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________________ जनविद्या -210 दुवई–पहणमि जिणमि एह कं दिवसु वि मारमि परमि संगरे। . इय संभरिवि तेण भडसंगहु कउ णिययम्मि मंदिरे ॥ . 3.15 - "इसे किस दिन मारू, जीत लूं अथवा संग्राम में पकड़ लूं, ऐसी चिंता करते हुए श्रीधर ने अपने महल में योद्धाओं का संग्रह किया।" ___इस जानकारी से राजा जयन्धर को अत्यन्त दुःख हुआ। वह सोचने लगा कि लक्ष्मी के लम्पटों के करुणा नहीं होती (सिरिलंपडहं पत्थि कारुण्ण) । इस प्रकार सोचकर राजा ने एक अलग नगर बनवाया और उसे नागकुमार को दे दिया । यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि जो व्यक्ति भौतिक सम्पदाओं में लीन है उसकी ईर्ष्या शत्रुता में बदल जाती है। हमने पृथ्वीदेवी के उदाहरण में देखा कि आध्यात्मिक ज्ञान से पृथ्वीदेवी की ईर्ष्या शान्त हो गई थी किन्तु श्रीधर के उदाहरण में ईर्ष्या शत्रुता में बदल जाती है । इससे पुष्पदंत संभवतया यह सिखाना चाहते हैं कि आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन में उतारने से मानवीय सम्बन्धों में मृदुता का संचार हो सकता है । ईर्ष्या सामाजिक सम्बन्धों को विकृत कर देती है, इसकी समाप्ति विवेक से ही सम्भव है। (2) प्रजाबन्धुर (नागकुमार) को समुचित शिक्षा प्राप्त कराने हेतु नाग के घर लाया गया। वहां उसने सभी प्रकार की विद्याओं को सीखा। विद्योपार्जन के फलस्वरूप "वह व्यसनहीन, स्वच्छ, क्रोधरहित, शूरवीर, महाबलशाली, उचितकार्यशील, दूरदर्शी, दीर्घसूत्रतारहित, बुद्धिमान, गुरु व देव का भक्त, सौम्य सरलचित्त, दानी, उदार एवं ज्ञानी पुरुषोत्तम बन गया ।"4 इन नैतिक आध्यात्मिक मूल्यों के ग्राही नागकुमार ने अपना सारा जीवन अन्याय के प्रतिकार करने में लगाया । वास्तव में सशक्त और सद्गुणी व्यक्ति का कर्तव्य है कि कमजोर के प्रति जहां कहीं भी अन्याय दृष्टिगोचर हो उसको निःस्वार्थ भाव से मिटाए । नागकुमार ने ऐसा ही किया । हम तीन प्रसंगों में इसकी चर्चा करेंगे। .: (अ) पिता की आज्ञा पाकर नागकुमार स्वदेश छोड़कर मथुरा की ओर चला गया । उसने देवदत्ता की सहायता से नगर में प्रवेश किया । देवदत्ता से बातचीत करते समय ज्ञात हुआ कि मथुरा के राजा दुर्वचन ने राजा विजयपाल की सुपुत्री शीलवती का, विवाह के लिए जाते हुए मार्ग में ही युद्ध करके, अपहरण कर लिया है और उसे बन्दीगृह में डाल दिया है। देवदत्ता ने राजकुमारी शीलवती के दुःख को बताया । नागकुमार इस अन्याय को सह न सका और वह उस राजकुमारी के कारागार पर ही जा पहुंचा । राजकुमारी ने नागकुमार को देखकर पुकार लगायी भरिणउ ताइ भो णरपंचाणण, भो जयलच्छिविलासिणिमाणण । भो भो सरणागयपविपंजर, दुक्खरुक्खचूरणदिसिकुंजर । दोसहि को वि कुलोणु महापहु, फेडही महु बंदिहे बंदिग्गहु । 5.3.9-11 "हे नरसिंह, हे विजयलक्ष्मीरूपी विलासिनी के मान्य, हे शरणागतों के लिए वज्र के पिंजड़े, हे दुःखरूपी वृक्ष को चूर-चूर करनेवाले दिग्गज, आप कोई कुलीन महाप्रभु दिखाई देते हैं अतएव आप मुझ बन्दिनी को इस बन्दीगृह से छुड़ाइए ।"
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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