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________________ उद्देश्य पाठक का मनोरञ्जनमात्र न होकर उनमें अपने धर्म/कर्तव्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना होता है। यही कारण है कि शृंगारप्रधान रचनाओं का जैनों में प्रायः अभाव है। यदि कहीं कुछ ऐसा प्राप्य भी है तो उसका उद्देश्य भी पाठको में सांसारिक विषय-भोगों से विरक्ति उत्पन्न कर आध्यात्मिकता की ओर रुचि उत्पन्न करना रहा है, अपने इस ध्येय की पूर्ति में वे एक सीमा तक सफल भी रहे हैं। जैन रचनाकार सरल एवं सुबोध लोक-भाषा में अपने विचार और मान्यताएं जनता के समक्ष रखते एवं लिपिबद्ध करते थे। इसके अतिरिक्त ध्येयपूर्ति का अन्य कोई मार्ग भी नहीं था। यही कारण है कि अहिंसाप्रधान जैन और बौद्ध आगम-ग्रन्थों का निर्माण तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा प्राकृत में हुआ। जब प्राकृत परिवर्तन के अपने अन्तिम दौर में पहुंची तो वह अपभ्रश कहलाने लगी और जैनों ने इस भाषा में अपनी रचनाएं रचना प्रारंभ कर दिया । यही कारण है कि अपभ्रंश साहित्य का अधिकांश भाग जनों द्वारा विरचित है। अपभ्रंश के अधिकांश रचनाकारों यथा स्वयंभू, पुष्पदंत आदि ने अपनी काव्यभाषा को देशी के नाम से ही अभिहित किया है। अवहट्ट, अवहंस नाम भी इसी भाषा के थे । मूलतः यह आभीरों की भाषा थी अतः आभीरी भी कहलाती थी। यह एक आश्चर्य किन्तु सत्य है कि इसका उद्गम-स्थल उत्तर भारत होते हुए भी इसका अधिकांश प्राचीन साहित्य दक्षिण में लिखा गया। ..हमारा प्रयास जहाँ एक अोर अपभ्रंश भाषा की अब तक ज्ञात एवं प्रकाशित रचनाओं का विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन प्रस्तुत करना है वहाँ अपभ्रंश की अब तक अज्ञात तथा अप्रकाशित रचनाओं को हिन्दी अनुवादसहित प्रकाश में लाना भी है। हमारे इस प्रयास की विद्वानों एवं मनीषियों ने प्रशंसा कर हमें प्रोत्साहित किया है। आगामी अंक में हम अपभ्रश के ही दो अन्य महाकवि धनपाल एवं धवल की रचनाओं का शोध-खोजपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। 'जनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी' में अब तक क्या कार्य हुआ है अथवा हो रहा है उसकी भी एक संक्षिप्त सी झलक, संस्थान में तैयार की गई कृतियों के कुछ अंश पत्रिका के आगामी अंक में प्रकाशित कर समाज एवं विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने का हमारा विचार है जिससे कि संस्थान में हो रहे कार्य के महत्त्व का अंकन किया जा सके । जिन विद्वानों ने अपनी रचनाएं भेजकर अथवा अन्य प्रकार से हमें सहयोग प्रदान किया है उनके प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं। संस्थान समिति के तथा सम्पादक मण्डल के सदस्यों तथा अपने सहयोगी कार्यकर्तागों के द्वारा प्रदत्त परामर्श, सहयोग प्रादि के लिए हम उनके आभारी हैं। मुद्रणालय के मालिक, मैनेजर एवं अन्य कार्यकर्ता भी समय पर कार्य सम्पन्न करने तथा कलापूर्ण सुन्दर मुद्रण के लिए समानरूप से धन्यवादाह हैं । (प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन प्रधान सम्पादक
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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