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________________ जनविद्या उसकी भावना भावे, वह सुख को प्राप्त हो जाए। महावीर.. भगवान् का शासन और सम्यक्जान, जय को प्राप्त हो जोयं, राजा और प्रजा सुख-आनंद से परिपूर्ण . हो, प्रावश्यकतानुसार वर्षा हो जाए। सो गंदउ जो पढइ पढावइ, सो गंदउ जो लिहइ लिहावइ ॥ '. सो गंदउ जो विवरिवि दउवइ, सो रणंबउ जो भावें भावइ ॥ दउ......................"। उपसंहार । इसके साथ ही पुष्पदंत ने श्रोता नन्न के प्रति भी शुभकामनाएँ व्यक्त करते हुए कहा है कि वे सुखसम्पन्न हों, दीर्घायु हों, उन्हें अति पवित्र निर्मल-दर्शन, ज्ञान, चारित्र का लाभ हो, रोग-शोक के क्षयकारी पंचकल्याणक प्राप्त हों......। अपने लिए भी उन्होंने समाधि, बोधि, और निर्मल केवलज्ञान की उपलब्धि हो जाने की कामना व्यक्त की है।" कहना न होगा कि इस प्रकार की फल-श्रुति का कितना प्रभाव होता है। यह फल-श्रुति जनशासन द्वारा स्वीकृत अभीष्ट चिन्तन की ओर ध्यान आकृष्ट करती है। (3) कथा-कथन-कर्ता अर्थात् वक्ता और श्रोता जैन पौराणिक शैली में लिखे जानेवाले ग्रंथों में कथा-कथन-कर्ता और कथा के श्रोता के विषय में एक परम्परागत विशिष्ट मान्यता है। उस परम्परा का निर्वाह पुष्पदंत ने णायकुमारचरिउ में किया है । जैन मान्यता के अनुसार समस्त कथानों, शास्त्रों, पुराणों, दार्शनिक सिद्धान्तों का उद्गम भगवान् महावीर के मुख से हुआ माना जाता है। उन विषयों का ज्ञान उनसे भगवान् के गणधर गौतम को प्राप्त है और वे ही उन बातों का वर्णन मगधाधिप श्रेणिक को सुनाते हैं। इस परम्परागत मान्यता का समादर करते हुए पुष्पदंत ने कहा-एक उद्यानपाल से राजा श्रेणिक को विदित हुआ कि भगवान् महावीर का समवशरण विपुलाचल पर पाया है, तो राजा नागरिकजनों सहित भगवान् के दर्शन के लिए वहाँ गये । पूजन-वन्दन प्रादि के पश्चात् मगधाधिप ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए भगवान् से अनुरोध किया पत्ता-..................."भण परमेसर मह विमलु । विरिणवारयदुक्कियदुहपसरु सिरिपंचमिउववासफलु ॥ . 1.12 अर्थात्, हे. परमेश्वर, दुष्कर्म-जन्य दुःख के प्रसार का निवारण करनेवाले श्रीपंचमी के उपवास का विमल फल मुझे बताइए। फलस्वरूप, भगवान् तीर्थंकर महावीर के आदेश से गणधर गौतम ने राजा श्रेलिक को नागकुमार की कथा सुनायी । इससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा का सम्मान करते हुए नागकुमार-चरित के आद्य वक्ता और प्राद्य श्रोता होने का श्रेय पुष्पदंत ने क्रमशः गौतम गणधर तथा राजा श्रेणिक को ही प्रदान किया है ।
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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