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________________ जैनविद्या इस पर नागकुमार ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने किंकरों से कहा- पत्ता-ता कुमरें किंकरवर भणिय कड्ढहु बलिवंड सुलोयरिणय। सस एह महारी जो घरइ तो इंदु वि समरंगण मरइ। 5.3 "हे जवानो, इस सुलोचना को इस बन्दीगृह से निकालो । यह हमारी बहन है । इसे जो कोई रोकेगा वह यदि इन्द्र भी हो तो भी समरांगण में मरेगा।" युद्ध चल पड़ा । अन्त में नागकुमार युद्ध में विजयी हुआ और शीलवती बन्दीगृह से छुड़ा ली गई तथा अपने पिता के घर भेज दी गई। इस तरह से नागकुमार ने निःस्वार्थभाव से अन्याय का प्रतिकार किया । . (ब) नागकुमार ने कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। कश्मीर की राजकुमारी त्रिभुवनरति को वीणा-वाद्य में जीतकर प्रस्तावानुसार विवाह किया। इस तरह से कश्मीर के राजा नन्द की पुत्री त्रिभुवन रति के साथ नागकुमार नन्द के राज-भवन में सुखपूर्वक रहने लगे । एक बार वहाँ सागरदत्त नामक धनिक अाया। उसने अपनी यात्रा का अनुभव बताते हुए कहा कि रम्यकवन में एक शबर रहता है जो निरन्तर अन्याय-अन्याय की पुकार लगाता रहता है, किन्तु उसके नेत्रों से झरते हुए अश्रुजल को कोई पोंछनेवाला नहीं है। प्रपुसियणयणचुयंसुअपिच्चं, अण्णायं णिव घोसइ णिच्चं । 5.10.21 यह सुनकर नागकुमार अपनी सेना सहित रम्यकवन की ओर चल पड़ा । वहाँ उसने दीनमन पुलिन्द (शबर) को देखा जो शबरी के वियोग में दुःखी था और "बचानो-बचाओ" चिल्ला रहा था और सुननेवालों में करुणा उत्पन्न कर रहा था।" परितायहु परितायहु भणइ णिसुणंतह कारुण्णउ जणइ । 5.11 जब नागकुमार ने पुलिन्द से पूछा तो उसने कहा कि यहाँ कालगुफा में भीमासुर नाम के राक्षस ने मेरी प्रिय पत्नी का अपहरण कर लिया है । हे स्वामी, आप दीनोद्धारक दिखाई देते हैं। यदि आपसे हो सके तो शीघ्र ही मेरी पत्नी को वापस दिलवा दीजिये ।' पुलिन्द की प्रार्थना को स्वीकार करके नागकुमार कालगुफा में पहुंच गया । राक्षस ने नागकुमार को आसन दिया और सम्मान में रत्नमयी आभूषण और वस्त्र प्रदान किये । असुर राक्षस ने मनोवैज्ञानिक ढंग से नागकुमार को कहा रक्खियाइँ मई तुझ णिमित्ते, प्रवहारहि पहु दिव्वें चित्तें । जं किउ मई वणयरपियहारण, तं पहु तुम्हायमणहो कारणु । 5.13.4-5 "मैने आपके निमित्त से ही इन्हें रक्षित रखा है अतएव हे प्रभु, दिव्यचित्त से इन्हें ग्रहण कीजिये । मैंने जो इस वनचर की पत्नी का अपहरण किया वह भी हे प्रभु, आपके प्रागमन के कारण ही ।"
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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