SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या दूसरा काव्य "रिट्ठणेमिचरिउ" अब भी प्रकाशित न होकर पाठकों की पहुँच के बाहर ही रहा है। (उनकी तीसरी कृति "स्वयंभूच्छन्दस्" प्रकाशित हो गयी है ।) उधर पुष्पदंत को अपनी तीनों रचनाएं-तिसट्ठि-महापुरिस-गुणालंकार, जसहरचरिउ, और गायकुमारचरिउ सुसम्पादित होकर पाठकों के लिए सहजतया उपलब्ध होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । इस लेख में पुष्पदंत का सविस्तार परिचय देना अपेक्षित नहीं है। इसलिए उनके विषय में यहाँ पर निम्नलिखित बातों का उल्लेख करना पर्याप्त होगा। पुष्पदंत केशवभट नामक किसी शैवमतावलम्बी ब्राह्मण के सुपुत्र थे जिन्होंने कालान्तर में जैनधर्म स्वीकार किया। अपने पिता के साथ जैनधर्म में दीक्षित हो जाने पर सम्भव है पुष्पदंत के आश्रय दाता उनसे अप्रसन्न हुए हों और फलस्वरूप उस आश्रय का त्याग कर वे भी मान्यखेट गये। संयोग से, मान्यखेट के तत्कालीन राष्ट्रकूटवंशीय शासक, वल्लभराय उपाधि से सम्मानित कृष्णराज और उनके महामंत्री भरत से उनकी भेंट हुई । कृष्णराज जैनधर्म का प्रादर करते थे, तो भरत स्वयं जैनधर्मानुयायी थे। भरत काव्यप्रेमी थे, कवि-कलाकारों का सम्मान किया करते थे । उन ही के अनुरोध पर पुष्पदंत ने अपभ्रश में "तिसदिठ-महापुरिस-गुणालंकार" अर्थात् महापुराण की रचना की (ई. 959-965)। भरत के पश्चात् उनके सुपुत्र नन्न कृष्णराज के महामात्य हुए । उनके पाश्रय में उपाध्याय के पद को ग्रहण करके पुष्पदंत ने अपने शिष्यों की विनती स्वीकार करते हुए "णायकुमारचरिउ" की रचना की। उसमें उन्होंने अपने आश्रय-दाता नन्न का यथास्थान गौरवगान किया है और अपने शिष्यों की इस प्रार्थना (जो रहउ परिणउ वरकहहिं भावें रिणयमणि भावहि । तहो गन्हो फेरउ पाउ तुहु सुसलियकन्वि चडावहि ॥ (णाय. 1.4) को स्वीकार करके "नन्न" के नाम को प्रत्येक संधि की पुष्पिका में "चढ़ाया" है । "णायकुमारचरिउ" के पश्चात् पुष्पदंत ने "जसहरचरिउ" की रचना की। पुष्पदंत की कृतियों से यह निर्विवाद स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने संस्कृत भाषा और साहित्य का, छन्दःशास्त्र और काव्यशास्त्र का अध्ययन किया था । जैनदर्शन के साथ ही वे अन्य दर्शनों से भी सम्यक् परिचित थे। वे भाषाप्रभु, पण्डित तथा प्रतिभा-सम्पन्न कवि थे। जनसाधारण के लिए बोध-गम्य अपभ्रंश भाषा के प्रति उन्हें अपार प्रेम था जिससे संस्कृत में काव्य-रचना करने की क्षमता रखने पर भी उन्होंने भाषा-माध्यम के रूप में अपभ्रश को अपना लिया न कि संस्कृत को। पुष्पदंत के पहले प्राचार्य जिनसेन ने "प्रादिपुराण" की और प्राचार्य गुणभद्र ने "उत्तरपुराण" की रचना की थी। इन दो पुराणों का सम्मिलित रूप “महापुराण" कहाता. है । इस संस्कृत महापुराण में जैन-परम्परा के त्रिषष्ठि-शलाकापुरुषों का चरित्र वर्णित है, फिर भी अपभ्रंश में जैन-परम्परा के सर्वप्रथम महापुराण की रचना करने का श्रेय पुष्पदन्त को ही जाता है। उसी प्रकार, यद्यपि जैन-धर्मावलम्बियों में श्रुतपंचमी व्रत की महत्ता को सूचित करनेवाली नागकुमार सम्बन्धी कथा मौखिक परम्परा में प्रचलित रही हो, तो उसे भी लिपि-* बद्ध काव्यरूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत किया “णायकुमारचरिउ" द्वारा महाकवि पुष्पदंत ने ही। संभव है, "पंचमीचरिय" नामक अपनी रचना में स्वयंभू ने इस कथा का वर्णन किया हो,
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy