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________________ जैन विद्या उत्प्रेक्षा अलंकार चलना देवी से मंडित राजा श्रेणिक ऐसे सुशोभित होते हैं मानो वल्लरी सुरतरु का आलिंगन कर रही हो - चेल्लिरिणदेवि मंडिउ गं श्रवरु डिउ वल्लरीइ सुरतरुवरु । महापुराण, 1.17.13 चन्द्रोदय के वर्णन के समय कवि कुछ मनोरम कल्पनाएं करता है जिसमें उत्प्रेक्षालंकार की छटा दर्शनीय है - चन्द्रमा मानो अन्धकार समूह को खण्डित करनेवाला चन्द्र हो, मानो देवों के कृष्णमुख का मण्डन हो, मानो कीर्ति देवी ने अपना मुंह दिखाया हो, मानो लोगों को सुखदायी अमृतकुण्ड प्रकट हुआ हो, मानो परमेश्वर का यश पुंज हो, मानो इन्द्र का श्वेत छत्र हो, रात्रिरूपी वधू के मस्तिष्क का तिलक हो अथवा स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों के गमनागमन को रोकने का साधन हो— तमोहविहंडरगउ णं चक्कु सुरकरिसियमुहमंडणउ । णं कित्तिए दाविउ यियमुहु णं श्रमयभवणु जगदिसु । णं जसु पुंजिउ परमेसरहो णं पंडुरछत्तु सुरेसर हो । णं रयरणीवहुहि खिलाडतिलउ उग्गउ ससि गं सइरिगिविलउ कवि के काव्यों में सूक्तियों का प्रयोग मणिकांचन सदृश दर्शनीय है जो जं करइ सो ज्जि तं पावइ । म.पु. 7.7.10 - जो जैसा करता है वह वैसा प्राप्त करता है । सुहाइ उलूयहो उइउ भाणु । म.पु. 1.8.5 - उलूक को सूर्योदय अच्छा नहीं लगता । मारग भंग वर मरणु रंग जीविउ । म.पु. 16.21.8 - मान भंग हुए जीवन से मरना श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है। भरियड पुणु रित्त होई । म. पु. 39.8.5 - जो भरता है वह खाली भी होता है । 81 ati gas fuses लिहियउ । म.पु. 24.8.8.8 - ललाट पर लिखा हुआ कौन मिटा सकता है । जस. 2.2.7-10
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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