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________________ .02 जैनविद्या प्राचार्य श्री सिंघनंदि की पोथी। 17 वेष्टन संख्या 855 । पत्र संख्या 82 । पूर्ण । प्राकार 24X13 से० मी० । लिपिक-राधा। लिपिसमय-संवत् 1657। विशेष-हासिये पर टिप्पण है। बाई ओर का हासिया कैंची से काट दिया गया है। प्रशस्ति-संवत् 1657 वर्षे आसोज सुदि 11 बुधवासरे लिपिक राधा लिषतं । .. प्रशस्तियां यथासंभव अपने मूलरूप में दी गयो हैं। जिन-स्तति कयाहिंदसेवो, जिणो देवदेवो । प्रसंगो प्रभंगो, जहाजालिंगो । दुहारणं विरणासो, सुहाणं रिणवासो। गुणाणं रिणसेरणी, रणयारूढ़वारणी।। तमारणं पईवो, तवाणं पहायो। प्रगानो अपाम्रो, सयासुद्धभावो। सयारणंतरणारणी, जसुप्पत्तिखारगी। भावार्थ-हे भगवन् ! नागेन्द्र भी आपकी सेवा करते हैं। आप असंग, अभंग, यथाजातलिंग, दुःखों के विनाशक, सुखों के निवास, गुणों की नसेनी (सोढ़ी), नयानुसार उपदेशक, अन्धकार के प्रदीप, तपस्या के प्रभाव, अगम्य, निष्पाप, सदा शुद्धभाव, सदा अनन्त ज्ञानो तथा यशोत्पत्ति की खान हैं। ... -रणाय० 2.3.7-13 :
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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