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________________ 54 जनविद्या (4) अमृतमति-अपने पूर्व भव में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य की पुत्री गन्धर्वश्री थी जो अगले भव में राजा विमलवाहन की पुत्री अमृतमति' हुई। मांसभक्षिणी, मुनिनिदिका तथा जार में आसक्त हो पतिप्राणहन्त्री, पापिनी होने से पांचवें नरक में गई। (5) राजा मारिदत्त- अपने पूर्वभव में गन्धर्वपुर के राजा वैधव्य के पुत्र गन्धर्वसेन थे। गन्धर्वसेन ही धर्मानुकूल आचरण करते हुए मरण को प्राप्त हो राजा मारिदत्त के भव में आया । राजा मारिदत्त पहले हिंसक था बाद में सद्धर्म से प्रभावित हो मुनि बन गया तथा देह त्याग कर स्वर्ग के अग्रभाग में देव हुआ । (6) कौलाचार्य भैरवानन्द-अपने पूर्व भव में राजा मारिदत्त की माता के रूप में चित्रसेना था। वही चित्रसेना मरकर भैरवानंद हुई।47 भैरवानंद पहले हिंसाप्रिय था बाद में मुनि के उपदेश से करुणापूरित हो मुनि दीक्षा लेनी चाही पर मात्र अनशन व्रत के पालन से ही तीसरे स्वर्ग में देव हुआ। इनके अलावा जसहरचरिउ में यशपूर्व राजा यशोध एवं यशोमति, गोवर्धन सेठ, वणिग्वर कल्याणमित्र, रानी कुसुमावलि, कुलदेवी चण्डमारी आदि के भवों का उल्लेख है जो संसार में आत्मा की स्थिति अर्थात् प्रात्मा किस प्रकार मोह के वशीभूत होकर अंधविश्वासों और विपरीत-अभिनिवेशों का शिकार होता हुआ अनर्थों की परम्परा को जन्म देनेवाला हिंसादि कर्मों में रत हो उन्हें ही धर्म मान लेता है तथापि अज्ञान अन्धेरा मिट जाने पर ज्ञान के प्रकाश में वही आत्मा आत्मोत्थान के रास्ते पर यात्रा प्रारंभ कर अनाकुल आनंद परिभोग से इन्द्रियाधीन भोगमयी समस्त पराश्रय वृत्तियों का बहिष्कार करता हुआ योगी बन परमात्मपद का प्रत्याशी बन जाता है, को बताता है । जसहरचरिउ का यह मन्तव्य, "इन्द्रिय सुख एक महान् दुःख है और जीव के लिए दुष्कर्मों का घर है जो पग-पग पर महान् बाधायें उत्पन्न करता है"49 भी प्रात्मोत्थान की यात्रा के लिए निःसन्देह प्रबल सम्बल है और है अध्यात्म-विद्या-साधकों के लिए विकल्पात्मक भूमिका में कभी न भूलने योग्य मंत्र । जैनदार्शनिकों की यह दृढ़ धारणा है कि वर्तमान में पतित से पतित प्राणी भी अपनी भूल सुधारकर अहिंसादि वृत्तियों के सहारे स्वावलम्बन के रास्ते पर चलता है तो अवश्य ही महान्, मात्र महान् ही नहीं महान्तम बन जाता है । महाकवि पुष्पदंत ने अपने इस काव्य में पात्रों से. ऐसी ही भूमिका का निर्वाह करा सचमुच ही अध्यात्म प्रधान जैनधारा को महत्त्व दिया है, शैली भले ही परोक्ष हो। सूक्ष्म और विवेकप्रवण मूल्यांकन दृष्टि यदि निराकुल सुखोत्कर्ष के लिए प्रयासशील होकर जसहरचरिउ का आलोढन, अध्ययन, मनन और चिन्तन करे तो अप्रतिहततया आत्मा सम्बन्धी विचार उसमें हंसमुख ही नहीं परिपुष्ट भी नजर आयेंगे ।
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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