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________________ 26 जैनविद्या जा सकता है जिसका श्रोता पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहे । श्रोता उसी कथन से प्रभावित होता है जो हितकारी, मनोहारी और कर्णप्रिय हो । अतः इस व्याख्या के आलोक में कहा जा सकता है कि वे "यथा नाम तथा गुण" कहावत को चरितार्थ करती हैं । पुराणों में सूक्तियों को सुभाषित कहा गया है तथा रत्न भी । सुभाषित शब्द की शाब्दिक व्युत्पत्ति की जावे तो सुभाषित और सूक्ति दोनों के अर्थ समान ही ज्ञात होते हैं । अतः सुभाषित और सूक्ति दोनों में अर्थसाम्य होने से सुभाषित को सूक्ति का पर्यायवाची कहा जा सकता है । "रत्न" कहा जाना बहुमूल्यत्व का प्रतीक है। सूक्तियाँ हैं भी रत्न के समान बहुमूल्य, क्योंकि वे अनुभव के बाद कही जाती हैं । पुराणों और चरितकाव्यों में ऐसे रत्न भरे पड़े हैं, किन्तु प्राप्त उन्हें ही होते हैं जो ऐसे काव्य-सागर में गोता लगाने में सिद्धहस्त हैं ।। सुभाषितों को मन्त्र ही नहीं महामंत्र भी कहा गया है। परन्तु वे ऐसे मंत्र हैं जिनका प्रयोग कवि ही कर सकता है । ऐसे मंत्रों से दुर्जन पुरुष भूतादि ग्रहों के समान प्रकोप को प्राप्त होते हैं । मंत्र कहे जाने से यह अर्थ भी ध्वनित होता है कि सुभाषित भी मंत्रों के समान कष्टहारी हैं । इनके प्रयोग से अर्थात् चिन्तन-मनन से कष्टं वैसे ही दूर हो जाते हैं जैसे मंत्रों से सर्पदंशादिजनित कष्ट । संस्कृत साहित्य जैसे सूक्तियों का वृहद् भण्डार है वैसे ही अपभ्रश साहित्य भी सूक्तियों का खजाना है । पुष्पदंत, स्वयंभू के उत्तरवर्ती कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं । आपकी तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-महापुराण, जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउ । इनमें केवल "णायकुमारचरिउ" की सूक्तियों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सूक्तिसाहित्य में उनका कितना योगदान रहा है। णायकुमारचरिउ की सूक्तियां न केवल कर्णप्रिय हैं अपितु उनमें वैसा ही अर्थ-गाम्भीर्य भरा है जैसा कि संस्कृत भाषा के कवि भारवि की रचनाओं में अर्थ-गौरव । वे शाश्वत् सत्य प्रकट करती हैं। उनमें ऐसे तथ्यों का समावेश है जो इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की पोर जीवों को प्रेरित करते हैं । सूक्तियों के अन्तर में कवि का गहन अध्ययन और चिन्तन है । सूक्तियां किंकर्तव्यविमूढ़ावस्था में अन्धे की लाठी हैं । कवि ने वृद्ध उसे नहीं माना है जो जरा से जर्जरित या दन्तविहीन है अथवा जिसके केश श्वेत हो गये हैं। उनकी दृष्टि में तो वृद्ध वे हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुए शास्त्र और कर्मसंबंधी विषयों में प्रवीण हैं । इसी प्रकार उन्होंने अधर्म और तीर्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में, गृहस्थ धर्म कैसे धारण हो ? आदि विषयों के समाधानों में, नवीन दृष्टि से चिन्तन किया है। उदाहरणार्थ - ते बढा जे सुयण सलक्षण सत्थकम्मविषएसु वियक्खण। 3.2.3 वृद्ध वे ही हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुए शास्त्र और कर्मसंबंधी विषयों में - प्रवीण हों। पर काम किया
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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