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जैनविद्या
- युद्धोन्मुख योद्धा की वधू उसे दधि-तिलक नहीं लगाती वह उसे बैरी के रुधिर से तिलक करना चाहती है ।
बहु कासु विवेद र दहियतिलड, हिलसइ वइरिरुहिरेण तिलउ ।
- कोई वधू अपने पति को अक्षत ( टीके पर ) नहीं लगाती, वह तो अक्षत के स्थान पर शत्रु के हाथियों के मोती लगाना चाहती है ।
बहुवि कासु घिवह रण प्रक्खयाउ, खलवइ करिमोतियश्रक्खयाउ ।
भारतीय वीरांगना का यह रूप उत्तरकालीन भारतीय राजपूत नारी में विशेष प्रस्फुटित हुआ है ।
गायकुमारचरित में पुष्पदंत ने नायक को वीर रस का श्राश्रय दिखाया है। यहां वीर रस श्रृंगार से परिपुष्ट है क्योंकि नागकुमार के शौर्य को देखकर स्त्रियां मोहित हो जाती हैं । सैन्य-संचलन में वीर रस की व्यंजना देखिये --
धरिरिग वि संचलइ, मंदरु वि टलटलइ । जलरिगहि वि भलभलइ, विसहरु वि चलचलइ ॥ *
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शृङ्गार रस
महापुराण में श्रृंगार रस की व्यंजना स्त्रियों के सौन्दर्य और नख - शिख वर्णन में मिलती है । शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का निरूपण कवि ने किया है। सीता के वर्णन में कवि कहता है-
far दित्तिय जित्त धत्तियाई इयरह कह विवई मोतियाई ।
मुह ससि जोहर दिस धवल धाइ इयरह कह ससि भिज्जंतुजाइ ॥
- सीता के दांतों की पंक्ति से मोती जीते गये और तिरस्कृत हो गये अन्यथा वे मुखचन्द्रचन्द्रिका से दिशाएँ धवलित हो गईं अन्यथा शशि
क्यों बींधे जाते ? क्यों क्षीण होता ?
नख-शिख के परम्परागत वर्णन में भी कवि ने अपनी अद्भुत कला से अनुपम चमत्कार उत्पन्न कर दिया है । सुलोचना के सौन्दर्य संदर्भ में-
पाहुं काई कमलु समु भरिणयजं तं खणभंगुरु कहिं ण मुणियउं । frees वासरि कहिं मि ण दिट्ठई, कण्णारणहपहाहि गं गट्टई ॥5
- उसके पैरों को कमल के सदृश कैसे कहा जाय ? वे तो क्षणभंगुर है। ऐसा कवियों ने सोचा । दिन में नक्षत्र कहीं नहीं दिखाई देते मानो वे सुलोचना के नखों की प्रभा से नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार कवि ने संयोग श्रृंगार का मर्यादित वर्णन किया है ।
पुष्पदंत के वियोग वर्णन में हा हा कार नहीं, अपितु हृदय को स्पर्श करनेवाली करुण वेदना की पुकार है । ऐसे स्थलों में वियोगी का दुःख उसके हृदय तक ही सीमित