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________________ 71 जैन विद्या वही नरश्रेष्ठ धारण करता है, जो नित्य ही त्रस जीवों के प्रति दया करने में तत्पर रहता है, जो विनयी, सत्यवादी और मधुरभाषी होता है, जो दूसरे के द्रव्य का अपहरण नहीं करता, जो पर-स्त्री से पराङमुख रहता है। लोभ के निग्रह और परिग्रह के प्रमाण द्वारा ही गृहधर्म धारण किया जाता है । इसी प्रसंग में उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना, मद्य मांस-मधु का परित्याग करना, पंचोदम्बर फलों का त्याग करना, शिक्षाव्रतों का पालन करना, सामायिक प्रोषधव्रत करना आदि को भी आवश्यक बतलाया है । इसी के परिपूरक रूप में आचार्य श्रुतिधर ने नागकुमार को जो गृहस्थधर्म का विवेचन किया है वह भी द्रष्टव्य है जो समस्त जीवों पर दया करता है, झूठ वचन नहीं कहता, सत्य और शौच में रुचि रखता है, चुगलखोरी, अग्नि के समान कर्कश वचन, ताड़न-बंधन और अन्य पीड़ाविधि का प्रयोग नहीं करता, क्षीण, भीरु, दीन और अनाथों पर कृपा करता है, मधुर करुणापूर्वक वचन बोलता है, दूसरे के धन पर कभी मन नहीं चलाता, प्रदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करता, के अपनी पत्नी से ही रमण करता है, परस्त्री पर दृष्टि नहीं चलाता, पराये धन को तृण समान मानता है, गुणवानों की भक्तिसहित स्तुति करता है, जो अभंगरूप से इन धर्मों के अंगों का पालन करता है, वही धर्म का धारक है। अंत में तो कवि झुंझलाकर यह भी कह उठते हैं कि क्या धर्मी के सिर पर कोई ऊँचे सींग लगे रहते हैं । इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि उनकी दृष्टि में धर्म की यही सरलतम परिभाषा हो सकती है । यहां यह द्रष्टव्य है कि महाकवि पुष्पदंत ने अमृतचंद्र और अमितगति आदि आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट श्रष्टमूलगुरण - परम्परा का अनुकरण किया है। इसके साथ रात्रिभोजनत्याग को भी सम्मिलित किया है । लगता है उन्होंने समन्तभद्र और रविषेण दोनों की परम्परानों को समन्वित करने का प्रयत्न किया है। महाकवि आशाधर इस संदर्भ में प्रभावित दिखाई देते हैं । इसी तरह शिक्षाव्रतों के संदर्भ में भी पुष्पदंत की समन्वयदृष्टि का पता चलता है । इन दोनों प्रसंगों में विवेचित गृहस्थधर्म को शास्त्रीय परिभाषा में नहीं बांधा गया बल्कि कुछ ऐसे भी तत्त्वों को सम्मिलित कर दिया गया है जो अणुव्रतों के अन्तर्गत नहीं प्राते या प्राते भी हैं तो स्पष्ट नहीं होते । यह तथ्य कवि की अथक व्यावहारिक दृष्टि की ओर इंगित करता है । उनकी सूक्ष्म दृष्टि वहां और अधिक दिखाई देती है जहां वे सामुदायिक चेतना के आधार पर कहते हैं कि सम्पत्ति का सदुपयोग तो तभी कहा जा सकता है जब वह गरीबों के उद्धार में लगे और जीवन की सार्थकता भी तभी मानी जा सकती है जब वह असहाय की सहायता करे। एक अन्य स्थान पर उन्होंने धन को दान से अलंकृत माना है अन्यथा वह घोर पाप का कारण है । 7 इसी प्रकार श्रीपंचमीव्रतोपवासविधि के प्रसंग में उन्होंने पशुओंों को भी भोजन कराने का नियम निर्धारित किया है । इन सभी तत्त्वों को महाकवि ने गृहस्थधर्म के चौखटे में बांधने का प्रयत्न किया है। यहां एक अन्यतम विशेषता और भी द्रष्टव्य है कि यहां रात्रिभोजन करने का भी निषेध कर दिया । इतना ही नहीं, उन्होंने रात्रि में मिष्ठान्न
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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