निर्णायकों के द्वारा कराया जावेगा, जिनका मनोनयन जैनविद्या संस्थान समिति द्वारा होगा । आवश्यक होने पर समिति अन्य विद्वानों की सम्मति भी ले सकती है । इन निर्णायकों/ विद्वानों की सम्मति के आधार पर सर्वश्रेष्ठ कृति का चयन समिति द्वारा किया जावेगा । इस कृति को पुरस्कार योग्य घोषित किया जावेगा ।
7. सर्वश्रेष्ठ कृति पर लेखक को पाँच हजार एक रुपये का महावीर पुरस्कार प्रशस्तिपत्र के साथ प्रदान किया जावेगा । एक से अधिक लेखक होने पर पुरस्कार की राशि उनमें समानरूप से वितरित कर दी जावेगी |
8. महावीर पुरस्कार के लिए चयनित अप्रकाशित कृति का प्रकाशन संस्थान के द्वारा कराया जा सकता है जिसके लिए प्रावश्यक शर्तें लेखक से तय की जायेंगी ।
9. महावीर पुरस्कार के लिए घोषित अप्रकाशित कृति को लेखक द्वारा प्रकाशित करने/ करवाने पर पुस्तक में पुरस्कार का आवश्यक उल्लेख साभार होना चाहिये ।
10. यदि किसी वर्ष कोई भी कृति समिति द्वारा पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई तो उस वर्ष का पुरस्कार निरस्त ( रद्द कर दिया जावेगा ।
11. उपर्युक्त नियमों में आवश्यक परिवर्तन / परिवर्द्धन / संशोधन करने का पूर्ण अधिकार संस्थान / प्रबन्धकारिणी समिति को होगा ।
संयोजक कार्यालय : एस. बी. - 10, बापूनगर जयपुर-302004.
डॉ० गोपीचन्द पाटनी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति, श्रीमहावीरजी
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________________ क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग द्वारा प्रकाशित महत्त्वपूर्ण साहित्य 1-5. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची–प्रथम एवं द्वितीय भाग-(अप्राप्य) तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम भाग सम्पादक-डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल एवं पं० अनूपचन्द न्यायतीर्थ 170.00 6. जैन ग्रंथ भंडार्स इन राजस्थान-शोधप्रबन्ध-डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल 50.00 7. प्रशस्ति संग्रह–सम्पादक-डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल 14.00 8. राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व लेखक-डॉ० कस्तुरचन्द कासलीवाल 20.00 9. महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व लेखक-डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल 20.00 10. जैन शोध और समीक्षा-लेखक-डॉ० प्रेमसागर जैन 20.00 11. जिणदत्त चरित–सम्पादक-डॉ० माताप्रसाद गुप्त एवं डॉ० कासलीवाल 12.00 12. प्रद्युम्नचरित–सम्पादक-पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ _एवं डॉ० कासलीवाल 12.00 13. हिन्दी पद संग्रह–सम्पादक-डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल 10.00 14. सर्वार्थसिद्धिसार–सम्पादक-पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ 10.00 15. चम्पा शतक–सम्पादक–डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल 6.00 16. तामिल भाषा का जैन साहित्य-सम्पादक-श्री भंवरलाल पोल्याका 1.00 17. वचनदूतम्-(पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध)-लेखक-पं० मूलचन्द शास्त्री, प्रत्येक 10.00 18. तीर्थकर वर्धमान महावीर-लेखक-पं० पदमचन्द शास्त्री 10.00 19. A Key to TRUE Happiness (अप्राप्य) 20. पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्मृति ग्रन्थ / 50.00 21. बाहुबलि (खण्डकाव्य)-पं० अनूपचन्द न्यायतीर्थ 10.00 22. योगानुशीलन-लेखक-श्री कैलाशचन्द्र बाढ़दार, एम.ए., एलएल.बी. 75.00 13. चूनड़िया-मुनिश्री विनयचन्द्र, अनु० श्री भंवरलाल पोल्याका 1.00 24 आणंदा-श्री महानंदिदेव, अनु० डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री 5.00 25. वर्धमानचम्पू-पं० मूलचन्द्र शास्त्री प्रेस में 26. गेमिसूर की जयमाल और पाण्डे की जयमाल-मुनि कनककीति एवा कवि नण्हु, अनु० श्री भंवरलाल पोल्याका 2.00 पुस्तक प्राप्तिस्थान मन्त्री कार्यालय मैनेजर कार्यालय दि० जैन अ० क्षेत्र श्रीमहावीरजी दि० जैन अ० क्षेत्र श्रीमहावीरजी सवाई मानसिंह हाईवे, जयपुर-3 (राज.) श्रीमहावीरजी (जि० स० माधोपुर) राज०